परमेश्वर के वचन से जवाब:
परमेश्वर के उद्धार के कार्य के दौरान, जो भी बचाए जा सकते हैं, उन्हें अधिकतम सीमा तक बचाया जाएगा, उनमें से किसी को भी त्यागा नहीं जाएगा, क्योंकि परमेश्वर का कार्य का उद्देश्य मनुष्य को बचाना है। परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार के समय के दौरान, जो लोग अपने स्वभाव में परिवर्तन लाने में असमर्थ हैं, वे सभी जो पूरी तरह से परमेश्वर की आज्ञापालन करने में असमर्थ हैं, दण्ड के पात्र होंगे। कार्य का यह चरण—वचनों का कार्य—मनुष्य के लिए उन सभी तरीकों और रहस्यों को खोलता है जो उसकी समझ में नहीं आते हैं, ताकि मनुष्य परमेश्वर की इच्छा और परमेश्वर की मनुष्य से अपेक्षाओं को समझ सके, ताकि उसके पास परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने और अपने स्वभाव में परिवर्तन लाने की परिस्थिति हो। परमेश्वर अपना कार्य करने के लिए केवल वचनों का उपयोग करता है, और लोगों को इस वजह से दण्ड नहीं देता है कि वे थोड़ा विद्रोही हैं, क्योंकि अब उद्धार के कार्य का समय है। यदि हर विद्रोही व्यक्ति को दंडित किय गया होता, तो किसी को भी बचाए जाने का अवसर नहीं मिला होता; उन सभी को दंडित किया गया होता और वे अधोलोक में गिर गए होते। मनुष्य का न्याय करने वाले वचनों का उद्देश्य उसे स्वयं को जानने देना और परमेश्वर की आज्ञापालन करने देना है; यह वचनों के न्याय के माध्यम से उन्हें दंडित किए जाने के लिए नहीं है। वचनों के कार्य के समय के दौरान, बहुत से लोग अपना विद्रोहीपन और अपनी अवज्ञा दिखाएँगे, और वे देहधारी परमेश्वर के प्रति अपनी अवज्ञा दिखाएँगे। लेकिन वह इस वजह से इन सभी लोगों को दंडित नहीं करेगा, इसके बजाय वह उन लोगों को केवल त्याग देगा जो मूलभूत रूप से भ्रष्ट हैं और जो बचाए नहीं जा सकते हैं। वह उनके शरीरों को शैतान को दे देगा, और कुछ मामलों में, उनके शरीरों को समाप्त कर देगा। जिन लोगों को छोड़ दिया जाएगा, वे अनुसरण करते रहेंगे और व्यवहार और काँट-छाँट का अनुभव करते रहेंगे। यदि अनुसरण करने के समय वे अभी भी व्यवहार और काँट-छाँट को स्वीकार नहीं कर सकते हैं और वे और भी अधिक पतित हो जाएँगे, तब इन लोगों ने उद्धार का अपना अवसर गँवा दिया होगा। प्रत्येक व्यक्ति जिसने वचनों द्वारा जीता जाना स्वीकार कर लिया है उसके पास उद्धार के प्रचुर अवसर होंगे। इन लोगों में से प्रत्येक का परमेश्वर द्वारा उद्धार उनके प्रति परमेश्वर की अत्यंत उदारता दिखाता है, जिसका अर्थ है कि उनके प्रति अत्यधिक सहिष्णुता दिखायी जाती है। जब तक लोग गलत रास्ते से पीछे लौटते हैं, जब तक वे पश्चाताप कर सकते हैं, तब तक परमेश्वर उन्हें अपने द्वारा उद्धार प्राप्त करने का अवसर देंगे। जब लोग पहले परमेश्वर के विरूद्ध विद्रोह करते हैं, तो परमेश्वर को उन्हें मारने की कोई इच्छा नहीं होती है, बल्कि इसके बजाय उन्हें बचाने के लिए वे वह सब कुछ करता है। यदि किसी में वास्तव में उद्धार के लिए कोई जगह नहीं है, तो परमेश्वर उन्हें अलग कर देगा। परमेश्वर किसी को दंडित करने में इस वजह से धीमा है क्योंकि वह उन सभी को बचाना चाहता है जिन्हें बचाया जा सकता है। वह केवल वचनों से लोगों का न्याय करता है, उन्हें ज्ञान प्रदान करता है और उनका मार्गदर्शन करता है, और उन्हें मार डालने के लिए छड़ी का उपयोग नहीं करता है। लोगों को बचाने के लिए वचनों का उपयोग करना कार्य के अंतिम चरण का उद्देश्य और महत्व है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "तुम लोगों को हैसियत के आशीषों को अलग रखना चाहिए और मनुष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए" से
बहुत से हैं जो परमेश्वर का विरोध करते हैं और उन बहुत से लोगों में, परमेश्वर के प्रति विरोध के भी बहुत से प्रकार हैं। जिस प्रकार सभी प्रकार के विश्वासी हैं, वैसे ही सभी प्रकार के वे लोग भी हैं जो परमेश्वर का विरोध करते हैं, प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से भिन्न। जो लोग परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को स्पष्ट रूप में नहीं समझते हैं, उनमें से एक को भी नहीं बचाया जा सकता है। इस बात की परवाह किए बिना कि अतीत में मनुष्य ने किस प्रकार परमेश्वर का विरोध किया होगा, जब मनुष्य को परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य समझ में आता है, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने प्रयास समर्पित करता है, तो परमेश्वर द्वारा उसके पिछले पाप धोकर साफ कर दिए जाएँगे। जब तक मनुष्य सत्य की खोज और सत्य का अभ्यास करता है, तब तक उसने जो किया है उसे परमेश्वर अपने मन में नहीं रखेंगे। बल्कि, यह सत्य पर मनुष्य के अभ्यास के आधार पर है कि परमेश्वर मनुष्य को सही ठहराते हैं। यही परमेश्वर की धार्मिकता है। मनुष्य के परमेश्वर को देखने या उसके कार्य का अनुभव करने से पहले, इस बात की परवाह किए बिना कि मनुष्य परमेश्वर के प्रति कैसी क्रिया करता है, परमेश्वर उसे अपने मन में नहीं रखता है। तथापि, एक बार मनुष्य परमेश्वर को जान ले और उसके काम का अनुभव कर ले, तो मनुष्य के सभी कर्म और क्रियाएँ परमेश्वर द्वारा 'ऐतिहासिक अभिलेख' में लिख लिए जाते हैं, क्योंकि मनुष्य ने परमेश्वर को देख लिया है और उसके कार्य के भीतर जीवन जीया है।
जब मनुष्य वास्तव में देख लेता है कि परमेश्वर क्या हैं, उसके पास क्या है, वह उसकी सर्वश्रेष्ठता को देख लेता है, और परमेश्वर के काम को वास्तव में जान लेता है, और उससे भी अधिक, जब मनुष्य का पहला वाला स्वभाव बदल जाता है, तब मनुष्य परमेश्वर का विरोध करने वाले अपने विद्रोही स्वभाव को पूरी तरह से दूर कर लेता है। ऐसा कहा जा सकता है कि हर मनुष्य ने एक न एक बार परमेश्वर का विरोध किया है और हर मनुष्य ने एक न एक बार अवश्य परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया है। हालाँकि, यदि तुम देहधारी परमेश्वर की आज्ञा मानने में उद्देश्यपूर्ण हो, और उसके बाद से परमेश्वर के हृदय को अपनी सत्यनिष्ठा द्वारा संतुष्ट करते हो, उस सत्य का अभ्यास करते हो जिसका तुम्हें करना चाहिए, अपने उस कर्तव्य को करते हो जो तुम्हें करना चाहिए, और उन विनियमों को मानते हो जो तुम्हें मानने चाहिए, तब तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने विद्रोहीपन को दूर करना चाहता है, और ऐसे व्यक्ति हो जिसे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जा सकता है। यदि तुम अपनी गलतियाँ मानने से इनकार करते हो, और तुम्हारे हृदय में पश्चाताप नहीं है, यदि तुम अपने विद्रोही मार्गों में बने रहते हो, और परमेश्वर के साथ काम करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने का जरा भी हृदय में नहीं रखते हो, तब तुम्हारे जैसा ऐसा दुराग्रही मूर्ख व्यक्ति निश्चित रूप से दण्ड पाएगा, और परमेश्वर के द्वारा पूर्ण बनाए जाने वाला व्यक्ति कभी नहीं होगा। यदि ऐसा है, तो तुम आज और आने वाले कल भी परमेश्वर के शत्रु हो, और उसके बाद के दिनों में भी तुम परमेश्वर के शत्रु बने रहोगे; तुम सदैव परमेश्वर के विरोधी रहोगे और परमेश्वर के शत्रु रहोगे। परमेश्वर तुम्हें कैसे क्षमा कर सकता है?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "वे सब जो परमेश्वर को नहीं जानते हैं वे ही परमेश्वर का विरोध करते हैं" से
इस बार परमेश्वर लोगों को समाप्त करने नहीं, बल्कि यथासम्भव उनकी रक्षा करने आये हैं। गलतियां किससे नहीं होतीं? यदि सभी को समाप्त कर दिया जायेगा तो फिर इसे उद्धार कैसे कहेंगे? कुछ आज्ञालंघन जान-बूझकर किये जाते हैं और कुछ अनजाने में हो जाते हैं। अनजाने में हुये मामलों में, पहचानने के बाद आप उन्हें बदल सकते हैं, तो क्या परमेश्वर बदलने से पहले ही आपको समाप्त कर देंगे? क्या ऐसे ही परमेश्वर लोगों की रक्षा करते हैं? नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है! इससे कोई अंतर नहीं पडता कि आज्ञा का उल्लंघन अनजाने में हुआ है कि विद्रोही स्वभाव के कारण, केवल इतना याद रखें: शीघ्रता करें और वास्तविकता को पहचानें! आगे बढने का प्रयास करें; हालात कुछ भी हों, आप आगे बढने का प्रयास करें। परमेश्वर लोगों की रक्षा करने के कार्य में लगे हैं और वह जिनकी रक्षा करना चाहते हैं उन्हें अंधाधुंध तरीके से कैसे मार देंगे? आपके अंदर चाहे कितना भी परिवर्तन आया हो, अंत में अगर परमेश्वर ने आपको समाप्त भी कर दिया तो उनका वह निर्णय धर्मितापूर्ण होगा; जब वह समय आयेगा तो वह आपको समझने का अवसर देंगे। लेकिन इस समय आपका दायित्व है कि आगे बढ़ने का प्रयास करें, रूपांतरण की कोशिश में लग जायें और परमेश्वर को संतुष्ट करने की कामना करें; आपको केवल परमेश्वर की इच्छा के अनुसार ही अपना दायित्व निभाते रहने की चिंता करनी चाहिये। और इसमें कोई दोष नहीं है! अंतत:, परमेश्वर आपके साथ जैसा चाहें बर्ताव करें, वह हमेशा न्यायसंगत ही होता है; आपको इस पर न तो संदेह करना चाहिये और न ही इसकी चिंता करनी चाहिये; भले ही परमेश्वर की धर्मिता अभी आपकी समझ से बाहर हो, लेकिन वह दिन आयेगा जब आप पूरी तरह से आश्वस्त हो जायेंगे। परमेश्वर किसी सरकारी अधिकारी या राक्षसों के सम्राट की तरह बिल्कुल नहीं है! यदि आप गौर से इस पहलू को समझने की कोशिश करेंगे तो आप दृढ़ता से विश्वास करने लगेंगे कि परमेश्वर का कार्य लोगों की रक्षा करना और उनके स्वभाव को रूपांतरित करना है। चूंकि यह लोगों के स्वभाव के रूपांतरण का कार्य है, यदि लोग अपने स्वभाव को प्रकट नहीं करेंगे, तो कुछ नहीं किया जा सकता और फिर परिणाम भी कुछ नहीं निकलेगा। लेकिन एक बार अपना स्वभाव प्रकट करने के बाद, पुरानी आदतें जारी रखना कष्टकर होगा, यह प्रबंधन आदेश की अवमानना होगी और परमेश्वर इससे अप्रसन्न होंगे। परमेश्वर अलग-अलग स्तर के दंड का विधान करेंगे और आपको आज्ञा के उल्लंघन की कीमत चुकानी होगी। …
यह पहले कहा गया है: अतीत की घटनाओं को कलम से खारिज किया जा सकता है; अतीत का स्थान भविष्य ले सकता है; परमेश्वर में असीम सहिष्णुता है। लेकिन इन वचनों में सिद्धांत निहित हैं; ऐसा नहीं है कि अंतत: आप कितना भी बडा पाप करें, परमेश्वर उसे एक ही झटके में नष्ट कर देंगे; परमेश्वर के सभी कार्य सिद्धांतों पर चलते हैं। अतीत में इस प्रकार का प्रबंधनकारी आदेश था: यदि किसी ने परमेश्वर का नाम स्वीकारने से पहले कोई पाप किया है, तो उसे जुड़ने दें; यदि वह प्रवेश करने के बाद भी उस पाप को करता है उसके साथ विशेष प्रकार से पेश आयें; यदि वह उस पाप को बार-बार करता है तो उसे निष्कासित कर दें। परमेश्वर ने लोगों को सदा ही अपने कार्यों में यथासंभव क्षमा किया है; इस दृष्टिकोण से यह देखा जा सकता है कि यह वास्तव में लोगों की रक्षा का कार्य है।
"मसीह की बातचीतों के अभिलेख" से "परमेश्वर की इच्छा है कि यथासंभव लोगों की रक्षा की जाये" से
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