प्रश्न 7: व्यवस्था के युग का कार्य करने के लिए परमेश्वर ने मूसा का उपयोग किया, तो अंतिम दिनों में परमेश्वर अपने न्याय के कार्य को करने के लिए लोगों का इस्तेमाल क्यों नहीं करता है, बल्कि इस कार्य को उसे खुद करने के लिए देह बनने की ज़रूरत क्यों है?
उत्तर:
ऐसा क्यों है कि परमेश्वर को अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने के लिए देहधारण करने की ज़रूरत है, जिनको सत्य को जानने की तीव्र अभिलाषा है और जो परमेश्वर के प्रकटन की खोज करना चाहते हैं, उनको इस प्रश्न में अत्यधिक दिलचस्पी है। यह एक ऐसा सवाल भी है जिसका संबंध इस बात से है कि क्या हमें स्वर्ग के राज्य में आरोहित किया जा सकता है या नहीं। इसलिए, सत्य के इस पहलू को समझना बहुत ज़रूरी है। ऐसा क्यों है कि परमेश्वर को अंत के दिनों में अपने न्याय के कार्य के लिए स्वयं देहधारण करना होगा, बजाय इसके कि वे अपना कार्य करने के लिए मनुष्य को इस्तेमाल करें? यह न्याय के कार्य के स्वभाव से तय होता है। क्योंकि न्याय का कार्य परमेश्वर द्वारा सत्य की अभिव्यक्ति है और यह मानवजाति को जीतने, शुद्ध करने और बचाने के लिए उनके धार्मिक स्वभाव की अभिव्यक्ति है। आइये सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ें।
"न्याय का कार्य परमेश्वर का स्वयं का कार्य है, इसलिए स्वभाविक तौर पर इसे परमेश्वर के द्वारा ही अवश्य किया जाना चाहिए; उसकी जगह इसे मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता है। क्योंकि सत्य के माध्यम से मनुष्य को जीतना न्याय है, इसलिए यह निर्विवाद है है कि तब भी परमेश्वर मनुष्यों के मध्य अपना कार्य करने के लिए देहधारी छवि के रूप में प्रकट होता है। अर्थात्, अंत के दिनों में, मसीह पृथ्वी के चारों ओर सत्य का उपयोग मनुष्यों को सिखाने के लिए और सभी सत्यों को उन्हें ज्ञात करवाने के लिए करेगा। यही परमेश्वर के न्याय का कार्य है।" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है" से)
"अंत के दिनों में, मसीह मनुष्य को सिखाने के लिए विभिन्न प्रकार के सत्यों का उपयोग करता है मनुष्य के सार को प्रकट करता है, और उसके वचनों और कर्मों का विश्लेषण करता है। इन वचनों में विभिन्न सत्य शामिल हैं, जैसे कि मनुष्य का कर्तव्य, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना चाहिए, मनुष्य को किस प्रकार सामान्य मानवता से, और साथ ही परमेश्वर की बुद्धि और उसके स्वभाव इत्यादि को जीना चाहिए। ये सभी वचन मनुष्य के सार और उसके भ्रष्ट स्वभाव पर केन्द्रित हैं। खासतौर पर, वे वचन जो यह प्रगट करते हैं कि मनुष्य किस प्रकार से परमेश्वर का तिरस्कार करता है इस संबंध में बोले गए हैं कि किस प्रकार से मनुष्य शैतान का अवतार और परमेश्वर के विरूद्ध दुश्मन शक्ति है। जब परमेश्वर न्याय का कार्य करता है, तो वह केवल कुछ वचनों से ही मनुष्य की प्रकृति को स्पष्ट नहीं करता है, बल्कि लम्बे समय तक प्रकाशन, व्यवहार, और काँट-छाँट कार्यान्वित करता है। इस प्रकार का प्रकाशन, व्यवहार और काँट-छाँट साधारण वचनों से नहीं बल्कि सत्य से प्रतिस्थापित किया जा सकता है, जिसे मनुष्य बिल्कुल भी धारण नहीं करता है। केवल इस तरीके का कार्य ही न्याय समझा जाता है, केवल इसी प्रकार के न्याय के द्वारा ही मनुष्य को समझाया जा सकता है, परमेश्वर के प्रति समर्पण में पूरी तरह से आश्वस्त किया जा सकता है, और मनुष्य परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त कर सकता है। न्याय का कार्य परमेश्वर के असली चेहरे और उसके विद्रोहीशीलता के सत्य के बारे में मनुष्य में समझ उत्पन्न करता है। न्याय का कार्य मनुष्य को परमेश्वर की इच्छा की, परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य की, और मनुष्य की समझ में न आ सकने वाले रहस्यों की अधिक समझ प्राप्त करने देता है। यह मनुष्य को उसके भ्रष्ट सार तथा उसके भ्रष्टाचार के मूल को पहचानने और जानने, साथ ही मनुष्य की कुरूपता को खोजने देता है। ये सभी प्रभाव न्याय के कार्य के द्वारा निष्पादित होते हैं, क्योंकि इस तरह के कार्य का सार ही वास्तव में परमेश्वर के सत्य, मार्ग और जीवन का मार्ग प्रशस्त करने का कार्य है उन सभी के लिए जिनका उस पर विश्वास है। यह कार्य परमेश्वर के द्वारा किया गया न्याय का कार्य है।" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है" से)
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से हम यह जानते हैं कि अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय का कार्य सत्य के बहुत से पक्षों की अभिव्यक्तियों ये युक्त है, जिसमें परमेश्वर के स्वभाव को व्यक्त करना, वह जो परमेश्वर स्वयं हैं जो उनमें है, उन सभी रहस्यों को उजागर करना, मनुष्य के परमेश्वर-विरोधी और परमेश्वर के साथ विश्वासघात करने के शैतानी स्वभाव का न्याय करने, मनुष्य की बातों और आचरण को प्रकट और स्पष्ट करना, और पूरी मानव जाति के लिए परमेश्वर के पवित्र और धार्मिक सार और सरल स्वभाव को प्रकट करना शामिल है। जब परमेश्वर द्वारा चुने गए व्यक्ति परमेश्वर के वचनों के अनुसार न्याय की प्रक्रिया से गुज़रते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे कि वे परमेश्वर के साथ आमने-सामने होते हैं, उनके द्वारा न्याय किए और उजागर किए जाते हैं। जब परमेश्वर मनुष्य का न्याय करते हैं, तो वे उन्हें अपने धर्मी स्वभाव की अभिव्यक्ति को देखने की क्षमता देते हैं, जैसे कि परमेश्वर के पवित्र अस्तित्व को देखा जा रहा हो, जैसे कि स्वर्ग से उतरती दिव्य रोशनी देखी जा रही है, और परमेश्वर के वचन को देखना एक तेज दो-धारी तलवार की तरह है जो व्यक्ति के दिल और आत्मा में उतरती जाती है, जिसकी वजह से व्यक्ति को अवर्णनीय पीड़ा सहन करनी पड़ती है। सिर्फ इसी तरीके से मनुष्य अपने भ्रष्ट सार और अपने भ्रष्टाचार के सत्य को पहचान सकता है, इसी तरीके से वह गहरा अपमान महसूस कर, अपना चेहरा शर्म से छिपा कर, और सच्चे पश्चाताप के लिए परमेश्वर के सामने दंडवत हो सकते हैं, और फिर वह सत्य को स्वीकार करने में सक्षम होगा और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीवन जियेगा, अपने आपको पूरी तरह से शैतान के प्रभाव से मुक्त करेगा, और परमेश्वर द्वारा बचाया और सिद्ध किया जाएगा। मनुष्य के न्याय, शुद्धि और उद्धार जैसे कार्य सिर्फ देहधारी परमेश्वर के द्वारा निजी तौर पर पूरे किये जा सकते हैं।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के द्वारा न्याय का अनुभव करते हुए, हम सभी यह महसूस कर चुके हैं कि कैसे मनुष्यों द्वारा परमेश्वर की पवित्रता और धर्मपरायण स्वभाव को अपमानित नहीं किया जा सकता है। परमेश्वर के वचन का हर एक अक्षर उनकी महिमा और प्रचंड क्रोध से भरा है, प्रत्येक वचन हमारे दिलों में भीतर तक गहरी चोट करते हुए, हमारे परमेश्वर विरोधी और परमेश्वर से विश्वासघात करने वाले शैतानी स्वभाव को पूरी तरह से उजागर करता है, साथ ही यह हमारे दिलों के भीतर गहराई तक समाये भ्रष्ट स्वभाव के तत्वों को बाहर निकाल देता है जिन्हें हम स्वयं भी देख नहीं पाते हैं, जिससे हम यह पहचानने में सक्षम होते हैं कि कैसे हमारा स्वभाव और अस्तित्व अहंकार, स्व-धार्मिकता, स्वार्थ और विश्वासघात से भरा हुआ है, कैसे हम इन चीजों के अनुसार जीवन जीते हैं, जैसे कि जीवित शैतान मंडली पूरी धरती पर घूमती फिर रही है, जिसमें इंसानियत का लेशमात्र भी नामोनिशान नहीं है। परमेश्वर इसे घिनौना और निंदनीय समझते हैं। हम अफ़सोस के साथ अपमानित और ध्वस्त महसूस करते हैं। हम अपनी खुद की नीचता और बुराई देखते हैं और जानते हैं कि हम परमेश्वर के सामने रहने के लायक नहीं हैं, इसलिए हम धरती पर दंडवत करते हुए, परमेश्वर द्वारा उद्धार पाने की चाह रखते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के द्वारा न्याय का अनुभव करने में, हम असल में परमेश्वर के प्रकटन के गवाह बनते हैं। हम देखते हैं कि परमेश्वर की पवित्रता अदूषित है और उनकी धार्मिकता अहानिकर है। हम उन ईमानदार इरादों और सच्चे प्रेम को पहचानते हैं जिसके साथ परमेश्वर मनुष्य को बचाने का प्रयास करते हैं और हमारे भ्रष्टाचार के सत्य और वास्तविकता को शैतान के हाथों में देखते हैं। इस प्रकार, हमारे दिलों में, हम परमेश्वर के प्रति सम्मान महसूस करने लगते हैं और खुशी से सत्य को स्वीकार करते हैं और हमारे लिए परमेश्वर की योजनाओं का पालन करते हैं। इस तरह, हमारा भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे शुद्ध हो जाता है। आज जो परिवर्तन हमने प्राप्त किए हैं वह न्याय का कार्य करने के लिए परमेश्वर के देहधारण का नतीज़ा है। तो आप देखिए, केवल तभी जब परमेश्वर का अवतार सत्य को प्रकट करता है, न्याय का कार्य करने के लिए परमेश्वर के धर्मपरायण स्वभाव को और वह सब जो उनमें है और वे स्वयं हैं, को व्यक्त करता है, तभी मनुष्य सच्ची रोशनी और परमेश्वर के प्रकटन को देख पाता है, और उसे परमेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त होने लगता है। सिर्फ इसी तरीके से मनुष्य को बचाया और शुद्ध किया जा सकता है। मसीह के अलावा, कोई भी आदमी अंत के दिनों में न्याय का कार्य नहीं कर सकता। आइये अब सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का दूसरा अंश पढ़ते हैं।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है, "कोई भी देह में प्रगट परमेश्वर की अपेक्षा अधिक उपयुक्त, एवं योग्य नहीं है। मनुष्य की देह की भ्रष्टता का न्याय करने के लिए … यदि देह में प्रगट परमेश्वर मानवजाति की भ्रष्टता का न्याय करे केवल तभी शैतान को पूरी तरह से हाराया जा सकता है। मनुष्य के समान होकर जो सामान्य मानवता को धारण करता है, देह में प्रगट परमेश्वर सीधे तौर पर मनुष्य की अधार्मिकता का न्याय कर सकता है; यह उसकी अंतर्निहित पवित्रता, एवं उसकी असाधारणता का चिन्ह है। केवल परमेश्वर ही योग्य है, एवं उस स्थिति में है कि मनुष्य का न्याय करे, क्योंकि वह सत्य एवं धार्मिकता को धारण किए हुए है, और इस प्रकार वह मनुष्य का न्याय करने में सक्षम है। ऐसे लोग जो सत्य एवं धार्मिकता से रहित हैं वे दूसरों का न्याय करने के लायक नहीं हैं।" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से)
"यह इन्हीं न्यायों के कारण है कि तुम लोग यह देखने में सक्षम हो कि परमेश्वर धर्मी परमेश्वर है, कि परमेश्वर पवित्र परमेश्वर है। यह उसकी पवित्रता और धार्मिकता की वजह से है कि उसने तुम लोगों का न्याय किया है और तुम लोगों ने उसका कोप भुगता है। क्योंकि मानव जाति की विद्रोहशीलता को देखते समय वह अपने धर्मी स्वभाव को प्रकट कर सकता है, और क्योंकि वह मानवता की गंदगी को देखते समय अपनी पवित्रता को प्रकट कर सकता है, इतना दिखाना पर्याप्त है कि वह परमेश्वर स्वयं है जो पवित्र है और बिना कलंक का है, लेकिन गंदगी की भूमि में भी रहता है। यदि वह एक ऐसा व्यक्ति होता जो दूसरों के साथ स्वयं को भी कलुषित कर लेता है और यदि उसमें पवित्रता का कोई तत्व या धर्मी स्वभाव नहीं होता, तो वह मानवजाति की अधार्मिकता का न्याय करने या मानवजाति का न्यायकर्ता होने के योग्य नहीं होता। यदि मनुष्य को मनुष्य का न्याय करना होता, तो क्या यह अपने स्वयं के चेहरे पर थप्पड़ मारने जैसा नहीं होता? किसी व्यक्ति को उसी की तरह के व्यक्ति का न्याय करने का अधिकार कैसे प्राप्त हो सकता है, जो उतना ही गंदा हो जितना वह स्वयं है? केवल एकमात्र जो समस्त गंदी मानवजाति का न्याय कर सकता है वह पवित्र परमेश्वर स्वयं है, और मनुष्य ही मनुष्य के पापों का न्याय कैसे कर सकता है? मनुष्य के पापों को देखने में मनुष्य कैसे सक्षम हो सकता है, और वह मनुष्य की निंदा करने के लिए कैसे योग्य हो सकता है? यदि परमेश्वर को मनुष्य के पापों का न्याय करने का अधिकार नहीं था, तो वह धर्मी परमेश्वर स्वयं कैसे हो सकता था? जब लोगों के भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होते हैं, तो वह उनका न्याय करने के लिए स्पष्ट शब्दों में बोलता है और केवल तभी वे देख सकते हैं कि वह पवित्र है।" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "विजय के कार्य का दूसरा कदम किस प्रकार से फल देता है" से)
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से हमें स्पष्ट रूप से पता चलता है कि अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय का कार्य सत्य, परमेश्वर के स्वभाव, मनुष्य को जीतने, शुद्ध करने और सिद्ध करने के लिए परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि के जरिये किया जाना चाहिए। अंत के दिनों में परमेश्वर न्याय का यह कार्य करने के लिए स्वयं प्रकट होंगे। यह कार्य एक युग के शुरू होने के और दूसरे के खत्म होने को दर्शाता है। यह कार्य परमेश्वर के देहधारण द्वारा ही किया जाना चाहिए, उनके स्थान पर कोई भी मनुष्य इसे पूरा नहीं कर सकता है। ऐसा क्यों है कि ज़्यादातर लोग इस बात पर विश्वास करते हैं कि परमेश्वर को स्वयं देहधारण कर अपना कार्य करने के बजाय, अपने हर कार्य के लिए मनुष्य का इस्तेमाल करना चाहिए? यह अविश्वसनीय है! क्या मानवजाति वास्तव में परमेश्वर के आगमन का स्वागत करती है? ऐसा क्यों है कि हर बार बहुत से लोग यह सोचते हैं कि परमेश्वर अपना कार्य करने के लिए मनुष्य का इस्तेमाल करेंगे? इसका कारण यह है कि मनुष्य अपनी अवधारणाओं के अनुसार काम करते हैं, वे ठीक वैसे ही काम करते हैं जैसा उनके विचार में काम किया जाना चाहिए, इसलिए मनुष्य आसानी से दूसरे मनुष्यों की पूजा करने लगते हैं, उन्हें एक ऊँचा दर्जा देकर उनकी बातों का पालन करने लगते हैं, लेकिन परमेश्वर के कार्य करने का तरीका कभी भी मनुष्य की सोच के अनुरूप नहीं होता, वे कोई भी काम उस तरह नहीं करते जैसे मनुष्य को लगता है कि करना चाहिए। इसलिए मनुष्य को परमेश्वर के साथ तालमेल बैठाने में परेशानी होती है। परमेश्वर का सार सत्य, मार्ग और जीवन है। परमेश्वर का स्वभाव पवित्र, धार्मिक और अहानिकर है। हालांकि, भ्रष्ट मनुष्य को शैतान के द्वारा पूरी तरह से भ्रष्ट किया जा चुका है, और वह शैतानी स्वभाव से भरा है, और उनका परमेश्वर के साथ तालमेल बिठाना बहुत ही मुश्किल है। इसलिए, मनुष्य को परमेश्वर के देहधारण के कार्य को स्वीकार करना मुश्किल लगता है, वह अध्ययन और जाँच-पड़ताल करने के लिए तैयार नहीं होता है, इसके बजाय वह मनुष्य की पूजा करता है और उसके काम में आँखें मूंदकर विश्वास करता है, उसे इस तरह स्वीकार करने और पालन करने लगता है जैसे कि यह परमेश्वर का कार्य था। यहाँ समस्या क्या है? आप कह सकते हैं कि मनुष्य को इस बात का ज़रा सा भी अंदाजा नहीं है कि परमेश्वर पर विश्वास करने और उनके कार्यों को समझने का क्या मतलब है, इसलिए, अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य में देहधारण द्वारा सत्य की अभिव्यक्ति अवश्य शामिल होनी चाहिए ताकि भ्रष्ट मनुष्यजाति की सभी समस्याओं का समाधान किया जा सके। जहां तक आपके इस सवाल का संबंध है कि आखिर परमेश्वर अंत के दिनों में अपना न्याय का कार्य करने के लिए मनुष्य का इस्तेमाल क्यों नहीं करते, क्या इसके जवाब की अभी भी आवश्यकता है? मनुष्य का सार मनुष्य ही है, मनुष्य में दिव्य सार नहीं होता है, इसलिए मनुष्य सत्य व्यक्त करने, परमेश्वर के स्वभाव को व्यक्त करने, वह सब जो परमेश्वर में है और उनका अस्तित्व, उसे व्यक्त करने में अक्षम है, और वह मनुष्य जाति के उद्धार का कार्य नहीं कर सकता। यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि सभी मनुष्यों को शैतान द्वारा भ्रष्ट किया जा चुका है, और उनके स्वभाव पापी हैं, ऐसे में उनके पास दूसरे मनुष्यों का न्याय करने की क्या योग्यता है? क्योंकि बुरा और भ्रष्ट मनुष्य अपने आपको ही शुद्ध करने और बचाने में अक्षम है, तो वह दूसरों को शुद्ध करने और बचाने के बारे में सोच भी कैसे सकता है? ऐसे लोगों को सिर्फ अपमान का सामना करना करना होगा जब अन्य लोग उनके न्याय को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होंगे। सिर्फ परमेश्वर ही धर्मी और पवित्र हैं, और सिर्फ परमेश्वर ही सत्य, मार्ग, और जीवन हैं। इसलिए, अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय का कार्य निश्चय ही उनके देहधारण द्वारा पूरा किया जाएगा। यह हकीकत है कि कोई भी मनुष्य ऐसे कार्य के लिए योग्य नहीं है। क्या हम अब भी यह समझ नहीं पा रहे हैं?
परमेश्वर ने व्यवस्था के युग में अपना कार्य करने के लिए मनुष्य का इस्तेमाल क्यों किया? ऐसा इसलिए क्योंकि व्यवस्था के युग के कार्य और अंत के दिनों के न्याय के कार्य अलग-अलग प्रकृति के हैं। व्यवस्था के युग में, मनुष्य जाति भी नवजात थी, मनुष्य को शैतान के द्वारा बहुत कम भ्रष्ट किया गया था। यहोवा परमेश्वर का कार्य मुख्य रूप से व्यवस्था और आज्ञाओं को लागू करना था जिसका उद्देश्य प्रारंभिक मनुष्य को एक मार्गदर्शन देना था कि वह पृथ्वी पर कैसे जिये। कार्य के इस चरण का उद्देश्य मनुष्य के स्वभाव को बदलना नहीं था, इसके लिए अधिक सत्य व्यक्त करने की आवश्यकता नहीं थी। परमेश्वर को सिर्फ इस्त्राएलियों के लिए निर्धारित व्यवस्था को समझाने के लिए मनुष्य का इस्तेमाल करने की जरूरत थी, ताकि इस्त्राएलियों को पता चल सके कि व्यवस्था का पालन कैसे करना चाहिए, यहोवा की उपासना कैसे करनी चाहिए, और पृथ्वी पर एक साधारण ज़िंदगी कैसे जीनी चाहिए। ऐसा करने पर, कार्य का वह चरण पूरा हो गया था। इसलिए, व्यवस्था के युग का कार्य करने के लिए परमेश्वर ने मूसा का इस्तेमाल किया, उन्हें निजी तौर पर कार्य पूरा करने के लिए देहधारण करने की ज़रूरत नहीं थी। इसके विपरीत, अंत के दिनों में परमेश्वर के न्याय के कार्य का उद्देश्य मानव जाति को बचाना है, जिसे शैतान ने पूरी तरह से भ्रष्ट कर दिया है। परमेश्वर के वचन के कुछ अंशों को जारी करना और कुछ नियमों का प्रचार करना इस मामले में पर्याप्त नहीं होगा। काफी मात्रा में सत्य की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। परमेश्वर का निहित स्वभाव, वह सब जो परमेश्वर में है और वे स्वयं हैं, उसे पूरी तरह से व्यक्त किया जाना चाहिए, सत्य, मार्ग, और जीवन को सभी मनुष्यों के लिए खोल दिया जाना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे कि परमेश्वर स्वयं मानव जाति के आमने-सामने आकर इन बातों को उजागर कर रहे हैं, जिससे कि मनुष्य सत्य को समझ सके और परमेश्वर को जान सके, और ऐसा करने में, वे पूरी तरह से मानव जाति को शुद्ध करते, बचाते और सिद्ध करते हैं। परमेश्वर को यह कार्य निजी तौर पर देहधारण लेकर करना होता है, उनके अलावा कोई भी मनुष्य यह कार्य नहीं कर सकता। परमेश्वर अपने वचन के कुछ अंशों को जारी करने के लिए पैगंबरों का इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन परमेश्वर पैगंबरों को परमेश्वर के अंतर्निहित स्वभाव, वह सब जो उनमें है और वे स्वयं हैं, को व्यक्त करने या संपूर्ण सत्य को व्यक्त करने की अनुमति नहीं देते, क्योंकि मनुष्य ऐसा करने के लायक नहीं है। अगर परमेश्वर ने अपने संपूर्ण स्वभाव और सत्य को व्यक्त करने के लिए मनुष्य का इस्तेमाल किया तो वे संभवत: परमेश्वर को अपमानित कर देंगे, क्योंकि मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है, वह अपनी खुद की अवधारणाओं और विचारों को धोखा दे सकता है, उसके कार्यों में अशुद्धियां होंगी, जो आसानी से परमेश्वर को अपमानित करेगा और परमेश्वर के कार्य की समग्र प्रभावशीलता को प्रभावित करेगा। इसके अलावा, मनुष्य वह सब जो परमेश्वर के पास है और उनमें है, इसके लिए उसके पास जो कुछ है और वह जो है उसे लेने को तत्पर रहता है, जो सत्य के लिए उनके कार्य में मनुष्य की अशुद्धियों को समाहित कर देता है। इससे एक गलतफहमी पैदा होती है और परमेश्वर का अपमान होता है। साथ ही, अगर परमेश्वर को अपने संपूर्ण स्वभाव और सत्य को व्यक्त करने के लिए मनुष्य का इस्तेमाल करना होता, तो मनुष्य की अशुद्धियों के कारण, लोग इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होते और उनका विरोध भी कर सकते थे। फिर शैतान को दोष दिखाई देने लगता और वह आरोप लगाने लगता। परमेश्वर के साथ मनुष्य के असंतोष की ज्वाला को हवा देते हुए, विद्रोह को भड़काते हुए, और उनको अपना खुद का स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के लिए उकसाते हुए। यह मनुष्य द्वारा परमेश्वर का कार्य किए जाने का अंतिम परिणाम है। ख़ास तौर पर, अंत के दिनों में अत्यधिक भ्रष्ट मनुष्य के परमेश्वर द्वारा उद्धार किये जाने के मामले में, मनुष्यगण परमेश्वर के देहधारी के कार्य को स्वीकार करने और उनका पालन करने के लिए आसानी से तैयार नहीं होते है। इसलिए अगर परमेश्वर ने इस कार्य को करने के लिए मनुष्यों का इस्तेमाल किया होता, तो लोगों द्वारा इसके स्वीकार करने और इसका पालन करने की संभावना बहुत कम होगी। क्या ये सीधे-सादे तथ्य नहीं हैं? धार्मिक जगत के एल्डर और पादरियों को देखें, क्या परमेश्वर के देहधारण के कार्य के प्रति उनका विरोध और निंदा उस विरोध से अलग है, जैसा विरोध यहूदी मुख्य पादरियों और फरीसियों ने पहले प्रभु यीशु का किया था? परमेश्वर द्वारा भ्रष्ट मनुष्य जाति का उद्धार आसान काम नहीं है। हमें यह समझना होगा कि परमेश्वर कैसे सोचते हैं!
दूसरी ओर, अंत के दिनों में देहधारी परमेश्वर का न्याय का कार्य मनुष्य का न्याय करना, शुद्ध करना और बचाना है, दूसरी तरफ, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि परमेश्वर अपना कार्य सत्य की अभिव्यक्ति और परमेश्वर के स्वभाव की अभिव्यक्ति तथा वह सब जो उनमें है और उनका अस्तित्व, उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम से करते हैं, जिससे पूरी मानवजाति को सही मायनों में परमेश्वर को जानने और समझने में मदद मिलती है, और वह देहधारी परमेश्वर के प्रकटन को देख पाने में सफल होती है। आइये अब हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के कुछ अंशों को पढ़ें।
"क्योंकि वे सभी जो देह में जीवन बिताते हैं, उन्हें अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के लिए अनुसरण हेतु लक्ष्यों की आवश्यकता होती है, और परमेश्वर को जानने के लिए परमेश्वर के वास्तविक कार्यों एवं वास्तविक चेहरे को को देखने की आवश्यकता होती है। दोनों को सिर्फ परमेश्वर के देहधारी शरीर के द्वारा ही हासिल किया जा सकता है, और दोनों को सिर्फ साधारण एवं वास्तविक देह के द्वारा ही पूरा किया जा सकता है। इसी लिए देहधारण ज़रूरी है, और इसी लिए समस्त भ्रष्ट मानवजाति को इसकी आवश्यकता होती है। जबकि लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे परमेश्वर को जानें, तो अस्पष्ट एवं अलौकिक ईश्वरों की आकृतियों को उनके हृदयों से दूर हटाया जाना चाहिए, और जबकि उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करें, तो उन्हें पहले अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानना होगा। यदि मनुष्य केवल लोगों के हृदयों से अस्पष्ट ईश्वरों की आकृतियों को हटाने के लिए कार्य करता है, तो वह उपयुक्त प्रभाव हासिल करने में असफल हो जाएगा। लोगों के हृदयों से अस्पष्ट ईश्वरों की आकृतियों को उजागर, एवं दूर नहीं किया जा सकता है, या केवल शब्दों से पूरी तरह से निकाला नहीं जा सकता है। ऐसा करके, अंततः गहराई से जड़ जमाई हुई चीज़ों को लोगों से हटाना अभी भी संभव नहीं होगा। केवल व्यावहारिक परमेश्वर और परमेश्वर का सच्चा स्वरूप ही इन अस्पष्ट एवं अलौकिक चीज़ों का स्थान ले सकता है ताकि लोगों को धीरे धीरे उन्हें जानने की अनुमति दी जाए, और केवल इसी रीति से उस तयशुदा प्रभाव को हासिल किया जा सकता है। … केवल स्वयं परमेश्वर ही अपना खुद का कार्य कर सकता है, और कोई अन्य उसके स्थान पर इस कार्य को नहीं कर सकता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य की भाषा कितनी समृद्ध है, वह परमेश्वर की वास्तविकता एवं साधारणता को स्पष्टता से व्यक्त करने में असमर्थ है। मनुष्य केवल तब ही और अधिक व्यावहारिकता से परमेश्वर को जान सकता है, और केवल तब ही उसे और अधिक साफ साफ देख सकता है यदि परमेश्वर व्यक्तिगत तौर पर मनुष्य के मध्य कार्य करे और पूरी तरह से अपने प्रतिरूप एवं अपने अस्तित्व को प्रगट करे यह प्रभाव किसी भी शारीरिक मनुष्य के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता है।" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से)
"मनुष्य की कल्पनाएं, आखिरकार, खोखली होती हैं, और परमेश्वर के सच्चे चेहरे का स्थान नहीं ले सकती हैं; मनुष्य के द्वारा परमेश्वर के अंतर्निहित स्वभाव, और स्वयं परमेश्वर के कार्य की नकल (रूप धारण) नहीं की जा सकती है। स्वर्ग के अदृश्य परमेश्वर और उसके कार्य को केवल देहधारी परमेश्वर के द्वारा ही पृथ्वी पर लाया जा सकता है जो मनुष्य के बीच में व्यक्तिगत रूप से अपना कार्य करता है। यह सबसे आदर्श तरीका है जिसके अंतर्गत परमेश्वर मनुष्य पर प्रगट होता है, जिसके अंतर्गत मनुष्य परमेश्वर को देखता है और परमेश्वर के असली चेहरे को जानने लगता है, और इसे किसी देह रहित परमेश्वर के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता है।" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से)
"परमेश्वर देह में मुख्यतः इसलिए आता है कि मनुष्य परमेश्वर के असली कार्यों को देख सके, निराकार आत्मा को देह में अहसास कर सके, और वह मनुष्य के द्वारा स्पर्श किया और देखा जा सके। इस तरह से, जिन्हें वह पूर्ण बनाता है वह ही उसे जी पाएँगे, उसके द्वारा लाभ हासिल कर पाएँगे, और वह उसके हृदय के अनुसार हो पाएँगे। यदि परमेश्वर केवल स्वर्ग में ही बोलते, और वास्तव में पृथ्वी पर नहीं आते, तो मनुष्य अब भी परमेश्वर को जानने के अयोग्य होता; परमेश्वर के कार्यों का उपदेश सिर्फ़ खोखले सिद्धांत से दे पाते, और उसके पास परमेश्वर के वचन वास्तविकता के रूप में नहीं होते। परमेश्वर पृथ्वी पर मुख्यतः इसलिए आता है कि उनके लिए जिन्हें उससे लाभ प्राप्त होगा वे एक आदर्श और नमूना बन सके। सिर्फ़ इसी ढंग से मनुष्य व्यावहारिक रूप से परमेश्वर को जान, स्पर्श, और देख सकता है; और केवल इसी ढंग से मनुष्य सचमुच में परमेश्वर के द्वारा लाभ प्राप्त कर सकता है।" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "तुम्हें पता होना चाहिए कि व्यावहारिक परमेश्वर ही स्वयं परमेश्वर है" से)
"देहधारी परमेश्वर उस युग को अन्त की ओर लाता है जब सिर्फ यहोवा की पीठ ही मानवजाति को दिखाई दी थी, और साथ ही अस्पष्ट परमेश्वर में मानवजाति के विश्वास का भी समापन करता है। विशेष रूप में, अंतिम देहधारी परमेश्वर का कार्य सारी मानवजाति को एक ऐसे युग में लाता है जो और अधिक वास्तविक, और अधिक व्यावहारिक, एवं और अधिक मनोहर है। वह न केवल व्यवस्था एवं सिद्धान्त के युग का अन्त करता है; बल्कि अति महत्वपूर्ण रूप से, वह मानवजाति पर ऐसे परमेश्वर को प्रगट करता है जो वास्तविक एवं साधारण है, जो धर्मी एवं पवित्र है, जो प्रबंधकीय योजना के कार्य को चालू करता है और मानवजाति के रहस्यों एवं मंज़िल को प्रदर्शित करता है, जिसने मानवजाति को सृजा था और प्रबंधकीय कार्य को अन्त की ओर ले जाता है, और जो हज़ारों वर्षों से छिपा हुआ है। वह अस्पष्टता के युग को सम्पूर्ण अन्त की ओर ले जाता है, वह उस युग का अन्त करता है जिसमें समूची मानवजाति परमेश्वर के मुख को खोजने की इच्छा करती थी परन्तु वह ऐसा करने में असमर्थ थी, वह ऐसे युग का अन्त करता है जिसमें समूची मानवजाति शैतान की सेवा करती थी, और समस्त मानवजाति की अगुवाई पूरी तरह से एक नए विशेष काल (युग) में करता है। यह सब परमेश्वर के आत्मा के बजाए देह में प्रगट परमेश्वर के कार्य का परिणाम है।" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "भ्रष्ट मानवजाति को देह धारण किए हुए परमेश्वर के उद्धार की अत्यधिक आवश्यकता है" से)
देहधारण के जरिये अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय का कार्य सही मायनों में सार्थक है। परमेश्वर अंत के दिनों में पृथ्वी पर देहधारण कर मनुष्यों के बीच रहते हुए मनुष्य जाति के लिए अपने वचनों को प्रकट करते हैं, उन्होंने परमेश्वर के खुद के स्वभाव और वह सब जो परमेश्वर में है और वे जो हैं, उसके बारे में जनता को बताया। परमेश्वर किससे प्रेम करते हैं और परमेश्वर किससे नफ़रत करते हैं, परमेश्वर का क्रोध किसकी ओर निर्देशित होता हैं, किसे वे सज़ा देते हैं, उनकी भावनात्मक स्थिति, मनुष्यों से उनकी मांग, मनुष्यों के लिए उनके इरादे, जीवन, मूल्यों आदि पर मनुष्य का आदर्श दृष्टिकोण, वे इन सारी बातों की जानकारी मनुष्य जाति को देते हैं, मनुष्य को जीवन में स्पष्ट लक्ष्य रखने की अनुमति देना ताकि उनको बिना किसी उद्देश्य के अनिश्चित धार्मिक खोज में जाने की जरूरत ना पड़े। देहधारी परमेश्वर के के प्रकटन ने उस युग को पूरी तरह से पूरा कर दिया जब "केवल यहोवा की पीठ मनुष्य को दिखाई दी।" और इसने अज्ञात परमेश्वर में मनुष्य के विश्वास के युग को भी पूरा कर दिया। जिन लोगों ने भी अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्यों और वचनों को अनुभव किया, उन सभी की एक आम धारणा थी। भले ही हम परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से गुज़र चुके हैं, सभी तरह के परीक्षणों और शुद्धिकरणों का सामना किया है, और चीनी साम्यवादी दल के क्रूर, वहशी यातनाओं और उत्पीड़नों की पीड़ा को काफी हद तक सहन किया है, हमने परमेश्वर के धर्मी स्वभाव को अपने पर आते देखा है, हमने परमेश्वर की महिमा और क्रोध तथा उनकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को जाना है, हमने उस स्वरूप को देखा है जो परमेश्वर में है और जो वे स्वयं हैं, जैसे कि हम स्वयं परमेश्वर को देख रहे हों। हालांकि हमने परमेश्वर के अध्यात्मिक शरीर को नहीं देखा है, परमेश्वर का अंतर्निहित स्वभाव, उनकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता, और वह सब जो उनके पास है और वे स्वयं हैं, उसे पूरी तरह से हमारे बीच प्रकट किया जा चुका है, जैसे कि परमेश्वर हमारे पास, हमारे आमने-सामने आए थे, जिससे हम सही मायनों में परमेश्वर को जान पाएं और हमारे पास एक ऐसा हृदय हो जो परमेश्वर से डरता हो, ताकि हम मौत आने तक हमारे लिए परमेश्वर की योजनाओं का पालन कर सकें। हम सभी को महसूस होता है कि परमेश्वर के वचन और कार्य में हम एक व्यावहारिक और वास्तविक तरीके से परमेश्वर को देखते हैं और जानते हैं, हमने सभी अवधारणाओं और भ्रमों को पूरी तरह से दूर कर दिया है और हम वास्तव में परमेश्वर को जानने वाले बन गए हैं। इससे पहले, हम परमेश्वर के स्वभाव को प्रेम करने वाला और दयालु समझते थे, हमारा मानना था कि परमेश्वर में विश्वास करने से मनुष्यों को सभी पापों से क्षमा और मुक्ति मिल जाएगी। लेकिन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के वचनों का अध्ययन करने के बाद, हम यह अच्छी तरह से समझ चुके हैं कि परमेश्वर का स्वभाव न सिर्फ दयालु और प्रेम करने वाला है, बल्कि यह धर्मी, प्रतापी और क्रोधी भी है। जो कोई भी उनके स्वभाव को ठेस पहुंचाएगा उसे दंडित किया जाएगा। इसलिए, हमें परमेश्वर का आदर करना चाहिए, सत्य को अपनाना चाहिए, और परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीना चाहिए। अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के कार्य को अनुभव करके, हम सब असल में और व्यावहारिक रूप से समझ चुके हैं कि परमेश्वर का स्वभाव पवित्र, धार्मिक और अहानिकर है, हम परमेश्वर की दया और प्रेम को समझ चुके हैं, सच्चे रूप से परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि की प्रशंसा करने योग्य हो गए हैं, हम यह जान चुकें हैं कि कैसे परमेश्वर ने खुद को गुप्त तरीके से उतारा है, हमने उनके ईमानदार इरादों, बहुत सारे प्रेम योग्य गुणों को जाना है, उनकी भावनात्मक स्थिति, उनकी विश्वसनीयता, उनकी सुंदरता और अच्छाई को समझा है, उनके अधिकार, संप्रभुता, और उनके द्वारा हर चीज की जांच-पड़ताल आदि को महसूस किया है। वह सब जो परमेश्वर में है और उनका अस्तित्व, हमारे सामने प्रकट हुआ है, जैसे कि हम स्वयं परमेश्वर को देख रहे हैं, जो हमें उनको आमने-सामने जानने का मौक़ा देता है। अब हम हमारी अवधारणाओं और विचारों के आधार पर परमेश्वर पर विश्वास और उनका अनुसरण नहीं करते हैं, बल्कि परमेश्वर के लिए सही सम्मान और श्रद्धा महसूस करते हैं, और सही मायनों में परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं और उन पर भरोसा करते हैं। हमने यह जान लिया है कि अगर परमेश्वर ने सत्य को व्यक्त करने और मनुष्य को परखने के लिए निजी तौर पर देहधारण नहीं किया होता, तो हम परमेश्वर को कभी भी नहीं जान पाते, और अपने आपको पापों से मुक्त करने और शुद्धता प्राप्त करने में अक्षम होते। तो इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आप इसे कैसे देखते हैं, अंत के दिनों में परमेश्वर का न्याय का कार्य स्वयं देहधारी परमेश्वर द्वारा किया जाना चाहिए, उनके बजाय कोई भी यह कार्य नहीं कर सकता। मनुष्य की अवधारणाओं और भ्रांतियों को देखते हुए, अगर परमेश्वर को अंत के दिनों में न्याय का कार्य करने के लिए मनुष्य का इस्तेमाल करना होता, तो वे वांछित प्रभाव प्राप्त कर पाने में सक्षम नहीं होते।
"राज्य के सुसमाचार पर उत्कृष्ट प्रश्न और उत्तर संकलन" से
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