परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
जो लोग पवित्र आत्मा के वर्तमान कार्य का अनुसरण नहीं करते हैं, उन्होंने परमेश्वर के वचनों के कार्य में प्रवेश नहीं किया है, और चाहे वे कितना भी काम करें, या उनकी पीड़ा कितनी भी बड़ी हो, या वे कितनी ही भाग-दौड़ करें, परमेश्वर के लिए इनमें से किसी बात का कोई महत्व नहीं है, और वह उनकी सराहना नहीं करेगा। आज, जो लोग परमेश्वर के वास्तविक वचनों का पालन करते हैं, वे पवित्र आत्मा की धारा में हैं; जो लोग परमेश्वर के वास्तविक वचनों से अनभिज्ञ हैं, वे पवित्र आत्मा की धारा के बाहर हैं, और परमेश्वर की सराहना ऐसे लोगों के लिए नहीं है। वह सेवा जो पवित्र आत्मा की वास्तविक उक्तियों से विभाजित हो, वह देह की और धारणाओं की सेवा है, और यह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार होने में असमर्थ है। यदि लोग धार्मिक अवधारणाओं में रहते हैं, तो वे ऐसा कुछ भी करने में असमर्थ होते हैं जो परमेश्वर की इच्छा के लिए उपयुक्त हो, और भले ही वे परमेश्वर की सेवा करें, वे अपनी कल्पना और अवधारणाओं के घेरे में सेवा करते हैं, और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार सेवा करने में पूरी तरह से असमर्थ होते हैं। जो लोग पवित्र आत्मा के कार्य का अनुसरण करने में असमर्थ हैं, वे परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते हैं, और जो परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझते हैं वे परमेश्वर की सेवा नहीं कर सकते। परमेश्वर ऐसी सेवा चाहता है जो उसके दिल के मुताबिक हो; वह ऐसी सेवा नहीं चाहता है जो कि धारणाओं और देह की हो। यदि लोग पवित्र आत्मा के कार्य के चरणों का पालन करने में असमर्थ हैं, तो वे अवधारणाओं के बीच रहते हैं, और ऐसे लोगों की सेवा दखल देती है और परेशान करती है। ऐसी सेवा परमेश्वर के विरूद्ध चलती है, और इस प्रकार जो लोग परमेश्वर के पदचिन्हों पर चलने में असमर्थ हैं, वे परमेश्वर की सेवा करने में असमर्थ हैं; जो लोग परमेश्वर के पदचिन्हों पर चलने में असमर्थ हैं, वे निश्चित रूप से परमेश्वर का विरोध करते हैं, और वे परमेश्वर के साथ सुसंगत होने में असमर्थ हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और परमेश्वर के चरण-चिन्हों का अनुसरण करो" से
वह कार्य जो मनुष्य के दिमाग में होता है उसे बहुत ही आसानी से मनुष्य के द्वारा प्राप्त किया जाता है। उदाहरण के लिए, इस धार्मिक संसार में पास्टर एवं अगुवे अपने कार्य को करने के लिए अपने वरदानों एवं पदों पर भरोसा रखते हैं। ऐसे लोग जो लोग लम्बे समय से उनका अनुसरण करते हैं वे उनके वरदानों के द्वारा संक्रमित हो जाएंगे और जो वे हैं उनमें से कुछ के द्वारा उन्हें प्रभावित किया जाएगा। वे लोगों के वरदानों, योग्यताओं एवं ज्ञान पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, और वे कुछ अलौकिक कार्यों और अनेक गम्भीर अवास्तविक सिद्धान्तों पर ध्यान देते हैं (हाँ वास्तव में, इन गम्भीर सिद्धान्तों को हासिल नहीं किया जा सकता है)। वे लोगों के स्वभाव के परिवर्तनों पर ध्यान केन्द्रित नहीं करते हैं, किन्तु इसके बजाए वे लोगों के प्रचार एवं कार्य करने की योग्यताओं को प्रशिक्षित करने, और लोगों के ज्ञान एवं समृद्ध धार्मिक सिद्धान्तों को बेहतर बनाने के ऊपर ध्यान केन्द्रित करते हैं। वे इस पर ध्यान केन्द्रित नहीं करते हैं कि लोगों के स्वभाव में कितना परिवर्तन हुआ है या इस पर कि लोग सत्य को कितना समझते हैं। वे लोगों के मूल-तत्व के साथ अपने आपको नहीं जोड़ते हैं, और वे लोगों की सामान्य एवं असमान्य दशाओं को जानने की कोशिश तो बिलकुल भी नहीं करते हैं। वे लोगों की धारणाओं का विरोध नहीं करते हैं या उनकी धारणाओं को प्रगट नहीं करते हैं, और वे अपनी कमियों या भ्रष्टता में सुधार तो बिलकुल भी नहीं करते हैं। अधिकांश लोग जो उनका अनुसरण करते हैं वे अपने स्वाभाविक वरदानों के द्वारा सेवा करते हैं, और जो कुछ वे अभिव्यक्त करते हैं वह ज्ञान एवं अस्पष्ट धार्मिक सत्य है, जिनका वास्तविकता के साथ कोई नाता नहीं है और वे लोगों को जीवन प्रदान में पूरी तरह से असमर्थ हैं। वास्तव में, उनके कार्य का मूल-तत्व प्रतिभाओं का पोषण करना है, शून्य के साथ किसी व्यक्ति का पोषण करना है कि वह एक योग्य सेमेनरी स्नातक बन जाए जो बाद में काम एवं अगुवाई करने के लिए जाता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का काम" से
तुम परमेश्वर की सेवा अपने प्राकृतिक स्वभाव से, और अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार करते हो; इसके अलावा, तुम सोचते रहते हो कि जो कुछ भी तुम करना चाहते हो, उसे परमेश्वर पसंद करता है, और जो कुछ भी तुम नहीं करना चाहते हो उससे परमेश्वर घृणा करता है, और अपने कार्य में तुम पूर्णतः अपनी प्राथमिकताओं द्वारा मार्गदर्शित होते हो। क्या इसे परमेश्वर की सेवा करना कह सकते हैं? अंततः तुम्हारे जीवन स्वभाव में रत्ती भर भी सुधार नहीं आएगा; तुम और भी अधिक ज़िद्दी बन जाओगे क्योंकि तुम परमेश्वर की सेवा कर रहे हो, और इससे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव गहराई तक समा जाएगा। इस तरह, तुम मन में परमेश्वर की सेवा के बारे में ऐसे सिद्धान्त विकसित कर लोगे जो मुख्यतः तुम्हारे स्वयं के चरित्र पर आधारित होते हैं, और तुम्हारे सेवा करने से तुम्हारे स्वयं के स्वभाव के अनुसार अनुभव प्राप्त होता है। यह मानवीय अनुभव से सबक है। यह मनुष्य के जीवन का दर्शनशास्त्र है। इस तरह के लोग फरीसियों और धार्मिक अधिकारियों से संबंधित होते हैं। यदि वे कभी भी जागते और पश्चताप नहीं करते हैं, तो अतंतः वे झूठे मसीह बन जाएँगे जो अंत के दिनों में दिखाई देंगे, और मनुष्यों को धोखा देने वाले होंगे।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "सेवा के धार्मिक तरीके पर अवश्य प्रतिबंध लगना चाहिए" से
तुम उतना ज्ञान बोलने में सक्षम हो जितना कि समुद्र तट पर रेत है, फिर भी इसमें कोई वास्तविक पथ नहीं है। इस में, क्या तुम लोगों को मूर्ख नहीं बना रहे हो? क्या तुम सिर्फ बड़ी बड़ी बातें नहीं कर रहे हो? इस तरह से कार्य करना लोगों के लिए हानिकारक है! जितना ऊँचा सिद्धांत, उतना ही यह वास्तविकता से रहित है, और उतना अधिक लोगों को वास्तविकता में ले जाने में असमर्थ है; जितना ऊँचा सिद्धांत, उतना अधिक तुमसे परमेश्वर की उपेक्षा और उनका विरोध करवाता है। सबसे महान सिद्धांतों को अनमोल खजाने की तरह न समझो; वे घातक हैं, और किसी कार्य के नहीं है! हो सकता है कि कुछ लोग सबसे महान सिद्धांतों की बात करने में सक्षम हों - लेकिन ऐसे सिद्धांतों में वास्तविकता कुछ भी नहीं है, क्योंकि इन लोगों ने उन्हें व्यक्तिगत रूप से अनुभव नहीं किया है, और इस प्रकार उनके पास अभ्यास करने का कोई मार्ग नहीं है। ऐसे लोग मनुष्य को सही मार्ग पर ले जाने में असमर्थ हैं, और केवल लोगों को पथभ्रष्ट करेंगे। क्या यह लोगों के लिए हानिकारक नहीं है? कम से कम, तुमको वर्तमान परेशानियों को हल करने और लोगों को प्रवेश प्राप्त करने देने में सक्षम होना होगा; केवल यह भक्ति के रूप में मायने रखता है, और उसके बाद ही तुम परमेश्वर के लिए कार्य करने के लिए योग्य होगे। हमेशा भव्य, कल्पित शब्दों में बात न करो, और लोगों को बाध्य न करो और उन्हें अपनी अनुचित प्रथाओं के साथ अपना आज्ञापालन न करवाओ। ऐसा करने से कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, और यह केवल लोगों के भ्रम को बढ़ा सकता है। लोगों का इस तरह से नेतृत्व करने से कई तरह के नियम पैदा हो जायेंगे, जिससे लोग तुमसे घृणा करेंगे। यह मनुष्य की कमी है, और यह वास्तव में असहनीय है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "वास्तविकता पर अधिक ध्यान" से
कुछ लोग कार्य करते हैं और धर्मोपदेश का प्रचार करते हैं तथा, यद्यपि सतही तौर पर ऐसा लगता है जैसे वे परमेश्वर के वचन के बारे में सहभागिता कर रहे हैं, तथापि वे जो कह रहे हैं वह सब परमेश्वर के वचन का शाब्दिक अर्थ है, जिसमें वचन का सार पूरी तरह से अव्यक्त छूट जाता है। उनके उपदेश किसी भाषा पाठ्य पुस्तक से पढ़ाने की तरह होते हैं, आइटम दर आइटम, पहलू दर पहलू व्यवस्थित, और जब वे समाप्त करते हैं तब सभी लोग उनका स्तुति गान करते हैं, कहते हैं: "ओह, यह उपदेशक बहुत व्यावहारिक है। उन्होंने कितनी अच्छी तरह और कितने विस्तार से उपदेश दिया।" उपदेश समाप्त कर लेने के बाद, वे अन्य लोगों से कहते हैं कि जो उपदेश दिया गया उसे एक साथ रख लें और इसे हर एक को वितरित कर दें। ऐसा करके, वे दूसरों को धोखा देते हैं और वे जो उपदेश देते हैं वे सब भ्रांतियाँ हैं। सतह पर, ऐसा लगता है मानो कि वे केवल परमेश्वर के वचन का उपदेश दे रहे हैं और उनके शब्द सत्य के अनुरूप हैं। लेकिन अगर आप अधिक ध्यान से देखें, आप देखेंगे कि वे केवल सिद्धांत के शब्द हैं और बस झूठे तर्क हैं। उनके शब्दों में कुछ कल्पनाएँ, अवधारणाएँ भी शामिल होती हैं और कुछ ऐसे शब्द होते हैं जो परमेश्वर का चित्रण करते हैं। क्या इस तरह से उपदेश देना परमेश्वर के कार्य को बाधित नहीं करता है? यह सेवा करने का ऐसा तरीका है जो परमेश्वर की उपेक्षा करता है।
"मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "केवल सत्य की खोज करके ही आप अपने स्वभाव में परिवर्तन ला सकते हैं" से
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