5. किसी ऐसे व्यक्ति का क्या अंजाम होता है जो धर्म में परमेश्वर पर विश्वास करता है और फरीसियों और मसीह-शत्रुओं के भ्रम और नियंत्रण से पीड़ित है? क्या इस तरह से परमेश्वर में विश्वास करने वाला कोई व्यक्ति परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है?
संदर्भ के लिए बाइबल के पद:
"उन को जाने दो; वे अंधे मार्गदर्शक हैं और अंधा यदि अंधे को मार्ग दिखाए, तो दोनों ही गड़हे में गिर पड़ेंगे" (मत्ती 15:14)।
"मेरे ज्ञान के न होने से मेरी प्रजा नष्ट हो गई.... जैसे वे बढ़ते गए, वैसे ही वे मेरे विरुद्ध पाप करते गए; मैं उनके वैभव के बदले उनका अनादर करूँगा। वे मेरी प्रजा के पापबलियों को खाते हैं, और प्रजा के पापी होने की लालसा करते हैं। इसलिये जो प्रजा की दशा होगी, वही याजक की भी होगी; मैं उनके चालचलन का दण्ड दूँगा, और उनके कामों के अनुकूल उन्हें बदला दूँगा" (होशे 4:6-9)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
उदाहरण के लिए, इस धार्मिक संसार में पास्टर एवं अगुवे अपने कार्य को करने के लिए अपने वरदानों एवं पदों पर भरोसा रखते हैं। ऐसे लोग जो लोग लम्बे समय से उनका अनुसरण करते हैं वे उनके वरदानों के द्वारा संक्रमित हो जाएंगे और जो वे हैं उनमें से कुछ के द्वारा उन्हें प्रभावित किया जाएगा। वे लोगों के वरदानों, योग्यताओं एवं ज्ञान पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, और वे कुछ अलौकिक कार्यों और अनेक गम्भीर अवास्तविक सिद्धान्तों पर ध्यान देते हैं (हाँ वास्तव में, इन गम्भीर सिद्धान्तों को हासिल नहीं किया जा सकता है)। वे लोगों के स्वभाव के परिवर्तनों पर ध्यान केन्द्रित नहीं करते हैं, किन्तु इसके बजाए वे लोगों के प्रचार एवं कार्य करने की योग्यताओं को प्रशिक्षित करने, और लोगों के ज्ञान एवं समृद्ध धार्मिक सिद्धान्तों को बेहतर बनाने के ऊपर ध्यान केन्द्रित करते हैं। वे इस पर ध्यान केन्द्रित नहीं करते हैं कि लोगों के स्वभाव में कितना परिवर्तन हुआ है या इस पर कि लोग सत्य को कितना समझते हैं। वे लोगों के मूल-तत्व के साथ अपने आपको नहीं जोड़ते हैं, और वे लोगों की सामान्य एवं असमान्य दशाओं को जानने की कोशिश तो बिलकुल भी नहीं करते हैं। वे लोगों की धारणाओं का विरोध नहीं करते हैं या उनकी धारणाओं को प्रगट नहीं करते हैं, और वे अपनी कमियों या भ्रष्टता में सुधार तो बिलकुल भी नहीं करते हैं। अधिकांश लोग जो उनका अनुसरण करते हैं वे अपने स्वाभाविक वरदानों के द्वारा सेवा करते हैं, और जो कुछ वे अभिव्यक्त करते हैं वह ज्ञान एवं अस्पष्ट धार्मिक सत्य है, जिनका वास्तविकता के साथ कोई नाता नहीं है और वे लोगों को जीवन प्रदान में पूरी तरह से असमर्थ हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से
ऐसे लोग जो न्याय से होकर नहीं गुज़रे हैं वे मानव शारीर एवं विचारों के सिवाए और कुछ भी व्यक्त नहीं करते हैं, जिसमें बहुत सारी मानवीय बुद्धि एवं स्वाभाविक प्रतिभाएं मिली हुई होती हैं। यह परमेश्वर के कार्य के विषय में मनुष्य की सटीक अभिव्यक्ति नहीं है। ऐसे लोग जो उनका अनुसरण करते हैं उन्हें उनकी स्वाभाविक क्षमता के द्वारा उनके सामने लाया जाता है। क्योंकि वे बहुत सारी देखी हुई बातों और मनुष्य के अनुभवों को अभिव्यक्त करते हैं, जो परमेश्वर के मूल अर्थ से लगभग असम्बद्ध होते है, और इससे बहुत दूर भटक जाते हैं, इस प्रकार के व्यक्ति का कार्य लोगों को परमेश्वर के सम्मुख लाने में असमर्थ है, परन्तु अपने सामने लाने में समर्थ है। ... वह लोगों से जो मांग करता है वह एक व्यक्ति से लेकर दूसरे व्यक्ति तक भिन्न नहीं होता है; वह लोगों की वास्तविक आवश्यकताओं के अनुसार कार्य नहीं कर सकता है। इस प्रकार के कार्य में, बहुत सारे नियम एवं बहुत सारे सिद्धान्त होते हैं, और ये लोगों को वास्तविकता में या जीवन में बढ़ोत्तरी के सामान्य अभ्यास में नहीं ला सकते हैं। यह केवल लोगों को कुछ बेकार नियमों में चुपचाप बने रहने के योग्य बना सकता है। इस प्रकार का मार्गदर्शन लोगों को केवल भटका सकता है। वह आपकी अगुवाई करता है ताकि आप उसके समान बन जाएं; जो उसके पास है और जो वह है वह आपको उसमें ला सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से
जो सत्य को नहीं समझते हैं वे हमेशा दूसरों का अनुसरण करते हैं: यदि लोग कहते हैं कि यह पवित्र आत्मा का कार्य है, तो तुम भी कहते हो कि यह पवित्र आत्मा का कार्य है; यदि लोग कहते हैं कि यह दुष्टात्मा का कार्य है, तो तुम्हें भी संदेह हो जाता है, या तुम भी कहते हो कि यह किसी दुष्टात्मा का कार्य है। तुम हमेशा दूसरों के शब्दों को तोते की तरह कहते हो और स्वयं किसी भी चीज का अंतर करने में असमर्थ होते हो, न ही तुम स्वयं सोचने में सक्षम होते हो। यह कोई बिना स्थिति वाला व्यक्ति है, जो विभेद करने में असमर्थ है—इस प्रकार का व्यक्ति निरर्थक अभागा है! ऐसे लोग हमेशा दूसरों के वचनों को दोहराते हो: आज ऐसा कहा जाता है कि यह पवित्र आत्मा का कार्य है, परन्तु ऐसी सम्भावना है कि कल कोई कहेगा कि यह पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है, और कुछ नहीं बल्कि मनुष्य के कर्म हैं—फिर भी तुम इसकी सही प्रकृति को नहीं जान सकते हो, और जब तुम इसे दूसरों के द्वारा कहा गया देखते हो, तो तुम भी वही बात कहते हो। यह वास्तव में पवित्र आत्मा का कार्य है, परन्तु तुम कहते हो कि यह मनुष्य का कार्य है, क्या तुम पवित्र आत्मा के कार्य की ईशनिंदा करने वालों में से एक नहीं बन गए हो? इसमें, क्या तुमने परमेश्वर का विरोध नहीं किया क्योंकि तुम विभेद नहीं कर सकते हो?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "जो परमेश्वर को और उसके कार्य को जानते हैं केवल वे ही परमेश्वर को सन्तुष्ट कर सकते हैं" से
ऐसे लोग कलीसिया में मौजूद हैं, जिनमें विवेक की कमी होती है, जब कुछ कपटपूर्ण घटित होता है, तो वे शैतान के साथ जा खड़े होते हैं। जब उन्हें शैतान का अनुचर कहा जाता है तो उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। और कोई कोई कह सकता है कि उनमें विवेक नहीं है, लेकिन वे हमेशा उस पक्ष में खड़े होते हैं जहां सत्य नहीं है, ऐसा एक बार भी नहीं हुआ कि नाज़ुक समय पर वे कभी सत्य के पक्ष में खड़े हुए हों, ऐसा एक बार भी नहीं हुआ कि कभी सत्य के पक्ष में खड़े होकर दलील पेश की हो, तो क्या वाकई उनमें विवेक नहीं है? वे हमेशा शैतान के पक्ष में ही क्यों खड़े जाते हैं? वे कभी एक भी शब्द ऐसा क्यों नहीं बोलते जो सत्य के पक्ष में सही और उचित हो? ऐसी स्थिति क्या वाकई उनकी क्षणिक दुविधा के कारण पैदा होती है? जिस व्यक्ति में विवेक की जितनी कमी होगी, वह सत्य के पक्ष में उतना ही कम खड़ा हो पायेगा। इससे क्या ज़ाहिर होता है? क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि विवेकशून्य व्यक्ति बुराई को गले लगाता है? क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि विवेकशून्य लोग शैतान की निष्ठावान संतान हैं? वे शैतान के पक्ष में खड़े होकर उसी की भाषा क्यों बोलते हैं? उनका हर शब्द, हर कार्य, हर हाव-भाव पूरी तरह सिद्ध करता है कि वे कोई सत्य के प्रेमी नहीं हैं, बल्कि वे सत्य से घृणा करने वाले लोग हैं। शैतान के साथ उनका खड़ा होना पूरी तरह यह सिद्ध करता है कि ये लोग जो आजीवन शैतान की खातिर लड़ते रहते हैं, ऐसे तुच्छ राक्षस हैं जिन्हें शैतान वाकई चाहता है। क्या ये तथ्य पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं? यदि तुम वाकई सत्य प्रेमी हो, तो फिर तुम्हारे मन में ऐसे लोगों के लिये सम्मान क्यों नहीं है जो सत्य का अनुसरण कर रहे हैं, तो फिर तुम तुरंत ऐसे लोगों के पीछे क्यों भागने लगते हो जो किंचित-मात्र हाव-भाव बदलते ही सत्य का परित्याग कर देते हैं? यह समस्या क्या है?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "जो सत्य का पालन नहीं करते, उनके लिये चेतावनी" से
कुछ लोग सत्य में आनन्द नहीं मनाते हैं, न्याय की तो ही दूर है। बल्कि वे शक्ति और धन में आनन्द मनाते हैं; इस प्रकार के लोग मिथ्याभिमानी समझे जाते हैं। ये लोग अनन्य रूप से संसार के प्रभावशाली सम्प्रदायों तथा सेमिनारियों से निकलने वाले पादरियों और शिक्षकों की खोज में लगे रहते हैं। सत्य के मार्ग को स्वीकार करने के बावजूद, वे उलझन में फंसे रहते हैं और अपने तुम को पूरी तरह से समर्पित करने में असमर्थ होते हो। वे परमेश्वर के लिए बलिदान की बात करते हैं, परन्तु उनकी आखें महान पादरियों और शिक्षकों पर केन्द्रित रहती हैं और मसीह को किनारे कर दिया जाता है। उनके हृदयों में प्रसिद्धि, वैभव और प्रतिष्ठा रहती है। उन्हें बिल्कुल विश्वास नहीं होता कि ऐसा छोटा-सा आदमी इतनोंपर विजय प्राप्त कर सकता है, यह कि वह इतना साधारण होकर भी लोगों को सिद्ध बनाने के योग्य है। वे बिल्कुल विश्वास नहीं करते कि ये धूल में पड़े मामूली लोग और घूरे पर रहने वाले ये साधारण मनुष्य परमेश्वर के द्वारा चुने गए हैं। वे मानते हैं कि यदि ऐसे लोग परमेश्वर के उद्धार की योजना के लक्ष्य रहे होते, तो स्वर्ग और पृथ्वी उलट-पुलट हो जाते और सभी लोग ठहाके लगाकर हंसते। वे विश्वास करते हैं कि यदि परमेश्वर ऐसे सामान्य लोगों को सिद्ध बना सकता है, तो वे सभी महान लोग स्वयं में परमेश्वर बन जाते। उनके दृष्टिकोण अविश्वास से भ्रष्ट हो गए हैं; दरअसल, अविश्वास से कोसों दूर वे बेहूदा जानवर हैं। क्योंकि वे केवल हैसियत, प्रतिष्ठा और शक्ति का मूल्य जानते हैं; वे विशाल समूहों और सम्प्रदायों को ही ऊंचा सम्मान देते हैं। उनकी दृष्टि में उनका कोई सम्मान नहीं है जिनकी अगुवाई मसीह कर रहे हैं। वे सीधे तौर पर विश्वासघाती हैं जिन्होंने मसीह से, सत्य से और जीवन से अपना मुंह मोड़ लिया है।
तुम मसीह की विनम्रता की तारीफ नहीं करते हो, बल्कि उन झूठे चरवाहों की करते हो जो विशेष हैसियत रखते हैं। तुम मसीह की सुन्दरता या ज्ञान से प्रेम नहीं करते हो, बल्कि उन अधम लोगों से करते हो जो घृणित संसार से जुड़े हैं। तुम मसीह के दुख पर हंसते हो, जिसके पास अपना सिर रखने तक की जगह नहीं, परन्तु उन मुर्दों की तारीफ करते हो जो भेंट झपट लेते हैं और व्यभिचारी का जीवन जीते हैं। तुम मसीह के साथ-साथ कष्ट सहने को तैयार नहीं, परन्तु उन धृष्ट मसीह विरोधियों की बाहों में प्रसन्नता से जाते हो, हालांकि वे तुम्हें सिर्फ देह, अक्षरज्ञान और अंकुश ही दे सकते हैं अभी भी तुम्हारा हृदय उनकी ओर, उनकी प्रतिष्ठा की ओर, सभी शैतानों के हृदय में उनकी हैसियत, उनके प्रभाव, उनके अधिकार की ओर लगा रहता है, फिर भी तुम विरोधी स्वभाव बनाए रखते हो और मसीह के कार्य को स्वीकार नहीं करते हो। इसलिए मैं कहता हूं कि तुम्हें मसीह को स्वीकार करने का विश्वास नहीं है। तुमने उसका अनुसरण आज तक सिर्फ़ इसलिए किया क्योंकि तुम्हारे साथ ज़बरदस्ती की गई थी। तुम्हारे हृदय में हमेशा कई बुलंद छवियों का स्थान रहा है; तुम उनके प्रत्येक कार्य और शब्दों को नहीं भूल सकते, न ही उनके प्रभावशाली शब्दों और हाथों को; वे तुम लोगों के हृदय में हैं, हमेशा के लिए सर्वोच्च और योद्धा की तरह। परन्तु आज के समय में मसीह के लिए ऐसा नहीं है। वह हमेशा-हमेशा तुम्हारे हृदय में अयोग्य और आदर के योग्य नहीं रहा है। क्योंकि वह बहुत ही साधारण रहा है, बहुत ही कम प्रभावशाली और उच्चता से बहुत दूर रहा है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "क्या तुम परमेश्वर के एक सच्चे विश्वासी हो?" से
ऐसे लोगों के लिये, जो यह कहते हैं कि वे परमेश्वर को मानते हैं, यह बेहतर होगा कि वे अपनी आंखें खोलें और देखें कि दरअसल विश्वास किस में करते हैं: तुम दरअसल परमेश्वर में विश्वास करते हो या शैतान में? यदि तुम्हें यह पता चल जाये कि तुम परमेश्वर में नहीं अपनी प्रतिमाओं में विश्वास करते हो, तो फिर बेहतर यही होगा कि तुम न कहो कि तुम विश्वासी हो। यदि तुम्हें पता ही नहीं की तुम किस में विश्वास करते हो तो फिर से, बेहतर होगा कि तुम न कहो कि तुम विश्वासी हो। वैसा कहना ईश-निंदा होगी! तुमसे कोई ज़बर्दस्ती नहीं कह रहा कि तुम परमेश्वर में विश्वास करो। मत कहो कि तुम लोग मुझमें विश्वास करते हैं, क्योंकि मैं यह सब पहले बहुत सुन चुका हूं और कोई इच्छा नहीं है कि फिर से सुनूं, क्योंकि तुम जिसमें विश्वास करते हो वे तुम लोगों के मन की प्रतिमाएं और तुम सबके मध्य स्थानीय दुर्दांत सांप हैं। वे जो सच्चाई सुनकर अपनी गर्दन न में हिलाते हैं, जो मौत की बातें सुनकर अत्यधिक मुस्कराते हैं, वे शैतान की संतान हैं, और नष्ट कर दी जाने वाली वस्तुएं हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "जो सत्य का पालन नहीं करते, उनके लिये चेतावनी" से
यदि किसी कलीसिया में दुर्जन नागों और उनका अनुसरण करने वाले कीड़े-मकौड़ों का बाहुल्य है और उनमें किसी तरह का कोई विवेक नहीं रह गया है, और यदि सत्य देख लेने के बाद भी ऐसे कलीसिया इन सांपों की जकड़न और कपट से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं, ऐसे मूर्खों का अंत में सफाया कर दिया जायेगा। हालांकि ऐसे कीड़े-मकौड़ों ने भले ही कोई खौफ़नाक हरकत न की हो, लेकिन ये ज़्यादा धूर्त, शातिर और बहानेबाज़ होते हैं। इसलिये ऐसे तमाम लोगों का सफाया हो जायेगा। इनमें से बचेगा कोई नहीं! जो शैतान के साथ हैं, वे शैतान के पास ही वापिस चले जायेंगे और जो परमेश्वर के साथ हैं, वे सत्य के अन्वेषण में लग जायेंगे; यह उनकी प्रकृति के अनुसार तय होगा। शैतान का अनुसरण करने वालों को नष्ट हो जाने दो! ऐसे लोगों के प्रति कोई दया-भाव नहीं दिखाया जायेगा। और जो सत्य के खोजी हैं, उनके लिये पूर्ण व्यवस्था की जाये और उन्हें परमेश्वर के वचनों का भरपूर आनंद प्राप्त करने की अनुमति दी जाये। परमेश्वर न्यायी है और वो किसी के साथ भी अन्याय नहीं करता। यदि तुम दुर्जन हो तो तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर पाओगे। और यदि तुम सत्य की खोज करते हो तो यह तय है कि तुम शैतान के चंगुल में नहीं फंस सकते - इसमें किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "जो सत्य का पालन नहीं करते, उनके लिये चेतावनी" से
जो लोग विवेकशून्य होंगे, वे अपनी तुच्छ चालाकी के कारण दुष्ट लोगों के हाथों विनाश को प्राप्त होंगे और ऐसे लोग दुष्ट लोगों के द्वारा पथभ्रष्ट कर दिये जायेंगे तथा उनके लिये फिर लौटकर आना संभव न होगा। ऐसे लोगों के साथ इसी प्रकार पेश आना चाहिये, क्योंकि इन्हें सत्य से प्रेम नहीं है, क्योंकि ये सत्य के पक्ष में खड़े रहने के योग्य नहीं हैं, क्योंकि ये दुष्ट लोगों का अनुसरण करते हैं, ये दुष्ट लोगों के पक्ष में खड़े होते हैं, क्योंकि ये दुष्ट लोगों के साथ सांठ-गांठ करते हैं और परमेश्वर की अवमानना करते हैं। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि दुष्ट लोगों के अंदर से दुष्टता प्रसारित होती है लेकिन वे अपना हृदय कड़ा कर लेते हैं और उन्हीं का अनुसरण करते हैं और सत्य के विपरीत चलते हैं। क्या ये तमाम लोग जो सत्य अनुसरण नहीं करते लेकिन विनाशकारी और घृणास्पद कार्यों में लगे हुए हैं, निंदनीय कार्य नहीं कर रहे हैं? हालांकि उनमें से कुछ ऐसे हैं जो "शासकों" की तरह पेश आते हैं और कुछ ऐसे हैं जो उनके पीछे चलते हैं, क्या परमेश्वर की अवमानना करने कि उनकी प्रवृत्ति एक-सी नहीं है? उनके पास यह कहने का क्या बहाना है कि परमेश्वर उनकी रक्षा नहीं करता? उनके पास यह कहने का क्या बहाना है कि परमेश्वर धर्मी नहीं है? क्या उनकी अपनी बुराई नहीं जो उनका विनाश कर देगी? क्या उनके खुद के विद्रोही तेवर ही उन्हें नरक में नहीं धकेल देंगे? जो सत्य का अभ्यास करते हैं, उन्हें अंत में बचा लिया जायेगा और सत्य के द्वारा उन्हें पूर्णता प्रदान कर दी जायेगी। जो सत्य का पालन नहीं करते, वे अंत में सत्य के द्वारा ही अपने विनाश को प्राप्त होंगे। जो सत्य का अनुसरण करते हैं और जो नहीं करते, इस प्रकार का अंत उनकी प्रतीक्षा कर रहा है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "जो सत्य का पालन नहीं करते, उनके लिये चेतावनी" से
और स्मरण करें कि 2000 वर्ष पहले यहूदियों द्वारा यीशु को सलीब पर चढ़ा दिए जाने के बाद क्या हुआ था। यहूदियों को इस्राएल से निर्वासित कर दिया गया था और वे दुनियाभर के देशों में भाग गए थे। कई लोगों को मार दिया गया था, और सम्पूर्ण यहूदी देश अभूतपूर्व विनाश के अधीन कर दिया गया था। उन्होंने परमेश्वर को सलीब पर चढ़ाया था-जघन्य अपराध किया था-और परमेश्वर के स्वभाव को उकसाया था। उन्होंने जो किया था उसका उनसे भुगतान करवाया गया था, उनसे उनके कार्यों के परिणामों को भुगतवाया गया था। उन्होंने परमेश्वर की निंदा की थी, परमेश्वर को अस्वीकार किया था, और इसलिए उनकी केवल एक ही नियति थी: परमेश्वर द्वारा दण्डित किया जाना। यही वह कड़वा परिणाम और आपदा है जो उनके शासक अपने देश और राष्ट्र पर लाए।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर सम्पूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियन्ता है" से
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