प्रश्न 20: बाइबल में यह लिखा गया है: "यीशु मसीह कल और आज और युगानुयुग एक–सा है" (इब्रा 13:8)। तो परमेश्वर का नाम कभी नहीं बदलता है! लेकिन तुम कहते हो कि जब परमेश्वर अंतिम दिनों में फिर से आएगा तो वह एक नया नाम लेगा और उसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहा जाएगा। तुम इसे कैसे समझा सकते हो?
उत्तर:
जब से हम प्रभु यीशु में विश्वास करने लगे, हमने उसके नाम से प्रार्थना करना, रोग को ठीक करना और राक्षसों को बाहर निकालना शुरू किया। इसके अलावा, उसके नाम के कारण, हमने शांति और आशीर्वाद को प्राप्त किया, और उसके नाम के कारण ही हमने अनगिनत अनुग्रह प्राप्त किये। यही कारण है कि परमेश्वर यीशु का नाम हमारे दिलों पर गहराई से अंकित है और हम भी उसके नाम को संजोये रखते हैं, ठीक उसी तरह जैसे कि इस्राएल के लोग यहोवा के नाम को संजोये रखते थे। तदनुसार, जब कुछ भाई और बहन सुनते हैं कि परमेश्वर पहले से ही सर्वशक्तिमान परमेश्वर के रूप में देह में वापस आ चुका है, तो वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते, और कहते हैं: "यह प्रेरितों के काम 4:12 में कहा गया है: किसी भी दूसरे में उद्धार निहित नहीं है। क्योंकि इस आकाश के नीचे लोगों को कोई दूसरा ऐसा नाम नहीं दिया गया है जिसके द्वारा हमारा उद्धार हो पाये। इब्रानियों 13:8 में है: "यीशु मसीह कल भी वैसा ही था, आज भी वैसा ही है और युग-युगान्तर तक वैसा ही रहेगा।" इसलिए, जब प्रभु लौटता है तो उसका नाम अभी भी यीशु होना चाहिए। उसे सर्वशक्तिमान परमेश्वर कैसे कहा जा सकता है?" भाइयों और बहनों, तुम इस प्रश्न के बारे में क्या सोचते हो? जब परमेश्वर वापस लौटता है, तो क्या उसे केवल यीशु ही कहा जा सकता है?
आइए, पहले हम पवित्र शास्त्र के दो अंश देखें। निर्गमन 3:15 में कहा गया है: "मेरा नाम सदा यहोवा रहेगा। इसी रूप में लोग आगे पीढ़ी दर पीढ़ी मुझे जानेंगे।" प्रेरितों के काम 4:12 में है: "किसी भी दूसरे में उद्धार निहित नहीं है। क्योंकि इस आकाश के नीचे लोगों को कोई दूसरा ऐसा नाम नहीं दिया गया है जिसके द्वारा हमारा उद्धार हो पाये।" भाइयों और बहनों, हम पवित्र शास्त्र के इन दो हिस्सों से समझते हैं कि व्यवस्था के युग में परमेश्वर का नाम यहोवा था और अनुग्रह के युग में परमेश्वर का नाम यीशु था। परमेश्वर ने कहा कि यहोवा का नाम हमेशा के लिए है, तो उसका नाम अनुग्रह के युग में यीशु कैसे बन गया? भाइयों और बहनों, यह मामला क्यों है? अगर यहोवा का नाम यीशु में बदला जा सकता है, तो यीशु का नाम फिर क्यों नहीं बदला जा सकता है? अगर हम कहते हैं कि परमेश्वर का नाम बदला नहीं जा सकता है और जब भी वह लौटता है तो उसे यीशु ही कहा जाना चाहिए, तो फिर प्रकाशित वाक्य 3:12 में क्यों लिखा गया है "जो विजयी होगा उसे मैं अपने परमेश्वर के मन्दिर का स्तम्भ बनाऊँगा। फिर कभी वह इस मन्दिर से बाहर नहीं जाएगा। तथा मैं अपने परमेश्वर का और अपने परमेश्वर की नगरी का नए यरूशलेम का नाम उस पर लिखूँगा, जो मेरे परमेश्वर की ओर से स्वर्ग से नीचे उतरने वाली है। उस पर मैं अपना नया नाम भी लिखूँगा।" तुम यहाँ "नया नाम" को कैसे समझाओगे? भाइयों और बहनों, प्रकाशित वाक्य स्पष्ट रूप से भविष्यवाणी करता है कि आखिरी दिनों में परमेश्वर का नया नाम होगा। तो क्या यह नया नाम अभी भी यीशु हो सकता है? हम सभी जानते हैं कि परमेश्वर यीशु का नाम दो हजार वर्षों से उसके विश्वासियों द्वारा पुकारा गया है। अगर नया नाम अभी भी यीशु है, जब प्रकाशित वाक्य की भविष्यवाणी इस काल में पूर्ण हो रही है, तो इसे कैसे एक नया नाम कहा जा सकता है? क्या यह एक पुराना नाम नहीं होगा? तो क्या लौटा हुआ परमेश्वर अभी भी यीशु कहा जा सकता है? इसलिए, हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते हैं कि परमेश्वर का नाम हमेशा के लिए यीशु ही रहेगा, क्योंकि एक नये नाम की प्रकाशित वाक्य में भविष्यवाणी की गयी थी और इसे पूरा होना चाहिए।
फिर परमेश्वर के नाम को क्यों बदलना पड़ता है? यह एक ऐसा सवाल है जिसकी बाइबल के कई टीकाकार, प्रचारक और धार्मिक शास्त्री स्पष्ट रूप से व्याख्या नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन इस मामले के रहस्यों को सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त की गई सच्चाइयों से उजागर किया गया है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है: "कुछ कहते हैं कि परमेश्वर का नाम बदलता नहीं है, तो फिर क्यों यहोवा का नाम यीशु हो गया? मसीह के आने की भविष्यवाणी की गई थी, तो फिर क्यों यीशु नाम का एक व्यक्ति आया? परमेश्वर का नाम क्यों बदला गया? क्या इस तरह का कार्य काफी समय पहले नहीं किया गया था? क्या परमेश्वर आज के दिन कोई नया कार्य नहीं कर सकता है? कल का कार्य बदला जा सकता है, और यीशु का कार्य यहोवा के कार्य के बाद नहीं आ सकता है। क्या यीशु के कार्य के बाद कोई अन्य कार्य नहीं हो सकता है? यदि यहोवा का नाम बदल कर यीशु हो सकता है, तो क्या यीशु का नाम भी नहीं बदला जा सकता है? यह असामान्य नहीं है, और लोग ऐसा[क] केवल अपनी नासमझी के कारण सोचते हैं। परमेश्वर हमेशा परमेश्वर ही रहेगा। उसके कार्य और नाम में परिवर्तन की परवाह किए बिना, उसका स्वभाव और विवेक हमेशा अपरिवर्तित रहता है, वह कभी भी नहीं बदलेगा। यदि तुम मानते हो कि परमेश्वर केवल यीशु के नाम से ही पुकारा जा सकता है, तो तुम्हें बहुत कम ज्ञान है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "वह मनुष्य किस प्रकार परमेश्वर के प्रकटनों को प्राप्त कर सकता है जिसने उसे अपनी ही धारणाओं में परिभाषित किया है?" से)।
"प्रत्येक युग में, परमेश्वर नया कार्य करता है और उसे एक नए नाम से बुलाया जाता है; वह भिन्न-भिन्न युगों में एक ही कार्य कैसे कर सकता है? वह पुराने सेकैसे चिपका रह सकता है? यीशु का नाम छुटकारे के कार्यहेतु लिया गया था, तो क्या जब वह अंत के दिनों में लौटेगा तो तब भी उसे उसी नाम से बुलाया जाएगा?क्या वह अभी भी छुटकारे का कार्य करेगा? ऐसा क्यों है कि यहोवा और यीशु एक ही हैं, फिर भी उन्हें भिन्न-भिन्न युगों में भिन्न-भिन्न नामों से बुलाया जाता है? क्या यह इसलिए नहीं कि उनके कार्य के युग भिन्न-भिन्न हैं? क्या केवल एक ही नाम परमेश्वर का उसकी संपूर्णता में प्रतिनिधित्व कर सकता है? इस तरह, भिन्न युग में परमेश्वर को भिन्न नाम के द्वारा अवश्य बुलाया जाना चाहिए, उसे युग को परिवर्तित करने और युग का प्रतिनिधित्व करने के लिए नाम का उपयोग अवश्य करना चाहिए, क्योंकि कोई भी एक नाम पूरी तरह से परमेश्वर स्वयं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। और प्रत्येक नाम केवल एक निश्चित युग के दौरान परमेश्वर के स्वभाव का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है और प्रत्येक नाम केवल उसके कार्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए आवश्यक है। इसलिए, समस्त युग का प्रतिनिधित्व करने के लिए परमेश्वर अपने स्वभाव के लिए हितकारी किसी भी नाम को चुन सकता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से)।
"क्या यीशु का नाम, "परमेश्वर हमारे साथ," परमेश्वर के स्वभाव को उसकी समग्रता से व्यक्त कर सकता है? क्या यह पूरी तरह से परमेश्वर को स्पष्ट कर सकता है? यदि मनुष्य कहता है कि परमेश्वर को केवल यीशु कहा जा सकता है, और उसका कोई अन्य नाम नहीं हो सकता है क्योंकि परमेश्वर अपना स्वभाव नहीं बदल सकता है, तो ऐसे वचन ईशनिन्दा हैं! क्या तुम मानते हो कि यीशु नाम, परमेश्वर हमारे साथ, परमेश्वर का समग्रता से प्रतिनिधित्व कर सकता है? परमेश्वर को कई नामों से बुलाया जा सकता है, किन्तु इन कई नामों के बीच, एक भी ऐसा नहीं है जो परमेश्वर के स्वरूप को सारगर्भित रूप से व्यक्त कर सकता हो, एक भी ऐसा नहीं जो परमेश्वर का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व कर सकता हो। और इसलिए परमेश्वर के कई नाम हैं, किन्तु ये बहुत से नाम परमेश्वर के स्वभाव को पूरी तरह से स्पष्ट नहीं कर सकते हैं, क्योंकि परमेश्वर का स्वभाव अत्यधिक समृद्ध है, और मनुष्य के ज्ञान से परे विस्तारित है। मनुष्य की भाषा परमेश्वर की समस्त विशेषताओं को पूरी तरह से सारगर्भित रूप से व्यक्त करने में असमर्थ है। मनुष्य के पास परमेश्वर के स्वभाव के बारे में जो सब वह जानता है उसे सारगर्भित रूप से व्यक्त करने के लिए सीमित शब्दावली है: महान, आदरणीय, चमत्कारिक, अथाह, सर्वोच्च, पवित्र, धर्मी, बुद्धिमान इत्यादि। बहुत से शब्द! इतनी सीमित शब्दावली उस बात का वर्णन करने में असमर्थ है जो तुच्छ मनुष्य ने परमेश्वर के स्वभाव में देखी है। बाद में, कई लोगों ने अपने हृदय के उत्साह का बेहतर ढंग से वर्णन करने के लिए और शब्द जोड़े: परमेश्वर बहुत महान है! परमेश्वर अत्यंत पवित्र है! परमेश्वर अत्यंत प्यारा है! आज, ऐसी उक्तियाँ अपने चरम पर पहुँच गई हैं, फिर भी मनुष्य अभी भी परमेश्वर को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने में असमर्थ है। और इसलिए, मनुष्य के लिए, परमेश्वर के कई नाम हैं, तब भी उसका कोई एक नाम नहीं है,और ऐसा इसलिए है क्योंकि परमेश्वर का अस्तित्व अत्यधिक भरपूर है, और मनुष्य की भाषा अत्यधिक अपर्याप्त है। एक विशेष शब्द या नाम परमेश्वर का उसकी समग्रता में प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ है। तो क्या परमेश्वर एक निश्चित नाम धारण कर सकताहै? परमेश्वर इतना महान और पवित्र है, तो तुम उसे प्रत्येक नए युग में अपना नाम बदलने की अनुमति क्यों नहीं देते हो? वैसे तो, प्रत्येक युग में जिसमें परमेश्वर स्वयं अपना कार्य करता है, वह एक नाम का उपयोग करता है, जो उसके द्वारा किए गए कार्य की समस्त विशेषताओं को सारगर्भित रूप से व्यक्त करने के लिए युग के अनुकूल होता है। वह उस युग क अपने स्वभाव का प्रतिनिधित्व करने के लिए इस विशेष नाम, एक नाम जो युग के महत्व से सम्पन्न है, का उपयोग करता है। परमेश्वर अपने स्वयं के स्वभाव को व्यक्त करने के लिए मनुष्य की भाषा का उपयोग करता है। फिर भी, बहुत से लोग जिन्हें आध्यात्मिक अनुभव हो चुके हैं और जिन्होंने परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से देखा है, अभी भी महसूस करते हैं कि एक विशेष नाम परमेश्वर का उसकी समग्रता से प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ है—और यह कितनी दयनीय बात है! इसलिए मनुष्य परमेश्वर को किसी भी नाम से नहीं बुलाता है, और उसे केवल "परमेश्वर" कहता है। मनुष्य का हृदय प्रेम से भरा हुआ प्रतीत होता है, फिर भी यह विरोधाभासों से आक्रांत हुआ भी प्रतीत होता है, क्योंकि मनुष्य नहीं जानता है कि परमेश्वर की व्याख्या कैसे की जाए। परमेश्वर जो है वह अत्यधिक भरपूर है, इसका वर्णन करने का कोई तरीका ही नहीं है। कोई भी अकेला ऐसा नाम नहीं है जो परमेश्वर के स्वभाव को संक्षेप में प्रस्तुत कर सकता हो, और कोई भी अकेला ऐसा नाम नहीं है जो परमेश्वर के स्वरूप का वर्णन कर सकता हो। …तुम्हें पता होना चाहिए कि मूल रूप से परमेश्वर का का कोई नाम नहीं था। उसने केवल एक, या दो या कई नाम धारण किए क्योंकि उसके पास करने के लिए काम था और उसे मानव जाति का प्रबंधन करना था। चाहे उसे किसी भी नाम से बुलाया जाए, क्या यह उसी के द्वारा स्वतंत्र रूप से चुना नहीं जाता है? क्या इसे तय करने के लिए उसे तुम्हारी, एक प्राणी की, आवश्यकता है? जिस नाम से परमेश्वर को बुलाया जाता है वह उसके अनुसार है जिसे मनुष्य समझ सकता है और मनुष्य की भाषा के अनुसार है, किन्तु इस नाम को मनुष्य द्वारा समस्त विशेषताओं के साथ सारगर्भित रूप से व्यक्त नहीं किया जा सकता है। तुम केवल इतना ही कह सकते हो कि स्वर्ग में एक परमेश्वर है, कि वह परमेश्वर कहलाता है, कि वह महान सामर्थ्य वाला, अत्यधिक बुद्धिमान, अत्यधिक उच्च, अत्यधिक चमत्कारिक, अत्यधिक रहस्यमय, अत्यधिक सर्वशक्तिमान परमेश्वर स्वयं है, और तुम इससे अधिक नहीं कह सकते हो; तुम्हें बस इतना ही पता है। इस तरह, क्या यीशु का अकेला नाम परमेश्वर स्वयं का प्रतिनिधित्व कर सकता है? जब अंत के दिन आते हैं, हालाँकि यह अभी भी परमेश्वर ही है जो अपना कार्य करता है, तो भी उसके नाम को बदलना ही होगा, क्योंकि यह एक अलग युग है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से)। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन वास्तव में स्फटवत् स्वच्छ हैं, यह समझने में हमारी सहायता करते हैं कि मूलतः परमेश्वर का कोई नाम नहीं था। परमेश्वर ने केवल नाम धारण किये क्योंकि उसे मानवजाति को बचाने का कार्य करना था, लेकिन एक नाम केवल एक युग का, कार्य के एक चरण का, परमेश्वर के स्वभाव के एक हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है। कोई ऐसा एक नाम नहीं है जो उन सभी का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व कर सके जो परमेश्वर के पास है और जो वह है। इसलिए, हर बार जब एक युग या उसका कार्य बदलता है, परमेश्वर अपना नाम बदल लेगा। यह परमेश्वर के कार्य का एक सिद्धांत है। हालांकि, चाहे युग कैसे भी बदले और परमेश्वर का नाम जैसे भी बदले, परमेश्वर का सार कभी नहीं बदलेगा।
आओ, अब हम यहोवा के नाम की उत्पत्ति की जांच करें ताकि सभी लोग परमेश्वर के नाम और उसके कार्य तथा सम्बंधित युग के बीच के रिश्ते को बेहतर ढंग से समझ सकें। जैसा कि निर्गमन 3:15 में लिखा है: परमेश्वर ने मूसा से यह भी कहा, 'लोगों से तुम जो कहोगे वह यह है कि: यहोवा तुम्हारे पूर्वजों का परमेश्वर, इब्राहीम का परमेश्वर, इसहाक का परमेश्वर और याकूब का परमेश्वर है। मेरा नाम सदा यहोवा रहेगा। इसी रूप में लोग आगे पीढ़ी दर पीढ़ी मुझे जानेंगे।" भाइयों और बहनों, मुझे सबको एक सवाल पूछने दो: यहोवा का नाम कब अस्तित्व में आया था? क्या यह सृष्टि के समय मौजूद था या केवल जब मूसा इस्राएलियों को मिस्र से बाहर निकाल लाया, तब? हम बाइबल के अभिलेखों से स्पष्ट रूप से जानते हैं कि परमेश्वर का मूलतः कोई नाम नहीं था, और केवल जब मूसा इस्राएलियों को मिस्र से बाहर ले आया, तो परमेश्वर ने यहोवा का नाम ले लिया। भाइयों और बहनों, जब मूसा ने इस्राएलियों को मिस्र से निकाल लिया, तो परमेश्वर ने यहोवा का नाम क्यों लिया? क्योंकि उस समय से, परमेश्वर आधिकारिक तौर पर यहोवा के नाम के तहत व्यवस्था के युग में अपना काम शुरू कर रहा था और पृथ्वी पर रहने में मनुष्य की अगुआई कर रहा था। यहोवा नाम का अर्थ है परमेश्वर, जो लोगों पर दया कर सकता है, लोगों को शाप दे सकता है, जो लोगों के जीवन का नेतृत्व करने के लिए व्यवस्था के नियमों को भी प्रख्यापित कर सकता है, और एक ऐसा परमेश्वर जो बहुत शक्तिशाली और बुद्धिमान हो। परमेश्वर ने अपने यहोवा नाम को अपने नियमों के प्रख्यापन के कार्य और जो स्वभाव उसने व्यक्त किया उसी के आधार पर, ग्रहण किया। तब से, व्यवस्था के युग के सभी लोग एक पवित्र नाम के रूप में यहोवा के नाम का सम्मान करते थे। वे यहोवा-परमेश्वर की उपासना करते थे, यहोवा-परमेश्वर से प्रार्थना करते थे, यहोवा-परमेश्वर की स्तुति करते थे, और वेदी पर यहोवा-परमेश्वर के लिए बलि चढ़ाते थे। इस्राएलियों ने भी यहोवा परमेश्वर के कार्य का सुनिश्चित रूप से अनुभव किया, उसके क्रोध को देखा, और परमेश्वर द्वारा व्यवस्था के युग के अंत तक व्यक्त किये गए मनुष्य-पर-दया और मनुष्य-को-शाप स्वभाव का स्वाद लिया। इसलिए, यहोवा का नाम व्यवस्था के युग के लिए विशिष्ट है। जब व्यवस्था का युग समाप्त हो गया, तब यहोवा का नाम भी उसके साथ समाप्त हो गया।
यहोवा के नाम की उत्पत्ति पर चर्चा के माध्यम से हम समझ गए हैं कि परमेश्वर ने केवल मानव जाति को बचाने का कार्य करने के लिए एक नाम धारण किया। हर नाम जिसे परमेश्वर हर युग में लेता है वह बहुत ही सार्थक होता है और वह नाम उस युग में वह जो कार्य करता है और उस युग में वह जो स्वभाव व्यक्त करता है, उसका प्रतिनिधित्व करता है। परमेश्वर के नाम, उसके कार्य और उस युग के बीच के संबंधों को आगे समझने में सहायता करने के लिए, अब हम यीशु नाम की उत्पत्ति पर गौर करेंगे। परमेश्वर ने जब इस्राएल के जीवन को दो हजार वर्षों तक यहोवा के नाम पर निर्देशित कर लिया, तो उसके बाद परमेश्वर ने अपनी प्रबंधन योजना और मानव जाति की ज़रूरतों के आधार पर कार्य का एक नया चरण शुरू किया और यीशु के नाम के तहत अनुग्रह का युग शुरू किया। परमेश्वर ने व्यवस्था के युग का अंत क्यों किया? क्योंकि व्यवस्था का युग अगर जारी रहता, तो परमेश्वर की छह-हजार वर्षीय प्रबंधन योजना केवल व्यवस्था के युग में ही होती, और मानव जाति के पाप बढ़कर और भी अधिक विपुल, और भी अधिक गंभीर हो गए होते। अंत में, मानव जाति कानूनों का उल्लंघन करने के लिए दंड के तहत नष्ट हो गई होती और परमेश्वर द्वारा मानव जाति की रचना अर्थहीन हो जाती। इसलिए, मानव जाति को बचाने के लिए, परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से देह बन गया और यीशु के नाम पर अनुग्रह के युग को खोलने, छुटकारे का कार्य करने, मानव जाति के लिए प्रचुर और भरपूर अनुग्रह लाने, दया और प्रेम का स्वभाव व्यक्त करने और मानव जाति को पाप से छुड़ाने के लिए मनुष्यों के बीच आ गया। यीशु नाम का अर्थ है: प्रेम से भरा हुआ, दया से भरा हुआ, और एक पाप-बलि जो मानवजाति को छुड़ा सकती है। यीशु नाम अनुग्रह के युग के लिए विशिष्ट है। यह अनुग्रह के युग में परमेश्वर के कार्य को और साथ ही परमेश्वर द्वारा अनुग्रह के युग में व्यक्त किए गए स्वभाव को दर्शाता है। तब से लेकर, परमेश्वर का काम मुख्यतः यीशु के नाम से शुरू हुआ। साथ ही, मुख्य रूप से यहोवा के नाम के तहत उसका कार्य समाप्त हुआ, अर्थात् व्यवस्था के युग का अंत हुआ। यीशु का नाम अनुग्रह के युग के लिए विशिष्ट है। जब अनुग्रह का युग समाप्त हुआ, तो यीशु का नाम भी उसके साथ समाप्त हो गया। हम परमेश्वर के कार्य के इन दो चरणों से देख सकते हैं कि हर युग में परमेश्वर के नाम का एक प्रतिनिधिक अर्थ होता है। परमेश्वर का नाम उसके कार्य का और उस स्वभाव का जो वह उस युग के दौरान अभिव्यक्त करता है, प्रतिनिधित्व करता है और वह एक नए युग को खोलता है और अपने नाम से युग को बदलता है। इसका मतलब यह है कि हर बार जब युग बदलता है और जब परमेश्वर का कार्य बदल जाता है, तो वह अपना नाम बदल देगा। फिर भी, युग चाहे कैसे भी बदले, परमेश्वर का नाम चाहे कैसे भी बदले, परमेश्वर का सार कभी नहीं बदलेगा। दूसरे शब्दों में, चाहे परमेश्वर का नाम यहोवा हो या यीशु, परमेश्वर का सार अपरिवर्तित बना रहता है। सच्चाई के इस पहलू को बेहतर ढंग से समझने में सभी की सहायता करने के लिए, मुझे एक ऐसा उदाहरण देने की अनुमति दो, जो शायद बहुत उपयुक्त न हो। कल्पना करो कि एक मिस्टर वांग है जो मूल रूप से एक विश्वविद्यालय का प्रोफेसर था। उसके सभी छात्र उसे प्रोफेसर वांग कहा करते थे। बाद में, उसे शिक्षा विभाग के निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया, और लोगों ने उसे निदेशक वांग कहकर बुलाना शुरू कर दिया। अगर एक दिन उसे शिक्षा मंत्री नियुक्त किया जाता है, तो लोग उसे मंत्री वांग कहेंगे। बहरहाल, चाहे मिस्टर वांग की नौकरी जैसे भी बदले और लोग चाहे उसे किसी भी नाम से पुकारें, मिस्टर वांग एक व्यक्ति के रूप में नहीं बदलेगा। इसी तरह, चाहे परमेश्वर का नाम कैसे भी बदल जाए और चाहे परमेश्वर का कार्य कैसे भी बदले, परमेश्वर का सार कभी नहीं बदलेगा और वह स्वयं परमेश्वर ही रहेगा। लेकिन अफसोस की बात यह है कि उस समय इस्राएलियों को पता नहीं था कि मानव जाति को बचाने के अपने कार्य के कारण ही परमेश्वर का नाम मौजूद था, और वह नाम उस युग और कार्य के बदलने के साथ ही बदल जाएगा। उनके दिमागों में, केवल यहोवा परमेश्वर ही उनका परमेश्वर और उनका उद्धारकर्ता था, क्योंकि यहोवा परमेश्वर ने एक बार उनके पूर्वजों का मिस्र से बाहर जाने में और लाल सागर को पार करने में नेतृत्व किया, बीहड़ जंगल में उन्हें मन्ना दिया, उन्हें एक चट्टान से जीवंत जल दिया, और अंत में दूध और शहद के देश में रहने के लिए वह उन्हें कनान में ले आया। ...उन्होंने न केवल यहोवा परमेश्वर की महान शक्ति और बुद्धिमानी को देखा, वे यहोवा परमेश्वर के आशीर्वाद और देखभाल का आनंद भी उठाते थे, और इसके अलावा उन्हें परमेश्वर के क्रोध और कठोर स्वभाव का स्वाद मिला। इसीलिए वे यहोवा परमेश्वर के प्रति प्रेम और सम्मान से परिपूर्ण थे। तदनुसार, पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन्होंने इन वचनों का पालन किया: "केवल यहोवा ही परमेश्वर है; यहोवा के अलावा कोई दूसरा उद्धारकर्ता नहीं है।" हालांकि, जब देहधारी परमेश्वर यीशु उन्हें बचाने के लिए आया, तो फरीसियों ने प्रभु यीशु को नकारा और मार डाला क्योंकि वे यह नहीं जानते थे कि प्रभु यीशु लंबे समय से उनके द्वारा प्रतीक्षित मसीहा—उनको छुटकारा देने वाला था। भाइयों और बहनों, सहभागिता के इस बिंदु पर, मैं हर किसी से एक सवाल पूछना चाहता हूँ: उस समय के फरीसियों ने प्रभु यीशु को क्यों नकार दिया? ऐसा वास्तव में इसलिए था क्योंकि उन्होंने यह नहीं पहचाना कि प्रभु यीशु का सार स्वयं परमेश्वर था, और क्योंकि उन्होंने परमेश्वर के नये कार्य और परमेश्वर के नाम और उसके कार्य के बीच के रिश्ते को भी नहीं पहचाना था। इसके अलावा, उन्हें परमेश्वर द्वारा नाम बदलने का आशय भी ज्ञात नहीं था। इसलिए, उन्होंने प्रभु यीशु को अस्वीकार कर दिया, प्रभु यीशु की निंदा की, और उस दयालु प्रभु यीशु को क्रूस पर कीलों से जड़कर मार भी दिया, और एक विकराल पाप कर डाला। यहूदियों ने और उनके वंशजों ने इसके लिए भारी कीमत चुकाई है—अधीनता के दर्द के रूप में। पिछले दो हजार वर्षों से, वे पूरी दुनिया में जगह-जगह भटकते रहे हैं, और अब भी उनमें से कई लोग ग़ैर मुल्कों में खानाबदोश हैं। भाइयों और बहनों, क्या उनकी विफलता हमारे गहन चिंतन के योग्य नहीं हैं? क्या उनकी विफलता को एक गंभीर चेतावनी के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए? क्या हम अपनी गलतियों को दोहराएँगे और अब भी यही सोचते रहेंगे कि जब परमेश्वर लौटता है, तो उसे अभी भी यीशु कहा जाना चाहिए?
अब, परमेश्वर ने अनुग्रह के युग में किये गए अपने कार्य की नींव पर नवीन और बृहत्तर कार्य किया है, और यह राज्य के युग में अपने वचनों के द्वारा न्याय और ताड़ना का कार्य है। अपने वचन के माध्यम से, परमेश्वर लोगों को ताड़ना देता है और उनका न्याय करता है और अपने धर्मी, भव्य और क्रोधी स्वभाव को प्रकट करता है, ताकि इस भ्रष्ट पुराने युग को खत्म कर, मनुष्य की मूल पवित्रता को बहाल कर सके और सभी चीजों को फिर से पुनर्जीवित कर सके। परमेश्वर को पूरे ब्रह्मांड में महिमा दी जाएगी, वह अपनी समग्र शक्ति का उपयोग करके अपनी सम्पूर्ण छह-हज़ार वर्षीय प्रबंधन योजना को खत्म करेगा और शैतान को पूरी तरह से हराएगा। परमेश्वर सभी देशों पर शासन करेगा: "अब जगत का राज्य हमारे प्रभु का है, और उसके मसीह का ही।" इस प्रकार अंतिम युग को राज्य का युग कहा जाता है। युग के परिवर्तन के कारण, परमेश्वर के नाम को भी बदलना होगा। वह अब यीशु नहीं बल्कि शक्तिशाली सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहलाता है। वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम पर सम्पूर्ण छह-हज़ार वर्षीय प्रबंधन योजना को समाप्त करेगा। यह सटीक रूप से प्रकाशित वाक्य 15:3 में निहित भविष्यवाणी को पूरा करता है: "वे परमेश्वर के दास मूसा का गीत, और मेम्ने का गीत गा गाकर कहते थे, हे सर्वशक्तिमान प्रभु परमेश्वर, तेरे कार्य महान् और अद्भुत हैं; हे युग-युग के राजा, तेरी चाल ठीक और सच्ची है।" यह प्रकाशित वाक्य 19:6 में लिखित भविष्यवाणी को भी पूरा करता है: फिर मैं ने बड़ी भीड़ का सा और बहुत जल का सा शब्द, और गर्जन का सा बड़ा शब्द सुना: हल्लिलूय्याह! क्योंकि प्रभु हमारा परमेश्वर सर्वशक्तिमान राज्य करता है।"
भाइयों और बहनों, उपरोक्त सहभागिता से, हम यह समझ सकते हैं कि हर युग में परमेश्वर जो नाम धारण करता है उसका अपना प्रतिनिधिक अर्थ होता है और यह बिना आधार के नहीं होता। वे सभी ऐसे नाम हैं जिनके, परमेश्वर के कार्य और अलग-अलग युगों में उसके द्वारा व्यक्त स्वभाव के आधार पर, अर्थ होते हैं। यही कारण है कि परमेश्वर ने आखिरी दिनों में सम्पूर्ण छह-हज़ार वर्षीय प्रबंधन योजना को समाप्त करने के लिए सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम को ग्रहण किया। हालांकि, आज के लोगों का परमेश्वर के नए कार्य और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के नाम की ओर क्या रवैया है? पूरी धार्मिक दुनिया में, बहुत से लोग अभी भी शास्त्रों के अनुच्छेदों से चिपके रहते हैं जैसे "क्योंकि इस आकाश के नीचे लोगों को कोई दूसरा ऐसा नाम नहीं दिया गया है जिसके द्वारा हमारा उद्धार हो पाये।" और "यीशु मसीह कल भी वैसा ही था, आज भी वैसा ही है और युग-युगान्तर तक वैसा ही रहेगा।" वे अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य का अंधाधुंध विरोध करते हैं और उसकी निंदा करते हैं और कहते हैं कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर पर विश्वास करना किसी दूसरे परमेश्वर में विश्वास करना है। …यदि यही बात थी, तो क्या उन चेलों ने भी जिन्होंने नियमों से हटकर उस समय प्रभु यीशु का अनुसरण किया, किसी दूसरे परमेश्वर—यीशु में विश्वास नहीं किया है? क्या ऐसी समझ पूरी तरह से बेतुकी नहीं है? अगर हम इस तरह की ग़लत समझ को बनाये रखते हैं, तो हम कैसे उन यहूदियों से अलग हैं, जो केवल यहोवा के नाम पर ही टिके रहे और जिन्होंने प्रभु यीशु को नकार दिया और उसे मार डाला? अगर यह जारी रहता है, तो क्या परमेश्वर का विरोध करने के लिए यहूदियों को मिली त्रासदी हम पर दोहराई नहीं जाएगी? क्या हम इतनी भारी कीमत चुकाने के लिए तैयार होंगे? भाइयों और बहनों, हम यह निर्धारित नहीं कर सकते कि परमेश्वर का नाम हमेशा के लिए यीशु ही रहना चाहिए। इसके बजाय, हमें नम्र होना चाहिए और परमेश्वर के इरादों की खोज करना चाहिए। जब तुम अंतिम दिनों के परमेश्वर के नए कार्य को स्वीकार करते हो और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के सामने आते हो, तो तुम देखोगे कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर इस्राएलियों का परमेश्वर यहोवा है और यहूदियों का स्वामी भी है, और इसके अलावा, वह परमेश्वर यीशु है, जिसका हमने लंबे समय से इंतज़ार किया है! सभी लोग सच्चाई के इस पहलू को बेहतर ढंग से समझ सकें, इसलिए आओ, हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के दूसरे दो अनुच्छेदों को पढ़ें। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है: "एक समय मुझे यहोवा के नाम से जाना जाता था। मुझे मसीह भी कहा जाता था, और लोगों ने एक बार मुझे उद्धारकर्त्ता यीशु कहा था क्योंकि वे मुझ से प्रेम करते थे और मेरा आदर करते थे। किन्तु आज मैं वह यहोवा और यीशु नहीं हूँ जिसे लोग बीते समयों में जानते थे-मैं वह परमेश्वर हूँ जो अंत के दिनों में वापस आ गया है, वह परमेश्वर जो युग को समाप्त करेगा। वह परमेश्वर मैं स्वयं हूँ जो अपने स्वभाव की परिपूर्णता के साथ, और अधिकार, आदर एवं महिमा से भरपूर होकर पृथ्वी के अंतिम छोर से उदय होता हूँ। लोग कभी भी मेरे साथ संलग्न नहीं हुए हैं, उन्होंने मुझे कभी जाना नहीं है, और मेरे स्वभाव के प्रति हमेशा अनभिज्ञ रहे हैं। संसार की रचना के समय से लेकर आज तक, एक मनुष्य ने भी मुझे नहीं देखा है। यह वह परमेश्वर है जो अंत के दिनों के दौरान मनुष्यों पर प्रकट होता है किन्तु वह मनुष्य के बीच में छुपा हुआ है। वह, सामर्थ्य से भरपूर और अधिकार से लबालब भरा हुआ, धधकते हुए सूरज और दहकती हुई आग के समान, सच्चे और वास्तविक रूप में, मनुष्यों के बीच निवास करता है। कोई ऐसा मनुष्य या चीज़ नहीं है जिसका न्याय मेरे वचनों के द्वारा नहीं किया जाएगा, और कोई ऐसा मनुष्य या चीज़ नहीं है जिसे आग की जलती हुई लपटों के माध्यम से शुद्ध नहीं किया जाएगा। अंततः, मेरे वचनों के कारण सारे राष्ट्र धन्य हों जाएँगे, और मेरे वचनों के कारण टुकड़े-टुकड़े भी कर दिए जाएँगे। इस तरह, अंत के दिनों के दौरान सभी लोग देखेंगे कि मैं ही वह उद्धारकर्त्ता हूँ जो वापस लौट आया है, मैं ही वह सर्वशक्तिमान परमेश्वर हूँ जो समस्त मानवजाति को जीतता है, और मैं एक समय मनुष्य के लिए पाप बलि था, किन्तु अंत के दिनों में मैं सूरज की आग की ज्वाला भी बन जाता हूँ जो सभी चीज़ों को जला देती है, और साथ ही मैं धार्मिकता का सूर्य भी बन जाता हूँ जो सभी चीज़ों को प्रकट कर देता है। अंत के दिनों का मेरा कार्य ऐसा ही है। मैंने इस नाम को अपनाया है और मेरा यह स्वभाव है ताकि सभी लोग देख सकें कि मैं धर्मी परमेश्वर हूँ, और धधकता हुआ सूरज हूँ, और दहकती हुई आग हूँ। ऐसा इसलिए है ताकि सभी मेरी, एकमात्र सच्चे परमेश्वर की, आराधना कर सकें, और ताकि वे मेरे असली चेहरे को देख सकें: मैं न केवल इस्राएलियों का परमेश्वर हूँ, और न मात्र छुटकारा दिलाने वाला हूँ-मैं समस्त आकाश और पृथ्वी और महासागरों के सारे प्राणियों का परमेश्वर हूँ" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "उद्धारकर्त्ता पहले से ही एक 'सफेद बादल' पर सवार होकर वापस आ चुका है" से)।
"वह दिन आ जाएगा जब परमेश्वर को यहोवा, यीशु या मसीहा नहीं कहा जाएगा—वह केवल सृष्टिकर्ता कहलाएगा। उस समय, वे सभी नाम जो उसने पृथ्वी पर धारण किए थे समाप्त हो जाएँगे, क्योंकि पृथ्वी पर उसका कार्य समाप्त हो गया होगा, जिसके बाद उसका कोई नाम नहीं होगा। जब सभी चीजें सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन आ जाती हैं, तो उसे अत्यधिक उपयुक्त फिर भी अपूर्ण नाम से क्यों बुलाएँ? क्या तुम अभी भी परमेश्वर के नाम की तलाश करते हो? क्या तुम अभी भी कहने का साहस करते हो कि परमेश्वर को केवल यहोवा ही कहा जाता है? क्या तुम अभी भी कहने का साहस करते हो कि परमेश्वर को केवल यीशु कहा जा सकता है? क्या तुम परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिन्दा का पाप सहन कर सकते हो?" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से)।
प्रिय भाइयों और बहनों, परमेश्वर का नाम क्यों बदलता है, उससे सम्बंधित सत्य के पहलू को हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से समझते हैं। क्या तुम अब भी सोचते हो कि जब परमेश्वर लौटता है तो उसका नाम अभी भी यीशु होना चाहिए? क्या तुम अभी भी परमेश्वर के उद्धार से इसलिए इंकार कर सकते हो कि आखिरी दिनों में परमेश्वर का नाम सर्वशक्तिमान परमेश्वर है? भाइयों और बहनों, आओ हम अपनी अवधारणाओं को अलग रख दें और एक बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लें! सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने बहुत पहले ही आखिरी दिनों का अपना कार्य शुरू कर दिया है। वह अपने पूर्ण स्वभाव को लिए हुए है। वह शक्ति और सत्ता से भरा हुआ है, जैसे कि तपता सूर्य हो, जैसे कि अग्नि हो। कोई भी व्यक्ति या वस्तु नहीं है जिसका उसके वचन के द्वारा न्याय नहीं होगा, या जिसे शुद्ध नहीं किया जाएगा। अंत में, सभी राष्ट्रों को आशीर्वाद प्राप्त होगा क्योंकि वे उसके वचन को स्वीकार करते हैं, या उन्हें टुकड़ों में तोड़ दिया जाएगा क्योंकि वे उसके वचन को अस्वीकार करते हैं। भाइयों और बहनों, हम परमेश्वर द्वारा बचाए जाने के इस अंतिम मौके को कैसे गवाँ सकते हैं? सर्वशक्तिमान परमेश्वर हर उस व्यक्ति का जिसे उसने पहले छुटकारा दिलाया था, अपने आसन के सामने जल्दी लौटने का, और परमेश्वर द्वारा तैयार किए गए नए स्वर्ग और नई पृथ्वी में प्रवेश करने का, इंतज़ार कर रहा है।
फुटनोटः
क. मूलपाठ में "जो है" पढ़ा जाता है।
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