जो अपने सर्वथा अविश्वासी बच्चों और रिश्तेदारों को कलीसिया में लाते हैं, वे बहुत स्वार्थी हैं और अपनी दयालुता का प्रदर्शन करते हैं। ये लोग इस बात की कोई परवाह न करते हुए कि क्या वे विश्वास करते हैं या क्या यह परमेश्वर की इच्छा है, केवल प्रेम पर ज़ोर देते हैं। कुछ लोग अपनी पत्नी को परमेश्वर के सामने लाते हैं, या अपने माता-पिता को परमेश्वर के सामने लाते हैं, और इस बात की परवाह किए बिना कि क्या पवित्र आत्मा सहमत है या अपना कार्य करता है, वे आँखें बंद करके परमेश्वर के लिए "प्रतिभाशाली लोगों को अपनाते हैं"। इन लोगों के प्रति इस तरह की दया को बढ़ाने से संभवतः क्या लाभ मिल सकता है जो विश्वास नहीं करते हैं? भले ही ये अविश्वासी लोग जो पवित्रात्मा की उपस्थिति से रहित हैं, परमेश्वर का अनुसरण करने के लिए संघर्ष करते हैं, तब भी वे बचाए नहीं जा सकते हैं जैसा कि कोई सोचता हो कि वह बचाया जा सकता है। जो लोग उद्धार प्राप्त करते हैं उनके लिए वास्तव में प्राप्त करना उतना आसान नहीं है। जो लोग पवित्र आत्मा के कार्य और परीक्षणों से नहीं गुज़रे हैं और देहधारी परमेश्वर के द्वारा पूर्ण नहीं बनाए गए हैं, उन्हें पूर्ण नहीं किया जा सकता है। इसलिए जिस क्षण से ये लोग नाममात्र के लिए परमेश्वर का अनुसरण करना आरंभ करते हैं उसी क्षण से उनमें पवित्र आत्मा की उपस्थिति का अभाव होता है। उनकी स्थिति और वास्तविक अवस्था के अनुसार, उन्हें बस पूर्ण नहीं बनाया जा सकता है। इसलिए, पवित्र आत्मा उन पर अधिक ऊर्जा व्यय करने का निर्णय नहीं लेता है, न ही वह उन्हें किसी प्रकार की प्रबुद्धता प्रदान करता है या उनका मार्गदर्शन करता है; वह उन्हें केवल साथ-साथ अनुसरण की अनुमति देता है और अंततः उनके परिणाम को प्रकट करता है—यही पर्याप्त है। मनुष्य का उत्साह और अभिप्राय शैतान से आते हैं और वे किसी भी तरह से पवित्र आत्मा के कार्य को पूर्ण नहीं कर सकते हैं। चाहे कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार का हो, उसमें पवित्र आत्मा का कार्य अवश्य होना चाहिए—क्या कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को पूर्ण कर सकता है? पति अपनी पत्नी से क्यों प्रेम करता है? पत्नी अपने पति से क्यों प्रेम करती है? बच्चे क्यों माता-पिता के प्रति कर्तव्यशील रहते हैं? और माता-पिता क्यों अपने बच्चों से अतिशय स्नेह करते हैं? लोग वास्तव में किस प्रकार के अभिप्रायों को आश्रय देते हैं? क्या यह किसी की अपनी योजनाओं और स्वार्थी अभिलाषाओं को संतुष्ट करने के लिए नहीं है? क्या यह वास्तव में परमेश्वर की प्रबंधन योजना के लिए है? क्या यह परमेश्वर के कार्य के लिए है? क्या यह प्राणी के कर्तव्य पूरा करने के लिए है? वे जो पहले परमेश्वर पर विश्वास करते थे और पवित्र आत्मा की उपस्थिति को नहीं पा सके थे, वे कभी भी पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं पा सकते हैं; यह निर्धारित हो चुका है कि ये लोग नष्ट हो जाएँगे। इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि कोई उनसे कितना प्रेम करता है, यह पवित्र आत्मा के कार्य का स्थान नहीं ले सकता है। मनुष्य का उत्साह और प्रेम, मनुष्य के अभिप्रायों का प्रतिनिधित्व करता है, परंतु परमेश्वर के अभिप्राय का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है, और परमेश्वर के कार्य का स्थान नहीं ले सकता है। भले ही कोई उन व्यक्तियों की ओर सर्वाधिक संभव मात्रा में प्रेम और दया बढ़ाए जो नाममात्र के लिए परमेश्वर पर विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करने का दिखावा करते हैं परंतु नहीं जानते हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करना क्या है, किन्तु वे लोग तब भी परमेश्वर की सहानुभूति प्राप्त नहीं कर पाएँगे या पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त नहीं कर पाएँगे। भले ही जो लोग ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण करते हैं कमजोर क्षमता वाले हों, और बहुत सी सच्चाईयों को नहीं समझते हों, वे तब भी कभी-कभी पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त कर सकते हैं, परंतु वे जो बल्कि अच्छी क्षमता वाले हैं मगर ईमानदारी से विश्वास नहीं करते हैं, बस पवित्र आत्मा की उपस्थिति को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। ऐसे लोगों के उद्धार की मात्र कोई संभावना नहीं है। यद्यपि वे संदेशों को पढ़ें या कभी-कभी सुनें या परमेश्वर की स्तुति गाएँ, किंतु अंत में विश्राम के समय में शेष नहीं बचेंगे। कोई व्यक्ति ईमानदारी से खोज करता है या नहीं यह इस बात से निर्धारित नहीं होता है कि अन्य लोग उसके बारे में क्या अनुमान लगाते हैं और आसपास के लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं, बल्कि इस बात से निर्धारित होता है कि क्या पवित्र आत्मा उसके ऊपर कार्य करता है, और कि क्या उसमें पवित्र आत्मा की उपस्थिति है, यह और तो और इस बात से निर्धारित होता है कि क्या एक निश्चित अवधि तक पवित्र आत्मा के कार्य से गुज़रने के बाद उसके स्वभाव में परिवर्तन आता है, और कि क्या उसे परमेश्वर का ज्ञान मिल गया है; यदि पवित्र आत्मा किसी व्यक्ति के ऊपर कार्य करेगा, तो उस व्यक्ति का स्वभाव धीरे-धीरे बदल जाएगा, परमेश्वर पर विश्वास करने का उसका विचार धीरे-धीरे और अधिक शुद्ध हो जाएगा। जब तक उनमें परिवर्तन होता रहता है, तब तक इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है कि कोई कितने समय तक परमेश्वर का अनुसरण करता है, इसका अर्थ है कि पवित्र आत्मा उनके ऊपर कार्य करता है। यदि उनमें परिवर्तन नहीं हुआ है, तो इसका अर्थ है कि पवित्र आत्मा उसके ऊपर कार्य नहीं करता है। यद्यपि ऐसे व्यक्ति कुछ सेवा तो करते हैं, किन्तु वे एक अच्छा भविष्य प्राप्त करने के अपने अभिप्रायों से प्रेरित होते हैं। कभी-कभी की सेवा उनके स्वभाव में परिवर्तन नहीं ला सकती है। अंततः वे तब भी नष्ट कर दिए जाएँगे, क्योंकि उन लोगों की आवश्यकता नहीं है जो केवल राज्य के भीतर सेवाएँ देते हैं, न ही ऐसे किसी की आवश्यकता है जिसका स्वभाव उन लोगों की सेवा के योग्य होने के लिए नहीं बदला है जिन्हें पूर्ण बनाया जा चुका है और जो परमेश्वर के प्रति विश्वसनीय हैं। अतीत के ये वचन, "जब कोई प्रभु पर विश्वास करता है, तो सौभाग्य उसके पूरे परिवार पर मुस्कुराता है" अनुग्रह के युग के लिए उपयुक्त है परंतु मनुष्य की नियति से असंबंधित हैं। ये केवल अनुग्रह के युग में एक चरण के लिए ही उपयुक्त हैं। इन वचनों का अभीष्ट अर्थ उस शांति और भौतिक आशीषों पर निर्देशित है जिनका लोग आनंद लेते हैं; इनका अर्थ यह नहीं है कि प्रभु में विश्वास करने वाले व्यक्ति के पूरे परिवार को बचाया जाएगा, न ही इनका अर्थ यह है कि जब कोई व्यक्ति अच्छे भविष्य को पाता है, तो उसके पूरे परिवार को भी विश्राम में लाया जाएगा। चाहे किसी व्यक्ति को आशीषें मिलें या दुर्भाग्य सहना पड़े, इसका निर्धारण व्यक्ति के भाव के अनुसार होगा, यह उस आम भाव के अनुसार नहीं होगा जो वह दूसरों के साथ साझा करता है। राज्य में बस इस प्रकार की लोकोक्ति या इस प्रकार का नियम नहीं है। यदि कोई अंत में बच कर जीवित रहने में सक्षम रहता है, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि उसने परमेश्वर की अपेक्षाओं को प्राप्त कर लिया है, और यदि कोई विश्राम के दिनों में बचने में सक्षम नहीं हो पाता है, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि वह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी है और उसने परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया है। प्रत्येक की एक अनूकूल नियति है। ये नियतियाँ प्रत्येक व्यक्ति के मूलतत्व के अनुसार निर्धारित होती हैं और दूसरों से पूर्णतः असंबंधित है। किसी बच्चे का दुष्ट आचरण उसके माता-पिता को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता है, और न ही किसी बच्चे की धार्मिकता को उसके माता-पिता के साथ साझा नहीं किया जा सकता है। माता-पिता का दुष्ट आचरण उसकी संतानों को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता है, और माता-पिता की धार्मिकता को उनके बच्चों के साथ साझा नहीं किया जा सकता है। हर कोई अपने-अपने पापों को धारण करता है। और हर कोई अपने-अपने सौभाग्य का आनंद लेता है। कोई भी दूसरे का स्थान नहीं ले सकता है। यही धार्मिकता है। मनुष्य के विचार में, यदि माता-पिता अच्छा सौभाग्य पाते हैं, तो उनके बच्चे भी वैसा ही पा सकते हैं, यदि बच्चे बुरा करते हैं, उनके पापों के लिए माता-पिता को प्रायश्चित अवश्य करना चाहिए। यह मनुष्य का दृष्टिकोण है, और कार्य करने का मनुष्य का तरीका है। यह परमेश्वर का दृष्टिकोण नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के परिणाम का निर्धारण उस मूलतत्व के अनुसार होता है जो उसके आचरण से आता है और इसका निर्धारण सदैव उचित तरीके से होता है। कोई भी किसी दूसरे के पापों को धारण नहीं कर सकता है; इससे भी अधिक, कोई भी किसी दूसरे के बदले में दण्ड प्राप्त नहीं कर सकता है। यह परम सिद्धान्त है। माता-पिता की अपनी संतान के लिए अति अनुरक्त देखभाल का अर्थ यह नहीं है कि वे अपनी संतान के बदले में धार्मिकता के कर्म कर सकते हैं। न ही किसी बच्चे के अपने माता-पिता के प्रति कर्त्तव्यनिष्ठ स्नेह का यह अर्थ है कि वह अपने माता-पिता के लिए धार्मिकता के कर्म कर सकता है। यही इन वचनों का वास्तविक अर्थ है, "उस समय दो जन खेत में होंगे, एक ले लिया जाएगा और दूसरा छोड़ दिया जाएगा। दो स्त्रियाँ चक्की पीसती रहेंगी, एक ले ली जाएगी, दूसरी छोड़ दी जाएगी।" कोई भी अपने बच्चों के लिए अपने गहन प्रेम के आधार पर बुरा कार्य करने वाले अपने बच्चों को विश्राम में नहीं ले जा सकता है, न कोई अपने स्वयं के धार्मिक आचरण के आधार पर अपनी पत्नी (या पति) को विश्राम में पहुँचा सकता है। यह एक प्रशासनिक नियम है; और इसमें किसी के लिए भी कोई अपवाद नहीं हो सकता है। धार्मिकता करने वाले धार्मिकता करने वाले हैं और बुरा करने वाले, बुरा करने वाले हैं। धार्मिकता करने वाले जीवित बचने में समर्थ होंगे, और बुरा करने वाले नष्ट हो जाएँगे। जो पवित्र है, वे पवित्र हैं; वे अशुद्ध नहीं है। जो अशुद्ध हैं वे अशुद्ध हैं, और उनमें पवित्रता का एक अंश भी नहीं है। सभी दुष्ट लोग नष्ट कर दिए जाएँगे, और सभी धार्मिक लोग जीवित बचेंगे, भले ही बुरा कार्य करने वालों की संतानें धार्मिक कर्म करें और भले ही किसी धार्मिक व्यक्ति के माता-पिता दुष्टता के कर्म करें। एक विश्वास करने वाले पति और विश्वास न करने वाली पत्नी के बीच कोई संबंध नहीं है, और विश्वास करने वाले बच्चों और विश्वास न करने वाले माता-पिता के बीच कोई संबंध नहीं है। ये दोनों असंगत प्रकार हैं। विश्राम में प्रवेश से पहले, उसके शारीरिक संबंधी थे, किन्तु एक बार विश्राम में प्रवेश कर लेने पर, कहने के लिए उसके कोई शारीरिक संबंधी नहीं होंगे। जो अपना कर्तव्य करते हैं और जो नहीं करते हैं वे शत्रु हैं; जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं और जो घृणा करते हैं वे एक दूसरे के विरोध में हैं। जो विश्राम में प्रवेश करते हैं और जो नष्ट किए जा चुके हैं वे दो अलग-अलग असंगत प्रकार के प्राणी है। अपने कर्तव्यों को करने वाले प्राणी जीवित बच पाने में समर्थ होंगे, और अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं करने वाले प्राणी नष्ट हो जाएँगे; इसके अलावा, यह सब अनंत काल के लिए होगा। क्या तुम एक प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए अपने पति से प्रेम करती हो? क्या तुम एक प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए अपनी पत्नी से प्रेम करते हो? क्या तुम अपने नास्तिक माता-पिता के प्रति एक प्राणी के रूप में कर्तव्यनिष्ठ हो? क्या परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में मनुष्य का दृष्टिकोण सही है या नहीं? तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो? तुम क्या पाना चाहते हो? तुम परमेश्वर से कैसे प्रेम करते हो? जो लोग प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य को पूरा नहीं कर सकते हैं और पूरा प्रयास नहीं कर सकते हैं, वे नष्ट कर दिए जाएँगे। आजकल लोगों में एक दूसरे के बीच शारीरिक संबंध हैं, उनके बीच खून का रिश्ता है, किंतु बाद में यह सब ध्वस्त हो जाएगा। विश्वासी और अविश्वासी सुसंगत नहीं हैं बल्कि वे एक दूसरे के विरोधी है। वे जो विश्राम में हैं विश्वास करते हैं कि कोई परमेश्वर है और उसके प्रति आज्ञाकारी होते हैं। वे जो परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी है, वे सब नष्ट कर दिये गए होंगे। पृथ्वी पर परिवारों का अब और अस्तित्व नहीं होगा; माता-पिता या संतानें या पतियों और पत्नियों के बीच के संबंध कैसे हो सकते हैं? विश्वास और अविश्वास की अत्यंत असंगतता से ये शारीरिक संबंध टूट चुके होंगे!
आरंभ में मानवजाति में परिवार नहीं थे, केवल पुरुष और महिला, दो प्रकार के लोग थे! कोई देश नहीं थे, परिवारों की तो बात ही छोड़ो, परंतु मनुष्य की भ्रष्टता के कारण, सभी प्रकार के लोगों ने स्वयं को कबीलों में संगठित कर लिया, बाद में ये देशों और राष्ट्रों में विकसित हो गए। ये देश और राष्ट्र छोटे-छोटे परिवारों से मिलकर गठित हुए थे, और इस तरीके से सभी प्रकार के लोग, भाषा की भिन्नताओं और विभाजित करने वाली सीमाओं के अनुसार, विभिन्न नस्लों में बँट गए। वास्तव में, इस बात की परवाह किए बिना कि दुनिया में कितनी नस्लें हैं, मावजाति का केवल एकही पूर्वज है। आरंभ में, केवल दो प्रकार के ही लोग थे, और ये दो प्रकार पुरुष और स्त्री थे। हालाँकि, परमेश्वर के कार्य की प्रगति, इतिहास और भौगोलिक परिवर्तनों के गुज़रने के कारण, विभिन्न अंशों तक ये दो प्रकार के लोग और भी अधिक प्रकारों में विकसित हो गए। जब हम इसका विचार करते हैं, तो इस बात की परवाह किए बिना कि मानवजाति में कितनी नस्लें शामिल हैं, समस्त मानवजाति परमेश्वर का सृजन है। लोग चाहे किसी भी नस्ल से संबंधित हों, वे सब उसका सृजन हैं; वे सब आदम और हव्वा के वंशज हैं। यद्यपि वे परमेश्वर के हाथों से सृजन नहीं किए गए हैं, फिर भी वे आदम और हव्वा के वंशज हैं, जिन्हें परमेश्वर ने व्यक्तिगत रूप से सृजित किया है। लोग चाहे किसी भी श्रेणी से संबंधित हों, वे सभी उसके प्राणी हैं; चूँकि वे मनुष्य जाति से संबंधित हैं जिसका सृजन परमेश्वर ने किया था, इसलिए उनकी नियति वही है जो मानवजाति की होनी चाहिए, और वे उन नियमों के कारण विभाजित हैं जो मानवजाति को संगठित करते हैं। कहने का अर्थ है, कि बुरा करने वाले और धार्मिक लोग अंततः प्राणी ही हैं। वे प्राणी जो बुरा करते हैं अंततः नष्ट हो जाएँगे, और वे प्राणी जो धार्मिक कर्म करते हैं वे फलस्वरूप जीवित बचे रहेंगे। इन दो प्रकार के प्राणियों के लिए यह सर्वथा उपयुक्त व्यवस्था है। कुकर्मी लोग, अपनी अवज्ञा के कारण, इंकार नहीं कर सकते हैं कि वे परमेश्वर की सृष्टि हैं किन्तु शैतान के द्वारा लूट लिये गए हैं और इस कारण वे बचाए जाने में असमर्थ हैं। धार्मिक आचरण वाले प्राणी इस तथ्य पर भरोसा नहीं कर सकते हैं कि इस बात से इनकार करने के लिए जीवित बचे रहेंगे कि वे परमेश्वर के द्वारा सृजन किए गए हैं मगर शैतान के द्वारा भ्रष्ट किए जाने के बाद उद्धार प्राप्त कर चुके हैं। कुकर्मी लोग ऐसे प्राणी हैं जो परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करते हैं; ये ऐसे प्राणी हैं जिन्हें बचाया नहीं जा सकता है और ये पहले से ही शैतान के द्वारा पूरी तरह से लूट लिए गए हैं। पाप करने वाले लोग भी मनुष्य ही हैं; वे ऐसे लोग हैं जो चरम सीमा तक भ्रष्ट किए जा चुके हैं और ऐसे लोग हैं जिन्हें बचाया नहीं जा सकता है। ठीक जिस प्रकार वे भी प्राणी हैं, धार्मिक आचरण वाले लोग भी भ्रष्ट किए गए हैं, परंतु ये वे लोग हैं जो अपने भ्रष्ट स्वभाव को छोड़कर मुक्त होना चाहते हैं और परमेश्वर का आज्ञा पालन करने में सक्षम हैं। धार्मिक आचरण वाले लोग धार्मिकता से नहीं भरे हैं; बल्कि, वे उद्धार प्राप्त कर चुके हैं और परमेश्वर का आज्ञापालन करने के लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव को छोड़ कर स्वतंत्र हो गए हैं; वे अंत में डटे रहेंगे, परंतु कहने का यह अर्थ नहीं है कि वे शैतान के द्वारा भ्रष्ट नही किए गए थे। परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाने के बाद, उसके सभी प्राणियों में, वे लोग होंगे जो नष्ट किए जाएँगे और वे होंगे जो जीवित बचे रहेंगे। यह उसके प्रबंधन कार्य की एक अपरिहार्य प्रवृत्ति है। इस से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है। कुकर्मी लोग जीवित नहीं बच सकते हैं; जो लोग अंत तक उसका आज्ञापालन और अनुसरण करते हैं वे निश्चित रूप से जीवित बचेंगे। चूँकि यह कार्य मानवजाति के प्रबंधन का है, इसलिए कुछ होंगे जो बचे रहेंगे और कुछ होंगे जो नष्ट कर दिए जाएँगे। ये अलग-अलग प्रकार के लोगों के अलग-अलग परिणाम है और उसके प्राणियों के लिए सबसे अधिक उपयुक्त व्यवस्थाएँ हैं। मानवजाति के लिए परमेश्वर का अंतिम प्रबंधन परिवारों को ध्वस्त करके, देशों को ध्वस्त करके और राष्ट्रीय सीमाओं को ध्वस्त करके विभाजित करना है। यह परिवारों और राष्ट्र की सीमाओं के बिना एक है, क्योंकि, अंततः, मनुष्य एक ही पूर्वज का है, और परमेश्वर का सृजन है। संक्षेप में, कुकर्मी प्राणी नष्ट कर दिए जाएँगे, और जो परमेश्वर का आज्ञापालन करते हैं, वे जीवित बचेंगे। इस तरह, शेष भविष्य में कोई परिवार नहीं होगा, कोई देश नहीं होगा, विशेषरूप से कोई राष्ट्र नहीं होगा; इस प्रकार की मानवजाति सबसे अधिक पवित्र प्रकार की मानवजाति होगी। आदम और हव्वा का सृजन मूल रूप से इसलिए किया गया था ताकि मनुष्य पृथ्वी की सभी चीजों की देखभाल कर सके; आरंभ में मनुष्य सभी चीजों का स्वामी था। मनुष्य के सृजन में यहोवा का अभिप्राय मनुष्य को पृथ्वी पर अस्तित्व बनाए रखने की और इसके ऊपर की सभी चीजों की देखभाल भी करने की अनुमति भी देना था, क्योंकि तब मनुष्य आरंभ में भ्रष्ट नहीं किया गया था, और पाप करने में असमर्थ था। और परमेश्वर द्वारा उद्धार मनुष्य के इस प्रकार्य को, मनुष्य के मूल कारण को पुनः-स्थापित करना और मूल आज्ञाकारिता को पुर्नस्थापित करना है; विश्राम में मानवजाति उस परिणाम का सटीक चित्र होगी जो उसका उद्धार का कार्य प्राप्त करने की आशा रखता है। यद्यपि यह अदन के बगीचे के जीवन के समान अब और नहीं होगा, किन्तु उसका मूलतत्व वही होगा; मानवजाति केवल अपनी आरंभिक बिना भ्रष्ट हुई अस्मिता में अब और नहीं होगी, बल्कि ऐसी मानवजाति होगी जिसे भ्रष्ट किया गया था और फिर उसने उद्धार प्राप्त कर लिया। ये लोग जिन्होंने उद्धार प्राप्त कर लिया है अंततः (अर्थात् जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाता है) विश्राम में प्रवेश करेंगे। इसी प्रकार, जिन्हें दण्ड दिया गया है उनके परिणाम भी अंत में पूर्ण रूप से प्रकट किए जाएँगे, और उन्हें केवल तभी नष्ट किया जाएगा जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा। कहने का अभिप्राय है कि जब उसका कार्य समाप्त हो जाता है, तो वे जो कुकर्मी हैं और वे जिन्हें बचाया जा चुका है, सभी प्रकट किये जाएँगे, क्योंकि सभी प्रकार के लोगों को प्रकट करने का कार्य (इस बात की परवाह किए बिना कि वे कुकर्मी हैं या बचाए गए हैं) सभी मनुष्यों पर एक साथ संपन्न किया जाएगा। कुकर्मी हटा दिए जाएँगे, और जो बचे रह सकते हैं वे साथ-साथ प्रकट किए जाएँगे। इसलिए, सभी प्रकार के लोगों के परिणाम एक साथ प्रकट किए जाएँगे। वह कुकर्मी लोगों को अलग रखने और एक बार में उनका थोड़ा सा न्याय करने या उन्हें दण्डित करने से पूर्व, पहले ऐसे लोगों को विश्राम में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देगा जिन्हें बचाया जा चुका है; सत्य वास्तव में ऐसा नहीं है। जब कुकर्मी नष्ट हो जाते हैं और जो बचे रह सकते हैं वे विश्राम में प्रवेश कर लेते हैं, तब समस्त ब्रम्हाण्ड में उसका कार्य समाप्त हो चुका होगा। वहाँ जो आशीषें पाएँगे और जो दुर्भाग्य से पीड़ित होंगे उन के बीच प्राथमिकता का क्रम नहीं होगा; जो आशीष पाएँगे वे अनंतकाल तक जीवित रहेंगे, और जो दुर्भाग्य से पीड़ित होंगे, वे समस्त अनंतकाल तक नष्ट होंगे। कार्य के ये दोनों कदम साथ-साथ पूर्ण होंगे। यह ठीक-ठीक इसलिए है क्योंकि अवज्ञाकारी लोग हैं ताकि आज्ञाकारी लोगों की धार्मिकता प्रकट होगी, और यह ठीक-ठीक इसलिए है क्योंकि ऐसे लोग हैं जो आशीषें प्राप्त कर चुके हैं ताकि उन कुकर्मियों के दुष्ट आचरण के कारण उनके द्वारा सहे जा रहे दुर्भाग्य प्रकट किए जाएँगे। यदि परमेश्वर ने कुकर्मियों को प्रकट नहीं किया, तो वे लोग जो ईमानदारी से परमेश्वर का आज्ञा पालन करते हैं कभी भी प्रकाश को नहीं देखेंगे; यदि परमेश्वर उन्हें उचित नियति में नहीं पहुँचाता है जो आज्ञा पालन करते हैं, तो जो परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी हैं वे अपने योग्य दण्ड को प्राप्त नहीं कर पाएँगे। यही परमेश्वर के कार्य की प्रक्रिया है। यदि वह बुरे को दण्ड देने एवं अच्छे को पुरस्कृत करने का यह कार्य नहीं करता, तो उसके प्राणी कभी भी अपनी संबंधित नियतियों में पहुँचने में सक्षम नहीं हो पाते। एक बार जब मानवजाति विश्राम में प्रवेश कर लेगी तब कुकर्मियों को नष्ट कर दिया जाएगा, समस्त मानवजाति सही मार्ग पर आ जाएगी, और हर प्रकार का व्यक्ति उन प्रकार्यों के अनुसार जो उसे करने चाहिए, अपने स्वयं के प्रकार के साथ हो जाएगा। केवल यही मानवजाति के विश्राम का दिन होगा और मानव जाति के विकास की अपरिहार्य प्रवृत्ति होगी, और जब मानवजाति विश्राम में प्रवेश करेगी केवल तभी परमेश्वर की महान और चरम कार्यसिद्धि पूर्णता पर पहुँचेगी; यह उसके कार्य का समापन अंश होगा। यह कार्य मानवजाति के ह्रासोन्मुख भौतिक जीवन का अंत करेगा, और यह भ्रष्ट मानवजाति का अंत करेगा। यहाँ से मानवजाति एक नए राज्य में प्रवेश करेगी। यद्यपि मनुष्य का भौतिक अस्तित्व रहता है, किंतु उसके इस जीवन के मूलतत्व और भ्रष्ट मानवजाति के मूलतत्व में महत्त्वपूर्ण अंतर होते हैं। उसके अस्तित्व का अर्थ और भ्रष्ट मानवजाति के अस्तित्व का अर्थ भी भिन्न होता है। यद्यपि यह एक नए प्रकार के व्यक्ति का जीवन नहीं है, किंतु यह कहा जा सकता है कि यह उस मानवजाति का जीवन है जो उद्धार प्राप्त कर चुकी है और ऐसा जीवन है जिसने मानवता और विवेक को पुनःप्राप्त कर लिया है। ये वे लोग हैं जो कभी परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी थे, और जिन्हें कभी परमेश्वर के द्वारा जीता गया था और फिर उसके द्वारा बचाया गया था; ये वे लोग हैं जिन्होंने परमेश्वर को लज्जित किया और बाद में उसकी गवाही दी। उसकी परीक्षा से गुज़रकर बचे रहने के बाद, उनका अस्तित्व ही सबसे अधिक अर्थपूर्ण अस्तित्व है; ये वे लोग हैं जिन्होंने शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दी; ये वे लोग हैं जो जीवित रहने के योग्य हैं। जो नष्ट किए जाएँगे ये वे लोग हैं जो परमेश्वर के गवाह नहीं बन सकते हैं और जो जीवित रहने के योग्य नहीं हैं। उनका विनाश, उनके दुष्ट आचरण के कारण होगा, और विनाश ही उनकी सर्वोत्तम नियति है। जब मनुष्य बाद में एक अच्छे राज्य में प्रवेश करेगा, तब पति और पत्नी के बीच, पिता और पुत्री के बीच या माँ और पुत्र के बीच ऐसा कोई भी संबंध नहीं होगा जैसी मनुष्य कल्पना करता है कि उसे मिलेगा। उस समय, मनुष्य अपने प्रकार के लोगों का अनुसरण करेगा, और परिवार पहले ही ध्वस्त हो चुका होगा। पूरी तरह से असफल होने पर, शैतान फिर कभी मानवजाति को परेशान नहीं करेगा, और मनुष्य का भ्रष्ट शैतानी स्वभाव अब और नहीं होगा। वे अवज्ञाकारी लोग पहले ही नष्ट किये जा चुके होंगे, और केवल वे आज्ञाकारी लोग ही जीवित बचेंगे। और इस प्रकार बहुत थोड़े से परिवार पूर्ण जीवित बचेंगे; तब भी मनुष्यों के बीच भौतिक संबंध अस्तित्व में रहने में कैसे समर्थ होंगे? मनुष्य का अतीत का भौतिक जीवन पूरी तरह से प्रतिषिद्ध होगा; लोगों के बीच भौतिक संबंध कैसे अस्तित्व में रहने में समर्थ होंगे? शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के बिना, लोगों का जीवन अतीत के पुराने जीवन के समान अब और नहीं होगा, बल्कि एक नया जीवन होगा। माता-पिता बच्चों को गँवा देंगे, और बच्चे माता-पिता को गँवा देंगे। पति पत्नियों को गँवा देंगे, और पत्नियाँ पतियों को गँवा देंगी। लोगों का अब एक दूसरे के साथ भौतिक संबंध होता है। जब वे सब विश्राम में प्रवेश कर जाएँगे तो उनके बीच अब और कोई शारीरिक संबंध नहीं होगा। केवल इस प्रकार की मानवजाति में ही धार्मिकता और पवित्रता होगी, और केवल इस प्रकार की मानवजाति ही वह होगी जो परमेश्वर की आराधना करेगी।
परमेश्वर ने मानवजाति का सृजन किया, उसे पृथ्वी पर रखा, और उसकी आज के दिन तक अगुआई की। उसने तब मानवजाति को बचाया और मानवजाति के लिये पापबली के रूप में कार्य किया। अंत में उसे अभी भी अवश्य मानवजाति को जीतना चाहिए, मानवजाति को पूर्णतः बचाना चाहिए और उसे उसकी मूल समानता में पुनर्स्थापित करना चाहिए। यही वह कार्य है जिसमें वह आरंभ से लेकर अंत तक संलग्न रहा है—मनुष्य को उसकी मूल छवि में और उसकी मूल समानता में पुनर्स्थापित करना। वह अपना राज्य स्थापित करेगा और मनुष्य की मूल समानता पुनर्स्थापित करेगा, जिसका अर्थ है कि वह पृथ्वी पर अपने अधिकार को पुनर्स्थापित करेगा, और समस्त प्राणियों के बीच अपने अधिकार को पुर्नस्थापित करेगा। शैतान के द्वारा भ्रष्ट किए जाने पर मनुष्य ने, परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी शत्रु बनते हुए, अपना धर्मभीरू हृदय गँवा दिया है और उस प्रकार्य को गँवा दिया जो परमेश्वर के सृजित प्राणियों में से एक के पास होना चाहिए। मनुष्य शैतान के अधिकार क्षेत्र के अधीन रहा और उसने उसके आदेशों का पालन किया; इस प्रकार, अपने प्राणियों के बीच कार्य करने का परमेश्वर के पास कोई मार्ग नहीं था, और तो और अपने प्राणियों से परमेश्वर का भय प्राप्त करने में असमर्थ था। मनुष्य परमेश्वर के द्वारा सृजित था, और उसे परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए थी, परंतु मनुष्य ने वास्तव में परमेश्वर की ओर पीठ फेर दी और शैतान की आराधना की। शैतान मनुष्य के हृदय में प्रतिमा बन गया। इस प्रकार, परमेश्वर ने मनुष्य के हृदय में अपना स्थान खो दिया, जिसका मतलब है कि उसने मनुष्य के सृजन के अपने अर्थ को खो दिया, और इसलिए मनुष्य के सृजन के अपने अर्थ को पुनर्स्थापित करने के लिए उसे अवश्य मनुष्य की मूल समानता को पुनर्स्थापित करना चाहिए, और मनुष्य को उसके भ्रष्ट स्वभाव से छुड़ाना चाहिए। शैतान से मनुष्य को वापस प्राप्त करने के लिए, उसे अवश्य मनुष्य को पाप से बचाना चाहिए। केवल इसी तरह से वह धीरे-धीरे मनुष्य की मूल समानता को पुनर्स्थापित कर सकता है और मनुष्य के मूल प्रकार्य को पुनर्स्थापित कर सकता है, और अंत में अपने राज्य को पुनर्स्थापित कर सकता है। अवज्ञा के उन पुत्रों को अंतिम रूप से इसलिए भी नष्ट किया जाएगा ताकि मनुष्य को बेहतर ढंग से परमेश्वर की आराधना करने दी जाए और पृथ्वी पर बेहतर ढंग से जीने दिया जाए। चूँकि परमेश्वर ने मानवों का सृजन किया है, इसलिए वह मनुष्य से अपनी आराधना करवाएगा; चूँकि वह मनुष्य के मूल प्रकार्य को पुनर्स्थापित करना चाहता है, इसलिए वह उसे पूर्ण रूप से और बिना किसी मिलावट के पुनर्स्थापित करेगा। अपना अधिकार पुनर्स्थापित करने का अर्थ है, मनुष्य से अपनी आराधना करवाना और मनुष्य से अपना आज्ञापालन करवाना; इसका अर्थ है कि वह अपनी वजह से मनुष्य को जीवित रखवाएगा, और अपने अधिकार की वजह से अपने शत्रुओं को नष्ट करवाएगा; इसका अर्थ है कि वह अपने हर अंतिम भाग को मानवजाति के बीच और मनुष्य द्वारा किसी भी प्रतिरोध के बिना बनाए रखेगा। जो राज्य वह स्थापित करना चाहता है, वह उसका स्वयं का राज्य है। जिस मानवजाति की वह इच्छा करता है वह है जो उसकी आराधना करती है, जो पूर्णतः उसकी आज्ञा का पालन करती है और उसकी महिमा रखती है। यदि वह भ्रष्ट मानवजाति को नहीं बचाता है, तो मनुष्य का सृजन करने का उसका अर्थ व्यर्थ हो जाएगा; मनुष्यों के बीच उसका अब और अधिकार नहीं रहेगा, और पृथ्वी पर उसके राज्य का अस्तित्व अब और नहीं रह पाएगा। यदि वह उन शत्रुओं का नाश नहीं करता है जो उसके प्रति अवज्ञाकारी हैं, तो वह अपनी संपूर्ण महिमा को प्राप्त करने में असमर्थ होगा, न ही वह पृथ्वी पर अपने राज्य की स्थापना करने में समर्थ होगा। ये परमेश्वर का कार्य पूरा होने के प्रतीक हैं और उसकी महान उपलब्धियों की पूर्णता के प्रतीक हैं: मानवजाति में से उन सबको सर्वथा नष्ट करना जो उसके प्रति अवज्ञाकारी हैं, और जो पूर्ण किए जा चुके हैं उन्हें विश्राम में लाना। जब मनुष्यजाति को उसकी मूल समानता में पुनर्स्थापित कर दिया जाता है, जब मानवजाति अपने संबंधित कर्तव्यों को पूरा कर सकती है, अपने स्वयं के स्थान को सुरक्षित रख सकती है और परमेश्वर की सभी व्यवस्थाओं का पालन कर सकती है, तो परमेश्वर पृथ्वी पर लोगों के एक समूह को प्राप्त कर चुका होगा जो उसकी आराधना करते हैं, वह पृथ्वी पर एक राज्य स्थापित कर चुका होगा जो उसकी आराधना करता है। उसके पास पृथ्वी पर अनंत विजय होगी, और जो उसके विरोध में है वे अनंतकाल के लिए नष्ट हो जाएँगे। इससे मनुष्य का सृजन करने का उसका मूल अभिप्राय पुनर्स्थापित हो जाएगा; इससे सब चीजों के सृजन का उसका मूल अभिप्राय पुनर्स्थापित हो जाएगा, और इससे पृथ्वी पर उसका अधिकार, सभी चीजों के बीच उसका अधिकार और उसके शत्रुओं के बीच उसका अधिकार भी पुनर्स्थापित हो जाएगा। ये उसकी संपूर्ण विजय के प्रतीक हैं। इसके बाद से मानवजाति विश्राम में प्रवेश करेगी और ऐसे जीवन में प्रवेश करेगी जो सही मार्ग का अनुसरण करता है। मनुष्य के साथ परमेश्वर भी अनंत विश्राम में प्रवेश करेगा, और एक अनंत जीवन में प्रवेश करेगा जो परमेश्वर और मनुष्य द्वारा साझा किया जाता है। पृथ्वी पर से गंदगी और अवज्ञा ग़ायब हो जाएगी, वैसे ही पृथ्वी पर से विलाप ग़ायब हो जाएगा। उन सभी का अस्तित्व पृथ्वी पर नहीं रहेगा जो परमेश्वर का विरोध करते हैं। केवल परमेश्वर और वे जिन्हें उसने बचाया है ही शेष बचेंगे; केवल उसकी सृष्टि ही बचेगी।
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