9. आज तुम्हें मालूम होना चाहिये कि तुम पर विजय कैसे हो, और लोग खुद पर विजय उपरांत अपना आचरण कैसा रखते हैं। तुम यह कह सकते हो कि तुम पर विजय पा ली गयी है, पर क्या तुम मृत्युपर्यंत आज्ञाकारी रहोगे? संभावनाओं की परवाह किए बगैर तुम में पूरे अंत तक अनुसरण करने की क्षमता होनी चाहिए और तुम्हें किसी भी परिस्थिति में परमेश्वर पर विश्वास नहीं खोना चाहिए। अतंतः तुम्हें गवाही के दो पक्ष प्राप्त करने हैं: अय्यूब की गवाही-मृत्यु तक आज्ञाकारिता और पतरस की गवाही - परमेश्वर का सर्वोच्च प्रेम। एक मामले में तुम्हें अय्यूब की तरह होना चाहिए, उसके पास कुछ भी सांसारिक संसाधन नहीं थे और शारीरिक पीड़ा से वह घिरा हुआ था, तब भी उसने यहोवा का नाम नहीं त्यागा। यह अय्यूब की गवाही थी। पतरस ने मृत्यु तक परमेश्वर से प्रेम रखा।जब वह मरा – जब उस क्रूस पर चढ़ाया गया - तब भी उसने परमेश्वर से प्रेम किया, उसने अपने हित या महिमामयी आशा की या अनावश्यक विचारों को स्थान नहीं दिया, और केवल परमेश्वर से प्रेम करने और परमेश्वर की व्यवस्था को पूर्णतः मानने की ही इच्छा की। गवाही देने के लिए विचार किये जाने से पूर्व तुम्हें ऐसा स्तर हासिल करना होगा, इस से पहले कि तुम ऐसे व्यक्ति बन जाओ जो विजय प्राप्त करने के बाद, पूर्णबनाया गया है। आज लोग यदि अपने सार तत्व को और अपने स्तर को सचमुच जानते तो क्या वे तब भी संभावनाओं और आशा को खोजते? जो तुम्हें मालूम होना चाहिए वह यह है किः परमेश्वर मुझे पूर्ण करे या ना करे मैं परमेश्वर के पीछे चलूंगा, जो कुछ उसने अभी किया है, वह हमारे लिए किया है, और वह अच्छा है ताकि हमारा स्वभाव परिवर्तित हो और हम शैतान के चंगुल से छूट जाएं, यह कि, अपवित्र धरती पर रहने के बावजूद हम अशुद्धता से मुक्त हो जायें, गंदगी और शैतान के प्रभाव को झटक कर हम शैतान के प्रभाव को पीछे छोड़ने की क्षमता प्राप्त कर लें।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "विजयी कार्यों का आंतरिक सत्य (2)" से
10. सचमुच, पूर्णता विजय के साथ ही प्रगट होती है, तुम्हारे विजयी होते ही, पूर्णता के प्रथम प्रभाव की भी प्राप्ति होती है। विजय पाने और पूर्णता पाने में अंतर लोगों में आए परिर्वतन पर आधारित होता है, विजय पाना पूर्णता पाने का प्रथम चरण है, परंतु यह साबित नहीं करता कि वे पूरी तरह पूर्ण बना दिए गए, ना ही यह साबित करता कि परमेश्वर ने उन्हें पूरी तरह हासिल कर लिया है। लोगों के विजयी होने के बाद, उनके स्वभाव में कुछ परिवर्तन आते हैं परंतु ये परिवर्तन उन लोगों कि तुलना में बहुत कम है जिन्हें परमेश्वर ने ग्रहण कर लिए है। आज जो हो रहा है वह लोगों को पूर्ण बनाने का आरम्भिक कार्य है-उन पर विजय पाना-और अगर तुम पर विजय नहीं हो पाती है तो तुम्हारे पास पूर्ण होने और परमेश्वर द्वारा पूर्णतः ग्रहण किये जाने का कोई उपाय नहीं होगा। तुम सिर्फ ताड़ना और न्याय की कुछ बातें ही पाओगे, जो कि तुम्हारे पूरे हृदय के परिवर्तन में असमर्थ होगी। तो तुम उनमें से एक होगे जिन्हें त्याग दिया गया है, यह इस बात से अलग ना होगा कि मानो जैसे मेज पर स्वादिष्ट भोजन देखकर भी उसे खा नहीं सकें, क्या यह दुखदायी नहीं? और इसलिये तुम्हें बदलाव की खोजकरनी चाहिए, चाहे विजय पाने को चाहे पूर्ण बनाने को, दोनों का संबंध इस बात से है कि क्या तुममें बदलाव आये हैं या नहीं, तुम आज्ञाकारी हो या नहीं-और इससे यह निश्चित होगा कि क्या तुम परमेश्वर द्वारा ग्रहण किए जा सकते हो या नहीं। जान लो कि "विजय पाना" और "पूर्णता पाना" केवल तुम्हारे अंदर आए बदलाव और आज्ञाकारिता की हद पर निर्भर करता है। साथ ही इस पर कि तुम्हारा परमेश्वर के लिए प्रेम कितना सच्चा है। आज जिस बात की जरूरत है, वह यह है कि तुम पूरी तरह पूर्ण हो सकते हो, परंतु पहले तुम पर विजय पाना आवश्यक है, तुम्हें परमेश्वर की ताड़ना और न्याय का पर्याप्त ज्ञान होना अनिवार्य है, अनुसरण करने का विश्वास होना चाहिए ऐसा बनना चाहिए जो बदलाव को खोजे ताकि प्रभाव को ग्रहण कर सके। तब तुम ऐसे होगे जो पूर्ण बनाये जाने की खोज करता है। तुम सबको यह समझना होगा कि पूर्ण किए जाने के दौरान तुम लोगों को जीता जायेगा और जीते जाने के दौरान तुम सब पूर्ण होगे। आज, तुम पूर्ण होने का प्रयास कर सकते हो अपने बाहरी मनुष्यत्व में बदलाव और क्षमताओं में विकास भी कर सकते हो, परंतु प्रमुख बात यह है कि तुम यह समझ सको कि जो कुछ आज परमेश्वर कर रहा है वह सार्थक और लाभकारी हैः यह तुम्हें गंदगी की धरती पर जीने उस अपवित्रता से बाहर निकलने और उस गंदगी को झटकने की क्षमता प्रदान करता है, यह तुम्हें शैतान के प्रभाव से पार पाने में और शैतान के अंधकारमय प्रभाव को पीछे छोड़ने की क्षमता प्रदान करता है और इन बातों पर ध्यान देने से, तुम इस अपवित्र भूमि पर सुरक्षा प्राप्त करते हो। आखिरकार तुम्हें क्या गवाही देने को कहा जाएगा? तुम एक अपवित्र भूमि पर रहते हुए भी पवित्र बनने में समर्थ हो, और आगे फिर अपवित्र और अशुद्ध नहीं होगे, तुम शैतान के अधिकार क्षेत्र में रहकर भी अपने आपको उसके प्रभाव से छुड़ा लेते हो, और शैतान द्वारा ग्रसित और सताए नहीं जाते, और तुम सर्वशक्तिमान के हाथों में रहते हो। यही गवाही है, और शैतान से युद्ध में विजय का साक्ष्य है। तुम शैतान को त्यागने में सक्षम हो, जो जीवन तुम जीते हो उसमें शैतान प्रकाशित नहीं होता, परंतु क्या यह वही है जो परमेश्वर ने मनुष्य के सृजन के समय चाहा था कि मनुष्य इन्हें प्राप्त करे: सामान्य मानवता, सामान्य युक्तता, सामान्य अंतर्दृष्टि, परमेश्वर के प्रेम हेतु सामान्य संकल्पशीलता, और परमेश्वर के प्रति निष्ठा। यह परमेश्वर के प्राणी मात्र की गवाही है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "विजयी कार्यों का आंतरिक सत्य (2)" से
11. अंतिम समय के कार्य सारे नियम तोड़ते हैं, और यह मायने नहीं रखता कि तुम सजा पाए हुए हो या श्रापित हो, जब तक तुम मेरे कार्य में सहायक हो, और विजय के कार्य हेतु लाभकारी हो, और यह मायने नहीं रखता कि तुम मोआब के वंशज हो या बड़े लाल अजगर की संतान, जब तक तुम कार्य के इस चरण में परमेश्वर के प्राणी होने की जिम्मेदारी का निर्वाह करते हो और अपना सर्वोत्तम देते हो, तब ही निर्धारित प्रभाव प्राप्त होगा। तुम बड़े लाल अजगर की संतान और मोआब के वंशज हो; कुल मिलाकर, जो कोई लहू और मांस से बना है, वह परमेश्वर का प्राणी है, और उसे परमेश्वर ने ही बनाया है। तुम परमेश्वर के प्राणी हो, तुम्हारी अपनी कोई पसंद नहीं होनी चाहिये और यही तुम्हारा दायित्व है। आज सृजनहार के कार्य समस्त विश्व के लिये हैं। तुम किसी भी वंश के क्यों ना हो परंतु सबसे पहले तुम लोग परमेश्वर के प्राणियों में से एक हो, मोआब के वंशज - परमेश्वर के प्राणियों का एक हिस्सा हो, बस यह कि तुम सबका मूल्य निम्न है। चूंकि आज परमेश्वर के कार्य समस्त प्राणियों में संचालित हैं, और समस्त ब्रम्हांड उसका लक्ष्य है, सृजनहार किसी भी जन, तत्व या वस्तु का अपने कार्य करने हेतु चयन करने को स्वतंत्र है। वह तब तक इस बात की चिंता नहीं करता कि तुम किस के वंशज हो जब तक कि तुम उसके एक प्राणी हो, जब तक कि तुम उसके कार्य के लिये उपयोगी हो - उसकी विजय और गवाही के कार्य - बिना किसी संदेह के तुम में वह अपना कार्य करता है। यह लोगों की रूढ़िवादी सोच को कुचल देता है, जो यह है कि परमेश्वर कभी भी अन्य जातियों के मध्य कार्य नहीं करेगा, विशेषतः जो निम्न और श्रापित हैं, उनके लिए जो श्रापित हैं, उनकी आगामी पीढ़ियां हमेशा श्रापित रहेंगी उन्हें कभी भी उद्धार का अवसर प्राप्त नहीं होगा, परमेश्वर कभी भी अन्य जाति की भूमि पर उतर कर कार्य नहीं करेगा और अपवित्र भूमि पर कभी अपने कदम नहीं रखेगा, क्योंकि वो पवित्र है। जान लो कि परमेश्वर समस्त प्राणियों का परमेश्वर है, वह स्वर्ग, पृथ्वी और समस्त वस्तुओं पर अधिकार रखता है, और केवल इस्राएल के लोगों का परमेश्वर नहीं है। इसलिए, चीन में यह कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण है, और क्या यह समस्त राष्ट्रों में नहीं फैलेगा? भविष्य की महान गवाही चीन तक सीमित ना रहेगी, यदि जब परमेश्वर ने तुम लोगों को जीत लिया है, तो क्या दुष्ट आत्माएं मान सकेंगी? वे विजय किये जाने का अर्थ या परमेश्वर की सामर्थ को नहीं समझतीं, और केवल जब परमेश्वर के समस्त विश्व में चुने हुए लोग इस कार्य के चरम प्रभाव का अवलोकन करेंगे तब सब प्राणी जीत लिए जाएंगे; कोई भी मोआब के वंशजों से अधिक पिछड़ा और भ्रष्ट नहीं है। केवल यदि इन लोगों पर विजय पाई जा सकती है - जो कि सबसे अधिक भ्रष्ट हैं, जिन्होंने परमेश्वर को स्वीकार नहीं किया, या इस बात पर विश्वास नहीं किया कि परमेश्वर है, वे जब जीत लिए जायेंगे, और अपने मुख से परमेश्वर को स्वीकार करेंगे, उसकी स्तुति करेंगे और उससे प्रेम करने में समर्थ होंगे - यह विजय की गवाही होगी? हालांकि तुम लोग पतरस नहीं, परंतु तुम सब में पतरस का चरित्र जीवंत है, तुम लोग पतरस की गवाही धारण करने योग्य हो, और अय्यूब की भी, और यही सबसे महान गवाही है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "विजयी कार्यों का आंतरिक सत्य (2)" से
12. विजयी कार्य द्वारा मुख्य रूप से यह परिणाम हासिल करने का प्रयास किया जाता है कि मनुष्य की देह को विद्रोह से रोका जाए, अर्थात मनुष्य का मस्तिष्क परमेश्वर की नई समझ हासिल करे, उसका दिल पूरी तरह से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करे, और वह परमेश्वर का होने के लिए संकल्प करे। किसी व्यक्ति के स्वभाव या देह कैसे परिवर्तित होते हैं, वह यह निर्धारित नहीं करता कि उस पर विजय प्राप्त की गई है या नहीं। बल्कि, जब तुम्हारी सोच, तुम्हारी चेतना और तुम्हारी भावना बदलती है—अर्थात, जब तुम्हारी पूरी मनोवृत्ति में बदलाव होता है—तब परमेश्वर तुम पर विजय प्राप्त कर चुका होता है। जब तुम आज्ञा का पालन करने का संकल्प ले लेते हो और एक नई मानसिकता अपना लेते हो, जब तुम परमेश्वर के वचनों और कार्य के विषय में अपनी धारणाओं या इरादों को लाना बंद कर देते हो, और जब तुम्हारा मस्तिष्क सामान्य रूप से सोच सकता हो, यानी, जब तुम परमेश्वर के लिए तहेदिल से प्रयास करने में जुट सकते हो—तो इस प्रकार का व्यक्ति वह होता है जिस पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त की जा चुकी है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "विजयी कार्यों का आंतरिक सत्य (2)" से
13. धर्म के दायरे में, बहुत से लोग सारा जीवन निरर्थकता से कष्ट भोगते हैं, अपने शरीर को नियंत्रित करते हुए या अपना बोझ उठाते हुए, यहाँ तक कि अपनी अंतिम सांस तक पीड़ा सहते हुए! कुछ लोग अपनी मृत्यु की सुबह में भी उपवास रखते हैं। वे अपने पूर्ण जीवन के दौरान स्वयं को अच्छे भोजन और अच्छे कपड़े से दूर रखते हैं, और केवल पीड़ा पर ज़ोर देते हैं। वे अपने शरीर को वश में कर पाते हैं और अपने शरीर को त्याग पाते हैं। पीड़ा सहन करने की उनकी भावना सराहनीय है। लेकिन उनकी सोच, उनकी धारणाएं, उनका मानसिक रवैया, और वास्तव में उनका पुराना स्वभाव—इनमें से किसी के साथ बिल्कुल भी निपटा नहीं गया है। उनकी स्वयं के बारे में कोई सच्ची समझ नहीं है। परमेश्वर के बारे में उनकी मानसिक छवि एक निराकार, अज्ञात परमेश्वर की पारंपरिक छवि है। परमेश्वर के लिए पीड़ा सहने का उनका संकल्प उनके उत्साह और उनके सकारात्मक स्वभाव से आता है। हालांकि वे परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, वे न तो परमेश्वर को समझते हैं और न ही उसकी इच्छा जानते हैं। वे केवल अंधों की तरह परमेश्वर के लिए कार्य कर रहे हैं और पीड़ा सह रहे हैं। विवेकी बनने पर वे बिल्कुल महत्व नहीं देते और उन्हें इसकी भी बहुत परवाह नहीं कि वे सुनिश्चित करें कि उनकी सेवा वास्तव में परमेश्वर की इच्छा पूरी करती हो। उन्हें इसका ज्ञान उससे भी कम है कि परमेश्वर के विषय में समझ कैसे हासिल करें। जिस परमेश्वर की सेवा वे करते हैं वह परमेश्वर की अपनी मूल छवि नहीं है, बल्कि एक ऐसा परमेश्वर है जिसे उन्होंने स्वयं बनाया, जिसके बारे में उन्होंने सुना, या एक ऐसा पौराणिक परमेश्वर है जिसके बारे में उन्होंने लेखों में पढ़ा। फिर वे अपनी ज्वलंत कल्पनाओं और अपने परमेश्वरीय हृदयों का उपयोग परमेश्वर के लिए पीड़ित होने के लिए करते हैं और परमेश्वर के लिए उस कार्य को अपने ऊपर ले लेते हैं जो परमेश्वर करना चाहता है। उनकी सेवा बहुत ही अयथार्थ है, ऐसी कि व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो ऐसा कोई नहीं है जो वास्तव में परमेश्वर की सेवा एक ऐसे तरीके से कर रहा है जो परमेश्वर की इच्छा को पूरा करता हो। इससे फर्क नहीं पड़ता कि वे पीड़ा भुगतने को कितने तैयार हों, उनकी सेवा का मूल परिप्रेक्ष्य और परमेश्वर की उनकी मानसिक छवि अपरिवर्तित रहती है क्योंकि वे परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना और उसके शुद्धिकरण और सिद्धता के माध्यम से नहीं गुज़रे हैं, और कोई उन्हें सत्य के साथ आगे नहीं ले गया है। यहां तक कि अगर वे उद्धारकर्ता यीशु पर विश्वास करते भी हैं, तो भी उनमें से किसी ने कभी उद्धारकर्ता को देखा नहीं है। वे केवल किंवदंती और अफ़वाहों के माध्यम से उसे जानते हैं। इसलिए, उनकी सेवा आँख बंद कर बेतरतीब ढंग से की जाने वाली सेवा से अधिक कुछ नहीं है, जैसे एक नेत्रहीन आदमी अपने पिता की सेवा कर रहा हो। इस प्रकार की सेवा के माध्यम से आखिरकार क्या हासिल किया जा सकता है? और इसे कौन स्वीकार करेगा? शुरुआत से लेकर अंत तक, उनकी सेवा कभी भी बदलती नहीं। वे केवल मानव निर्मित पाठ प्राप्त करते हैं और अपनी सेवा को अपनी स्वाभाविकता और वे स्वयं क्या पसंद करते हैं उस पर आधारित रखते हैं। इससे क्या इनाम प्राप्त हो सकता है? यहाँ तक कि पतरस, जिसने यीशु को देखा था, वह भी नहीं जानता था कि परमेश्वर की इच्छा पूरी करते हुए सेवा कैसे करनी है। अंत में, वृद्धावस्था में पहुंचने के बाद ही, उसे समझ आया। यह उन नेत्रहीन लोगों के बारे में क्या कहता है जिन्होंने किसी भी तरह के निपटान या काँट-छाँट का अनुभव नहीं किया और जिनके पास मार्गदर्शन के लिए कोई भी नहीं रहा है? क्या आजकल तुम लोगों की अधिकांश सेवा उन नेत्रहीन लोगों की तरह नहीं? जिन सभी लोगों ने न्याय नहीं प्राप्त किया है, जिनकी काँट-छाँट और जिनका निपटारा नहीं किया गया है, जो नहीं बदले हैं—क्या ये वे नहीं जिन पर विजय प्राप्ति अधूरी है।? ऐसे लोगों का क्या उपयोग? यदि तुम्हारी सोच, जीवन की तुम्हारी समझ और परमेश्वर की तुम्हारी समझ में कोई नया परिवर्तन नहीं दिखता है, और थोड़ा-सा भी लाभ नहीं मिलता है, तो तुम अपनी सेवा में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं प्राप्त करोगे! दर्शन के बिना और परमेश्वर के कार्य की एक नई समझ के बिना, तुम एक ऐसे व्यक्ति नहीं बन सकते जिस पर विजय प्राप्त की गई हो। परमेश्वर का अनुसरण करने का तुम्हारा तरीका फिर उन लोगों की तरह होगा जो पीड़ा सहते हैं और उपवास रखते हैं—इसका शायद ही कोई मूल्य हो! यह इसलिए है क्योंकि वे जो करते हैं उसकी शायद ही कोई गवाही हो और मैं कहता हूं कि उनकी सेवा व्यर्थ है! अपने जीवनकाल के दौरान, ये लोग कष्ट भोगते हैं, जेल में समय बिताते हैं, और हर पल वे कष्ट सहते हैं, प्यार और दयालुता पर ज़ोर देते हैं, और अपना क्रूस उठाते हैं। उन्हें दुनिया बदनाम और अस्वीकार करती है और वे हर कठिनाई का अनुभव करते हैं। वे अंत तक आज्ञा का पालन करते हैं, लेकिन फिर भी, उन पर विजय प्राप्त नहीं की जाती और वे विजय प्राप्ति का कोई भी साक्ष्य पेश नहीं कर पाते। वे कम कष्ट नहीं भोगते हैं, लेकिन अपने भीतर वे परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानते। उनकी पुरानी सोच, पुरानी विचारधारा, धार्मिक प्रथाओं, मानव निर्मित समझों और मानवीय विचारों में से किसी से भी निपटा नहीं गया। इनमें कोई नई समझ नहीं है। परमेश्वर की उनकी समझ का थोड़ा-सा हिस्सा भी सही या सटीक नहीं है। उन्होंने परमेश्वर की इच्छा को गलत समझा है। क्या यह परमेश्वर की सेवा के लिए हो सकता है? तुमने परमेश्वर के बारे में अतीत में जो भी समझा हो, मान लो कि यदि तुम उसे आज बनाए रखो और परमेश्वर के बारे में अपनी समझ को अपनी धारणाओं और विचारों पर आधारित रखना जारी रखो, चाहे परमेश्वर कुछ भी करे। अर्थात्, समझो कि तुम्हारे पास परमेश्वर की कोई नई, सच्ची समझ नहीं है और तुम परमेश्वर की वास्तविक छवि और सच्चे स्वभाव को जानने में विफल रहे हो। समझो कि सामंती, अंधविश्वासी सोच परमेश्वर की तुम्हारी समझ को अभी भी निर्देशित करती है और अब भी मानवीय कल्पनाओं और विचारों से पैदा होती है। यदि ऐसा है, तो तुम पर विजय प्राप्त नहीं की गई है। अभी, इन सभी वचनों को तुमसे कहने का मेरा लक्ष्य यह है कि तुम एक सटीक और नई समझ प्राप्त करने की राह पर पहुँचने के लिए इस ज्ञान का उपयोग करो और समझो। इनका, उन पुरानी धारणाओं और पुराने ज्ञान से छुटकारा पाने का भी उद्देश्य है, जो तुम अपने भीतर रखते हो, ताकि तुम एक नई समझ प्राप्त कर सको। अगर तुम सच में मेरे वचनों का भोजन करते हो और उन्हें पीते हो, तो तुम्हारी समझ में काफ़ी बदलाव आएगा। जब तक तुम परमेश्वर के वचनों पर भोजन करते हुए और उन्हें पीते हुए, एक आज्ञाकारी हृदय को बनाए रखोगे, तब तक तुम्हारा परिप्रेक्ष्य में बदलाव आएगा। जब तक तुम बार-बार ताड़ना को स्वीकार करते रहोगे, तुम्हारी पुरानी मानसाकिता धीरे-धीरे बदलती रहेगी। जब तक तुम्हारी पुरानी मानसिकता पूरी तरह से नई के साथ बदल दी जाएगी, तब तक तुम्हारा व्यवहार भी तदनुसार बदलेगा। इस तरह से तुम्हारी सेवा अधिक से अधिक लक्षित हो जाएगी, और अधिक से अधिक परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में सक्षम हो जाएगी। यदि तुम अपना जीवन, जीवन की अपनी समझ, और परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं को बदल सकते हो, तो तुम्हारी स्वाभाविकता धीरे-धीरे कम होती जाएगी। यह, और इससे कुछ भी कम नहीं, परिणामस्वरूप तब होता है जब परमेश्वर मनुष्य पर विजय प्राप्त करता है; यह वह परिवर्तन है जो मनुष्य में देखा जाएगा। यदि परमेश्वर पर विश्वास करने में, तुम केवल अपने शरीर को नियंत्रित करना और कष्ट और पीड़ा भुगतना जानते हो, और तुम्हें यह स्पष्टता से नहीं पता कि तुम जो कर रहे हो वह सही है या गलत, ये तो तुम्हें पता ही नहीं कि किसके लिए कर रहे हो, तो इस तरह के अभ्यास द्वारा कैसे परिवर्तन लाया जा सकता है?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "विजयी कार्य के भीतर का सत्य (3)" से
14. लोगों को समझना चाहिए कि जो मैं तुम लोगों से मांग रहा हूं वह यह नहीं है कि तुम लोगों के शरीर को बंधन में रखा जाए या तुम लोगों के मस्तिष्क को नियंत्रित किया जाए और तुम लोगों को मनमाने रूप से विचारने से रोका जाए।… यह आवश्यक है कि तुम लोग परमेश्वर के कार्य को समझो और अपने स्वभाव, अपने सार, और अपने पुराने जीवन को जानो। तुम लोगों को विशेष रूप से अतीत की उन ग़लत प्रथाओं और मानवीय कृतियों को जानने की आवश्यकता है। बदलने के लिए, तुम लोगों को अपनी सोच बदलने से शुरुआत करनी होगी। पहले, अपनी पुरानी सोच को नई के साथ बदलो, और अपनी नई सोच को अपने वचनों और कार्यों और जीवन को नियंत्रित करने दो। अभी, तुम सभी लोगों से यही करने के लिए कहा जा रहा है। आँखें मूंदकर इसका अभ्यास या पालन न करो। तुम लोगों के पास एक आधार और एक लक्ष्य होना चाहिए। अपने आप को मूर्ख मत बनाओ। तुम लोगों को पता होना चाहिए कि परमेश्वर पर तुम्हारा विश्वास किस लिए है, इससे क्या हासिल किया जाना चाहिए, और अभी तुम लोगों को किसमें प्रवेश करना चाहिए। यह आवश्यक है कि तुम ये सब कुछ जानो।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "विजयी कार्य के भीतर का सत्य (3)" से
15. जब परमेश्वर के कार्यों की तुम्हारी समझ में परिवर्तन होगा, जब तुम्हें परमेश्वर की सभी बातों के सत्य की नई समझ होगी, और जब तुम्हारी आंतरिक समझ ऊपर उठ जाएगी, तो तुम्हारा जीवन एक बेहतर मोड़ ले लेगा। सब कुछ जो आज लोग करते हैं और कहते हैं वह अब व्यावहारिक है। ये सिद्धांत नहीं हैं, बल्कि ये वे हैं जिनकी लोगों को अपने जीवन के लिए ज़रूरत है और उनके पास जो होना चाहिए। विजय के कार्य के दौरान यही परिवर्तन मनुष्य में होता है, यही वह परिवर्तन है जो मनुष्य को अनुभव करना चाहिए, और यही वह परिणाम है जो मनुष्य पर विजय प्राप्ति के बाद उत्पन्न होना चाहिए। तुम अपनी सोच बदल लेते हो, एक नया मानसिक दृष्टिकोण अपना लेते हो, अपनी धारणाओं और इरादों और अपने पिछले तार्किक विचारों को उलट देते हो, तुम्हारे भीतर उन गहरी जड़ों वाली चीज़ों को त्याग देते हो, और परमेश्वर पर आस्था की एक नई समझ प्राप्त कर लेते हो, तो तुम्हारे द्वारा दी गई गवाहियाँ ऊँची उठ जाएँगी और तुम्हारा पूरा अस्तित्व वास्तव में बदल जाएगा। ये सभी सबसे व्यावहारिक, सबसे यथार्थवादी, और सबसे बुनियादी चीज़ें हैं—वे चीज़ें जिन्हें अतीत में लोगों के लिए स्पर्श करना मुश्किल था और जिनके साथ वे संपर्क में नहीं आ सकते थे। वे आत्मा के सच्चे कार्य हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "विजयी कार्य के भीतर का सत्य (3)" से
16. विजय के सभी कार्यों के समापन पर, यह ज़रूरी है कि तुम सभी जानो कि परमेश्वर केवल इज़राइलियों का परमेश्वर नहीं है, बल्कि पूरी सृष्टि का परमेश्वर है। उसने सभी मनुष्यों का निर्माण किया, और केवल इज़राइलियों का नहीं। यदि तुम कहते हो कि परमेश्वर केवल इज़राइलियों का परमेश्वर है या परमेश्वर का इज़राइल के अलावा किसी भी देश में देहधारण करना असंभव है, तो तुम्हें विजयी कार्य के दौरान अब भी कोई भी समझ नहीं प्राप्त हुई है और तुम बिल्कुल भी इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे हो कि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है। तुम बस यही स्वीकार कर रहे हो कि परमेश्वर इज़राइल से चीन चला गया और उसे तुम्हारा परमेश्वर होने के लिए मजबूर किया जा रहा है। अगर तुम अभी भी इसे ऐसे देखते हो, तो तुम में मेरा कार्य बेकार हो गया है और तुमने मेरी कही हुई किसी भी बात को समझा नहीं है। अंत में, यदि तुम, मत्ती की तरह, फिर से मेरे लिए वंशावली लिखते हो, मेरे लिए एक उपयुक्त पूर्वज ढूंढते हो, और मेरे लिए एक सही जड़ तलाश करते हो—ऐसे कि परमेश्वर के दो देहधारियों की दो वंशावली हैं—तो क्या यह विश्व का सबसे बड़ा मज़ाक नहीं होगा? क्या तुम, वह "कल्याणकारी" व्यक्ति जिसने मेरी वंशावली ढूंढी, एक ऐसे व्यक्ति नहीं बन जाओगे जिसने परमेश्वर को विभाजित किया? क्या तुम इस पाप के बोझ को उठाने में सक्षम हो? विजय प्राप्त करने के इस सब कार्य के बाद, यदि तुम अभी भी यह विश्वास नहीं करते हो कि परमेश्वर पूरी सृष्टि का परमेश्वर है, यदि तुम अभी भी सोचते हो कि परमेश्वर केवल इज़राइलियों का परमेश्वर है, तो क्या तुम एक ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो खुलेआम परमेश्वर का विरोध करता है? आज तुम पर विजय प्राप्त करने का उद्देश्य यही है कि तुम स्वीकार करो कि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है, और दूसरों का परमेश्वर है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वह उन सभी का परमेश्वर है जो उससे प्यार करते हैं, और सारी सृष्टि का परमेश्वर है। वह इज़राइलियों का परमेश्वर है और मिस्र के लोगों का परमेश्वर है। वह ब्रिटिश का परमेश्वर है और अमरिकियों का परमेश्वर है। वह केवल आदम और हव्वा का परमेश्वर नहीं है, बल्कि आदम और हव्वा के सभी वंशजों का भी परमेश्वर है। वह स्वर्ग और पृथ्वी की हर चीज़ का परमेश्वर है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "विजयी कार्य के भीतर का सत्य (3)" से
17. इज़राइली परिवार और सभी गैर-यहूदी परिवार एक समान परमेश्वर के हाथ में हैं। उसने न केवल कई हज़ार सालों तक इज़राइल में कार्य किया था और कभी यहूदिया में पैदा हुआ था, बल्कि आज वह चीन में उतर रहा है, वह जगह जहां बड़ा लाल अजगर कुंडली बनाकर बैठा हुआ है। यदि यहूदिया में पैदा होना उसे यहूदियों का राजा बना देता है, तो क्या तुम सभी के बीच में आज उतरना उसे तुम लोगों का परमेश्वर नहीं बनाता है? उसने इज़राइलियों की अगुवाई की और यहूदिया में पैदा हुआ, और वह एक गैर-यहूदि भूमि में भी पैदा हुआ है। क्या उसका सभी कार्य उस मानव जाति के लिए नहीं जिसका उसने निर्माण किया? क्या वह इज़राइलियों को सौ गुना पसंद करता है और गैर-यहूदियों से एक हज़ार गुना घृणा करता है? क्या यह तुम्हारी धारणा नहीं है? वह तुम लोग हो जो परमेश्वर को स्वीकार नहीं करते हो; ऐसा नहीं है कि परमेश्वर कभी तुम लोगों का परमेश्वर नहीं था। वह तुम लोग हो जो परमेश्वर को अस्वीकार करते हो; ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुम लोगों का परमेश्वर बनने के लिए तैयार नहीं है। ऐसी कौन-सी निर्मित चीज़ है जो सर्वशक्तिमान के हाथों में नहीं है? आज, तुम लोगों पर विजय के लिए, क्या यही लक्ष्य नहीं है कि तुम लोग मानो कि परमेश्वर तुम लोगों के परमेश्वर के अलावा कोई और नहीं है? यदि तुम अभी भी मानते हो कि परमेश्वर केवल इज़राइलियों का परमेश्वर है, और अभी भी यह मानते हो कि इज़राइल में दाऊद का घर परमेश्वर के जन्म का स्थान है और इज़राइल के अलावा कोई भी राष्ट्र परमेश्वर को "उत्पन्न" करने के योग्य नहीं है, और तो और यह भी मानते हो कि कोई गैर-यहूदी परिवार यहोवा के कार्यों को निजी तौर पर प्राप्त करने के लिए सक्षम नहीं है—अगर तुम अभी भी इस तरह सोचते हो, तो क्या यह तुम्हें एक ज़िद्दी विरोधी नहीं बनाता? हमेशा इज़राइल पर मत अटके रहो। परमेश्वर तुम लोगों के बीच अभी उपस्थित है। स्वर्ग की ओर भी देखते मत रहो। स्वर्ग में अपने परमेश्वर के लिए तड़पना बंद करो! परमेश्वर तुम लोगों के बीच में आया है, तो वह स्वर्ग में कैसे हो सकता है? तुम लोगों ने परमेश्वर पर बहुत लंबे समय तक विश्वास नहीं किया है, फिर भी तुम लोगों की उसके बारे में बहुत सारी धारणाएं हैं, इस हद तक कि तुम लोग इस बारे में दोबारा सोचने की हिम्मत नहीं कर सकते कि इज़राइलियों का परमेश्वर अपनी उपस्थिति से तुम लोगों पर अनुग्रह करेगा। इससे भी कम, तुम लोग इस बारे में सोचने की हिम्मत नहीं कर सकते कि तुम कैसे परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप में प्रकट होते हुए देख सकते हो, यह जानते हुए कि तुम कितने असहनीय ढंग से अपवित्र हो। तुम लोगों ने यह भी कभी नहीं सोचा कि कैसे एक गैर-यहूदी भूमि में परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से उतर सकता है। उसे तो सिनाई पर्वत पर या जैतून पर्वत पर उतरना चाहिए और इज़राइलियों के समक्ष प्रकट होना चाहिए। क्या गैर-यहूदी (जो इज़राइल के बाहर के लोग है) सभी उसकी घृणा के पात्र नहीं हैं? वह व्यक्तिगत रूप से उनके बीच कैसे काम कर सकता है? ये सभी गहरी जड़ों वाली धारणाएं हैं जिन्हें तुम लोगों ने कई वर्षों से विकसित किया है। आज तुम लोगों पर विजय प्राप्त करने का उद्देश्य है तुम लोगों की इन धारणों को ध्वस्त कर देना। इस तरह तुम लोगों ने परमेश्वर को व्यक्तिगत रूप से अपने बीच में प्रकट होते हुए देखा है—सिनाई पर्वत पर या जैतून पर्वत पर नहीं, बल्कि उन लोगों के बीच जिनकी उसने अतीत में कभी अगुवाई नहीं की है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "विजयी कार्य के भीतर का सत्य (3)" से
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