प्रश्न 9: यह स्पष्ट रूप से बाइबल में लिखा है कि प्रभु यीशु मसीह है, परमेश्वर का पुत्र है, और वे सभी लोग जो प्रभु में विश्वास करते हैं, वे भी मानते हैं कि प्रभु यीशु मसीह है और वह परमेश्वर का पुत्र है। और फिर भी तुम यह गवाही दे रहे हो कि देहधारी मसीह परमेश्वर का प्रकटन है, कि वह खुद परमेश्वर है। तुम कृपया हमें यह बताओगे कि क्या देहधारी मसीह वास्तव में परमेश्वर का पुत्र है, या स्वयं परमेश्वर है?
उत्तर:
क्या देहधारी मसीह स्वयं परमेश्वर हैं या परमेश्वर के पुत्र हैं? यह है ठीक वही सवाल है जिसे ज्यादातर विश्वासियों को समझने में परेशानी होती है। जब देहधारी प्रभु यीशु मानवजाति के छुटकारे का कार्य करने के लिए आये थे, तो लोगों के बीच प्रकट होकर कार्य करते हुए, परमेश्वर मनुष्य के पुत्र बन गए। उन्होंने न केवल अनुग्रह के युग का आरंभ किया, बल्कि एक नए युग की भी शुरुआत की जिसमें परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से मनुष्यों के बीच रहने के लिए मनुष्यों की दुनिया में आये। पूरी श्रद्धा के साथ, मनुष्य ने प्रभु यीशु को मसीह यानी परमेश्वर का पुत्र कहा। उस समय, पवित्र आत्मा ने भी इस तथ्य की गवाही दी कि प्रभु यीशु परमेश्वर के प्रिय पुत्र हैं, और प्रभु यीशु स्वर्ग के परमेश्वर को पिता कहते थे। इस तरह, लोगों ने विश्वास किया कि प्रभु यीशु परमेश्वर के पुत्र हैं। इस तरीके से, पिता-पुत्र के इस संबंध की धारणा बनी। अब हम एक पल के लिए विचार करते हैं। क्या परमेश्वर ने उत्पत्ति (के अध्याय) में कहीं भी कहा है उनका कोई बेटा है? नहीं। अब व्यवस्था के युग के दौरान, क्या यहोवा परमेश्वर ने कभी कहा था कि उनका कोई बेटा है? उन्होंने ऐसा नहीं कहा था! इससे साबित होता है कि परमेश्वर सिर्फ़ एक हैं, पिता-पुत्र के संबंध की कहीं कोई बात नहीं है। अब कुछ लोग यह पूछ सकते हैं: अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने ऐसा क्यों कहा कि वे परमेश्वर के पुत्र थे? प्रभु यीशु मसीह परमेश्वर के पुत्र थे या स्वयं परमेश्वर थे? आप लोग कह सकते हैं, यह एक ऐसा सवाल है जिस पर हम विश्वासियों ने सदियों से बहस की है। लोग इस मुद्दे में निहित विरोधाभास को अनुभव करते हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि इसे कैसे समझाया जाए। प्रभु यीशु परमेश्वर हैं, लेकिन परमेश्वर के पुत्र भी हैं, तो क्या कोई परमपिता परमेश्वर भी है? लोग इस विषय को भी अच्छी तरह समझाने में असमर्थ हैं। पिछले दो हज़ार सालों में, ऐसे लोग बहुत कम हैं जिन्होंने यह पहचाना कि प्रभु यीशु मसीह स्वयं परमेश्वर हैं, परमेश्वर का प्रकटन हैं। दरअसल, बाइबल में स्पष्ट रूप से इसका उल्लेख है। यूहन्ना 14:8 में, फिलिप्पुस ने प्रभु यीशु से पूछा था: "हे प्रभु, पिता को हमें दिखा दे, यही हमारे लिये बहुत है।" अब, उस समय, प्रभु यीशु ने फिलिप्पुस को कैसे जवाब दिया? प्रभु यीशु ने फिलिप्पुस से कहा था: "हे फिलिप्पुस, मैं इतने दिन से तुम्हारे साथ हूँ, और क्या तू मुझे नहीं जानता? जिसने मुझे देखा है उसने पिता को देखा है; तू क्यों कहता है कि पिता को हमें दिखा? क्या तू विश्वास नहीं करता कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में है? ये बातें जो मैं तुम से कहता हूँ, अपनी ओर से नहीं कहता; परन्तु पिता मुझ में रहकर अपने काम करता है। मेरा विश्वास करो कि मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में है; नहीं तो कामों ही के कारण मेरा विश्वास करो" (यूहन्ना 14:9-11)। यहाँ, प्रभु यीशु ने बहुत स्पष्ट रूप से कहा, "जिसने मुझे देखा है उसने पिता को देखा है।" जैसा कि आप लोग देख सकते हैं, प्रभु यीशु स्वयं परमेश्वर का प्रकटन हैं। यहाँ प्रभु यीशु ने ऐसा नहीं कहा था कि उनके और परमेश्वर के बीच पिता-पुत्र का संबंध है। उन्होंने कहा, "मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में है।" "मैं और पिता एक हैं।" अब, प्रभु यीशु के वचनों के अनुसार, क्या हम इस बात की पुष्टि नहीं कर सकते कि प्रभु यीशु स्वयं परमेश्वर हैं, परमेश्वर सिर्फ़ एक है और "पिता-पुत्र के संबंध" जैसी कोई बात नहीं है?
कुछ लोग यह पूछ सकते, अगर प्रभु यीशु स्वयं परमेश्वर हैं, तो ऐसा क्यों है कि जब प्रभु यीशु प्रार्थना करते हैं, तो वे परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं। प्रभु यीशु द्वारा अपनी प्रार्थनाओं में स्वर्ग के परमेश्वर को पिता कहे जाने में सचमुच रहस्य छिपा है। जब परमेश्वर देहधारण करते हैं, परमेश्वर की आत्मा शरीर में छुपी रहती है, शरीर स्वयं भी आत्मा की मौजूदगी से अनजान रहता है। बिलकुल उसी तरह, जैसे हम स्वयं अपनी आत्मा को अपने अंदर महसूस नहीं कर पाते। इतना ही नहीं, परमेश्वर की आत्मा अपने शरीर में रहकर कोई भी अलौकिक कार्य नहीं करती है। इसलिए, भले ही प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर थे, अगर परमेश्वर की आत्मा ने स्वयं वचन नहीं बोले होते और परमेश्वर की गवाही नहीं दी होती, तो प्रभु यीशु को यह पता नहीं होता कि वे देहधारी परमेश्वर हैं। इसलिए, बाइबल में यह कहा गया है, "न पुत्र; परन्तु केवल पिता।" प्रभु यीशु अपनी सेवा का प्रदर्शन करने से पहले, सामान्य मानवता में रहते थे। वे असल में नहीं जानते थे कि वे परमेश्वर का अवतार हैं क्योंकि शरीर के भीतर मौजूद परमेश्वर की आत्मा ने अलौकिक तरीके से कार्य नहीं किया था, उन्होंने सामान्य सीमाओं में कार्य किया, बिल्कुल किसी अन्य मनुष्य की तरह। इसलिए, स्वाभाविक रूप से, प्रभु यीशु स्वर्ग के पिता से प्रार्थना करते थे, जिसका मतलब यह है कि अपनी सामान्य मानवता के भीतर, प्रभु यीशु परमेश्वर की आत्मा से प्रार्थना करते थे। यह बात पूरी तरह से समझ में आती है। जब प्रभु यीशु ने औपचारिक रूप से अपनी सेवा का प्रदर्शन किया, तब पवित्र आत्मा ने बोलना और प्रचार करना शुरू किया, यह गवाही देते हुए कि वह देहधारी परमेश्वर हैं। सिर्फ़ तभी जाकर प्रभु यीशु ने अपने सही अस्तित्व को पहचाना, कि वे छुटकारे का कार्य करने के लिए आये थे। लेकिन जब वह क्रूस पर लटकाए जाने वाले थे, तब भी उन्होंने परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना की। इससे पता चलता है कि मसीह का सार पूरी तरह से परमेश्वर के लिए आज्ञाकारी है।
इस विषय पर अपनी समझ को स्पष्ट करने के लिए, आइये सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के अन्य दो अंश पढ़ते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "इस विषय पर अपनी समझ को स्पष्ट करने के लिए, आइये सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के अन्य दो अंश पढ़ते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब प्रार्थना करते हुए यीशु ने स्वर्ग में परमेश्वर को पिता के नाम से बुलाया, तो यह केवल एक सृजित मनुष्य के परिप्रेक्ष्य से किया गया था, केवल इसलिए कि परमेश्वर के आत्मा ने एक सामान्य और साधारण व्यक्ति का चोला पहना था और उसके पास एक सृजित प्राणी का बाह्य आवरण था। यद्यपि उसके भीतर परमेश्वर का आत्मा था, उसका बाहरी स्वरूप अभी भी एक साधारण व्यक्ति का था; दूसरे शब्दों में, वह "मनुष्य का पुत्र" बन गया था, जिसके बारे में स्वयं यीशु समेत सभी मनुष्यों ने बात की थी। यह देखते हुए कि वह मनुष्य का पुत्र कहलाता है, वह एक व्यक्ति है (चाहे पुरुष हो या महिला, किसी भी हाल में एक इंसान के बाहरी कवच के साथ) जो सामान्य लोगों के साधारण परिवार में पैदा हुआ है। इसलिए, यीशु का स्वर्ग में परमेश्वर को पिता बुलाना, वैसा ही था जैसा कि तुम लोगों ने पहले उसे पिता कहा था; उसने सृष्टि के एक व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से ऐसा किया। क्या तुम लोगों को अभी भी प्रभु की प्रार्थना याद है जो यीशु ने तुम्हें याद करने के लिए सिखाई थी? हे पिता हमारे, जो स्वर्ग में है…।" उसने सभी मनुष्यों से स्वर्ग में परमेश्वर को पिता के नाम से बुलाने को कहा। और तब से उसने भी उसे पिता कहा, उसने ऐसा उस व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से किया था जो तुम सभी के साथ समान स्तर पर खड़ा था। चूंकि तुमने पिता के नाम से स्वर्ग में परमेश्वर को बुलाया था, इस से पता चलता है कि यीशु ने स्वयं को तुम सबके साथ समान स्तर पर देखा, और पृथ्वी पर परमेश्वर द्वारा चुने गए व्यक्ति (अर्थात परमेश्वर के पुत्र) के रूप में देखा। यदि तुम लोग परमेश्वर को "पिता" कहते हो, तो क्या यह इसलिए नहीं है कि तुम सब सृजित प्राणी हो? पृथ्वी पर यीशु का अधिकार चाहे जितना भी अधिक हो, क्रूस पर चढ़ने से पहले, वह मात्र मनुष्य का पुत्र था, वह पवित्र आत्मा (अर्थात, परमेश्वर) द्वारा नियंत्रित था, और पृथ्वी के सृजित प्राणियों में से एक था, क्योंकि उसने अभी भी अपना काम पूरा नहीं किया था। इसलिए, स्वर्ग में परमेश्वर को पिता बुलाना पूरी तरह से उसकी विनम्रता और आज्ञाकारिता थी। परमेश्वर (अर्थात, स्वर्ग में आत्मा) को उसका इस प्रकार संबोधन करना, हालांकि, यह साबित नहीं करता कि वह स्वर्ग में परमेश्वर के आत्मा का पुत्र है। बल्कि, यह केवल यही है कि उसका दृष्टिकोण अलग है, न कि वह एक अलग व्यक्ति है। अलग व्यक्तियों का अस्तित्व एक मिथ्या है! क्रूस पर चढ़ने से पहले, यीशु मनुष्य का पुत्र था जो शरीर की सीमाओं से बंधा था, और उसके पास पूरी तरह से आत्मा का अधिकार नहीं था। यही कारण है कि वह केवल एक सृजित प्राणी के परिप्रेक्ष्य से परमेश्वर की इच्छा तलाश सकता था। यह वैसा ही है जैसा गेथसमनी में उसने तीन बार प्रार्थना की थी: "जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं, बल्कि जैसा कि तू चाहता है।" क्रूस पर रखे जाने से पहले, वह बस यहूदियों का राजा था; वह मसीह, मनुष्य का पुत्र था, और महिमा का शरीर नहीं था। यही कारण है कि, एक सृजित प्राणी के दृष्टिकोण से, उसने परमेश्वर को पिता को बुलाया" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "क्या त्रित्व का अस्तित्व है?" से)।
"अभी भी ऐसे लोग हैं जो कहते हैं, क्या परमेश्वर ने स्पष्ट रूप से यह नहीं बताया कि यीशु उसका प्रिय पुत्र है? 'यीशु परमेश्वर का प्रिय पुत्र है, जिस पर वह प्रसन्न है' निश्चित रूप से परमेश्वर ने स्वयं ही कहा था। यह परमेश्वर की स्वयं के लिए गवाही थी, लेकिन केवल एक अलग परिप्रेक्ष्य से, स्वर्ग में आत्मा के अपने स्वयं के देहधारण को साक्ष्य देना। यीशु उसका देहधारण है, स्वर्ग में उसका पुत्र नहीं। क्या तुम समझते हो? यीशु के शब्द, "पिता मुझ में है और मैं पिता में हूं," क्या यह संकेत नहीं देते कि वे एक आत्मा हैं? और यह देहधारण के कारण नहीं है कि वे स्वर्ग और पृथ्वी के बीच अलग हो गए थे? वास्तव में, वे अभी भी एक हैं; चाहे कुछ भी हो, यह केवल परमेश्वर की स्वयं के लिए गवाही है। युग में परिवर्तन, काम की आवश्यकताओं, और उसके प्रबंधन योजना के विभिन्न चरणों के कारण, जिस नाम से मनुष्य उसे बुलाता है वह भी अलग हो जाता है। जब वह काम के पहले चरण को करने के लिए आया था, तो उसे केवल यहोवा, इस्राएलियों का चरवाहा ही कहा जा सकता था। दूसरे चरण में, देहधारी परमेश्वर को केवल प्रभु और मसीह कहा जा सकता था। परन्तु उस समय, स्वर्ग में आत्मा ने केवल यह बताया था कि वह परमेश्वर का प्यारा पुत्र है, और उसने परमेश्वर का एकमात्र पुत्र होने का उल्लेख नहीं किया था। ऐसा हुआ ही नहीं था। परमेश्वर की एकमात्र सन्तान कैसे हो सकती है? तो क्या परमेश्वर मनुष्य नहीं बनता? क्योंकि वह देहधारण था, उसे परमेश्वर का प्रिय पुत्र कहा गया, और इस से, पिता और पुत्र के बीच का संबंध आया। यह बस स्वर्ग और पृथ्वी के बीच विभाजन के कारण हुआ। यीशु ने देह के परिप्रेक्ष्य से प्रार्थना की। चूंकि उसने इस तरह की सामान्य मानवता के देह को धारण किया था, यह उस देह के परिप्रेक्ष्य से है जो उसने कहा: मेरा बाहरी आवरण एक सृजित प्राणी का है। चूंकि मैंने इस धरती पर आने के लिए देह धारण किया है, अब मैं स्वर्ग से बहुत दूर हूँ। इस कारण से, वह केवल पिता परमेश्वर के सामने देह के परिप्रेक्ष्य से ही प्रार्थना कर सकता था। यह उसका कर्तव्य था, और जो परमेश्वर के देहधारी आत्मा में होना चाहिए। यह नहीं कहा जा सकता कि वह परमेश्वर नहीं है क्योंकि वह देह के दृष्टिकोण से पिता से प्रार्थना करता है। यद्यपि उसे परमेश्वर का प्रिय पुत्र कहा जाता है, वह अभी भी परमेश्वर है, क्योंकि वह आत्मा का देहधारण है, और उसका सार अब भी आत्मा है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "क्या त्रित्व का अस्तित्व है?" से)।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने इन बातों को कितना स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है। जब प्रभु यीशु लोगों के बीच कार्य कर रहे थे, तो असल में मनुष्य के रूप में देहधारण कर परमेश्वर की आत्मा लोगों के बीच कार्य कर रही थी और प्रकट होती थी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि प्रभु यीशु अपने वचन कैसे व्यक्त कर रहे थे या परमपिता परमेश्वर से कैसे प्रार्थना कर रहे थे, उनका सार दिव्यता था, मानवता नहीं। परमेश्वर मनुष्य के लिए अदृश्य आत्मा हैं। जब परमेश्वर देह धारण करते हैं, मनुष्य सिर्फ़ देह को देखता है, वह परमेश्वर की आत्मा को नहीं देख सकता। अगर पवित्र आत्मा सीधे इस तथ्य का गवाह बनता कि देहधारी प्रभु यीशु परमेश्वर थे, तो मनुष्य ने उनको स्वीकार नहीं किया होता। सही। क्योंकि, उस समय कोई यह भी नहीं जानता था कि परमेश्वर के देहधारी होने का क्या मतलब है। वे सिर्फ़ परमेश्वर के देहधारण के संपर्क में आये और उनको बहुत कम समझ थी। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि यह सामान्य मनुष्य का पुत्र परमेश्वर की आत्मा का शरीर रूप होगा, यानी देह रूप में परमेश्वर का प्रकटन होगा। इसके बावजूद प्रभु यीशु ने अपने अधिकांश वचन अपने कार्य के दौरान व्यक्त किए, मनुष्य के सामने यह रास्ता दिया, "पश्चाताप करो: क्योंकि स्वर्ग का राज्य हाथ में है," और कई चमत्कार किए, परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य को पूरी तरह से प्रकट करते हुए, मनुष्य प्रभु यीशु के वचन और कार्य से यह पहचान पाने में विफल रहा कि प्रभु यीशु ही स्वयं परमेश्वर थे यानी वे परमेश्वर का प्रकटन थे। तो उस समय प्रभु यीशु के बारे में मनुष्य की समझ किस प्रकार की थी? कुछ लोगों ने कहा कि वे बपतिस्मा देने वाला यूहन्ना थे। कुछ लोगों ने कहा कि वे एलिय्याह थे। अन्य लोग उन्हें गुरू भी कहते थे। तो, परमेश्वर ने उस समय के लोगों के महत्व के अनुसार कार्य किया, उन्होंने उनके लिए यह कार्य कठिन नहीं बनाया। पवित्र आत्मा उस समय सिर्फ़ लोगों की समझ के दायरे में रहकर गवाही दे सकता था, इसलिए उसने प्रभु यीशु को परमेश्वर का प्रिय पुत्र कहा, जिससे लोगों ने कुछ समय तक प्रभु यीशु को परमेश्वर का पुत्र समझा। यह तरीका लोगों की अवधारणाओं के अनुरूप था और इसे स्वीकार करना अधिक आसान था क्योंकि उस समय प्रभु यीशु सिर्फ़ छुटकारे का कार्य कर रहे थे। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि लोग प्रभु यीशु को क्या कहकर बुलाते थे, महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि प्रभु यीशु उद्धारकर्ता थे, उन्होंने उनको पापों से मुक्ति दी थी, और इस तरह परमेश्वर का अनुग्रह पाने के योग्य थे। इसलिए, परमेश्वर की आत्मा ने इस तरह प्रभु यीशु के लिए गवाही दी क्योंकि यह उस समय के लोगों के महत्व के लिए अधिक उपयुक्त था। यह प्रभु यीशु के वचन को पूरी तरह से पूर्ण करता है: "मुझे तुम से और भी बहुत सी बातें कहनी हैं, परन्तु अभी तुम उन्हें सह नहीं सकते। परन्तु जब वह अर्थात् सत्य का आत्मा आएगा, तो तुम्हें सब सत्य का मार्ग बताएगा; क्योंकि वह अपनी ओर से न कहेगा परन्तु जो कुछ सुनेगा वही कहेगा, और आनेवाली बातें तुम्हें बताएगा" (यूहन्ना 16:12-13)।
इस तथ्य के बावजूद कि हम परमेश्वर की आत्मा को देख नहीं सकते हैं, जब परमेश्वर की आत्मा देह धारण करती है, परमेश्वर का स्वभाव, उनका अस्तित्व, उनकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता सभी उनके शरीर के माध्यम से व्यक्त होते हैं। प्रभु यीशु मसीह के वचन और कार्य एवं उनके द्वारा अभिव्यक्त स्वभाव से हम पूरी तरह से आश्वस्त हो सकते हैं कि प्रभु यीशु स्वयं परमेश्वर हैं। प्रभु यीशु के वचन और कार्य अधिकार और सामर्थ्य से भरे हैं। वे जो कहते हैं वह सच हो जाता है, वे जो माँग रखते हैं वह पूरी हो जाती है। जैसे ही वे बोलते हैं, उनके वचन सच हो जाते हैं। जिस तरह प्रभु यीशु का एक वचन मनुष्य के पापों को क्षमा करने और मृतक को फिर से जिंदगी देने के लिए काफ़ी था। उनके एक वचन ने हवा और समुद्र को शांत कर दिया आदि आदि। प्रभु यीशु के कार्य और वचन से, क्या हम परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य को नहीं देख सकते, जो सभी चीजों पर शासन करता है? क्या हमने परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता, बुद्धिमत्ता और चमत्कारी कार्यों को नहीं देखा है? प्रभु यीशु ने अपने वचनों में यह मार्ग बताया, "पश्चाताप करो: क्योंकि स्वर्ग का राज्य करीब है।" उन्होंने व्यवस्था के युग को समाप्त करते हुए, अनुग्रह के युग का आरंभ किया, परमेश्वर के करुणामय और प्रेम भरे स्वभाव को व्यक्त किया और मनुष्य के छुटकारे का कार्य पूरा किया। तो मैं आप सब से पूछता हूँ, क्या प्रभु यीशु ने स्वयं परमेश्वर का कार्य पूरा किया? प्रभु यीशु का वचन और कार्य परमेश्वर की आत्मा की सीधी अभिव्यक्ति है। क्या यह प्रमाण नहीं है कि परमेश्वर की आत्मा मनुष्य से वचन बोलने और उनके लिए कार्य करने, उनके समक्ष प्रकट होने के लिए देह रूप में आयी थी? क्या ऐसा संभव हो सकता है कि चाहे परमेश्वर की आत्मा जैसे भी वचन बोलती हो और कार्य करती हो, हम उनको पहचान पाने में असमर्थ हैं? क्या देह का यह बाहरी आवरण सचमुच हमें मसीह के दिव्य सार की पहचान करने से रोक सकता है? क्या ऐसा हो सकता है कि जब परमेश्वर की आत्मा वचन बोलने और कार्य करने के लिए देहधारण करती है, हम चाहे कितना भी अनुभव करें, फिर भी हम परमेश्वर के प्रकटन और कार्य को पहचान पाने में असमर्थ होंगे? अगर ऐसी बात है, तो हम अपने विश्वास में काफ़ी पीछे रह गए हैं। और हम किस तरह परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त कर सकते हैं?
आइये सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के अन्य दो अंश पढ़ते हैं। "देहधारी परमेश्वर मसीह कहलाता है, तथा मसीह परमेश्वर के आत्मा के द्वारा धारण किया गया देह है। यह देह किसी भी मनुष्य की देह से भिन्न है। यह भिन्नता इसलिए है क्योंकि मसीह मांस तथा खून से बना हुआ नहीं है बल्कि आत्मा का देहधारण है। उसके पास सामान्य मानवता तथा पूर्ण परमेश्वरत्व दोनों हैं। उसकी दिव्यता किसी भी मनुष्य द्वारा धारण नहीं की जाती है। उसकी सामान्य मानवता देह में उसकी समस्त सामान्य गतिविधियों को बनाए रखती है, जबकि दिव्यता स्वयं परमेश्वर के कार्य करती है। चाहे यह उसकी मानवता हो या दिव्यता, दोनों स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति समर्पित हैं। मसीह का सार पवित्र आत्मा, अर्थात्, दिव्यता है। इसलिए, उसका सार स्वयं परमेश्वर का है; यह सार उसके स्वयं के कार्य में बाधा उत्पन्न नहीं करेगा, तथा वह संभवतः कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकता है जो उसके स्वयं के कार्य को नष्ट करता हो, ना वह ऐसे वचन कहेगा जो उसकी स्वयं की इच्छा के विरूद्ध जाते हों" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का वास्तविक सार है" से)।
"देहधारण का अर्थ यह है कि परमेश्वर देह में प्रकट होता है, और वह अपनी सृष्टि के मनुष्यों के मध्य देह की छवि में कार्य करने आता है। इसलिए, परमेश्वर को देहधारी होने के लिए, उसे सबसे पहले देह, सामान्य मानवता वाली देह अवश्य होना चाहिए; यह, कम से कम, सत्य अवश्य होना चाहिए। वास्तव में, परमेश्वर का देहधारण का निहितार्थ यह है कि परमेश्वर देह में रह कर कार्य करता है, परमेश्वर अपने वास्तविक सार में देहधारी बन जाता है, एक मनुष्य बन जाता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर द्वारा आवासित देह का सार" से)।
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