परमेश्वर द्वारा इस युग में बोले गये वचन, व्यवस्था के युग के दौरान बोले गए वचनों से भिन्न हैं, और इसलिए, वे अनुग्रह के युग के दौरान बोले गये वचनों से भी भिन्न हैं। अनुग्रह के युग में, परमेश्वर ने वचन का कार्य नहीं किया, किन्तु समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए केवल सलीब पर चढ़ने का वर्णन किया। बाइबिल में केवल यह वर्णन किया गया है कि यीशु को क्यों सलीब पर चढ़ाया जाना था, और सलीब पर उसने कौन-कौन सी तकलीफें सही, और कैसे मनुष्य को परमेश्वर के लिये सलीब पर चढ़ना जाना चाहिए। उस युग के दौरान, परमेश्वर द्वारा किया गया समस्त कार्य सलीब पर चढ़ने के आस-पास केंद्रित था। राज्य के युग के दौरान, देहधारी परमेश्वर ने उन सभी लोगों को जीतने के लिए वचन बोले जिन्होंने उस पर विश्वास किया। यह "वचन का देह में प्रकट होना" है; परमेश्वर इस कार्य को करने के लिए अंत के दिनों में आया है, जिसका अर्थ है कि वह वचन का देह में प्रकट होना के वास्तविक महत्व को कार्यान्वित करने के लिए आया। वह केवल वचन बोलता है, और तथ्यों का आगमन शायद ही कभी होता है।वचन का देह में प्रकट होने का यही मूल सार है, और जब देहधारी परमेश्वर अपने वचनों को बोलता है, तो यही वचन का देह में प्रकट होना है, और वचन का देह में आना है। "आदि में वचन था, और वचन परमेश्वर के साथ था, और वचन परमेश्वर था, और वचन देहधारी हुआ।" यह (वचन के देह में प्रकट होने का कार्य) वह कार्य है, जिसे परमेश्वर अंत के दिनों में संपन्न करेगा, और उसकी संपूर्ण प्रबंधन योजना का अंतिम अध्याय है, और इसलिए परमेश्वर को पृथ्वी पर आ कर अपने वचनों को देह में प्रकट करना ही है। वह जो आज किया जाता है, वह जिसे भविष्य में किया जायेगा, वह जिसे परमेश्वर के द्वारा संपन्न किया जाएगा, मनुष्य का अंतिम गंतव्य, वे जिन्हें बचाया जाएगा, वे जिन्हें नष्ट किया जाएगा, इत्यादि, इत्यादि—यह कार्य जिसे अंत में प्राप्त किया जाना चाहिए, यह सब स्पष्ट रूप में कहा गया है, और यह सब वचन का देह में प्रकट होना के वास्तविक महत्व को सम्पन्न करने के लिए है। प्रशासनिक आदेश और संविधान जिन्हें पहले जारी किया गया था, वे जिन्हें नष्ट किया जाएगा, वे जो विश्राम में प्रवेश करेंगे—ये सभी वचन अवश्य पूरे होने चाहिए। यही वह कार्य है जिसे देहधारी परमेश्वर द्वारा अंत के दिनों में विशेष रूप संपन्न किया जाएगा। वह लोगों को समझाता है कि परमेश्वर द्वारा पूर्व-नियत लोग कहाँ बैठते हैं और जो परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत नहीं है वे कहाँ बैठते हैं, उसके लोगों और पुत्रों का वर्गीकरण कैसे किया जाएगा, इस्राएल का क्या होगा, मिस्र का क्या होगा—भविष्य में, इन वचनों में से प्रत्येक वचन सम्पन्न होगा। परमेश्वर के कार्य के कदम तेजी से बढ़ रहे हैं। परमेश्वर मनुष्यों पर यह प्रकट करने के लिए वचनों को साधन के रूप में उपयोग करता है कि हर युग में क्या किया जाना है, अंत के दिनों के देहधारी परमेश्वर के द्वारा क्या किया जाना है, और उसकी सेवकाई जो की जानी है, और ये सब वचन, वचन का देह में प्रकट होना के वास्तविक महत्व को संपन्न करने के उद्देश्य से हैं।
मैंने पहले कहा है कि "वे सब जो संकेतों और चमत्कारों को देखने की कोशिश करते हैं त्याग दिये जाएँगे; ये वे लोग नहीं हैं जो पूर्ण बनाए जाएँगे।" मैंने बहुत से वचन कहे हैं, फिर भी तुम्हें इस कार्य का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं है, और, इस स्तर तक आकर, तुम अभी भी संकेतों और चमत्कारों के बारे में पूछते हो। क्या परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास संकेतों और चमत्कारों को देखने की तलाश है, या यह जीवन प्राप्त करने के उद्देश्य से है? यीशु ने भी बहुत से वचन कहे जिन्हें, आज, अभी भी पूरा होना है। क्या तुम कह सकते हो कि यीशु परमेश्वर नहीं है? परमेश्वर ने गवाही दी कि वह मसीहा और परमेश्वर का प्यारा पुत्र है। क्या तुम इस बात से इनकार कर सकते हो? आज, परमेश्वर केवल वचन कहता है, और यदि तुम पूर्णतः जानने में अक्षम हो, तब तुम अडिग नहीं रह सकते हो। क्या तुम उसमें इसलिए विश्वास करते हो क्योंकि वह परमेश्वर है, या फिर तुम इस आधार पर विश्वास करते हो कि क्या उसके वचन पूरे होते हैं या नहीं? क्या तुम संकेतों और चमत्कारों पर विश्वास करते हो, या तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो? आज वह संकेतों और चमत्कारों को नहीं दिखाता है—क्या वह वास्तव में परमेश्वर है? यदि उसके द्वारा कहे गये वचन पूरे नहीं होते हैं, तो क्या वह वास्तव में परमेश्वर है? क्या परमेश्वर का सार इस बात से निर्धारित होता है कि क्या उसके द्वारा कहे गये वचन पूरे होते हैं या नहीं? ऐसा क्यों है कि सदैव कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास करने से पहले उसके द्वारा कहे गये वचन के पूरे होने की प्रतीक्षा करते हैं? क्या इसका अर्थ यह नहीं कि वे परमेश्वर को नहीं जानते हैं? वे सब लोग जो ऐसी धारणाओं से सम्पन्न हैं वे लोग हैं जो परमेश्वर का इनकार करते हैं; वे परमेश्वर का आँकलन करने के लिए धारणाओं का उपयोग करते हैं; यदि परमेश्वर के वचन पूरे हो जाते हैं तो वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और यदि वचन पूरे नहीं होते हैं, तो वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं; और वे सदैव संकेतों और चमत्कारों को देखने की तलाश करते रहते हैं। क्या वे आधुनिक समय के फरीसी नहीं हैं? तुम डटे रहने में समर्थ हो या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुम वास्तविक परमेश्वर को जानते हो या नहीं—यह अत्यंत महत्वपूर्ण है! परमेश्वर के वचनों की जितनी अधिक वास्तविकता तुममें होती है, परमेश्वर की वास्तविकता का तुम्हारा ज्ञान उतना ही अधिक होता है, और तुम परीक्षाओं के दौरान उतना अधिक अडिग रहने में समर्थ होते हो। तुम जितना अधिक संकेतों और चमत्कारों पर ध्यान देते हो, उतना ही अधिक तुम डटे रहने में असमर्थ होते हो, और उतना ही अधिक परीक्षाओं के बीच तुम गिर जाओगे। संकेत और चमत्कार बुनियाद नहीं हैं; केवल परमेश्वर की वास्तविकता ही जीवन है। कुछ लोग उन प्रभावों को नहीं जानते जो परमेश्वर के कार्य के द्वारा प्राप्त किए जाते हैं। वे परमेश्वर के कार्य के ज्ञान की तलाश नहीं करते हुए, बदहवास होकर अपना दिन व्यतीत करते हैं। उनकी खोज सदैव परमेश्वर से अपनी अभिलाषाओं को पूरा करवाने की होती है, केवल उसके बाद ही वे अपने विश्वास में गंभीर होते हैं। वे कहते हैं कि यदि परमेश्वर के वचन पूरे होंगे, तो वे जीवन की तलाश करेंगे, किन्तु यह कि यदि उसके वचन पूरे नहीं होते हैं, तब कोई संभावना नहीं है कि वे जीवन की तलाश करेंगे। मनुष्य सोचता है कि परमेश्वर पर विश्वास करने का अर्थ संकेतों और चमत्कारों को देखने की तलाश करना, और स्वर्ग तथा तीसरे स्वर्ग तक आरोहण करने की तलाश करना है। ऐसा कोई नहीं है जो कहता हो कि परमेश्वर पर उसका विश्वास वास्तविकता में प्रवेश करने की तलाश करना, जीवन की तलाश करना, परमेश्वर द्वारा जीते जाने की तलाश करना है। ऐसी तलाश का क्या मूल्य है? जो परमेश्वर के ज्ञान और परमेश्वर की संतुष्टि की खोज नहीं करते हैं, ये वे लोग हैं जो परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं, ये वे लोग हैं जो परमेश्वर की ईशनिंदा करते हैं!
क्या अब तुम लोग समझते हो कि परमेश्वर पर विश्वास करना क्या होता है? क्या संकेतों और चमत्कारों को देखना परमेश्वर पर विश्वास करना है? क्या यह स्वर्ग पर आरोहण करना है? परमेश्वर पर विश्वास आसान नहीं है। आज, इस प्रकार के धार्मिक अभ्यासों को निकाल दिया जाना चाहिए; परमेश्वर के चमत्कारों के प्रकटीकरण का अनुसरण करना, परमेश्वर की चंगाई और उसका दुष्टात्माओं को निकालना, परमेश्वर द्वारा शांति और प्रचुर अनुग्रह प्रदान किए जाने की तलाश करना, और देह के लिए संभावना और आराम प्राप्त करने की तलाश करना—ये धार्मिक अभ्यास हैं, और ऐसे धार्मिक अभ्यास विश्वास के अस्पष्ट और अमूर्त रूप हैं। आज, परमेश्वर में वास्तविक विश्वास क्या है? यह परमेश्वर के वचन को अपने जीवन की वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना, और परमेश्वर का सच्चा प्यार प्राप्त करने के लिए परमेश्वर के वचन से परमेश्वर को जानना है। स्पष्ट करने के लिए: यह परमेश्वर में विश्वास है जिसकी वजह से तुम परमरेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकते हो, उससे प्रेम कर सकते हो, और उस कर्तव्य को कर सकते हो जो एक परमेश्वर के प्राणी द्वारा की जानी चाहिए। यही परमेश्वर पर विश्वास करने का लक्ष्य है। तुम्हें परमेश्वर के प्रेम का ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए है, या यह ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए कि परमेश्वर कितने आदर के योग्य हैं, कैसे अपने सृजन किए गए प्राणियों में परमेश्वर उद्धार का कार्य करता है और उन्हें पूर्ण बनाता है—यह वह न्यूनतम है जो तुम्हें परमेश्वर पर विश्वास में धारण करना चाहिए। परमेश्वर पर विश्वास मुख्यतः देह के जीवन से परमेश्वर से प्रेम करने वाले जीवन में बदलना है, प्राकृतिकता के भीतर जीवन से परमेश्वर के अस्तित्व के भीतर जीवन में बदलना है, यह शैतान के अधिकार क्षेत्र से बाहर आना और परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में जीवन जीना है, यह परमेश्वर की आज्ञाकारिता को, और न कि देह की आज्ञाकारिता को, प्राप्त करने में समर्थ होना है, यह परमेश्वर को तुम्हारा संपूर्ण हृदय प्राप्त करने की अनुमति देना है, परमेश्वर को तुम्हें पूर्ण बनाने और तुम्हें भ्रष्ट शैतानिक स्वभाव से मुक्त करने की अनुमति देना है। परमेश्वर में विश्वास मुख्यतः इस वजह से है ताकि परमेश्वर की सामर्थ्य और महिमा तुममें प्रकट हो सके, ताकि तुम परमेश्वर की इच्छा को पूर्ण कर सको, और परमेश्वर की योजना को संपन्न कर सको, और शैतान के सामने परमेश्वर की गवाही दे सको। परमेश्वर पर विश्वास संकेतों और चमत्कारों को देखने के उद्देश्य से नहीं होना चाहिए, न ही यह तुम्हारी व्यक्तिगत देह के वास्ते होना चाहिए। यह परमेश्वर को जानने की तलाश के लिए, और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने, और पतरस के समान, मृत्यु तक परमेश्वर का आज्ञापालन करने में सक्षम होने के लिए, होना चाहिए। यही वह सब है जो मुख्यतः प्राप्त करने के लिए है। परमेश्वर के वचन को खाना और पीना परमेश्वर को जानने के उद्देश्य से और परमेश्वर को संतुष्ट करने के उद्देश्य से है। परमेश्वर के वचन को खाना और पीना तुम्हें परमेश्वर का और अधिक ज्ञान देता है, केवल उसके बाद ही तुम उसका आज्ञा पालन कर सकते हो। केवल यदि तुम परमेश्वर को जानते हो तभी तुम उससे प्रेम कर सकते हो, और इस लक्ष्य को प्राप्त करना ही वह एकमात्र लक्ष्य है जो परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में मनुष्य को रखना चाहिए। यदि, परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास में, तुम सदैव संकेतों और चमत्कारों की देखने का प्रयास करते रहते हो, तब परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास का यह दृष्टिकोण गलत है। परमेश्वर पर विश्वास मुख्य रूप में परमेश्वर के वचन को जीवन की वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना है। केवल उसके मुख से निकले वचनों को अभ्यास में लाना और उन्हें अपने स्वयं के भीतर पूरा करना, परमेश्वर के लक्ष्य की प्राप्ति है। परमेश्वर पर विश्वास करने में, मनुष्य को परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में समर्थ होने की, और परमेश्वर के प्रति संपूर्ण आज्ञाकारिता की तलाश करनी चाहिए। यदि तुम बिना कोई शिकायत किए परमेश्वर का आज्ञापालन कर सकते हो, परमेश्वर की अभिलाषाओं का विचार कर सकते हो, पतरस के समान हैसियत प्राप्त कर सकते हो, और परमेश्वर द्वारा कही गई पतरस की शैली को धारण कर सकते हो, तो यह तब होगा जब तुमने परमेश्वर पर विश्वास में सफलता प्राप्त कर ली है, और यह इस बात की द्योतक होगी कि तुम परमेश्वर द्वारा जीत लिए गए हो।
परमेश्वर अपना कार्य सम्पूर्ण जगत में करता है। वे सब जो उस पर विश्वास करते हैं, उन्हें अवश्य उसके वचनों को स्वीकार करना, और उसके वचनों को खाना और पीना चाहिए; परमेश्वर द्वारा दिखाए गए संकेतों और चमत्कारों को देख कर कोई भी व्यक्ति परमेश्वर द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है। युगों के दौरान, परमेश्वर ने मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए सदैव वचन का उपयोग किया है, इसलिये तुम्हें अपना समस्त ध्यान संकेतों और चमत्कारों पर नहीं लगाना चाहिए, बल्कि परमेश्वर द्वारा तुम्हें पूर्ण बनाए जाने की तलाश में रहना चाहिए। पुराने विधान के व्यवस्था के युग में, परमेश्वर ने कुछ वचन कहे, और अनुग्रह के युग में, यीशु ने भी बहुत से वचन कहे। जब यीशु इन बहुत से वचनों को बोल चुके थे, तब बाद में आए प्रेरितों और पैगम्बरों ने लोगों को यीशु द्वारा निर्धारित की गई व्यवस्था और आज्ञाओं के अनुसार अभ्यास करने के लिए प्रेरित किया, और यीशु के द्वारा कहे गये सिद्धांतों के अनुसार उन्हें अनुभव के लिए प्रेरित किया। अंतिम दिनों का परमेश्वर मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए मुख्यतः वचनों का उपयोग करता है। वह मनुष्यों का दमन करने, या उन्हें मनाने के लिये संकेतों और चमत्कारों का उपयोग नहीं करता है; इससे परमेश्वर की सामर्थ्य को स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। यदि परमेश्वर केवल संकेतों और चमत्कारों को दिखाता, तो परमेश्वर की वास्तविकता को प्रकट करना लगभग असंभव होता, और इस तरह मनुष्य को पूर्ण बनाना भी असंभव हो जाता। परमेश्वर संकेतों और चमत्कारों के द्वारा मनुष्य को पूर्ण नहीं बनाता है किन्तु वचन का उपयोग मनुष्यों को सींचने और उनकी चरवाही करने के लिए करता है, जिसके बाद मनुष्य की पूर्ण आज्ञाकारिता प्राप्त होती है और मनुष्य का परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त होता है। यही उसके द्वारा किये गए कार्य और बोले गये वचनों का उद्देश्य है। परमेश्वर मनुष्यों को पूर्ण बनाने के लिए संकेतों एवं चमत्कारों को दिखाने की विधि का उपयोग नहीं करता है—वह मनुष्यों को पूर्ण बनाने के लिए वचनों का उपयोग करता है, और कार्य की कई भिन्न विधियों का उपयोग करता है। चाहे यह शुद्धिकरण, व्यवहार, काँट-छाँट, या वचनों का प्रावधान हो, मनुष्यों को पूर्ण बनाने के लिए, और मनुष्य को परमेश्वर के कार्य, उसकी बुद्धि और चमत्कारिकता का और अधिक ज्ञान देने के लिए परमेश्वर कई भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से बोलता है। अंत के दिनों में जब परमेश्वर युग का समापन करता है, उस समय जब मनुष्य को पूर्ण बना दिया जाता है, तब वह संकेतों और चमत्कारों को देखने के योग्य हो जाएगा। जब तुम्हें परमेश्वर का ज्ञान हो जाता है और तुम इस बात की परवाह किए बिना कि परमेश्वर क्या करता है, उसकी आज्ञापालन करने में सक्षम हो जाते हो, तब तुम संकेतों और चमत्कारों को देखोगे, क्यों कि तुम्हारी परमेश्वर की वास्तविकता के बारे में कोई धारणाएँ नहीं होंगी। अभी इस समय तुम भ्रष्ट हो और परमेश्वर की पूर्ण आज्ञाकारिता में अक्षम हो—क्या तुम संकेतों और चमत्कारों को देखने के लिए अर्ह हो? परमेश्वर संकेतों और चमत्कारों को उस समय दिखाता है जब वह मनुष्यों को दण्ड देता है, और तब भी दिखाता है जब युग बदलता है, और इसके अलावा, जब युग का समापन होता है। जब परमेश्वर का कार्य सामान्य रूप से किया जा रहा हो, तो वह संकेतों और चमत्कारों नहीं दिखाता है। संकेतों और चमत्कारों को दिखाना अत्यधिक आसान है, किन्तु वह परमेश्वर के कार्य का सिद्धांत नहीं है, और न ही यह मनुष्यों के प्रबंधन का परमेश्वर का लक्ष्य है। यदि मनुष्य ने संकेतों और चमत्कारों को देखा होता, और यदि परमेश्वर की आत्मिक देह मनुष्य पर प्रकट होना होता, तो क्या सभी लोग परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते? मैं पहले कह चुका हूँ कि पूर्व दिशा से जीतने वालों का एक समूह प्राप्त किया जाता है, ऐसे जीतने वाले जो महान क्लेश से गुजर कर आते हैं। ऐसे वचनों का क्या अर्थ है? उनका अर्थ है कि न्याय और ताड़ना, और व्यवहार और काँट-छाँट, और सभी प्रकार के शुद्धिकरण से गुजरने के बाद केवल ये प्राप्त कर लिए गए लोग ही वास्तव में आज्ञापालन करते थे। ऐसे व्यक्तियों का विश्वास अस्पष्ट और अमूर्त नहीं है, बल्कि वास्तविक है। उन्होंने किन्हीं भी संकेतों और चमत्कारों, या अचम्भों को नहीं देखा है; वे गूढ़ अक्षरों और सिद्धान्तों, या गहन अंर्तदृष्टि की बातें नहीं करते हैं; इसके बजाय उनके पास वास्तविकता और परमेश्वर के वचन, और परमेश्वर की वास्तविकता का सच्चा ज्ञान है। क्या ऐसा समूह परमेश्वर की सामर्थ्य को स्पष्ट करने में अधिक सक्षम नहीं है? अंत के दिनों के दौरान परमेश्वर का कार्य वास्तविक कार्य है। यीशु के युग के दौरान, वह मनुष्यों को पूर्ण बनाने के लिए नहीं, बल्कि मनुष्य को छुटकारा दिलाने के लिए आया, और इस लिए उस ने लोगों से अपना अनुसरण करवाने के लिए कुछ अचम्भे प्रदर्शित किए। क्योंकि वह मुख्य रूप में सलीब पर चढ़ने का कार्य पूरा करने आया था, और संकेतों को दिखाना उसकी सेवकाई का हिस्सा नहीं था। इस प्रकार के संकेत और चमत्कार ऐसे कार्य थे जो उसके कार्य को प्रभावशाली बनाने के लिए किये गए थे; वे अतिरिक्त कार्य थे, और संपूर्ण युग के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। पुराने विधान के व्यवस्था के युग के दौरान भी परमेश्वर ने कुछ संकेत और चमत्कार दिखाए—किन्तु आज परमेश्वर जो कार्य करता है, वह वास्तविक कार्य हैं, और निश्चित तौर पर अब वह संकेतों और चमत्कारों को नहीं दिखाएगा। जैसे ही वह संकेतों और चमत्कारों को दिखाएगा, उसका वास्तविक कार्य अस्तव्यस्त हो जाएगा, और वह अब और अधिक कार्य करने में असमर्थ हो जाएगा। यदि परमेश्वर ने मनुष्यों को पूर्ण करने हेतु वचनों का उपयोग करने के लिए कहा, किन्तु संकेतों और चमत्कारों को भी दिखाया, तब क्या यह स्पष्ट किया जा सकता था कि मनुष्य वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करता है अथवा नहीं? इस प्रकार, परमेश्वर इस तरह की चीजें नहीं करता है। मनुष्य के भीतर धर्म की अतिशय बातें हैं; मनुष्य के भीतर से सभी धार्मिक धारणाओं और अलौकिक बातों को बाहर निकालने, और मनुष्य को परमेश्वर की वास्तविकता का ज्ञान कराने के लिए परमेश्वर अंत के दिनों में आया है। वह परमेश्वर की उस छवि को दूर करने आया है जो अमूर्त और काल्पनिक है—एक ऐसी छवि, दूसरे शब्दों में, जिसका बिल्कुल भी अस्तित्व नहीं है। और इसलिए, अब तुम्हारे लिए जो बहुमूल्य है, वह है वास्तविकता का ज्ञान होना! सत्य सभी बातों पर प्रबल है। आज तुम कितना सत्य धारण करते हो? क्या वह सब जो संकेतों और चमत्कारों को दिखाता है परमेश्वर है? दुष्टात्माएँ भी संकेतों और चमत्कारों को दिखा सकती हैं; तो क्या वे सब परमेश्वर हैं? परमेश्वर पर अपने विश्वास में, मनुष्य जिस चीज की खोज करता है, वह सत्य है, वह जिसका अनुसरण करता है, वह, संकेतों और चमत्कारों के बजाय, जीवन है। वे सब जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन सबका ऐसा ही लक्ष्य होना चाहिए।
स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
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