1. परमेश्वर को जानना वास्तव में क्या है? क्या बाइबल की जानकारी और धार्मिक सिद्धांत को समझना, परमेश्वर को जानना माना जा सकता है?
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
परमेश्वर को जानने का क्या अभिप्राय है? इसका अभिप्राय है कि मनुष्य परमेश्वर की भावनाओं के विस्तार को जानता है, परमेश्वर को जानना यही है। आप कहते हैं कि आपने परमेश्वर को देखा है, फिर भी आप परमेश्वर की भावनाओं के विस्तार को नहीं जानते हैं, उनके स्वभाव को नहीं जानते हैं, और उनकी धार्मिकता को भी नहीं जानते हैं। आपको उनकी दयालुता की कोई समझ नहीं है, और आप नहीं जानते हैं कि वे किससे घृणा करते हैं। इसे परमेश्वर को जानना नहीं कहा जा सकता है। इसलिए, कुछ लोग परमेश्वर का अनुसरण करने में सक्षम हैं, किन्तु वे आवश्यक रूप से परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं।यही अंतर है। यदि आप उन्हें जानते हैं, उन्हें समझते हैं, यदि जो उनकी इच्छा है उसमें से आप कुछ को समझने एवं ग्रहण करने में सक्षम हैं, और आप उनके ह्रदय को जानते हैं, तो आप सचमुच उन पर विश्वास कर सकते हैं, सचमुच में उनके प्रति समर्पित हो सकते हैं, सचमुच में उनसे प्रेम कर सकते हैं, और सचमुच में उनकी आराधना कर सकते हैं। यदि आप इन चीज़ों को नहीं समझते हैं, तो आप सिर्फ एक व्यक्ति का अनुसरण कर रहे हैं जो केवल भीड़ के साथ में दौड़ता और उसका अनुसरण करता है। इसे सच्चा समर्पण नहीं कहा जा सकता है, और इसे सच्ची आराधना नहीं कहा जा सकता है। सच्ची आराधना को कैसे उत्पन्न किया जा सकता है? ऐसा कोई भी नहीं है जो परमेश्वर को देखता और सचमुच में परमेश्वर को जानता हो जो उनकी आराधना नहीं करता हो, और जो उनका आदर न करता हो। जैसे ही वे परमेश्वर को देखते हैं वे भयभीत हो जाते हैं। वर्तमान में लोग देहधारी परमेश्वर के कार्य के युग में हैं। लोगों के पास देहधारी परमेश्वर के स्वभाव और जो उनके पास है तथा जो वे हैं इस बात की जितनी अधिक समझ होती है, उतना ही अधिक लोग उन्हें संजोकर रखते हैं, और उतना ही अधिक वे परमेश्वर का आदर करते हैं। प्राय:, कम समझ का अर्थ है अधिक दुस्साहस, इतना कि परमेश्वर से मनुष्य के समान बर्ताव किया जाता है। यदि लोग वास्तव में परमेश्वर को जानें और वास्तव में उसे देखें तो वेभयभीत हों जाएगे और काँपने लगेंगे। यूहन्ना ने ऐसा क्यों कहा, "वह जो मेरे बाद आ रहा है, जिसकी जूतियाँ उठाने के योग्य भी मैं नहीं हूँ?" यद्यपि उसके हृदय की उसकी समझ बहुत गहरी नहीं थी, फिर भी वह जानता था कि परमेश्वर अति विस्मयजनक है। कितने लोग अब परमेश्वर का आदर करने में सक्षम हैं? परमेश्वर के स्वभाव को जाने बिना, कोई व्यक्ति किस प्रकार उनका आदर कर सकता है? यदि लोग मसीह के सार को नहीं जानते हैं, और परमेश्वर के स्वभाव को नहीं समझते हैं, तो वे सचमुच में परमेश्वर की आराधना करने के योग्य तो बिलकुल भी नहीं हैं। यदि लोग सिर्फ मसीह के साधारण और सामान्य बाहरी रूप को देखते हैं और उसके सार को नहीं जानते हैं, तो मसीह के साथ एक सामान्य मनुष्य के रूप में बर्ताव करना लोगों के लिए आसान है। वे उनके प्रति एक अपमानजनक प्रवृत्ति अपना सकते हैं, उन्हें धोखा दे सकते हैं, उनका प्रतिरोध कर सकते हैं, उसकी अवज्ञा कर सकते हैं, उस पर दोष लगा सकते हैं, और दुराग्रही हो सकते हैं। वे उसके वचन को महत्वहीन मान सकते हैं, उसकी देह के साथ जैसा चाहे वैसा बर्ताव कर सकते हैं, अवधारणाओं को आश्रय दे सकते हैं, और ईशनिंदा कर सकते हैं। इन मुद्दों को सुलझाने के लिए व्यक्ति को मसीह के सार, एवं मसीह की ईश्वरीयता को अवश्य जानना चाहिए। परमेश्वर को जानने का यही मुख्य पहलू है; यह वह है जिसमें व्यावहारिक परमेश्वर पर विश्वास करने वाले सभी लोगों को अवश्य प्रवेश करना और उसे प्राप्त करना चाहिए।
"मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "देहधारण का ज्ञान" से
व्यावहारिक परमेश्वर के बारे में ज्ञान में उनके वचनों को जानना और अनुभव करना, और उन नियमों और सिद्धांतों को समझना जिनके द्वारा पवित्र आत्मा कार्य करता है, और परमेश्वर की आत्मा द्वारा देह में कार्य करने के तरीके को समझना शामिल है। इसी तरह, इसमें यह जानना भी शामिल है कि देह में परमेश्वर का हर कार्य आत्मा के द्वारा निर्देशित होता है, और कि उसके द्वारा बोले गए वचन आत्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। इसलिये, यदि तू व्यावहारिक परमेश्वर को जानना चाहता है, तो तुझे मुख्य रूप से यह जानना है कि परमेश्वर कैसे अपनी मानवीयता में, और अपनी ईश्वरीयता में कार्य करता है; इसके परिणामस्वरूप आत्मा के प्रकटीकरण दिलचस्पी पैदा होती है, जिससे सभी लोगों का जुड़ाव है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "तुम्हें पता होना चाहिए कि व्यावहारिक परमेश्वर ही स्वयं परमेश्वर है" से
परमेश्वर के वास्तविक कार्यों को जानना, परमेश्वर की वास्तविकता और उसकी सर्वसामर्थता को जानना, स्वयं परमेश्वर की सच्ची पहचान को जानना, जो उसके पास है और जो वह है उसे जानना, जो कुछ उसने सभी चीज़ों के बीच प्रदर्शित किया है उसे जानना-ये हर एक व्यक्ति के लिए अति महत्वपूर्ण है जो परमेश्वर के ज्ञान का अनुसरण करता है। ये प्रत्येक व्यक्ति के जीवन से, और सत्य के अनुसरण के विषय में प्रत्येक व्यक्ति के व्यावहारिक जीवन से अलग नहीं हो सकते हैं। यदि तुम परमेश्वर के विषय में अपनी समझ को केवल शब्दों तक ही सीमित रखते हो, यदि तुम इसे अपने स्वयं के छोटे छोटे अनुभवों, परमेश्वर के अनुग्रह जिसका तुम हिसाब रखते हो, या परमेश्वर के लिए अपनी छोटी छोटी गवाहियों तक ही सीमित रखते हो, तब मैं कहता हूँ कि तुम्हारा परमेश्वर बिलकुल भी सच्चा परमेश्वर नहीं है। यह बिलकुल भी स्वयं सच्चा परमेश्वर नहीं है, यह भी कहा जा सकता है कि जिस परमेश्वर पर तुम विश्वास करते हो वह परमेश्वर नहीं है। यह इसलिए है क्योंकि जिस परमेश्वर के बारे में मैं बोल रहा हूँ यह वही है जो हर चीज़ के ऊपर शासन करता है, जो हर चीज़ के मध्य में चलता फिरता है, और हर चीज़ का प्रबन्ध करता है। यह वही है जो सारी मानवजाति की नियति को थामे रहता है-वही जो हर चीज़ की नियति को थामे रहता है। उस परमेश्वर का कार्य और क्रियाएं जिसके बारे में मैं बात कर रहा हूँ वे मात्र लोगों के एक छोटे से भाग तक ही सीमित नहीं हैं। अर्थात्, यह बस उन लोगों तक ही सीमित नहीं है जो वर्तमान में उसका अनुसरण करते हैं। उसके कार्यों को सभी चीज़ों के मध्य, सभी चीज़ों के जीवित रहने में, और सभी वस्तुओं के परिवर्तन के नियमों में प्रदर्शित किया गया है। यदि तुम सभी चीज़ों के मध्य परमेश्वर के कार्यों में से किसी को देख या पहचान नहीं सकते हो, तो तुम उसके कार्यों में से किसी की गवाही नहीं रखते हो। यदि तुम परमेश्वर के लिए कोई गवाही नहीं रखते हो, यदि तुम निरन्तर उस छोटे तथाकथित परमेश्वर की बात करते हो जिसे तुम जानते हो, वह परमेश्वर जो तुम्हारे स्वयं के विचारों तक ही सीमित है, और तुम्हारे संकीर्ण मस्तिष्क के भीतर है, यदि तुम निरन्तर उस किस्म के परमेश्वर के बारे में बोलते हो, तो परमेश्वर कभी तुम्हारे विश्वास की प्रशंसा नहीं करेगा। जब तुम परमेश्वर के लिए गवाही देते हो, और यदि तुम सिर्फ इन शब्दों का उपयोग करते हो कि तुमने किस प्रकार परमेश्वर के अनुग्रह का आनन्द लिया, परमेश्वर के अनुशासन और उसकी ताड़ना को कैसे स्वीकार किया, और उसके लिए अपनी गवाही में उसकी आशीषों का आनन्द कैसे लिया, तो यह बिलकुल ही अपर्याप्त है, और यह उसको संतुष्ट करने से दूर है। यदि तुम परमेश्वर के लिए एक ऐसे तरीके से गवाही देना चाहते हो जो उसकी इच्छा के साथ एक मेल में है, और स्वयं सच्चे परमेश्वर के लिए गवाही देना चाहते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के कार्यों से जो उसके पास है और जो वह है उसे देखना होगा। हर चीज़ पर उसके नियंत्रण से तुम्हें उसका अधिकार देखना होगा, और उस सच्चाई को देखना होगा कि कैसे वह समस्त मानवजाति की लिए आपूर्ति करता है। यदि तुम केवल यही स्वीकार करते हो कि तुम्हारा दैनिक भोजन और पेय और जीवन में तुम्हारी जरूरतें परमेश्वर से आती हैं, लेकिन तुम उस सच्चाई को नहीं देखते हो कि परमेश्वर सभी चीज़ों के माध्यम से सम्पूर्ण मानवजाति के लिए आपूर्ति करता है, कि वह सभी चीज़ों पर अपने शासन के माध्यम से सम्पूर्ण मानवजाति की अगुवाई करता है, तो तुम परमेश्वर के लिए गवाही देने में कभी भी सक्षम नहीं होगे।
"वचन देह में प्रकट होता है से आगे जारी" से "स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX" से
अभी सभी मनुष्यों में जिस चीज का अभाव है, वह है परमेश्वर के कार्य का ज्ञान। मनुष्य न बूझता है और न ही समझता है कि वास्तव में कौन सी चीज मनुष्य में परमेश्वर के कर्म, परमेश्वर के समस्त कार्य को, और सृष्टि की रचना के बाद से परमेश्वर की इच्छा को निर्मित करती है। यह अपर्याप्तता न केवल समस्त धार्मिक जगत में देखी जाती है, बल्कि इसके अलावा परमेश्वर के सभी विश्वासियों में भी देखी जाती है। जब वह दिन आता है कि तुम वास्तव में परमेश्वर को देखते हो और उसकी बुद्धि को समझते हो; जब तुम परमेश्वर के सब कर्मों को देखते हो, और पहचानते हो कि परमेश्वर क्या है और उसके पास क्या है; जब तुम उसकी विपुलता, बुद्धि, चमत्कार, और मनुष्य में उसके समस्त कार्य को निहारते हो, तब उस दिन होगा कि तुमने परमेश्वर में सफल विश्वास को प्राप्त कर लिया है। जब परमेश्वर को सर्वव्यापी और अत्यधिक विपुल कहा जाता है, तब सर्वव्यापी से क्या अभिप्राय है? और विपुलता से क्या अभिप्राय है? यदि तुम इस बात को नहीं समझते हो, तो तुम परमेश्वर के विश्वासी नहीं माने जा सकते हो।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "वे सब जो परमेश्वर को नहीं जानते हैं वे ही परमेश्वर का विरोध करते हैं" से
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य के पास बाइबल की कितनी अधिक समझ है, यह वचनों से बढ़कर और कुछ नहीं है, क्योंकि मनुष्य बाइबिल के सार को नहीं समझता है। जब मनुष्य बाइबल को पढ़ता है, तो वह कुछ सच्चाईयों को प्राप्त कर सकता है, कुछ वचनों की व्याख्या कर सकता है या कुछ प्रसिद्ध अंशों या उद्धरणों का सूक्ष्म परीक्षण कर सकता है, परन्तु वह उन वचनों के भीतर निहित अर्थ को निकालने में कभी भी समर्थ नहीं होगा, क्योंकि मनुष्य जो कुछ देखता है वे मृत वचन हैं, यहोवा और यीशु के कार्य के दृश्य नहीं हैं, और मनुष्य ऐसे कार्य के रहस्य को सुलझाने में असमर्थ है। इसलिए, छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना का रहस्य सबसे बड़ा रहस्य है, एक ऐसा रहस्य जो मनुष्य से बिलकुल छिपा हुआ और उसके लिए सर्वथा अचिन्त्य है। कोई भी सीधे तौर पर परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझ सकता है, जब तक कि वह मनुष्य को स्वयं न समझाए और खुल कर न कहे, अन्यथा, वे सर्वदा मनुष्य के लिए पहेली बने रहेंगे और सर्वदा मुहरबंद रहस्य बने रहेंगे। जो धार्मिक जगत में हैं वे उन पर कभी ध्यान नहीं देते हैं; यदि तुम लोगों को आज नहीं बताया जाए, तो तुम लोग भी समझने में समर्थ नहीं होगे।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "देहधारण का रहस्य (4)" से
बहुत से लोग यह विश्वास करते हैं कि बाइबल को समझना और उसकी व्याख्या करने में समर्थ होना सच्चे मार्ग की खोज करने के समान है-परन्तु वास्तव में, क्या ये चीज़ें इतनी सरल हैं? बाइबल की सच्चाई को कोई नहीं जानता हैः कि यह परमेश्वर के कार्य के ऐतिहासिक अभिलेख, और परमेश्वर के कार्य के पिछले दो चरणों की गवाही से बढ़कर और कुछ नहीं है, और तुम्हें परमेश्वर के कार्य के लक्ष्यों की कोई समझ नहीं देता है। जिस किसी ने भी बाइबल को पढ़ा है वह जानता है कि यह व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग के दौरान परमेश्वर के कार्य के दो चरणों को प्रलेखित करता है। पुराना विधान इस्राएल के इतिहास और सृष्टि के समय से लेकर व्यवस्था के अंत तक यहोवा के कार्य का कालक्रम से अभिलेखन करता है। नया विधान पृथ्वी पर यीशु के कार्य को, जो चार सुसमाचारों में है, और साथ की पौलुस के कार्य को भी अभिलिखित करता है; क्या वे ऐतिहासिक अभिलेख नहीं हैं? आज अतीत की चीज़ों को सामने लाने से वे इतिहास बन जाती हैं, और इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे कितनी सच्ची और यथार्थ हैं, वे तब भी इतिहास होती हैं-और इतिहास वर्तमान को संबोधित नहीं कर सकता है। क्योंकि परमेश्वर पीछे मुड़कर इतिहास को नहीं देखता है! और इसलिए, यदि तुम केवल बाइबल को ही समझते हो, और उस कार्य को नहीं समझते हो जिसे परमेश्वर आज करने का इरादा करता है, और यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो और पवित्र आत्मा के कार्य की खोज नहीं करते हो, तो तुम यह नहीं समझते हो कि परमेश्वर को खोजने का आशय क्या है? यदि तुम इस्राएल के इतिहास का अध्ययन करने एवं समस्त आकाश और पृथ्वी की सृष्टि के इतिहास की खोज करने के लिए बाइबल को पढ़ते हैं, तो तुम परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हो। किन्तु आज, चूँकि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो, और जीवन का अनुसरण करते हो, चूँकि तुम परमेश्वर के ज्ञान का अनुसरण करते हो, और मृत शब्दों और सिद्धांतों, या इतिहास की समझ का अनुसरण नहीं करते हो, इसलिए तुम्हें परमेश्वर की आज की इच्छा को अवश्य खोजना चाहिए, और पवित्र आत्मा के कार्य के निर्देश की तलाश अवश्य करनी चाहिए। यदि तुम एक पुरातत्त्ववेत्ता होते तो तुम बाइबल को पढ़ सकते थे-लेकिन तुम नहीं हो, तुम उन में से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, और तुम्हारे लिए यह सब से अच्छा होगा कि तुम परमेश्वर की आज की इच्छा को खोजो।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "बाइबल के विषय में (4)" से
कुछ लोग कहते हैं कि बाइबल एक पवित्र पुस्तक है, और इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए, और कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर के कार्य को सदैव कायम रखा जाना चाहिए, यह कि पुराना विधान इस्राएलियों के साथ परमेश्वर की वाचा है, और उसे छोड़ा नहीं जा सकता है, और सब्त का अवश्य हमेशा पालन करना चाहिए! क्या वे हास्यास्पद नहीं हैं? यीशु ने सब्त का पालन क्यों नहीं किया? क्या वह पाप कर रहा था? कौन ऐसी चीज़ों की सही प्रकृति का पता लगा सकता है? इस से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम बाइबल को कैसे पढ़ते हो, मनुष्य की समझने की शक्तियों का उपयोग करके परमेश्वर के कार्य को जानना असंभव होगा। न केवल तुम परमेश्वर का शुद्ध ज्ञान प्राप्त नहीं करोगे, बल्कि तुम्हारी धारणाएँ पहले से कहीं अधिक ख़राब हो जाएँगी, इतनी ख़राब कि तुम परमेश्वर का विरोध करना प्रारम्भ कर दोगे। यदि आज यह परमेश्वर के देहधारण की बात नहीं होती, तो लोग स्वयं अपनी धारणाओं में जब्त हो जाते, और वे परमेश्वर की ताड़ना के बीच मर जाते।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "बाइबल के विषय में (1)" से
कई ऐसे हैं जो कहते हैं कि वे मेरी अनुकूलता में हैं, परन्तु वे सब अस्पष्ट मूर्तियों की आराधना करते हैं। हालाँकि वे मेरे नाम को पवित्र रूप में स्वीकार तो करते हैं, पर वे उस रास्ते पर चलते हैं जो मेरे विपरीत जाता है, और उनके वचन घमण्ड और आत्मविश्वास से भरे हुए हैं, क्योंकि, जड़ से तो, वे सब मेरे विरोध ही में हैं, और मेरे अनुकूल नहीं हैं। प्रत्येक दिन वे बाइबल में मेरे बारे में संकेतों की खोज करते हैं, और यूं ही "उपयुक्त" अंशों को ढूँढते हैं जिन्हें वे निरंतर पढ़ते रहते हैं, और जिन्हें वे "पवित्र शास्त्र" के रूप में बयान करते हैं। वे नहीं जानते कि मेरे अनुकूल कैसे बनें, नहीं जानते कि मेरे साथ शत्रुता में होने का क्या अर्थ होता है, और "पवित्र शास्त्र" को नाममात्र के लिए, अंधेपन के साथ ही पढ़ते रहते हैं। वे बाइबल के भीतर ही, एक ऐसे अज्ञात परमेश्वर को संकुचित कर देते हैं, जिसे उन्होंने स्वंय भी कभी नहीं देखा है, और देखने में अक्षम हैं, और इस पर अपने खाली समय के दौरान ही विचार करते हैं। उनके लिये मेरे अस्तित्व का दायरा मात्र बाइबल तक ही सीमित है। उनके लिए, मैं बस बाइबल के सामान ही हूँ; बाइबल के बिना मैं भी नहीं हूँ, और मेरे बिना बाइबल भी नहीं है। वे मेरे अस्तित्व या क्रियाओं पर कोई भी ध्यान नहीं देते, परन्तु इसके बजाय, पवित्रशास्त्र के हर एक वचन पर बहुत अधिक और विशेष ध्यान देते हैं, और उनमें से कई एक तो यहाँ तक मानते हैं कि मुझे मेरी चाहत के अनुसार, ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जब तक वह पवित्रशास्त्र के द्वारा पहले से बताया गया न हो। वे पवित्रशास्त्र को बहुत अधिक महत्त्व देते हैं। यह कहा जा सकता है कि वे वचनों और उक्तियों को बहुत अधिक महत्वपूर्ण तरीकों से देखते हैं, इस हद कि हर एक वचन जो मैं बोलता हूं उसकी तुलना बाइबल की आयतों के साथ करते हैं, और उसका उपयोग मुझे दोषी ठहराने के लिए करते हैं। वे जिसकी खोज कर रहे हैं वह मेरे अनुकूल होने का रास्ता या ढंग नहीं है, या सत्य के अनुकूल होने का रास्ता नहीं है, बल्कि बाइबल के वचनों की अनुकूलता में होने का रास्ता है, और वे विश्वास करते हैं कि कोई भी बात जो बाइबल के अनुसार नहीं है, बिना किसी अपवाद के, मेरा कार्य नहीं है। क्या ऐसे लोग फरीसियों के कर्तव्यनिष्ठ वंशज नहीं हैं? यहूदी फरीसी यीशु को दोषी ठहराने के लिए मूसा की व्यवस्था का उपयोग करते थे। उन्होंने उस समय के यीशु के अनुकूल होने की खोज नहीं की, बल्कि नियम का अक्षरशः पालन कर्मठतापूर्वक किया, इस हद तक किया कि अंततः उन्होंने निर्दोष यीशु को, पुराने नियम की व्यवस्था का पालन न करने और मसीहा न होने का आरोप लगाते हुए, क्रूस पर चढ़ा दिया। उनका सारतत्व क्या था? क्या यह ऐसा नहीं था कि उन्होंने सत्य के अनुकूल होने के मार्ग की खोज नहीं की? उनमें पवित्रशास्त्र के हर एक वचन का जुनून सवार हो गया था, जबकि मेरी इच्छा और मेरे कार्य के चरणों और कार्य की विधियों पर कोई भी ध्यान नहीं दिया। ये वे लोग नहीं थे जो सत्य को खोज रहे थे, बल्कि ये वे लोग थे जो कठोरता से पवित्रशास्त्र के वचनों का पालन करते थे; ये वे लोग नहीं थे जो सत्य की खोज करते थे, बल्कि ये वे लोग थे जो बाइबल में विश्वास करते थे। दरअसल वे बाइबल के रक्षक थे। बाइबल के हितों की सुरक्षा करने, और बाइबल की मर्यादा को बनाये रखने, और बाइबल की प्रतिष्ठा को बचाने के लिए, वे यहाँ तक गिर गए कि उन्होंने दयालु यीशु को भी क्रूस पर चढ़ा दिया। यह उन्होंने सिर्फ़ बाइबल की रक्षा करने के लिए, और लोगों के हृदय में बाइबल के हर एक वचन के स्तर को बनाये रखने के लिए ही किया। इस प्रकार उन्होंने यीशु को, जिसने पवित्रशास्त्र के सिद्धान्त का पालन नहीं किया, मृत्यु दंड देने के लिये अपने भविष्य और पापबलि को त्यागना बेहतर समझा। क्या वे पवित्रशास्त्र के हर एक वचन के नौकर नहीं थे?
और आज के लोगों के विषय में क्या कहें? मसीह सत्य को बताने के लिए आया है, फिर भी वे निश्चय ही स्वर्ग में प्रवेश प्राप्त करने और अनुग्रह को पाने के लिए उसे मनुष्य के मध्य में से बाहर निकाल देंगे। वे निश्चय ही बाइबल के हितों की सुरक्षा करने के लिए सत्य के आगमन को भी नकार देंगे, और निश्चय ही वापस देह में आये हुए मसीह को बाइबल के अस्तित्व को अनंतकाल तक सुनिश्चित करने के लिए फिर से सूली पर चढ़ा देंगे। … मनुष्य शब्दों, बाइबल के साथ अनुकूलता की खोज करता है, फिर भी सत्य के अनुकूल होने के रास्ते को खोजने के लिए एक भी व्यक्ति मेरे पास नहीं आता है। मनुष्य मुझे स्वर्ग में खोजता है, और स्वर्ग में मेरे अस्तित्व के लिए विशेष समर्पण करता है, फिर भी कोई मेरी परवाह नहीं करता क्योंकि मैं जो देह में उन्हीं के बीच रहता हूं, बहुत मामूली हूँ। जो लोग सिर्फ़ बाइबल के शब्दों के और एक अज्ञात परमेश्वर के अनुकूल होने में ही अपना सर्वस्व समझते हैं, वे मेरे लिए एक घृणित हैं। क्योंकि वे मृत शब्दों की आराधना करते हैं, और एक ऐसे परमेश्वर की आराधना करते हैं जो उन्हें अवर्णनीय खज़ाना देने में सक्षम है। जिस की वे आराधना करते हैं वो एक ऐसा परमेश्वर है जो अपने आपको मनुष्य की दया पर छोड़ देता है, और जिसका अस्तित्व है ही नहीं। तो फिर, ऐसे लोग मुझ से क्या लाभ प्राप्त कर सकते हैं? मनुष्य वचनों के लिए बहुत ही नीचा है। जो मेरे विरोध में हैं, जो मेरे सामने असीमित मांगें रखते हैं, जिन में सत्य के लिए प्रेम ही नहीं है, जो मेरे प्रति बलवा करते हैं-वह मेरे अनुकूल कैसे हो सकते हैं?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "तुम्हें मसीह की अनुकूलता में होने के तरीके की खोज करनी चाहिए" से
वे जो सिर्फ़ बाइबल के वचनों पर ही ध्यान देते हैं, जो सत्य के बारे में या मेरे नक्शे-कदम को खोजने के बारे में बेफ़िक्र हैं-वे मेरे विरुद्ध हैं, क्योंकि वे मुझे बाइबल के अनुसार सीमित बना देते हैं, और मुझे बाइबल में ही सीमित कर देते हैं, और वे ही मेरे बहुत अधिक निंदक हैं। ऐसे लोग मेरे सामने कैसे आ सकते हैं? वे मेरे कार्यों, या मेरी इच्छा, या सत्य पर कुछ भी ध्यान नहीं देते हैं, बल्कि वचनों से ग्रस्त हो जाते हैं, वचन जो मार देते हैं। कैसे ऐसे लोग मेरे अनुकूल हो सकते हैं?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "तुम्हें मसीह की अनुकूलता में होने के तरीके की खोज करनी चाहिए" से
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