परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
8. जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें परमेश्वर की आज्ञा माननी चाहिए और उसकी आराधना करनी चाहिए। तुम्हें किसी व्यक्ति को ऊँचा नहीं ठहराना चाहिए या किसी व्यक्ति पर श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए; तुम्हें पहला स्थान परमेश्वर को, दूसरा स्थान उन लोगों को जिनकी तुम श्रद्धा करते हो, और तीसरा स्थान अपने आपको नहीं देना चाहिए। किसी भी व्यक्ति को तुम्हारे हृदय में कोई स्थान नहीं लेना चाहिए, और तुम्हें लोगों को—विशेष रूप से उन्हें जिनका तुम सम्मान करते हो—परमेश्वर के समतुल्य, उसके बराबर नहीं मानना चाहिए। यह परमेश्वर के लिए असहनीय है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "दस प्रशासनिक आज्ञाएँ जिनका परमेश्वर के चयनित लोगों द्वारा राज्य के युग में पालन अवश्य किया जाना चाहिए" से
कुछ लोग सत्य में आनन्द नहीं मनाते हैं, न्याय की तो ही दूर है। बल्कि वे शक्ति और धन में आनन्द मनाते हैं; इस प्रकार के लोग मिथ्याभिमानी समझे जाते हैं। ये लोग अनन्य रूप से संसार के प्रभावशाली सम्प्रदायों तथा सेमिनारियों से निकलने वाले पादरियों और शिक्षकों की खोज में लगे रहते हैं। सत्य के मार्ग को स्वीकार करने के बावजूद, वे उलझन में फंसे रहते हैं और अपने तुम को पूरी तरह से समर्पित करने में असमर्थ होते हो। वे परमेश्वर के लिए बलिदान की बात करते हैं, परन्तु उनकी आखें महान पादरियों और शिक्षकों पर केन्द्रित रहती हैं और मसीह को किनारे कर दिया जाता है। उनके हृदयों में प्रसिद्धि, वैभव और प्रतिष्ठा रहती है। उन्हें बिल्कुल विश्वास नहीं होता कि ऐसा छोटा-सा आदमी इतनोंपर विजय प्राप्त कर सकता है, यह कि वह इतना साधारण होकर भी लोगों को सिद्ध बनाने के योग्य है। वे बिल्कुल विश्वास नहीं करते कि ये धूल में पड़े मामूली लोग और घूरे पर रहने वाले ये साधारण मनुष्य परमेश्वर के द्वारा चुने गए हैं। वे मानते हैं कि यदि ऐसे लोग परमेश्वर के उद्धार की योजना के लक्ष्य रहे होते, तो स्वर्ग और पृथ्वी उलट-पुलट हो जाते और सभी लोग ठहाके लगाकर हंसते। वे विश्वास करते हैं कि यदि परमेश्वर ऐसे सामान्य लोगों को सिद्ध बना सकता है, तो वे सभी महान लोग स्वयं में परमेश्वर बन जाते। उनके दृष्टिकोण अविश्वास से भ्रष्ट हो गए हैं; दरअसल, अविश्वास से कोसों दूर वे बेहूदा जानवर हैं। क्योंकि वे केवल हैसियत, प्रतिष्ठा और शक्ति का मूल्य जानते हैं; वे विशाल समूहों और सम्प्रदायों को ही ऊंचा सम्मान देते हैं। उनकी दृष्टि में उनका कोई सम्मान नहीं है जिनकी अगुवाई मसीह कर रहे हैं। वे सीधे तौर पर विश्वासघाती हैं जिन्होंने मसीह से, सत्य से और जीवन से अपना मुंह मोड़ लिया है।
तुम मसीह की विनम्रता की तारीफ नहीं करते हो, बल्कि उन झूठे चरवाहों की करते हो जो विशेष हैसियत रखते हैं। तुम मसीह की सुन्दरता या ज्ञान से प्रेम नहीं करते हो, बल्कि उन अधम लोगों से करते हो जो घृणित संसार से जुड़े हैं। तुम मसीह के दुख पर हंसते हो, जिसके पास अपना सिर रखने तक की जगह नहीं, परन्तु उन मुर्दों की तारीफ करते हो जो भेंट झपट लेते हैं और व्यभिचारी का जीवन जीते हैं। तुम मसीह के साथ-साथ कष्ट सहने को तैयार नहीं, परन्तु उन धृष्ट मसीह विरोधियों की बाहों में प्रसन्नता से जाते हो, हालांकि वे तुम्हें सिर्फ देह, अक्षरज्ञान और अंकुश ही दे सकते हैं अभी भी तुम्हारा हृदय उनकी ओर, उनकी प्रतिष्ठा की ओर, सभी शैतानों के हृदय में उनकी हैसियत, उनके प्रभाव, उनके अधिकार की ओर लगा रहता है, फिर भी तुम विरोधी स्वभाव बनाए रखते हो और मसीह के कार्य को स्वीकार नहीं करते हो। इसलिए मैं कहता हूं कि तुम्हें मसीह को स्वीकार करने का विश्वास नहीं है। तुमने उसका अनुसरण आज तक सिर्फ़ इसलिए किया क्योंकि तुम्हारे साथ ज़बरदस्ती की गई थी। तुम्हारे हृदय में हमेशा कई बुलंद छवियों का स्थान रहा है; तुम उनके प्रत्येक कार्य और शब्दों को नहीं भूल सकते, न ही उनके प्रभावशाली शब्दों और हाथों को; वे तुम लोगों के हृदय में हैं, हमेशा के लिए सर्वोच्च और योद्धा की तरह। परन्तु आज के समय में मसीह के लिए ऐसा नहीं है। वह हमेशा-हमेशा तुम्हारे हृदय में अयोग्य और आदर के योग्य नहीं रहा है। क्योंकि वह बहुत ही साधारण रहा है, बहुत ही कम प्रभावशाली और उच्चता से बहुत दूर रहा है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "क्या तुम परमेश्वर के एक सच्चे विश्वासी हो?" से
कुछ लोग हैं जिन्हें अकसर ऐसे लोगों के द्वारा धोखा दिया जाता है जो ऊपर से आत्मिक प्रतीत होते हैं, कुलीन प्रतीत होते हैं, ऐसे प्रतीत होते हैं कि उनके पास उत्कृष्ट स्वरूप है। जहाँ तक ऐसे लोगों की बात है जो पत्रियों एवं सिद्धान्तों के विषय में बोल सकते हैं, और जिनके सन्देश एवं कार्य सराहना के योग्य प्रतीत होते हैं, उनके प्रशंसकों ने उनके कार्यों के सार को, उनके कार्यों के पीछे के सिद्धान्तों को, और उनके लक्ष्य क्या हैं उनको कभी अच्छी तरह से नहीं देखा है। और उन्होंने कभी अच्छी तरह से नहीं देखा है कि ये लोग वास्तव में परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं या नहीं, और वे ऐसे लोग हैं या नहीं जो सचमुच में परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं। उन्होंने इन लोगों की मानवता के मूल-तत्व को कभी नहीं परखा है। इसके बजाय, परिचित होने के पहले कदम से ही, थोड़ा थोड़ा करके, वे इन लोगों की तारीफ करने, और इन लोगों का परम आदर करने लग जाते हैं, और अन्त में ये लोग उनके आदर्श बन जाते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ लोगों के मनों में, वे आदर्श जिनकी वे उपासना करते हैं, जिन पर वे विश्वास करते हैं वे अपने परिवारों एवं नौकरियों को छोड़ सकते हैं, और ऊपर से देखने पर वे कीमत चुका सकते हैं-ये आदर्श ऐसे लोग हैं जो वास्तव में परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं, और ऐसे लोग हैं जो वास्तव में एक अच्छा परिणाम एवं एक अच्छी मंज़िल को प्राप्त कर सकते हैं। उनके मनों में, ये आदर्श ऐसे लोग हैं जिनकी प्रशंसा परमेश्वर करता है। किस चीज़ ने लोगों को प्रेरित किया है कि इस प्रकार के विश्वास को रखें? इस मामले का सार क्या है? यह कौन कौन से परिणामों की ओर ले जा सकता है? आओ हम पहले इसके सार के विषय (सामग्री) की चर्चा करें।
…केवल एक ही मूल कारण है जिससे लोगों के पास ऐसे अज्ञानता भरे कार्य, अज्ञानता भरे दृष्टिकोण, या एकतरफा दृष्टिकोण एवं रीति व्यवहार होते हैं, और आज मैं तुम लोगों को उसके बारे में बताऊंगा। कारण यह है कि यद्यपि हो सकता है कि लोग परमेश्वर के पीछे चलते हों, प्रतिदिन उससे प्रार्थना करते हों, और प्रतिदिन परमेश्वर का वचन पढ़ते हों, फिर भी वे परमेश्वर के इच्छा को वास्तव में नहीं समझते हैं। यही समस्या की जड़ है। यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर के हृदय को समझता है, यह समझता है कि परमेश्वर क्या पसन्द करता है, किस चीज़ से परमेश्वर घृणा करता है, परमेश्वर क्या चाहता है, किस चीज़ को परमेश्वर अस्वीकार करता है, किस प्रकार के व्यक्ति से परमेश्वर प्रेम करता है, किस प्रकार के व्यक्ति को परमेश्वर नापसन्द करता है, मनुष्य से की गई अपनी मांगों के प्रति परमेश्वर किस प्रकार के मानकों (मानदंड) को लागू करता है, मनुष्य को सिद्ध करने के लिए वह किस प्रकार की पद्धति को अपनाता है, क्या तब भी उस व्यक्ति के पास अपने व्यक्तिगत विचार हो सकता है? क्या वह बस यों ही जा सकता है तथा किसी और व्यक्ति की आराधना कर सकता है? क्या कोई साधारण व्यक्ति उनका आदर्श बन सकता है? यदि कोई परमेश्वर के इरादों को समझता है, तो उनका दृष्टिकोण उसकी अपेक्षा थोड़ी बहुत न्यायसंगत होती है। वे मनमाने ढंग से किसी भ्रष्ट व्यक्ति को आदर्श के रूप में लेने वाले नहीं है, न ही वे, सत्य को अमल में लाने के पथ पर चलते समय, यह विश्वास करेंगे कि मनमाने ढंग से कुछ साधारण नियमों या सिद्धान्तों के मुताबिक चलना ही सत्य को अमल में लाने के बराबर है।
"वचन देह में प्रकट होता है से आगे जारी" से "परमेश्वर के स्वभाव और उसके कार्य के परिणाम को कैसे जानें" से
ऐसे लोगों के लिये, जो यह कहते हैं कि वे परमेश्वर को मानते हैं, यह बेहतर होगा कि वे अपनी आंखें खोलें और देखें कि दरअसल विश्वास किस में करते हैं: तुम दरअसल परमेश्वर में विश्वास करते हो या शैतान में? यदि तुम्हें यह पता चल जाये कि तुम परमेश्वर में नहीं अपनी प्रतिमाओं में विश्वास करते हो, तो फिर बेहतर यही होगा कि तुम न कहो कि तुम विश्वासी हो। यदि तुम्हें पता ही नहीं की तुम किस में विश्वास करते हो तो फिर से, बेहतर होगा कि तुम न कहो कि तुम विश्वासी हो। वैसा कहना ईश-निंदा होगी! तुमसे कोई ज़बर्दस्ती नहीं कह रहा कि तुम परमेश्वर में विश्वास करो। मत कहो कि तुम लोग मुझमें विश्वास करते हैं, क्योंकि मैं यह सब पहले बहुत सुन चुका हूं और कोई इच्छा नहीं है कि फिर से सुनूं, क्योंकि तुम जिसमें विश्वास करते हो वे तुम लोगों के मन की प्रतिमाएं और तुम सबके मध्य स्थानीय दुर्दांत सांप हैं। वे जो सच्चाई सुनकर अपनी गर्दन न में हिलाते हैं, जो मौत की बातें सुनकर अत्यधिक मुस्कराते हैं, वे शैतान की संतान हैं, और नष्ट कर दी जाने वाली वस्तुएं हैं। ऐसे लोग कलीसिया में मौजूद हैं, जिनमें विवेक की कमी होती है, जब कुछ कपटपूर्ण घटित होता है, तो वे शैतान के साथ जा खड़े होते हैं। जब उन्हें शैतान का अनुचर कहा जाता है तो उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। और कोई कोई कह सकता है कि उनमें विवेक नहीं है, लेकिन वे हमेशा उस पक्ष में खड़े होते हैं जहां सत्य नहीं है, ऐसा एक बार भी नहीं हुआ कि नाज़ुक समय पर वे कभी सत्य के पक्ष में खड़े हुए हों, ऐसा एक बार भी नहीं हुआ कि कभी सत्य के पक्ष में खड़े होकर दलील पेश की हो, तो क्या वाकई उनमें विवेक नहीं है? वे हमेशा शैतान के पक्ष में ही क्यों खड़े जाते हैं? वे कभी एक भी शब्द ऐसा क्यों नहीं बोलते जो सत्य के पक्ष में सही और उचित हो? ऐसी स्थिति क्या वाकई उनकी क्षणिक दुविधा के कारण पैदा होती है? जिस व्यक्ति में विवेक की जितनी कमी होगी, वह सत्य के पक्ष में उतना ही कम खड़ा हो पायेगा। इससे क्या ज़ाहिर होता है? क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि विवेकशून्य व्यक्ति बुराई को गले लगाता है? क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि विवेकशून्य लोग शैतान की निष्ठावान संतान हैं? वे शैतान के पक्ष में खड़े होकर उसी की भाषा क्यों बोलते हैं? उनका हर शब्द, हर कार्य, हर हाव-भाव पूरी तरह सिद्ध करता है कि वे कोई सत्य के प्रेमी नहीं हैं, बल्कि वे सत्य से घृणा करने वाले लोग हैं। शैतान के साथ उनका खड़ा होना पूरी तरह यह सिद्ध करता है कि ये लोग जो आजीवन शैतान की खातिर लड़ते रहते हैं, ऐसे तुच्छ राक्षस हैं जिन्हें शैतान वाकई चाहता है। क्या ये तथ्य पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं? यदि तुम वाकई सत्य प्रेमी हो, तो फिर तुम्हारे मन में ऐसे लोगों के लिये सम्मान क्यों नहीं है जो सत्य का अनुसरण कर रहे हैं, तो फिर तुम तुरंत ऐसे लोगों के पीछे क्यों भागने लगते हो जो किंचित-मात्र हाव-भाव बदलते ही सत्य का परित्याग कर देते हैं? यह समस्या क्या है?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "जो सत्य का पालन नहीं करते, उनके लिये चेतावनी" से
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