1. अनुग्रह के युग में परमेश्वर ने मानव जाति को छुटकारा दिलाया था, तो क्यों आखिरी दिनों में उसे न्याय के अपने कार्य को करने की अब भी आवश्यकता है?
संदर्भ के लिए बाइबल के पद:
"इसलिये तुम पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ" (लैव्यव्यवस्था 11:45)।
"सबसे मेल मिलाप रखो, और उस पवित्रता के खोजी हो जिसके बिना कोई प्रभु को कदापि न देखेगा" (इब्रानियों 12:14)।
"यदि कोई मेरी बातें सुनकर न माने, तो मैं उसे दोषी नहीं ठहराता; क्योंकि मैं जगत को दोषी ठहराने के लिये नहीं, परन्तु जगत का उद्धार करने के लिये आया हूँ। जो मुझे तुच्छ जानता है और मेरी बातें ग्रहण नहीं करता है उसको दोषी ठहरानेवाला तो एक है: अर्थात् जो वचन मैं ने कहा है, वही पिछले दिन में उसे दोषी ठहराएगा" (युहन्ना 12:47-48)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
उस समय यीशु का कार्य समस्त मानव जाति का छुटकारा था। उन सभी के पापों को क्षमा कर दिया गया था जो उसमें विश्वास करते थे; जितने समय तक तुम उस पर विश्वास करते थे, उतने समय तक वह तुम्हें छुटकारा देगा; यदि तुम उस पर विश्वास करते थे, तो तुम अब और पापी नहीं थे, तुम अपने पापों से मुक्त हो गए थे। यही है बचाए जाने, और विश्वास द्वारा उचित ठहराए जाने का अर्थ। फिर भी जो विश्वास करते थे उन लोगों के बीच, वह रह गया था जो विद्रोही था और परमेश्वर का विरोधी था, और जिसे अभी भी धीरे-धीरे हटाया जाना था। उद्धार का अर्थ यह नहीं था कि मनुष्य पूरी तरह से यीशु द्वारा प्राप्त कर लिया गया था, लेकिन यह कि मनुष्य अब और पापी नहीं था, कि उसे उसके पापों से क्षमा कर दिया गया था: बशर्ते कि तुम विश्वास करते थे, तुम कभी भी अब और पापी नहीं बनोगे।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (2)" से
जब यीशु अपना काम कर रहा था, तो उसके बारे में मनुष्य का ज्ञान तब भी अज्ञात और अस्पष्ट था। मनुष्य ने हमेशा यह विश्वास किया कि वह दाऊद का पुत्र है और उसके एक महान भविष्यद्वक्ता और उदार प्रभु होने की घोषणा की जिसने मनुष्य को पापों से छुटकारा दिया था। विश्वास के आधार पर मात्र उसके वस्त्र के छोर को छू कर ही कुछ लोग चंगे हो गए थे; अंधे देख सकते थे और यहाँ तक कि मृतक को जिलाया भी जा सकता था। हालाँकि, मनुष्य अपने भीतर गहराई से जड़ जमाए हुए शैतानी भ्रष्ट स्वभाव को नहीं समझ सका और न ही मनुष्य यह जानता था कि उसे कैसे दूर किया जाए। मनुष्य ने बहुतायत से अनुग्रह प्राप्त किया, जैसे देह की शांति और खुशी, एक व्यक्ति के विश्वास करने पर पूरे परिवार की आशीष, और बीमारियों से चंगाई के इत्यादि। शेष मनुष्य भले कर्म और उनका ईश्वरीय प्रकटन था; यदि मनुष्य इस तरह के आधार पर जीवन जी सकता था, तो उसे एक अच्छा विश्वासी माना जाता था। केवल ऐसे विश्वासी ही मृत्यु के बाद स्वर्ग में प्रवेश कर सकते थे, जिसका अर्थ है कि उन्हें बचा लिया गया था। परन्तु, अपने जीवन काल में, उन्होंने जीवन के मार्ग को बिलकुल भी नहीं समझा था। उन्होंने बस पाप किए थे, फिर परिवर्तित स्वभाव की ओर बिना किसी मार्ग वाले निरंतर चक्र में पाप-स्वीकारोक्ति की थी; अनुग्रह के युग में मनुष्य की दशा ऐसी ही थी। क्या मनुष्य ने पूर्ण उद्धार पा लिया था? नहीं! इसलिए, उस चरण के पूरा हो जाने के पश्चात्, अभी भी न्याय और ताड़ना का काम है। यह चरण वचन के माध्यम से मनुष्य को शुद्ध बनाता है ताकि मनुष्य को अनुसरण करने का एक मार्ग प्रदान किया जाए। यह चरण फलप्रद या अर्थपूर्ण नहीं होगा यदि यह दुष्टात्माओं को निकालना जारी रखता है, क्योंकि मनुष्य के पापी स्वभाव को दूर नहीं जाएगा और मनुष्य केवल पापों की क्षमा पर आकर रुक जाएगा। पापबलि के माध्यम से, मनुष्य के पापों को क्षमा किया गया है, क्योंकि सलीब पर चढ़ने का कार्य पहले से ही पूरा हो चुका है और परमेश्वर शैतान को जीत लिया है। परन्तु मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव अभी भी उनके भीतर बना हुआ है और मनुष्य अभी भी पाप कर सकता है और परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है; परमेश्वर ने मानवजाति को प्राप्त नहीं किया है। इसीलिए कार्य के इस चरण में परमेश्वर मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करने के लिए वचन का उपयोग करता है और मनुष्य से सही मार्ग के अनुसार अभ्यास करने के लिए कहता है। यह चरण पिछले चरण की अपेक्षा अधिक अर्थपूर्ण और साथ ही अधिक लाभदायक भी है, क्योंकि अब वचन ही है जो सीधे तौर पर मनुष्य के जीवन की आपूर्ति करता है और मनुष्य के स्वभाव को पूरी तरह से नया बनाए जाने में सक्षम बनाता है; यह कार्य का ऐसा चरण है जो अधिक विस्तृत है। इसलिए, अंत के दिनों में देहधारण ने परमेश्वर के देहधारण के महत्व को पूरा किया है और मनुष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन योजना का पूर्णतः समापन किया है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से
तुम जैसा पापी, जिसे बस अभी अभी छुड़ाया गया है, और परिवर्तित नहीं किया गया है, या परमेश्वर के द्वारा सिद् नहीं किया गया है, क्या तुम परमेश्वर के हृदय के अनुसार हो सकते हो? तुम्हारे लिए, तुम जो अभी भी पुराने मनुष्यत्व के हो, यह सत्य है कि तुम्हें यीशु के द्वारा बचाया गया था, और यह कि परमेश्वर के उद्धार के कारण तुम्हें एक पापी के रूप में नहीं गिना जाता है, परन्तु इससे यह साबित नहीं होता है कि तुम पापपूर्ण नहीं हो, और अशुद्ध नहीं हो। यदि तुमने अपने आपको नहीं बदला है तो तुम संत के समान कैसे हो सकते हो? भीतर से, तुम अशुद्धता के द्वारा घिरे हुए हो, स्वार्थी एवं कुटिल हो, फिर भी तुम चाहते हो कि यीशु के साथ आओ – तुम्हें बहुत ही भाग्यशाली होना चाहिए! तुम परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में एक चरण में चूक गए हो: तुम्हें महज छुड़ाया गया है, परन्तु परिवर्तित नहीं किया गया है। तुम्हें परमेश्वर के हृदय के अनुसार होने के लिए, परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से तुम्हें बदलने एवं शुद्ध करने के कार्य को करना होगा; यदि तुम्हें सिर्फ छुड़ाया गया है, तो तुम शुद्धता को हासिल करने में असमर्थ होगे। इस रीति से तुम परमेश्वर की अच्छी आशिषों में भागी होने के लिए अयोग्य होगे, क्योंकि तुमने मनुष्य का प्रबंध करने के परमेश्वर के कार्य के एक चरण को पाने का ससुअवसर खो दिया है, जो बदलने एवं सिद्ध करने का मुख्य चरण है। और इस प्रकार तुम, एक पापी जिसे बस अभी अभी छुड़ाया गया है, परमेश्वर की विरासत को सीधे तौर पर उत्तराधिकार के रूप में पाने में असमर्थ हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "पद नामों एवं पहचान के सम्बन्ध में" से
यद्यपि मनुष्य को छुटकारा दिया गया है और उसके पापों को क्षमा किया गया है, फिर भी इसे केवल इतना ही माना जाता है कि परमेश्वर मनुष्य के अपराधों का स्मरण नहीं करता है और मनुष्य के अपराधों के अनुसार मनुष्य से व्यवहार नहीं करता है। हालाँकि, जब मनुष्य देह में रहता है और उसे पाप से मुक्त नहीं किया गया है, तो वह, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को अंतहीन रूप से प्रकट करते हुए, केवल पाप करता रह सकता है। यही वह जीवन है जो मनुष्य जीता है, पाप और क्षमा का एक अंतहीन चक्र। अधिकांश मनुष्य दिन में सिर्फ इसलिए पाप करते हैं ताकि शाम को स्वीकार कर सकें। वैसे तो, भले ही पापबलि मनुष्य के लिए सदैव प्रभावी है, फिर भी यह मनुष्य को पाप से बचाने में समर्थ नहीं होगी। उद्धार का केवल आधा कार्य ही पूरा किया गया है, क्योंकि मनुष्य में अभी भी भ्रष्ट स्वभाव है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से
मनुष्य के लिए, परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने ने परमेश्वर के देहधारण के कार्य को संपन्न किया, समस्त मानव जाति को छुटकारा दिलाया, और परमेश्वर को अधोलोक की चाबी ज़ब्त करने की अनुमति दी। हर कोई सोचता है कि परमेश्वर का कार्य पूरी तरह से निष्पादित हो चुका है। वास्तविकता में, परमेश्वर के लिए, उसके कार्य का केवल एक छोटा सा हिस्सा ही निष्पादित हुआ है। उसने मानव जाति को केवल छुटकारा दिलाया है; उसने मानवजाति को जीता नहीं है, मनुष्य में शैतान की कुटिलता को बदलने की बात को तो छोड़ो। यही कारण है कि परमेश्वर कहता है, "यद्यपि मेरी देहधारी देह मृत्यु की पीड़ा से गुज़री है, किन्तु वह मेरे देहधारण का पूर्ण लक्ष्य नहीं था। यीशु मेरा प्यारा पुत्र है और उसे मेरे लिए सलीब पर चढ़ाया गया था, किन्तु उसने मेरे कार्य का पूरी तरह से समापन नहीं किया। उसने केवल इसका एक अंश पूरा किया।" इस प्रकार परमेश्वर ने देहधारण के कार्य को जारी रखने के लिए योजनाओं के दूसरे चक्र की शुरुआत की। परमेश्वर का अंतिम अभिप्राय शैतान के हाथों से बचाए गए हर एक को पूर्ण बनाना और प्राप्त करना है, यही वजह है कि परमेश्वर ने देह में आने के लिए फिर से विपत्तियों का जोख़िम लेने की तैयारी की।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "कार्य और प्रवेश (6)" से
यद्यपि यीशु ने मनुष्यों के बीच अधिक कार्य किया है, उसने केवल समस्त मानवजाति के छुटकारे के कार्य को पूरा किया और वह मनुष्य की पाप-बलि बना, मनुष्य को उसके भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा नहीं दिलाया। शैतान के प्रभाव से मनुष्य को पूरी तरह बचाने के लिये यीशु को न केवल पाप-बलि के रूप में मनुष्यों के पापों को लेना आवश्यक था, बल्कि मनुष्य को उसके भ्रष्ट स्वभाव से पूरी तरह मुक्त करने के लिए परमेश्वर को और भी बड़े कार्य करने की आवश्यकता थी जिसे शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया था। और इसलिए, मनुष्य को उसके पापों के लिए क्षमा कर दिए जाने के बाद, एक नये युग में मनुष्य की अगुवाई करने के लिए परमेश्वर वापस देह में लौटा, और उसने ताड़ना एवं न्याय के कार्य को आरंभ किया, और इस कार्य ने मनुष्य को एक उच्चतर क्षेत्र में पहुँचा दिया। वे सब जो परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन समर्पण करेंगे उच्चतर सत्य का आनंद लेंगे और अधिक बड़ी आशीषें प्राप्त करेंगे। वे वास्तव में ज्योति में निवास करेंगे, और सत्य, मार्ग और जीवन को प्राप्त करेंगे।
"वचन देह में प्रकट होता है" के लिए प्रस्तावना से
अंत के दिनों का कार्य वचनों को बोलना है। वचनों के माध्यम से मनुष्य में बड़े परिवर्तन किए जा सकते हैं। इन वचनों को स्वीकार करने पर इन लोगों में हुए परिवर्तन उन परिवर्तनों की अपेक्षा बहुत अधिक बड़े हैं जो चिन्हों और अद्भुत कामों को स्वीकार करने पर अनुग्रह के युग में लोगों पर हुए थे। क्योंकि, अनुग्रह के युग में, हाथ रखने और प्रार्थना करने के साथ ही दुष्टात्माएँ मनुष्य से निकल जाती थी, परन्तु मनुष्य के भीतर का भ्रष्ट स्वभाव तब भी बना रहता था। मनुष्य को उसकी बीमारी से चंगा किया गया था और उसके पापों को क्षमा किया गया था, परन्तु बस वह कार्य, कि किस प्रकार मनुष्य के भीतर से उन शैतानी स्वभावों को निकला जा सकता है, उसमें नहीं किया गया था। मनुष्य को केवल उसके विश्वास के कारण ही बचाया गया था और उसके पापों को क्षमा किया गया था, परन्तु उसका पापी स्वभाव उसमें से निकाला नहीं गया था और वह तब भी उसके अंदर बना रहा था। मनुष्य के पापों को देहधारी परमेश्वर के द्वारा क्षमा किया गया था, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य के भीतर कोई पाप नहीं है। पाप बलि के माध्यम से मनुष्य के पापों को क्षमा किया जा सकता है, परन्तु मनुष्य इस मसले को हल करने में असमर्थ रहा है कि वह कैसे आगे और पाप नहीं कर सकता है और कैसे उसके पापी स्वभाव को पूरी तरह से दूर किया जा सकता है और उसे रूपान्तरित किया जा सकता है। परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने के कार्य की वजह से मनुष्य के पापों को क्षमा किया गया था, परन्तु मनुष्य पुराने, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव में जीवन बिताता रहा। वैसे तो, मनुष्य को भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से अवश्य पूरी तरह से बचाया जाना चाहिए ताकि मनुष्य का पापी स्वभाव पूरी तरह से दूर किया जाए और फिर कभी विकसित न हो, इस प्रकार मनुष्य के स्वभाव को बदले जाने की अनुमति दी जाए। इसके लिए मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह जीवन में उन्नति के पथ को, जीवन के मार्ग को, और अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के मार्ग को समझे। साथ ही इसके लिए मनुष्य को इस मार्ग के अनुरूप कार्य करने की आवश्यकता है ताकि मनुष्य के स्वभाव को धीरे-धीरे बदला जा सके और वह प्रकाश की चमक में जीवन जी सके, और यह कि वह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार सभी चीज़ों को कर सके, और भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर कर सके, और शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो सके, उसके परिणामस्वरूप पाप से पूरी तरह से ऊपर उठ सके। केवल तभी मनुष्य पूर्ण उद्धार प्राप्त करेगा।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से
बीमारियों की चंगाई और दुष्टात्माओं को निकालने के द्वारा मनुष्य को उसके पापों से पूरी तरह से बचाया नहीं जा सकता है और चिन्हों और अद्भुत कामों के प्रदर्शन के द्वारा उसे पूरी तरह से पूर्ण नहीं किया जा सकता है। चंगाई करने और दुष्टात्माओं को निकालने का अधिकार मनुष्य को केवल अनुग्रह प्रदान करता है, परन्तु मनुष्य का देह तब भी शैतान से सम्बन्धित होता है और भ्रष्ट शैतानी स्वभाव तब भी मनुष्य के भीतर बना रहता है। दूसरे शब्दों में, वह जिसे शुद्ध नहीं किया गया है अभी भी पाप और गन्दगी से सम्बन्धित है। जब वचनों के माध्यम से मनुष्य को स्वच्छ कर दिया जाता है केवल उसके पश्चात् ही उसे परमेश्वर के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और वह पवित्र बनता है। यदि मनुष्य के भीतर से दुष्टात्माओं को निकालने और उसे छुटकारा देने से बढ़कर और कुछ नहीं किया जाता है, तो यह केवल मनुष्य को शैतान के हाथ से छीनना और उसे वापस परमेश्वर को लौटना है। हालाँकि, उसे परमेश्वर के द्वारा स्वच्छ या परिवर्तित नहीं किया गया है, और वह भ्रष्ट बना रहता है। मनुष्य के भीतर अब भी गन्दगी, विरोध, और विद्रोशीलता बनी हुई है; मनुष्य केवल छुटकारे के माध्यम से ही परमेश्वर के पास लौटा है, परन्तु मनुष्य को उसका कोई ज्ञान नहीं है और अभी भी परमेश्वर का विरोध और उसके साथ विश्वासघात करता है। मनुष्य को छुटकारा दिये जाने से पहले, शैतान के बहुत से ज़हर उसमें पहले से ही गाड़ दिए गए थे। हज़ारों वर्षों की शैतान की भ्रष्टता के बाद, मनुष्य के भीतर पहले ही ऐसा स्वभाव है जो परमेश्वर का विरोध करता है। इसलिए, जब मनुष्य को छुटकारा दिया गया है, तो यह छुटकारे से बढ़कर और कुछ नहीं है, जहाँ मनुष्य को एक ऊँची कीमत पर खरीदा गया है, परन्तु भीतर का विषैला स्वभाव नहीं हटाया गया है। मनुष्य जो इतना अशुद्ध है उसे परमेश्वर की सेवा करने के योग्य होने से पहले एक परिवर्तन से होकर अवश्य गुज़रना चाहिए। न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से, मनुष्य अपने भीतर के गन्दे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने में समर्थ हो सकता है। वह सब कार्य जिसे आज किया गया है वह इसलिए है ताकि मनुष्य को स्वच्छ और परिवर्तित किया जा सके; वचन के द्वारा न्याय और ताड़ना के और साथ ही शुद्धिकरण के माध्यम से, मनुष्य अपनी भ्रष्टता को दूर फेंक सकता है और उसे शुद्ध किया जा सकता है। इस चरण के कार्य को उद्धार का कार्य मानने के बजाए, कहना कहीं अधिक उचित होगा कि यह शुद्ध करने का कार्य है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से
6000 वर्षों के परमेश्वर के प्रबधंन के कार्य को तीन चरणों में बांटा गया है: व्यवस्था का युग, अनुग्रह का युग, और राज्य का युग। इन तीन चरणों का सम्पूर्ण कार्य मानवजाति के उद्धार के लिए है, कहने का तात्पर्य है, वे ऐसी मानवजाति के उद्धार के लिए हैं जिसे शैतान के द्वारा बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिया गया है। फिर भी, ठीक उसी समय वे इसलिए भी हैं ताकि परमेश्वर शैतान के साथ युद्ध कर सके। इस प्रकार, जैसे उद्धार के कार्य को तीन चरणों में बांटा गया है, वैसे ही शैतान के साथ युद्ध को भी तीन चरणों में बांटा गया है, और परमेश्वर के कार्य के इन दो चरणों को एक ही समय में संचालित किया जाता है। शैतान के साथ युद्ध वास्तव में मानवजाति के उद्धार के लिए है, और इसलिए क्योंकि मानवजाति के उद्धार का कार्य कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे एक ही चरण में सफलतापूर्वक पूरा किया जा सकता है, शैतान के साथ युद्ध को भी चरणों एवं अवधियों में विभाजित किया जाता है, और मनुष्य की आवश्यकताओं और मनुष्य के प्रति शैतान की भ्रष्टता की मात्रा के अनुसार ही शैतान के साथ युद्ध छेड़ा जाता है। … मनुष्य के उद्धार के कार्य में, तीन चरणों को सम्पन्न किया जा चुका है, कहने का तात्पर्य है कि शैतान की सम्पूर्ण पराजय से पहले शैतान के साथ युद्ध को तीन चरणों में विभक्त किया गया है। फिर भी शैतान के साथ युद्ध के सम्पूर्ण कार्य की भीतरी सच्चाई यह है कि मनुष्य को अनुग्रह प्रदान करने, और मनुष्य के लिए पापबलि बनने, मनुष्य के पापों को क्षमा करने, मनुष्य पर विजय पाने, और मनुष्यों को सिद्ध बनाने के माध्यम से इसके प्रभावों को हासिल किया जाता है। सच तो यह है कि शैतान के साथ युद्ध करना उसके विरुद्ध हथियार उठाना नहीं है, बल्कि मनुष्य का उद्धार है, मनुष्य के जीवन में कार्य करना है, और मनुष्य के स्वभाव को बदलना है ताकि वह परमेश्वर के लिए गवाही दे सके। इसी रीति से शैतान को पराजित किया जाता है। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को बदलकर ही शैतान को पराजित किया जाता है। जब शैतान को पराजित कर दिया जाता है, अर्थात्, जब मनुष्य को पूरी तरह से बचा लिया जाता है, तो लज्जित शैतान पूरी तरह से लाचार हो जाएगा, और इस रीति से, मनुष्य को पूरी तरह से बचाया लिया जाएगा। और इस प्रकार, मनुष्य के उद्धार का मूल-तत्व शैतान के साथ युद्ध है, और शैतान के साथ युद्ध मुख्य रूप से मनुष्य के उद्धार में प्रतिबिम्बित होता है। अंतिम दिनों का चरण, जिसमें मनुष्य पर विजय पानी है, शैतान के साथ युद्ध में अंतिम चरण है, और साथ ही शैतान के प्रभुत्व से मनुष्य के सम्पूर्ण उद्धार का कार्य भी है। मनुष्य पर विजय का आन्तरिक अर्थ है मनुष्य पर विजय पाने के बाद शैतान के मूर्त रूप, इंसान का सृष्टिकर्ता के पास वापस लौटना जिसे शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है, जिसके माध्यम से वह शैतान को छोड़ देगा और पूरी तरह से परमेश्वर के पास वापस लौटेगा। इस रीति से, मनुष्य को पूरी तरह से बचा लिया जाएगा। और इस प्रकार, विजय का कार्य शैतान के विरुद्ध युद्ध में अंतिम कार्य है, और शैतान की पराजय के लिए परमेश्वर के प्रबंधन में अंतिम चरण है। इस कार्य के बिना, मनुष्य का सम्पूर्ण उद्धार अन्ततः असंभव होगा, शैतान की सम्पूर्ण पराजय भी असंभव होगी, और मानवजाति कभी अपनी बेहतरीन मंज़िल में प्रवेश करने में, या शैतान के प्रभाव से छुटकारा पाने में सक्षम नहीं होगी। परिणामस्वरुप, शैतान के साथ युद्ध की समाप्ति से पहले मनुष्य के उद्धार के कार्य को समाप्त नहीं किया जा सकता है, क्योंकि परमेश्वर के प्रबधंन के कार्य का केन्द्रीय भाग मानवजाति के उद्धार के लिए है। एकदम आरंभ में मानवजाति परमेश्वर के हाथों में थी, परन्तु शैतान के प्रलोभन एवं भ्रष्टता की वजह से, मनुष्य को शैतान के द्वारा बांधा गया था और वह उस दुष्ट जन के हाथों में पड़ गया था। इस प्रकार, शैतान वह लक्ष्य बन गया था जिसे परमेश्वर के प्रबधंन के कार्य में पराजित किया जाना था। क्योंकि शैतान ने मनुष्य पर कब्ज़ा कर लिया था, और क्योंकि मनुष्य परमेश्वर के सम्पूर्ण प्रबंधन की पूंजी (सम्पदा) है, यदि मनुष्य का उद्धार करना है, तो उसे शैतान के हाथों से वापस छीनना होगा, कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य को शैतान के द्वारा बन्दी बना लिए जाने के बाद उसे वापस लेना होगा। मनुष्य के पुराने स्वभाव में बदलावों के माध्यम से शैतान को पराजित किया जाता है जो उसके मूल एहसास को पुनः स्थापित करता है, और इस रीति से मनुष्य को, जिसे बन्दी बना लिया गया था, शैतान के हाथों से वापस छीना जा सकता है। यदि मनुष्य को शैतान के प्रभाव एवं दासता से स्वतन्त्र किया जाता है, तो शैतान शर्मिन्दा होगा, मनुष्य को अंततः वापस ले लिया जाएगा और शैतान को हरा दिया जाएगा। और क्योंकि मनुष्य को शैतान के अंधकारमय प्रभाव से स्वतन्त्र किया गया है, इसलिए मनुष्य इस सम्पूर्ण युद्ध का लूट का सामान बन जाएगा, और जब एक बार यह युद्ध समाप्त हो जाता है तो शैतान वह लक्ष्य बन जाएगा जिसे दण्डित किया जाएगा, जिसके पश्चात् मनुष्य के उद्धार के सम्पूर्ण कार्य को पूरा कर लिया जाएगा।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "मनुष्य के सामान्य जीवन को पुनःस्थापित करना और उसे एक बेहतरीन मंज़िल पर ले चलना" से
छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना कार्य के तीन चरणों में विभाजित है। कोई भी अकेला चरण तीनों युगों के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है बल्कि सम्पूर्ण के केवल एक भाग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। यहोवा नाम परमेश्वर के सम्पूर्ण स्वभाव का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। इस तथ्य से कि उसने व्यवस्था के युग में कार्य किया है यह साबित नहीं होता है कि परमेश्वर केवल व्यवस्था के अधीन ही परमेश्वर हो सकता है। यहोवा ने, मनुष्य से मंदिर और वेदियाँ बनाने के लिए कहते हुए, मनुष्य के लिए व्यवस्थाएँ निर्धारित की और आज्ञाओं की घोषणा की; उसने जो कार्य किया उसने केवल व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व किया। उसने जो कार्य वह यह साबित नहीं करता है कि परमेश्वर वही परमेश्वर है जो मनुष्य से व्यवस्था, मंदिर में परमेश्वर, या वेदी के सामने के परमेश्वर को बनाए रखने के लिए कहता है। ऐसा नहीं कहा जा सकता है। व्यवस्था के अधीन कार्य केवल एक युग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। इसलिए, यदि परमेश्वर ने केवल व्यवस्था के युग में ही काम किया होता, तो मनुष्य ने परमेश्वर को परिभाषित कर दिया होता और कहता, "परमेश्वर मंदिर का परमेश्वर है। परमेश्वर की सेवा करने के लिए, हमें अवश्य याजकीय वस्त्र पहनने चाहिए और मंदिर में प्रवेश करना चाहिए।" यदि अनुग्रह के युग में उस कार्य को कभी नहीं किया जाता और व्यवस्था का युग वर्तमान तक जारी रहता, तो मनुष्य यह नहीं जान पाता कि परमेश्वर दयावान और प्रेममय भी है। यदि व्यवस्था के युग में कार्य नहीं किया जाता, और केवल यह अनुग्रह के युग में ही किया जाता, तो मनुष्य बस इतना ही जान पाता कि परमेश्वर मनुष्य को छुटकारा दे सकता है और मनुष्य के पापों को क्षमा कर सकता है। वे केवल इतना ही जान पाते कि वह पवित्र और निर्दोष है, कि वह मनुष्य के लिए स्वयं का बलिदान कर सकता है और सलीब पर चढ़ाया जा सकता है। मनुष्य केवल इतना ही जान पाता और अन्य सभी बातों के बारे में उसके पास कोई समझ नहीं होती। अतः, प्रत्येक युग परमेश्वर के स्वभाव के एक भाग का प्रतिनिधित्व करता है। व्यवस्था का युग कुछ पहलुओं का प्रतिनिधित्व करता है, अनुग्रह का युग कुछ पहलुओं का प्रतिनिधित्व करता है, और फिर यह युग कुछ पहलुओं का प्रतिनिधित्व करता है। परमेश्वर के स्वभाव को सिर्फ तीनों युगों को मिलाने के माध्यम से ही पूरी तरह से प्रकट किया जा सकता है। जब मनुष्य इन तीनों चरणों को पहचान जाता है केवल तभी मनुष्य इसे पूरी तरह से प्राप्त कर सकता है। तीनों में से एक भी चरण को छोड़ा नहीं जा सकता है। जब एक बार तुम कार्य के इन तीनों चरणों को जान लेते हो तो केवल तभी तुम परमेश्वर के स्वभाव को उसकी सम्पूर्णता में देखोगे। व्यवस्था के युग में परमेश्वर द्वारा अपने कार्य की पूर्णता यह साबित नहीं करती है कि वह व्यवस्था के अधीन परमेश्वर है, और छुटकारे के उसके कार्य की पूर्णता यह नहीं दर्शाती है कि परमेश्वर सदैव के लिए मानवजाति को छुटकारा देगा। ये सभी मनुष्य के द्वारा निकाले गए निष्कर्ष हैं। अनुग्रह का युग समाप्ति पर आ गया है, परन्तु तुम यह नहीं कह सकते हो कि परमेश्वर केवल सलीब से ही सम्बन्धित है और यह कि क्रूस परमेश्वर द्वारा उद्धार का प्रतिनिधित्व करता है। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम परमेश्वर को परिभाषित कर रहे हो। इस चरण में, परमेश्वर मुख्य रूप से वचन का कार्य कर रहा है, परन्तु तुम यह नहीं कह सकते हो कि परमेश्वर मनुष्य के प्रति कभी दयालु नहीं रहा है और यह कि वह जो कुछ लेकर आया है वह ताड़ना और न्याय है। अंत के दिनों का कार्य यहोवा और यीशु के कार्य को और उन सभी रहस्यों को प्रकट कर देता है जिन्हें मनुष्य के द्वारा समझा नहीं गया है। इसे मानवजाति की नियति और अंत को प्रकट करने के लिए और मानवजाति के बीच उद्धार के सब कार्य का समापन करने के लिए किया जाता है। अंत के दिनों में कार्य का यह चरण सभी चीज़ों को समाप्ति की ओर ले आता है। मनुष्य के द्वारा समझे नहीं गए सभी रहस्यों को, मनुष्य को ऐसे रहस्यों में अंर्तदृष्टि पाने की अनुमति देने और उनके हृदयों में एक स्पष्ट समझ पाने के लिए, अवश्य सुलझाया जाना चाहिए। केवल तभी मनुष्य को उनके प्रकारों के अनुसार विभाजित किया जा सकता है। जब छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना पूर्ण हो जाती है केवल उसके पश्चात् ही परमेश्वर का स्वभाव अपनी सम्पूर्णता में मनुष्य की समझ में आएगा, क्योंकि तब उसकी प्रबंधन योजना समाप्त हो जाएगी।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से
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