प्रश्न 6: परमेश्वर यीशु देहधारी परमेश्वर था और कोई भी इस से इन्कार नहीं कर सकता। अब तुम यह गवाही दे रहे हो कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर ही देह में लौटा हुआ प्रभु यीशु है, परन्तु धार्मिक पादरियों और प्राचीन लोगों का कहना है कि तुम जिसमें विश्वास करते हो वह सिर्फ एक व्यक्ति है, वे कहते हैं कि तुम लोगों को धोखा दिया गया है, और हम इसका भेद समझ नहीं पाते हैं। उस समय जब प्रभु यीशु देह बना और छुटकारे का कार्य करने के लिए आया, यहूदी फरीसियों ने भी कहा कि प्रभु यीशु केवल एक व्यक्ति था, कि जो कोई भी उस पर विश्वास करता था, वह धोखा खा रहा था। इसलिए, हम देह-धारण के बारे में सच्चाई के इस पहलू का अनुसरण करना चाहते हैं। वास्तव में देह-धारण क्या होता है? और देह-धारण का सार क्या है? कृपया हमारे लिए इस बारे में सहभागिता करो।
उत्तर:
परमेश्वर के देह धारण के रूप में प्रभु यीशु में आप लोगों का विश्वास झूठा नहीं है। लेकिन आप लोग प्रभु यीशु में विश्वास क्यों करते हैं? क्या आप लोगों को सचमुच लगता है कि प्रभु यीशु परमेश्वर हैं? आप लोग बाइबल में दर्ज़ बातों के कारण और पवित्र आत्मा के कार्य के कारण प्रभु यीशु में विश्वास करते हैं। लेकिन इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आप लोग क्या कहते हैं, अगर आप लोगों ने प्रभु यीशु को आमने-सामने नहीं देखा है, तो क्या आप सचमुच यह कहने की हिम्मत करते हैं कि आप लोग प्रभु यीशु को जानते हैं? प्रभु में अपने विश्वास में, आप लोग सिर्फ़ पतरस के शब्दों को प्रतिध्वनित करते हैं, जिन्होंने कहा कि प्रभु यीशु ही मसीह हैं, जीवित परमेश्वर के पुत्र हैं, लेकिन क्या आप लोग यह मानते हैं कि प्रभु यीशु परमेश्वर का स्वरूप हैं, स्वयं परमेश्वर हैं? क्या आप यह कहने की हिम्मत करते हैं कि आप लोग प्रभु यीशु के दिव्य सार को जानते हैं? क्या आप इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि अगर प्रभु यीशु सत्य को व्यक्त करने के लिए फिर से आते, तो आप लोग उनकी वाणी को पहचान जाते? प्रभु यीशु में आप लोगों का विश्वास सिर्फ़ इन शब्दों "प्रभु यीशु" में विश्वास से ज्यादा कुछ भी नहीं है। आप लोग सिर्फ़ उनके नाम में विश्वास करते हैं। आप लोगों लोगों को प्रभु यीशु के दिव्य सार की समझ नहीं है। अगर आप लोगों को यह समझ है, तो आप लोग परमात्मा की वाणी को कैसे नहीं पहचान पाते हैं? आप लोग यह स्वीकार क्यों नहीं करते कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर जो सत्य व्यक्त करते हैं वह परमेश्वर की ओर से आता है और वह पवित्र आत्मा के वचन और वाणी है? आज मैंने जो कुछ भी देखा है, उससे आप लोग परमेश्वर की वाणी को कैसे अस्वीकार कर सकते हैं और परमेश्वर द्वारा व्यक्त किये जाने वाले सत्य से कैसे इनकार कर सकते हैं, मुझे पूरा यकीन है कि आप लोग देहधारी परमेश्वर को नहीं जानते हैं। अगर आप लोगों का जन्म दो हज़ार वर्ष पहले, उस युग में हुआ होता जब प्रभु यीशु उपदेश दे रहे थे और अपना कार्य कर रहे थे, तो आप लोग निश्चित रूप से प्रभु यीशु की निंदा करने में यहूदी प्रधान पादरियों, लेखकों और फरीसियों में शामिल हो जाते। क्या ऐसा नहीं है? यहूदी प्रधान पादरियों, लेखकों और फरीसियों ने कई वर्षों से एकमात्र परमेश्वर में विश्वास किया था, लेकिन ऐसा क्यों है कि वे प्रभु यीशु को नहीं पहचान पाये? उन्होंने उनको क्रूस पर क्यों चढ़ा दिया? मामला क्या था? ऐसा क्यों है कि अंत के दिनों में धार्मिक संसार के पादरी और एल्डर्स पवित्र आत्मा की वाणी को नहीं सुन पाये? फिर भी वे अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के न्याय के कार्य की निंदा क्यों करते हैं? मैं आप लोगों से पूछना चाहूँगा: क्या वह जो परमेश्वर में विश्वास करता है लेकिन देहधारी परमेश्वर को स्वीकार नहीं करता है, एक मसीह-विरोधी नहीं है? यहूदी नेताओं ने देहधारी परमेश्वर, प्रभु यीशु का विरोध किया और उनकी निंदा की। वे सभी मसीह-विरोधी थे जिनका खुलासा परमेश्वर के कार्य से हुआ। जहाँ तक अंत के दिनों में धार्मिक संसार के पादरियों और एल्डर्स की बात है, जो देहधारी सर्वशक्तिमान परमेश्वर का विरोध और उनकी निंदा करते हैं, क्या वे भी ऐसे मसीह विरोधी नहीं हैं जिनका खुलासा परमेश्वर के कार्य से हुआ? हम सब सीधे तौर पर यह समझ सकते हैं कि धार्मिक संसार के ज्यादातर पादरी और एल्डर्स अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य का विरोध और निंदा करते हैं, वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य की सच्चाई को देखे बिना ही देखते हैं, वे उनके वचनों के सत्य को सुने बिना ही सुनते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मानवजाति के शुद्धिकरण और बचाव के लिए सभी सत्य व्यक्त किये हैं। उन्होंने मानवजाति को जीता, बचाया और विजेताओं का एक समूह बनाया है। राज्य का सुसमाचार पूरी दुनिया में फ़ैल रहा है, यह अनवरत है! क्या धार्मिक संसार के पादरियों और नेताओं ने संभवतः परमेश्वर के कार्य के तथ्यों को नहीं देखा होगा? फिर भी वे ऐसी बेतुकी बात कैसे कह सकते हैं, "सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास करना एक मनुष्य में विश्वास करना है"? यहाँ समस्या क्या है? इससे यह पता चलता है कि ऐसे कई लोग हैं जो ऊंचे स्वर्ग के अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें देहधारी परमेश्वर की जानकारी है। क्या यह तथ्य नहीं है? प्रभु यीशु ने उन फरीसियों की निंदा क्यों की थी जिन्होंने उनका विरोध किया था? क्योंकि वे सिर्फ़ ऊंचे स्वर्ग के अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास करते थे, लेकिन देहधारी परमेश्वर की निंदा की थी और उनका विरोध किया था। क्या ऐसी बात नहीं है?
प्रधान पादरियों, लेखकों और फरीसियों ने प्रभु यीशु के वचनों और कार्य के अधिकार और सामर्थ्य को स्पष्ट रूप से देखा था। फिर भी वे ढिठाई से प्रभु यीशु का विरोध, निंदा और तिरस्कार कैसे कर सके थे? उन्होंने कहा कि वे शैतानों के प्रधान, बालज़बूब के जरिए शैतानों को बाहर करते थे, और उनका उद्देश्य मनुष्य को धोखा देना था, और यहाँ तक कि उन्हें जीवित ही सूली पर चढ़ा दिया। इससे क्या पता चलता है? क्या यह सब इसलिए नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने प्रभु यीशु को एक सामान्य मनुष्य के रूप में देखा और यह सब कर डाला? जैसा कि उन्होंने कहा था, "क्या वह एक बढ़ई का बेटा, नासरी नहीं है?" फरीसियों की अवधारणा में, देहधारी परमेश्वर के शरीर में अलौकिक गुण होने चाहिए। उन्हें एक विशाल कद-काठी और शक्तिशाली डील-डौल वाला होना चाहिए, वे एक नायक के गुणों और प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले होना चाहिए। उनके वचनों में दुनिया को हिलाकर रख देने वाली और गगनभेदी झंकार होनी चाहिए, उन्हें मनुष्य के मन में भय पैदा करना चाहिए, ताकि कोई भी उन पर पहुँचने का साहस न कर सके। अन्यथा, उन्हें परमेश्वर नहीं माना जा सकता। असल में, उन्हें इस बात की ज़रा सी भी समझ नहीं थी कि देह धारण का क्या मतलब है और उन्होंने प्रभु यीशु के वचन की खोज नहीं की और सत्य के लिए काम नहीं किया, जिससे कि परमेश्वर के स्वभाव और परमेश्वर के अस्तित्व की खोज की जा सके। उन्होंने प्रभु यीशु को एक साधारण मनुष्य की तरह समझा, अपनी कल्पनाओं और अवधारणाओं के आधार पर उनका आकलन और तिरस्कार किया। इससे यह साबित होता है कि परमेश्वर में विश्वास करते हुए, वे उन्हें नहीं जानते थे और यहाँ तक कि उनका विरोध भी करते थे। अब, धार्मिक संसार के पादरी और एल्डर्स कहते हैं कि जिस पर हम विश्वास करते हैं वह केवल मनुष्य है। यह उससे अलग नहीं है जिस तरह यहूदी प्रधान पादरियों, लेखकों और फरीसियों ने प्रभु यीशु के अनुयायियों की निंदा की थी। जैसा कि आप लोग देख सकते हैं, धार्मिक संसार के अधिकांश पादरी और एल्डर्स पूर्व के ढोंगी फरीसियों से अलग नहीं हैं, वे सभी परमेश्वर में विश्वास करने के साथ-साथ उनका विरोध भी करते हैं। वे लोग नीच हैं जो सिर्फ़ ऊंचे स्वर्ग के अस्पष्ट परमेश्वर को स्वीकार करते हैं जबकि स्वयं मसीह को नकार देते हैं! उन्हें मसीह को स्वीकार करने और उनका आज्ञापालन करने वालों की निंदा करने का क्या अधिकार है? आप लोग क्या कहते हैं?
"स्क्रीनप्ले प्रश्नों के उत्तर" से
देह धारण क्या है और मसीह क्या है, इस सवाल पर, आप लोग कह सकते हैं कि यह सत्य का एक ऐसा रहस्य है जिसे कोई भी विश्वासी नहीं समझता। हालांकि विश्वासियों ने हज़ारों सालों से यह जाना है कि प्रभु यीशु देहधारी परमेश्वर हैं, देह धारण और देह धारण के वास्तविक सार को कोई भी नहीं समझता। सिर्फ़ अब जबकि अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर आ गए हैं, सत्य के रहस्य का यह पहलू लोगों के बीच प्रकट हुआ है। आइए हम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन के कुछ अनुच्छेदों को पढ़ें। "देहधारण का अर्थ यह है कि परमेश्वर देह में प्रकट होता है, और वह अपनी सृष्टि के मनुष्यों के मध्य देह की छवि में कार्य करने आता है। इसलिए, परमेश्वर को देहधारी होने के लिए, उसे सबसे पहले देह, सामान्य मानवता वाली देह अवश्य होना चाहिए; यह, कम से कम, सत्य अवश्य होना चाहिए। वास्तव में, परमेश्वर का देहधारण का निहितार्थ यह है कि परमेश्वर देह में रह कर कार्य करता है, परमेश्वर अपने वास्तविक सार में देहधारी बन जाता है, एक मनुष्य बन जाता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर द्वारा आवासित देह का सार" से)।
"देहधारी परमेश्वर मसीह कहलाता है, तथा मसीह परमेश्वर के आत्मा के द्वारा धारण किया गया देह है। यह देह किसी भी मनुष्य की देह से भिन्न है। यह भिन्नता इसलिए है क्योंकि मसीह मांस तथा खून से बना हुआ नहीं है बल्कि आत्मा का देहधारण है। उसके पास सामान्य मानवता तथा पूर्ण परमेश्वरत्व दोनों हैं। उसकी दिव्यता किसी भी मनुष्य द्वारा धारण नहीं की जाती है। उसकी सामान्य मानवता देह में उसकी समस्त सामान्य गतिविधियों को बनाए रखती है, जबकि दिव्यता स्वयं परमेश्वर के कार्य करती है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का वास्तविक सार है" से)।
"सामान्य मानवता वाला मसीह ऐसा देह है जिसमें सामान्य मानवता, सामान्य विवेक, और मानविक विचार को धारण करते हुए, आत्मा साकार होता है। "साकार होना" का अर्थ है परमेश्वर का मानव बनना, पवित्रात्मा का देह बनना; इसे स्पष्ट रूप से कहें, तो यह तब होता है जब परमेश्वर स्वयं सामान्य मानवता वाली देह में वास करता है, और इसके माध्यम से अपने दिव्य कार्य को व्यक्त करता है-यही है साकार होने या देहधारी होने का अर्थ" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर द्वारा आवासित देह का सार" से)।
"क्योंकि वह परमेश्वर के सार वाला एक मनुष्य है, वह किसी भी सृजन किए गए मानव से ऊपर है, किसी भी ऐसे मनुष्य से ऊपर है जो परमेश्वर का कार्य कर सकता है। और इसलिए, उसके समान मानवीय आवरण वाले सभी के बीच, उन सभी के बीच जो मानवता को धारण करते हैं, केवल वही देहधारी परमेश्वर स्वयं है — अन्य सभी सृजन किए गए मानव हैं। यद्यपि उन सब में मानवता है, किन्तु सृजन किए गए मानव और कुछ नहीं केवल मानव ही हैं जबकि देहधारी परमेश्वर भिन्न हैः अपनी देह में उसमें न केवल मानवता है परन्तु इससे महत्वपूर्ण दिव्यता है। उसकी मानवता उसकी देह के बाहरी रूप-रंग में और उसके दिन-प्रतिदिन के जीवन में देखी जा सकती है, किन्तु उसकी दिव्यता को समझना मुश्किल है। क्योंकि उसकी दिव्यता केवल तभी व्यक्त होती है जब उसमें मानवता होती है, और यह वैसा अलौकिक नहीं है जैसा होने की लोग कल्पना करते हैं, लोगों के लिए इसे देखना बहुत ही कठिन है। … चूँकि परमेश्वर देहधारी बन जाता है, इसलिए उसका सार मानवता और दिव्यता का संयोजन है। यह संयोजन परमेश्वर स्वयं, पृथ्वी पर परमेश्वर स्वयं कहलाता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर द्वारा आवासित देह का सार" से)।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से हम यह समझते हैं कि देहधारण शरीर रूपी वस्त्र में परमेश्वर की आत्मा है, यानी, परमात्मा सामान्य मानवता और सामान्य मानवीय सोच के साथ शरीर रूप में साकार हुए हैं, और इस तरह वे लोगों के बीच काम करने और बोलने वाले एक साधारण और सामान्य आदमी बन गए हैं। इस शरीर में सामान्य मानवता है, लेकिन इसमें पूर्ण दिव्यता भी है। हालांकि बाहरी स्वरूप में उनका शरीर साधारण और सामान्य प्रतीत होता है, फिर भी वे परमेश्वर का कार्य करने में सक्षम है, परमेश्वर की वाणी को व्यक्त कर सकते हैं, और मानवता का मार्गदर्शन और बचाव कर सकते हैं। यह इस कारण है क्योंकि उनमें पूर्ण दिव्यता है। पूर्ण दिव्यता का मतलब है कि परमेश्वर की आत्मा में ये सारे गुण समाहित हैं—परमेश्वर का निहित स्वभाव, परमेश्वर का पवित्र और धार्मिक सार, वह सब जो परमेश्वर में है और वे जो हैं, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता, और परमेश्वर का अधिकार एवं सामर्थ्य — ये सारे गुण शरीर में प्रकट हुए हैं। यह शरीर मसीह है, ये व्यावहारिक परमेश्वर हैं जो यहाँ अपना कार्य करने और मनुष्य को बचाने आए हैं। अपने बाहरी स्वरूप में, मसीह एक साधारण और सामान्य मनुष्य के पुत्र हैं, मगर वे किसी भी सृजित मनुष्य से काफ़ी अलग हैं। मनुष्य की रचना में केवल मानवता होती है, उसमें दिव्य सार का लेशमात्र भी अंश नहीं होता है। हालांकि, मसीह में न केवल सामान्य मानवता है; इससे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनमें पूर्ण दिव्यता है। इस प्रकार, उनमें परमेश्वर का सार है, वे पूरी तरह से परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, स्वयं परमेश्वर के रूप में सारे सत्य व्यक्त कर सकते हैं, वे परमेश्वर के स्वभाव को और वह सब व्यक्त कर सकते हैं जो परमेश्वर है और उनमें है, और मनुष्य को सत्य, मार्ग और जीवन प्रदान कर सकते हैं। कोई भी सृजित मनुष्य ऐसी विशेषताओं से समर्थ नहीं है। मसीह काम करते और बोलते हैं, परमेश्वर का स्वभाव व्यक्त करते हैं, और वह सब स्पष्ट करते हैं जो परमेश्वर में और उनके शरीर में है। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वे कैसे परमेश्वर के वचन को व्यक्त करते हैं और कैसे परमेश्वर का कार्य करते हैं, वे हमेशा सामान्य मानवता के दायरे में ऐसा करते हैं। उनके पास एक सामान्य शरीर है, उनके बारे में कुछ भी अलौकिक नहीं है। इससे साबित होता है कि परमेश्वर शरीर धारण कर आए हैं, वे पहले ही एक साधारण मनुष्य बन चुके हैं। इस साधारण और सामान्य शरीर ने "वचन देह में प्रकट होता है" के तथ्य को पूर्ण किया है। वे परमेश्वर का व्यावहारिक देहधारण हैं। क्योंकि मसीह में पूर्ण दिव्यता है, वे परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं, सत्य को व्यक्त कर सकते हैं, और मनुष्य जाति को बचा सकते हैं। क्योंकि मसीह के पास पूर्ण दिव्यता है, वे न केवल परमेश्वर के वचनों को प्रसारित या प्रेषित कर सकता है, बल्कि परमेश्वर के वचनों को सीधे-सीधे व्यक्त भी कर सकता है। वे किसी भी समय और किसी भी स्थान पर, मनुष्य को आपूर्ति करते हुए, सींचते हुए, और चरवाहा बनकर, पूरी मानव जाति का मार्गदर्शन करते हुए, सत्य व्यक्त कर सकते हैं। सिर्फ इसलिए कि मसीह के पास पूरी दिव्यता है, और उनमें परमेश्वर की पहचान एवं सार है, क्या हम ये कह सकते हैं कि वे परमेश्वर का देहधारण, स्वयं व्यावहारिक परमेश्वर हैं।
देहधारण के सबसे बड़े रहस्य का इस बात से कोई संबंध नहीं है कि परमेश्वर विशालकाय है या सामान्य मनुष्यों की तरह है। इसके बजाय इसका संबंध इस तथ्य से है कि संपूर्ण दिव्यता इसी सामान्य शरीर में छिपी है। कोई भी मनुष्य इस छिपी हुई दिव्यता को ढूँढने और देखने में सक्षम नहीं है। ठीक वैसे ही जब प्रभु यीशु अपना कार्य करने के लिए आए थे, अगर किसी ने भी उनकी आवाज़ नहीं सुनी होती और उनके वचनों और कार्यों को अनुभव न किया होता, तो कोई भी यह पहचान नहीं पाता कि प्रभु यीशु ही मसीह हैं, परमेश्वर के पुत्र हैं। इसलिए परमेश्वर का देहधारण लोगों के बीच गुप्त रूप से देहधारी होने का उनका सबसे अच्छा तरीका है। जब प्रभु यीशु आए थे, उनके बाहरी स्वरूप से कोई भी यह नहीं बता सकता था कि वे ही मसीह, देहधारी परमेश्वर हैं, और कोई भी उनकी मानवता में छिपी दिव्यता को नहीं देख सकता था। केवल तभी जब प्रभु यीशु ने सत्य को व्यक्त किया और मानव जाति के छुटकारे का कार्य किया, मनुष्य को यह पता चला कि उनके वचनों में अधिकार और सामर्थ्य था, और केवल तभी लोगों ने उनका अनुसरण करना शुरू किया। केवल तभी जब प्रभु यीशु पुनर्जीवित होने के बाद लोगों के बीच प्रकट हुए, लोगों ने विश्वास किया कि वे ही देहधारी मसीहा, परमेश्वर का स्वरूप हैं। अगर उन्होंने सत्य व्यक्त ना किया होता और अपना कार्य ना किया होता, तो किसी ने भी उनका अनुसरण नहीं किया होता। अगर उन्होंने इस तथ्य के गवाह बनकर जन्म नहीं लिया होता कि वे ही मसीह, परमेश्वर का प्रकटन हैं, तो कोई भी उन्हें पहचान नहीं पाता। क्योंकि मनुष्य यह मानता है कि अगर वे वाकई देहधारी परमेश्वर हैं, तो उनके शरीर में अलौकिक गुण होने चाहिए, उन्हें एक व्यापक, विशाल डीलडौल वाला महामानव होना चाहिए उन्हें न केवल अधिकार और सामर्थ्य के साथ बोलना चाहिए, बल्कि वे जहाँ भी जाते हैं वहाँ संकेत और चमत्कार भी दिखाना चाहिए — देहधारी परमेश्वर कुछ इसी तरह के होने चाहिए। किसी अन्य साधारण मनुष्य की तरह, अगर उनका बाहरी स्वरूप साधारण है, और उनमें सामान्य मानवता है, तो वे निश्चित रूप से परमेश्वर का अवतार नहीं हैं। एक बार फिर से याद करते हैं, जब प्रभु यीशु ने बोलने और कार्य करने के लिए देहधारण किया था, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उन्होंने सत्य और परमेश्वर की आवाज को कैसे व्यक्त किया, मगर कोई भी उन्हें पहचान नहीं पाया। जब किसी ने प्रभु यीशु के लिए गवाही दी तो उसने यह भी कहा: क्या यह यूसुफ का बेटा नहीं है? क्या यह एक नासरी नहीं है? लोग इस तरह से उनके बारे में क्यों बोलते हैं? क्योंकि प्रभु यीशु के बाहरी स्वरूप में सामान्य मानवता थी। वे एक साधारण, औसत इंसान थे, उनका स्वरूप मजबूत और विशालकाय नहीं था, इसलिए किसी ने भी उन्हें स्वीकार नहीं किया। असल में, जहाँ तक वे एक देहधारी हैं, उनके पास परिभाषा के अनुसार सामान्य मानवता होनी चाहिए, उन्हें लोगों को यह दिखाना चाहिए कि जिस शरीर रूपी वस्त्र में परमेश्वर ने स्वयं को लपेटा है, वह एक साधारण और सामान्य शरीर है, वह एक सामान्य मनुष्य की तरह लगते हैं। अगर परमेश्वर ने स्वयं को सामान्य मानवता वाले व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक महामानव के शरीर रूपी वस्त्र में लपेटा होता, तो देहधारण का पूरा मतलब ही व्यर्थ हो जाता। इसलिए, मसीह में सामान्य मानवता होनी चाहिए। सिर्फ इसी तरह से यह साबित किया जा सकता है कि वे 'वचन देह बन गया' हैं।
आइए सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक अन्य अनुच्छेद पढ़ते हैं। "देहधारण का महत्व यह है कि वह साधारण, सामान्य मनुष्य परमेश्वर स्वयं के कार्यों को करता है; अर्थात्, कि परमेश्वर अपने दिव्य कार्य को मानवता में करता है और उसके द्वारा शैतान को परास्त करता है। … यदि, उसके पहले आगमन के दौरान, उनतीस वर्ष की उम्र से पहले परमेश्वर में सामान्य मानवता नहीं होती — यदि जैसे ही उसने जन्म लिया था वह चमत्कार कर सकता, यदि जैसे ही उसने बोलना आरम्भ किया वह स्वर्ग की भाषा बोल सकता, यदि जिस क्षण उसने सबसे पहले पृथ्वी पर कदम रखा वह सभी संसारिक मामलों को समझ सकता, हर व्यक्ति के विचारों और इरादों को समझ सकता — तो वह एक सामान्य मनुष्य नहीं कहलाया जा सकता था, और उसकी देह मानवीय देह नहीं कहलायी जा सकती थी। यदि ऐसा मामला मसीहा के साथ होता, तो परमेश्वर के देहधारण का अर्थ और सार दोनों ही समाप्त हो गए होते। यह कि वह सामान्य मानवता से सम्पन्न था इससे सिद्ध होता है कि देह में देहधारी परमेश्वर था; यह तथ्य कि वह एक सामान्य मानव विकास प्रक्रिया से होकर गुज़रा आगे प्रदर्शित करता है कि वह एक सामान्य देह था; और इसके अलावा, उसका कार्य इस बात का पर्याप्त सबूत है कि वह परमेश्वर के वचन, परमेश्वर का आत्मा था, जो देह बना था। कार्य की आवश्यकताओं की वजह से परमेश्वर देहधारी बनता है; दूसरे शब्दों में, कार्य का यह चरण देह में पूर्ण किए जाने, सामान्य मानवता में पूर्ण किए जाने की आवश्यकता थी। यही "वचन के देहधारी होने" के लिए, "वचन के देह में प्रकट होने" के लिए पूर्वापेक्षा है, और परमेश्वर के दो देहधारणों के पीछे की सच्ची कहानी है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर द्वारा आवासित देह का सार" से)।
"यदि अपने जन्म के समय से ही देहधारी परमेश्वर, गंभीरता से अपनी सेवकाई आरम्भ कर देता अलौकिक संकेतों और चमत्कारों को दिखाते हुए, तो उसके पास कोई भी दैहिक सार नहीं होता। इसलिए, उसकी मानवता उसके दैहिक सार के लिए अस्तित्व में है; मानवता के बिना कोई भी देह नहीं हो सकती है, और बिना मानवता वाला कोई व्यक्ति मानव नहीं है। इस तरह से, परमेश्वर की देह की मानवता, परमेश्वर के देहधारी देह की अंतर्भूत सम्पत्ति है। ऐसा कहना कि "जब परमेश्वर ने देहधारण किया तो वह पूरी तरह से दिव्य है, मानव बिल्कुल नहीं है" ईशनिंदा है, क्योंकि अपनाए जाने के लिए ऐसा दृष्टिकोण असम्भव है, एक ऐसा दृष्टिकोण जो देहधारण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। …
…परमेश्वर के देहधारण की मानवता देह में सामान्य दिव्य कार्य को बनाए रखने के लिए मौजूद रहती है उसकी सामान्य मानवीय सोच उसकी सामान्य मानवता को और उसकी समस्त सामान्य दैहिक गतिविधियों को बनाए रखती है। कहा जा सकता है कि उसकी सामान्य मानवीय सोच देह में परमेश्वर के कार्य को बनाए रखने के उद्देश्य से विद्यमान रहती है। यदि यह देह एक सामान्य मानव मन धारण नहीं करती, तो परमेश्वर देह में कार्य नहीं कर सकता था और जो उसे देह में करने की आवश्यकता थी वह कभी भी सम्पन्न नहीं हो सकती थी। …इसलिए देहधारी परमेश्वर को सामान्य मानव मन से सम्पन्न अवश्य होना चाहिए, सामान्य मानवता से सम्पन्न अवश्य होना चाहिए, क्योंकि उसे एक सामान्य मन के साथ मानवता में कार्य करना आवश्यक है। यही देहधारी परमेश्वर के कार्य का सार है, देहधारी परमेश्वर के कार्य का वास्तविक सार है" ("वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर द्वारा आवासित देह का सार" से)।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों से हमें यह साफ तौर पर पता चलता है कि देहधारी परमेश्वर में सामान्य मानवता होनी चाहिए, अन्यथा, वे परमेश्वर का अवतार नहीं होंगे। बाहरी स्वरूप में, वे एक साधारण, सामान्य आदमी की तरह दिखाई देते हैं, और उनकी मानवता के बारे में कुछ भी अलौकिक नहीं है। इसलिए, अगर हम हमारी अवधारणाओं और कल्पनाओं का उपयोग करके मसीह को मापें, तो हम कभी भी मसीह को समझ या स्वीकार नहीं कर पाएंगे। अधिक से अधिक हम सिर्फ यही समझ पाएंगे कि वे परमेश्वर द्वारा भेजे गए एक पैगंबर हैं, या ऐसा कोई जिसे परमेश्वर इस्तेमाल करते हैं। अगर हम सही मायनों में मसीह को जानना चाहते हैं, तो हमें उनके वचनों और कार्यों का अध्ययन करना चाहिए ताकि हम यह जान सकें कि वे जो कुछ भी व्यक्त करते हैं वह परमेश्वर की अपनी आवाज है, अगर उनके कहे वचन परमेश्वर के स्वभाव का स्वरूप हैं और वह सब कुछ है जो परमेश्वर में है और वे जो हैं, और हम यह जान सकें कि क्या उनके कार्य और उनके द्वारा व्यक्त किए गए सत्य मानव जाति की रक्षा कर सकते हैं। केवल तभी हम मसीह को जान सकेंगे, उन्हें स्वीकार और उनकी आज्ञा का पालन करेंगे। अगर हम सत्य की खोज नहीं करेंगे, परमेश्वर के कार्य की जांच-पड़ताल नहीं करेंगे, तो मसीह के वचन सुनने और मसीह के कार्य को जानने के बाद भी, हम मसीह को जान नहीं पाएंगे। भले ही हम सुबह से लेकर रात तक मसीह के साथ रहें, फिर भी हम उनके साथ एक साधारण मनुष्य की तरह व्यवहार करेंगे और इस तरह मसीह का विरोध और निंदा करेंगे। वास्तव में, मसीह को समझने और स्वीकार करने के लिए, हमें बस परमेश्वर की आवाज को समझना होगा और यह स्वीकार करना होगा कि वे परमेश्वर का कार्य करते हैं। मगर मसीह के दिव्य सार को जानने के लिए, और इस प्रकार मसीह का सच्चा आज्ञाकारी बनने और व्यावहारिक परमेश्वर से प्रेम करने के लिए, हमें मसीह के वचनों और कार्य में सत्य की खोज करनी होगी, परमेश्वर के स्वभाव को जानना होगा और वह सब जो परमेश्वर में है और वे जो है, परमेश्वर के पवित्र सार, सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता को जानना होगा, यह समझना होगा कि परमेश्वर प्रिय हैं और उनके सच्चे इरादों की सराहना करनी होगी। केवल इसी तरीके से हम सही मायनों में मसीह की आज्ञा का पालन कर सकते हैं और उनके ह्रदय के व्यावहारिक परमेश्वर की पूजा कर सकते हैं।
हम सभी समर्थक यह जानते हैं कि प्रभु यीशु ने जिस तरह से उपदेश दिया, जिन शब्दों को उन्होंने व्यक्त किया, स्वर्ग के राज्य के जिन रहस्यों को उन्होंने प्रकट किया, और जो मांगें उन्होंने मनुष्य से की, वे सभी सत्य थीं, वे सभी परमेश्वर की अपनी वाणी थी, और वे सभी परमेश्वर के जीवन स्वभाव के स्वरूप और वे सब चीजें थीं जो उनमें हैं और जो उनका अस्तित्व हैं। उन्होंने जो चमत्कार किए — जैसे बीमार को चंगा करना, दुष्ट आत्माओं को दूर भगाना, हवा और समुद्र को शांत करना, रोटी के पाँच टुकड़ों और दो मछली से पाँच हजार लोगों को खाना खिलाना, और मरे हुए को ज़िंदा करना — ये सभी परमेश्वर के अपने अधिकार और सामर्थ्य का स्वरूप थे। जिन लोगों ने उस समय सत्य की खोज की, जैसे पतरस, यूहन्ना, मत्ती और नतनएल, प्रभु यीशु के वचन और कार्य से उनको पहचाना कि वे ही मसीहा हैं जिनके बारे में वादा किया गया था, और इसलिए उन्होंने उनका अनुसरण किया और उनका उद्धार प्राप्त किया। जबकि यहूदी फरीसियों ने, प्रभु यीशु की आवाज सुनने और उन्हें चमत्कार करते हुए देखने के बावजूद, उन्हें सिर्फ एक साधारण व्यक्ति की तरह देखा, जिसके पास कोई सामर्थ्य और महिमा नहीं थी, और इसलिए उन्होंने किसी भी भय के बिना सीधे उनका विरोध करने और उनकी निंदा करने का साहस किया। अंत में उन्होंने प्रभु यीशु को सूली पर टांग कर सबसे बड़ा पाप कर दिया। फरीसियों का सबक गहन चिंतन की मांग करता है! यह साफ तौर पर उनके सत्य से घृणा करने और परमेश्वर से नफ़रत करने वाले मसीह-विरोधी स्वभाव को दर्शाता है, और भ्रष्ट मनुष्य की मूर्खता और बेपरवाही का खुलासा करता है। वर्तमान में, देहधारी सर्वशक्तिमान परमेश्वर, ठीक प्रभु यीशु की तरह, सामान्य मानवता के भीतर स्वयं परमेश्वर का कार्य करते हैं। सर्वशक्तिमान परमेश्वर वे सारे सत्य व्यक्त करते हैं जो भ्रष्ट मनुष्य को बचाए जाने के लिए आवश्यक हैं, और अंत के दिनों में परमेश्वर के घर से शुरू करते हुए न्याय का कार्य करते हैं। वे न केवल भ्रष्ट मनुष्य के शैतानी स्वभाव और उनके भ्रष्टाचार के सत्य का न्याय और उजागर करते हैं, उन्होंने मनुष्य की रक्षा करने की परमेश्वर की छः-हज़ार वर्षों की प्रबंधन योजना के सभी रहस्यों का भी खुलासा किया है, उन्होंने वह मार्ग बताया है जिसके द्वारा मनुष्य को पापों से मुक्त किया जा सकता है, वह शुद्धता हासिल कर सकता है और परमेश्वर के द्वारा बचाया जा सकता है, उन्होंने परमेश्वर के अंतर्निहित धार्मिक स्वभाव को प्रकट किया है, वह सब जो परमेश्वर में है और वे जो हैं, और परमेश्वर का अद्वितीय सामर्थ्य एवं अधिकार … सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन और कार्य स्वयं परमेश्वर की पहचान और सार का एक संपूर्ण स्वरूप हैं। इन दिनों, सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अनुसरण करने वाले सभी लोगों ने, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन और कार्य में परमेश्वर की आवाज को सुना है, परमेश्वर के वचन के स्वरूप को शरीर में देखा है और सर्वशक्तिमान परमेश्वर के सिंहासन के समक्ष आकर, परमेश्वर की शुद्धि और पूर्णता प्राप्त की है। धार्मिक जगत के ऐसे लोग जो अभी भी सर्वशक्तिमान परमेश्वर का इनकार, उनका विरोध और निंदा करते हैं, उन्होंने वही गलती की है जो यहूदी फरीसियों ने की थी, अंत के दिनों के मसीहा, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के साथ किसी साधारण व्यक्ति की तरह व्यवहार करना, उन सारी सच्चाइयों की खोज और अध्ययन करने का ज़रा सा भी प्रयास करने की परवाह किए बिना, जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने व्यक्त किए थे, इस तरह उन्होंने एक बार फिर से परमेश्वर को सूली पर टांग दिया और परमेश्वर के स्वभाव को क्रुद्ध किया। जैसा कि देखा जा सकता है, अगर मनुष्य अपनी अवधारणाओं और कल्पनाओं पर बना रहता है, और उन सत्यों की खोज और अध्ययन नहीं करता है जो मसीह ने व्यक्त किए हैं, वह मसीह द्वारा व्यक्त की गयी परमेश्वर की आवाज को पहचान पाने में असमर्थ होगा, वह मसीह के कार्य को स्वीकार करने और उसका अनुसरण करने में अक्षम होगा, और अंत के दिनों में कभी भी उसे परमेश्वर का उद्धार प्राप्त नहीं होगा। अगर मनुष्य देहधारण के सत्य को नहीं समझता है, तो वह परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने और उसका अनुसरण करने में सक्षम नहीं होगा, वह मसीह की निंदा और परमेश्वर का विरोध करेगा, और उसे परमेश्वर का दंड और अभिशाप भी मिल सकता है। इसलिए, हमारे धर्म में, परमेश्वर के द्वारा बचाए जाने के लिए, यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण है कि हम सत्य की खोज करें और देहधारण के रहस्य को समझें!
"राज्य के सुसमाचार पर उत्कृष्ट प्रश्न और उत्तर संकलन" से
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