3. परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों के बीच सभी का पारस्परिक संबंध।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
यहोवा के कार्य से ले कर यीशु के कार्य तक, और यीशु के कार्य से लेकर इस वर्तमान चरण तक, ये तीन चरण परमेश्वर के प्रबंधन की पूर्ण परिसीमा को आवृत करते हैं, और यह समस्त एक ही पवित्रात्मा का कार्य है। जब से उसने दुनिया बनाई, तब से परमेश्वर हमेशा मानव जाति का प्रबंधन करता आ रहा है। वही आरंभ और अंत है, वही प्रथम और अंतिम है, और वही एक है जो युग का आरंभ करता है और वही युग का अंत करता है।कार्य के तीन चरण, विभिन्न युगों और विभिन्न स्थानों में, निश्चित रूप से एक ही पवित्रात्मा द्वारा किए जाते हैं। वे सभी जो इन तीन चरणों को पृथक करते हैं, परमेश्वर का विरोध करते हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
… अंत के दिनों में किया गया कार्य व्यवस्था के युग या अनुग्रह के युग के कार्य का स्थान नहीं ले सकता है। हालाँकि, तीनों चरण आपस में एक दूसरे से जुड़कर एक सत्त्व बन जाते हैं और सभी एक ही परमेश्वर के द्वारा किये गए कार्य हैं। स्वाभाविक रूप में, इस कार्य का क्रियान्वयन तीन अलग-अलग युगों में विभाजित है। अंत के दिनों में किया गया कार्य हर चीज़ को समाप्ति की ओर ले जाता है; जो कुछ व्यवस्था के युग में किया गया वह आरम्भ का कार्य है; और जो अनुग्रह के युग में किया गया वह छुटकारे का कार्य है। … अंत के दिनों में, राज्य के युग का सूत्रपात करने के लिए केवल वचन का कार्य किया जाता है, परन्तु यह सभी युगों का प्रतिनिधि नहीं है। अंत के दिन अंत के दिनों से बढ़कर नहीं हैं और राज्य के युग से बढ़कर नहीं हैं, जो अनुग्रह के युग या व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। अंत के दिन मात्र वह समय है जिसमें छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना के समस्त कार्य को तुम लोगों पर प्रकट किया जाता है। अंत के दिन मात्र वह समय है जिसमें छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना के समस्त कार्य को तुम लोगों पर प्रकट किया जाता है। यह रहस्य से पर्दा उठाना है। …
अंत के दिनों का कार्य तीनों चरणों में से अंतिम चरण है। यह एक अन्य नए युग का कार्य है और संपूर्ण प्रबंधन कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना कार्य के तीन चरणों में विभाजित है। कोई भी अकेला चरण तीनों युगों के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है बल्कि सम्पूर्ण के केवल एक भाग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। यहोवा नाम परमेश्वर के सम्पूर्ण स्वभाव का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। इस तथ्य से कि उसने व्यवस्था के युग में कार्य किया है यह साबित नहीं होता है कि परमेश्वर केवल व्यवस्था के अधीन ही परमेश्वर हो सकता है। यहोवा ने, मनुष्य से मंदिर और वेदियाँ बनाने के लिए कहते हुए, मनुष्य के लिए व्यवस्थाएँ निर्धारित की और आज्ञाओं की घोषणा की; उसने जो कार्य किया उसने केवल व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व किया। उसने जो कार्य वह यह साबित नहीं करता है कि परमेश्वर वही परमेश्वर है जो मनुष्य से व्यवस्था, मंदिर में परमेश्वर, या वेदी के सामने के परमेश्वर को बनाए रखने के लिए कहता है। ऐसा नहीं कहा जा सकता है। व्यवस्था के अधीन कार्य केवल एक युग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। इसलिए, यदि परमेश्वर ने केवल व्यवस्था के युग में ही काम किया होता, तो मनुष्य ने परमेश्वर को परिभाषित कर दिया होता और कहता, "परमेश्वर मंदिर का परमेश्वर है। परमेश्वर की सेवा करने के लिए, हमें अवश्य याजकीय वस्त्र पहनने चाहिए और मंदिर में प्रवेश करना चाहिए।" यदि अनुग्रह के युग में उस कार्य को कभी नहीं किया जाता और व्यवस्था का युग वर्तमान तक जारी रहता, तो मनुष्य यह नहीं जान पाता कि परमेश्वर दयावान और प्रेममय भी है। यदि व्यवस्था के युग में कार्य नहीं किया जाता, और केवल यह अनुग्रह के युग में ही किया जाता, तो मनुष्य बस इतना ही जान पाता कि परमेश्वर मनुष्य को छुटकारा दे सकता है और मनुष्य के पापों को क्षमा कर सकता है। वे केवल इतना ही जान पाते कि वह पवित्र और निर्दोष है, कि वह मनुष्य के लिए स्वयं का बलिदान कर सकता है और सलीब पर चढ़ाया जा सकता है। मनुष्य केवल इतना ही जान पाता और अन्य सभी बातों के बारे में उसके पास कोई समझ नहीं होती। अतः, प्रत्येक युग परमेश्वर के स्वभाव के एक भाग का प्रतिनिधित्व करता है। व्यवस्था का युग कुछ पहलुओं का प्रतिनिधित्व करता है, अनुग्रह का युग कुछ पहलुओं का प्रतिनिधित्व करता है, और फिर यह युग कुछ पहलुओं का प्रतिनिधित्व करता है। परमेश्वर के स्वभाव को सिर्फ तीनों युगों को मिलाने के माध्यम से ही पूरी तरह से प्रकट किया जा सकता है। जब मनुष्य इन तीनों चरणों को पहचान जाता है केवल तभी मनुष्य इसे पूरी तरह से प्राप्त कर सकता है। तीनों में से एक भी चरण को छोड़ा नहीं जा सकता है। जब एक बार तुम कार्य के इन तीनों चरणों को जान लेते हो तो केवल तभी तुम परमेश्वर के स्वभाव को उसकी सम्पूर्णता में देखोगे। व्यवस्था के युग में परमेश्वर द्वारा अपने कार्य की पूर्णता यह साबित नहीं करती है कि वह व्यवस्था के अधीन परमेश्वर है, और छुटकारे के उसके कार्य की पूर्णता यह नहीं दर्शाती है कि परमेश्वर सदैव के लिए मानवजाति को छुटकारा देगा। ये सभी मनुष्य के द्वारा निकाले गए निष्कर्ष हैं। अनुग्रह का युग समाप्ति पर आ गया है, परन्तु तुम यह नहीं कह सकते हो कि परमेश्वर केवल सलीब से ही सम्बन्धित है और यह कि क्रूस परमेश्वर द्वारा उद्धार का प्रतिनिधित्व करता है। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम परमेश्वर को परिभाषित कर रहे हो। इस चरण में, परमेश्वर मुख्य रूप से वचन का कार्य कर रहा है, परन्तु तुम यह नहीं कह सकते हो कि परमेश्वर मनुष्य के प्रति कभी दयालु नहीं रहा है और यह कि वह जो कुछ लेकर आया है वह ताड़ना और न्याय है। अंत के दिनों का कार्य यहोवा और यीशु के कार्य को और उन सभी रहस्यों को प्रकट कर देता है जिन्हें मनुष्य के द्वारा समझा नहीं गया है। इसे मानवजाति की नियति और अंत को प्रकट करने के लिए और मानवजाति के बीच उद्धार के सब कार्य का समापन करने के लिए किया जाता है। अंत के दिनों में कार्य का यह चरण सभी चीज़ों को समाप्ति की ओर ले आता है। मनुष्य के द्वारा समझे नहीं गए सभी रहस्यों को, मनुष्य को ऐसे रहस्यों में अंर्तदृष्टि पाने की अनुमति देने और उनके हृदयों में एक स्पष्ट समझ पाने के लिए, अवश्य सुलझाया जाना चाहिए। केवल तभी मनुष्य को उनके प्रकारों के अनुसार विभाजित किया जा सकता है। जब छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना पूर्ण हो जाती है केवल उसके पश्चात् ही परमेश्वर का स्वभाव अपनी सम्पूर्णता में मनुष्य की समझ में आएगा, क्योंकि तब उसकी प्रबंधन योजना समाप्त हो जाएगी।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से
वर्तमान में किए गए कार्य ने अनुग्रह के युग के कार्य को आगे बढ़ाया है; अर्थात्, समस्त छह हजार सालों की प्रबन्धन योजना में कार्य आगे बढ़ाया है। यद्यपि अनुग्रह का युग समाप्त हो गया है, किन्तु परमेश्वर के कार्य ने आगे प्रगति की है। मैं क्यों बार-बार कहता हूँ कि कार्य का यह चरण अनुग्रह के युग और व्यवस्था के युग पर आधारित है? इसका अर्थ है कि आज के दिन का कार्य अनुग्रह के युग में किए गए कार्य की निरंतरता और व्यवस्था के युग में किए कार्य का उत्थान है। तीनों चरण आपस में घनिष्ठता से सम्बंधित हैं और एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। मैं यह भी क्यों कहता हूँ कि कार्य का यह चरण यीशु के द्वारा किए गए कार्य पर आधारित है? यदि यह चरण यीशु द्वारा किए गए कार्य पर आधारित न होता, तो फिर इस चरण में क्रूसीकरण, और पहले किए गए छुटकारे के कार्य को अब भी पूरा किए जाने की आवश्यकता होती। यह अर्थहीन होता। इसलिए, ऐसा नही है कि कार्य पूरी तरह समाप्त हो चुका है, बल्कि यह कि युग आगे बढ़ गया है, और यहाँ तक कि कार्य पहले से भी अधिक ऊँचा हो गया है। यह कहा जा सकता है कि कार्य का यह चरण अनुग्रह के युग की नींव और यीशु के कार्य की चट्टान पर निर्मित है। कार्य चरण-दर-चरण निर्मित किया जाता है, और यह चरण एक नई शुरुआत नहीं है। सिर्फ तीनों चरणों के कार्य के संयोजन को ही छह हजार सालों की प्रबन्धन योजना समझा जा सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण के महत्व को दो देहधारण पूरा करते हैं" से
कार्य का अंतिम चरण अकेला नहीं होता है, बल्कि यह उस पूर्ण का हिस्सा है जो पिछले दो चरणों के साथ मिलकर बनता है, कहने का अर्थ है कि कार्य के तीनों चरणों में से केवल एक को करके उद्धार के समस्त कार्य को पूर्ण करना असम्भव है। भले ही कार्य का अंतिम चरण मनुष्य को पूरी तरह से बचाने में समर्थ है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल इसी एक चरण को इसी के दम पर करना आवश्यक है और यह कि कार्य के पिछले दो चरण मनुष्यों को शैतान के प्रभाव से बचाने के लिए आवश्यक नहीं हैं। इन तीन चरणों में से किसी भी एक चरण को ही एकमात्र दर्शन के रूप में नहीं ठहराया जा सकता है जिसे समस्त मानवजाति के द्वारा अवश्य जानना चाहिए, क्योंकि उद्धार के कार्य की सम्पूर्णता कार्य के तीन चरण है न कि उनमें से कोई एक चरण। जब तक उद्धार का कार्य पूर्ण नहीं होगा तब तक परमेश्वर का प्रबंधन का कार्य पूरी तरह से समाप्त होने में असमर्थ होगा। परमेश्वर का अस्तित्व, स्वभाव और बुद्धि उद्धार के कार्य की सम्पूर्णता में व्यक्त होते हैं, मनुष्य पर एकदम आरम्भ में प्रकट नहीं होते हैं, परन्तु उद्धार के कार्य में धीरे-धीरे व्यक्त किए गए हैं। उद्धार के कार्य का प्रत्येक चरण परमेश्वर के स्वभाव के हिस्से को और उसके अस्तित्व के हिस्से को व्यक्त करता है; कार्य का हर चरण प्रत्यक्षतः और पूर्णतः परमेश्वर के अस्तित्व की संपूर्णता को व्यक्त नहीं कर सकता है। वैसे तो, उद्धार का कार्य केवल तभी पूरी तरह से सम्पन्न हो सकता है जब कार्य के ये तीनों चरण पूरे हो जाते हैं, और इसलिए परमेश्वर की सम्पूर्णता का मनुष्य का ज्ञान परमेश्वर के कार्य के तीनों चरणों से अवियोज्य है। कार्य के एक चरण से मनुष्य जो प्राप्त करता है वह सिर्फ़ परमेश्वर का स्वभाव है जो उसके कार्य के एक ही भाग में व्यक्त होता है। यह उस स्वभाव और अस्तित्व का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है जो चरणों से पहले या बाद में व्यक्त होता है। यह इसलिए है क्योंकि मानवजाति को बचाने का कार्य सीधे एक ही अवधि के दौरान या एक ही स्थान पर समाप्त नहीं किया जा सकता है, परन्तु भिन्न-भिन्न समयों और स्थानों पर मनुष्य के विकास के स्तरों के अनुसार यह धीरे-धीरे गहरा होता जाता है। यह वह कार्य है जो चरणों में किया जाता है, और एक ही चरण में पूरा नहीं होता है। और इसलिए, परमेश्वर की सम्पूर्ण बुद्धि एक अकेले चरण के बजाय तीन चरणों में सघन रूप लेती होती है। उसका सम्पूर्ण अस्तित्व और सम्पूर्ण बुद्धि इन तीन चरणों में व्यक्त होते हैं, और प्रत्येक चरण में उसके अस्तित्व का समावेश है और उसके कार्य की बुद्धि का अभिलेख है। … कार्य के तीनों चरणों में से प्रत्येक चरण पूर्ववर्ती चरण की बुनियाद पर पूरा किया जाता है; इसे स्वतंत्र रूप से, उद्धार के कार्य से पृथक नहीं किया जाता है। यद्यपि युग और किए गए कार्य के प्रकार में बहुत बड़े अंतर हैं, इसके मूल में अभी भी मानवजाति का उद्धार ही है, और उद्धार के कार्य का प्रत्येक चरण पिछले ज्यादा गहरा होता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है" से
परमेश्वर के सम्पूर्ण प्रबंधन को तीन चरणों में विभक्त किया गया है, और प्रत्येक चरण में, मनुष्य से यथोचित अपेक्षाएं की जाती हैं। इसके अतिरिक्त, जैसे जैसे युग बीतते एवं आगे बढ़ते जाते हैं, परमेश्वर की समस्त मानवजाति से अपेक्षाएं और अधिक ऊँची होती जाती हैं। इस प्रकार, कदम दर कदम, परमेश्वर का प्रबंधन अपने चरम पर पहुंच जाता है, जब तक मनुष्य "देह में वचन के प्रकट होने" को देख नहीं लेता, और इस तरह से मनुष्य से की गई अपेक्षाएं और अधिक ऊँची हो जाती हैं, और गवाही देने के लिए मनुष्य से अपेक्षाएं और भी अधिक ऊँची हो जाती हैं। … अतीत में, मनुष्य से अपेक्षा की गई थी कि वह व्यवस्था एवं आज्ञाओं का पालन करे, और उससे अपेक्षा की गई थी कि वह धैर्यवान एवं विनम्र हो। आज, मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह परमेश्वर के समस्त प्रबंधन का पालन करे और परमेश्वर के सर्वोच्च प्रेम को धारण करे, और अन्ततः उससे अपेक्षा की जाती है कि वह क्लेश के मध्य भी परमेश्वर से प्रेम करे। ये तीन चरण ऐसी अपेक्षाएं हैं जिन्हें परमेश्वर कदम दर कदम अपने सम्पूर्ण प्रबंधन के दौरान मनुष्य से करता है। परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण पिछले चरण की तुलना में और अधिक गहरा होता जाता है, और प्रत्येक चरण में मनुष्य से की गई अपेक्षाएं पिछले चरण की तुलना में और अधिक गम्भीर होती हैं, और इस तरह से, परमेश्वर का सम्पूर्ण प्रबंधन धीरे धीरे अपना आकार लेता है। मनुष्य से की गई अपेक्षाएं हमेशा से कहीं अधिक ऊँची हो जाने के कारण ही मनुष्य का स्वभाव परमेश्वर के द्वारा अपेक्षित उन मापदंडों के कहीं अधिक नज़दीक आ जाता है, और केवल तभी सम्पूर्ण मानवजाति धीरे धीरे शैतान के प्रभाव से अलग होती है, जब परमेश्वर का कार्य पूर्ण समाप्ति पर आ जाता है, तब तक सम्पूर्ण मानवजाति को शैतान के प्रभाव से बचा लिया जाता है। जब वह समय आता है, तो परमेश्वर का कार्य अपनी समाप्ति पर पहुंच चुका होगा, और अपने स्वभाव में परिवर्तनों को हासिल करने के लिए परमेश्वर के साथ मनुष्य का और कोई सहयोग नहीं होगा, और सम्पूर्ण मानवजाति परमेश्वर के प्रकाश में जीवन बिताएगी, और उसके बाद से, परमेश्वर के प्रति कोई विद्रोही या विरोध नहीं होगा। परमेश्वर भी मनुष्य से कोई माँग नहीं करेगा, और मनुष्य एवं परमेश्वर के मध्य और अधिक सुसंगत सहयोग होगा, एक ऐसा सहयोग जो मनुष्य एवं परमेश्वर दोनों का आपस का जीवन होगा, ऐसा जीवन जो परमेश्वर के प्रबंधन के पूरी तरह से समाप्त होने, और परमेश्वर के द्वारा मनुष्य को शैतान के शिकंजों से पूरी तरह से बचाए जाने के पश्चात् आता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य एवं मनुष्य का रीति व्यवहार" से
परमेश्वर की सम्पूर्ण प्रबंधकीय योजना के कार्य को व्यक्तिगत तौर पर स्वयं परमेश्वर के द्वारा किया गया है। प्रथम चरण - संसार की सृष्टि – को परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर किया गया था, और यदि इसे नहीं किया गया होता, तो कोई भी मानवजाति की सृष्टि करने में सक्षम नहीं होता; दूसरा चरण सम्पूर्ण मानवजाति का छुटकारा था, और इसे भी स्वयं परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर किया गया था; तीसरा चरण स्पष्ट है: परमेश्वर के सम्पूर्ण कार्य के अन्त को स्वयं परमेश्वर के द्वारा किये जाने की तो और भी अधिक आवश्यकता है। सम्पूर्ण मानवजाति के छुटकारे, उस पर विजय पाने, उसे हासिल करने, एवं सिद्ध बनाने के समस्त कार्य को स्वयं परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर सम्पन्न किया जाता है। वह यदि व्यक्तिगत तौर पर इस कार्य को नहीं करता, तो उसकी पहचान को मनुष्य के द्वारा दर्शाया नहीं जा सकता था, या उसके कार्य को मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता था। शैतान को हराने के लिए, मानवजाति को प्राप्त करने के लिए, और मानव को पृथ्वी पर एक सामान्य जीवन प्रदान करने के लिए, वह व्यक्तिगत तौर पर मनुष्य की अगुवाई करता है और मनुष्य के मध्य कार्य करता है; अपनी सम्पूर्ण प्रबधंकीय योजना की खातिर, और अपने सम्पूर्ण कार्य के लिए, उसे व्यक्तिगत तौर इस कार्य को करना ही होगा।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "मनुष्य के सामान्य जीवन को पुनःस्थापित करना और उसे एक बेहतरीन मंज़िल पर ले चलना" से
आरंभ से आज तक किए गए कार्य के सभी तीन चरण परमेश्वर स्वयं के द्वारा किए गए थे और एक ही परमेश्वर के द्वारा किए गए थे। कार्य के तीन चरणों की वास्तविकता समस्त मानवजाति की परमेश्वर की अगुआई की वास्तविकता है, एक ऐसा तथ्य जिसे कोई नकार नहीं सकता है। कार्य के तीन चरणों के अंत में, सभी चीज़ें उसके प्रकारों के आधार पर वर्गीकृत की जाएँगी और परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन लौट जाएँगी, क्योंकि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में केवल इसी एक परमेश्वर का अस्तित्व है, और कोई दूसरा धर्म नहीं है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है" से
यदि तुम्हें कार्य के तीन चरणों की स्पष्ट जानकारी है—कहने का अर्थ है, कि परमेश्वर का प्रबंधन का सम्पूर्ण कार्य—और यदि तुम वर्तमान के चरण के साथ परमेश्वर के कार्य के पिछले दोनों चरणों को पूरी तरह से सह-सम्बन्धित कर सकते हो, और देख सकते हो कि यह कार्य एक ही परमेश्वर के द्वारा किया गया है, तो तुम्हारे पास कोई दृढ़ आधार नहीं होगा। कार्य के तीनों चरण एक ही परमेश्वर के द्वारा किए गए थे; यही सबसे महान दर्शन है और परमेश्वर को जानने का एकमात्र मार्ग है। कार्य के तीनों चरण केवल स्वयं परमेश्वर के द्वारा ही किए गए हो सकते हैं, और कोई भी मनुष्य इस प्रकार का कार्य उसकी ओर से नहीं कर सकता है—कहने का तात्पर्य है कि आरंभ से लेकर आज तक केवल परमेश्वर स्वयं ही अपना स्वयं का कार्य कर सकता था।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों को जानना ही परमेश्वर को जानने का मार्ग है" से
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