मनुष्य आज के कार्य एवं भविष्य के कार्य के विषय में थोड़ा बहुत ही जानता है, परन्तु वह उस मंज़िल को नहीं समझता जिसमें मानवजाति प्रवेश करेगी। एक प्राणी होने के नाते, मनुष्य को एक प्राणी के कर्तव्य को निभाना चाहिएः जो कुछ परमेश्वर करता है उसमें उसे उसका अनुसरण करना चाहिए, और जो भी तरीका मैं आप लोगों को बताता हूँ उसमें आप सब को आगे बढ़ना चाहिए। आपके पास स्वयं के लिए इंतज़ाम करने का कोई तरीका नहीं है, और आप स्वयं का नियन्त्रण करने में असमर्थ हैं; सब कुछ परमेश्वर की दया पर छोड़ दिया जाना चाहिए, और हर एक चीज़ उसके हाथों के द्वारा नियन्त्रित होती है।
यदि परमेश्वर के कार्य ने मनुष्य को एक अन्त, एक बेहतरीन मंज़िल, एवं आधुनिकतम चीज़ प्रदान की होती, और यदि परमेश्वर ने मनुष्य को लुभाने और उससे उसका अनुसरण करवाने के लिए इसका उपयोग किया होता - यदि उसने मनुष्य के साथ कोई सौदा किया होता - तो यह विजय नहीं होती, न ही यह मनुष्य के जीवन में काम करने के लिए होता। अगर मनुष्य को नियन्त्रित करने और उसके हृदय को अर्जित करने के लिए परमेश्वर को उस अन्त का उपयोग करना होता, तो इसमें वह मनुष्य को सिद्ध नहीं कर रहा होता, न ही वह मनुष्य को पाने में सक्षम होता, परन्तु इसके बजाय मनुष्य को नियन्त्रित करने के लिए उस मंज़िल का उपयोग कर रहा होता। मनुष्य भविष्य के उस अन्त, अन्तिम मंज़िल, और आशा करने के लिए कोई अच्छी चीज़ है या नहीं उससे बढ़कर किसी और चीज़ के विषय में चिंता नहीं करता है। यदि विजय के कार्य के दौरान मनुष्य को एक खूबसूरत आशा दी गई होती, और मनुष्य पर पाई गई विजय से पहले, यदि उसे अनुसरण करने के लिए उपयुक्त मंज़िल दी गई होती, तो न केवल मनुष्य पर पाई गई विजय ने अपने प्रभाव को हासिल नहीं किया होता, बल्कि विजय के कार्य का प्रभाव भी प्रभावित हो गया होता। कहने का तात्पर्य है, विजय का कार्य मनुष्य की नियति एवं उसके भविष्य की संभावनाओं को दूर करने और मनुष्य के विद्रोही स्वभाव का न्याय एवं उसकी ताड़ना करने के द्वारा अपना प्रभाव हासिल करता है। इसे मनुष्य के साथ एक सौदा करने के द्वारा, अर्थात्, मनुष्य को आशीषें, एवं अनुग्रह देने के द्वारा हासिल नहीं किया जाता है, परन्तु मनुष्य की स्वतन्त्रता से उसे वंचित करने और उसकी भविष्य की संभावनाओं को जड़ से उखाड़ने के माध्यम से उसकी वफादारी को प्रगट करने के द्वारा किया जाता है। यह विजय के कार्य का मूल-तत्व है। यदि मनुष्य को बिलकुल आरम्भ में ही एक खूबसूरत आशा दे दी गई होती, और ताड़ना एवं न्याय का कार्य बाद में किया जाता, तो मनुष्य उस आधार पर कि उसके पास भविष्य की संभावनाएं हैं इस ताड़ना एवं न्याय को स्वीकार कर लेता, और अन्त में, सृष्टिकर्ता की शर्त रहित आज्ञाकारिता एवं आराधना को सभी प्राणियों के द्वारा हासिल नहीं किया गया होता; वहाँ सिर्फ विवेकहीन, अबोध आज्ञाकारिता ही होती, या फिर मनुष्य परमेश्वर से तर्कहीन मांगें करता, और इस प्रकार मनुष्य के हृदय पर पूरी तरह से विजय प्राप्त करना असम्भव हो जाता। इसके फलस्वरूप, विजय का ऐसा कार्य मनुष्य को अर्जित करने में असमर्थ होता, इसके अतिरिक्त, न ही परमेश्वर की गवाही देता। ऐसे प्राणी अपने कर्तव्य को निभाने में असमर्थ होते, और परमेश्वर के साथ सिर्फ मोल-भाव ही करते; यह विजय नहीं होती, किन्तु दया एवं आशीष होती। मनुष्य के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपनी नियति एवं अपने भविष्य की संभावनाओं के सिवाए और कुछ नहीं सोचता है, यह कि वह उनसे बहुत प्रेम करता है। मनुष्य अपनी नियति एवं अपने भविष्य की संभावनाओं की खातिर परमेश्वर का अनुसरण करता है; वह परमेश्वर के लिए अपने प्रेम के कारण उसकी आराधना नहीं करता है। और इस प्रकार, मनुष्य पर विजय पाने में, मनुष्य के स्वार्थीपन, लोभ एवं ऐसी चीज़ें को जो परमेश्वर के विषय में उसकी आराधना में सबसे अधिक व्यवधान डालती हैं उन सब को हटा दिया जाना चाहिए। ऐसे करने से, मनुष्य पर विजय पाने के प्रभावों को हासिल कर लिया जाएगा। परिणामस्वरुप, मनुष्य पर पाई गई प्रारम्भिक विजय में यह ज़रूरी था कि सबसे पहले मनुष्य की अनियन्त्रित महत्वाकांक्षाओं और भयंकर कमज़ोरियों को शुद्ध किया जाए, और, इसके माध्यम से, परमेश्वर के विषय में मनुष्य के प्रेम को प्रगट किया जाए, और मानवीय जीवन के विषय में उसके ज्ञान को, परमेश्वर के विषय में उसके दृष्टिकोण को, और मनुष्य के अस्तित्व के विषय में उस अर्थ को बदल दिया जाए। इस रीति से, परमेश्वर के विषय में मनुष्य के प्रेम को शुद्ध किया जाता है, कहने का तात्पर्य है, मनुष्य के हृदय को जीत लिया जाता है। परन्तु सभी प्राणियों के प्रति उसके रवैये में, परमेश्वर सिर्फ जीतने की खातिर विजय प्राप्त नहीं करता है; इसके बजाय, वह मनुष्य को पाने के लिए, अपनी स्वयं की महिमा की खातिर, और मनुष्य की प्राचीनतम, एवं मूल स्वरूप को पुनः ज्यों का त्यों करने के लिए विजय प्राप्त करता है। यदि उसे केवल विजय पाने की खातिर ही विजय पाना होता, तो विजय के कार्य का महत्व खो गया होता। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य पर विजय पाने के बाद, यदि परमेश्वर मनुष्य से पीछा छुड़ा लेता, और उसके जीवन एवं मृत्यु पर कोई ध्यान नहीं देता, तो यह मानवजाति का प्रबंधन नहीं होता, और न ही मनुष्य पर पाई गई विजय उसके उद्धार के निमित्त होती। उस पर विजय पाने और अन्ततः एक बेहतरीन मंज़िल पर उसके आगमन के बाद सिर्फ मनुष्य को प्राप्त करना ही वह चीज़ है जो उद्धार के समस्त कार्य के केन्द्र में होता है, और केवल यह ही मनुष्य के उद्धार के लक्ष्य को हासिल कर सकता है। दूसरे शब्दों में, केवल एक खूबसूरत मंज़िल पर मनुष्य का आगमन और विश्राम में उसका प्रवेश ही भविष्य की वे संभावनाएं हैं जिन्हें सभी प्राणियों के द्वारा धारण किया जाना चाहिए, और वह कार्य है जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा किया जाना चाहिए। अगर मनुष्य को यह कार्य करना पड़ता, तो यह बहुत ही सीमित हो जाता; यह मनुष्य को एक निश्चित बिन्दु तक ले जा सकता था, परन्तु यह मनुष्य को अनंत मंज़िल पर ले जाने में सक्षम नहीं होता। मनुष्य की नियति को निर्धारित करने के लिए मनुष्य समर्थ नहीं है, इसके अतिरिक्त, न ही वह मनुष्य के भविष्य की संभावनाओं एवं भविष्य की मंज़िल को सुनिश्चित करने में सक्षम है। फिर भी, परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य भिन्न होता है। चूँकि उसने मनुष्य को सृजा था, इसलिए वह मनुष्य की अगुवाई करता है; चूँकि वह मनुष्य को बचाता है, इसलिए वह उसे पूरी तरह से बचाएगा, और उसे पूरी तरह प्राप्त करेगा; चूँकि वह मनुष्य की अगुवाई करता है, इसलिए वह उसे उस उपयुक्त मंज़िल पर पहुंचाएगा, और चूँकि उसने मनुष्य को सृजा था और उसका प्रबंध करता है, इसलिए उसे मनुष्य की नियति एवं उसकी भविष्य की संभावनाओं की ज़िम्मेदारी लेनी होगी। यही वह कार्य है जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा किया गया है। हालाँकि विजय के कार्य को भविष्य की संभावनाओं से मनुष्य को शुद्ध करने के द्वारा हासिल किया जाता है, फिर भी अन्ततः मनुष्य को उस उपयुक्त मंज़िल पर पहुंचाया जाना चाहिए जिसे परमेश्वर के द्वारा उसके लिए तैयार किया गया है। यह बिलकुल सही है क्योंकि परमेश्वर मनुष्य में इसलिए कार्य करता है ताकि मनुष्य के पास एक मंज़िल हो और उसकी नियति सुनिश्चित हो। यहाँ, वह उपयुक्त मंज़िल जिसकी ओर संकेत किया गया है वे मनुष्य की आशाएं एवं उसके भविष्य की संभावनाएं नहीं हैं जिन्हें बीते समयों में शुद्ध किया गया था; ये दोनों भिन्न हैं। उस मंज़िल के बजाए जिसे मनुष्य को प्राप्त करना है, वह जिसकी मनुष्य आशा एवं अनुसरण करता है वे देह की फिज़ूल अभिलाषाओं के विषय में उसके अनुसरण की लालसाएं हैं। इसी बीच, जो कुछ परमेश्वर ने मनुष्य के लिए तैयार किया है, वे ऐसी आशीषें एवं प्रतिज्ञाएं हैं जिन्हें मनुष्य को तब प्राप्त करना है जब उसे एक बार शुद्ध कर दिया जाता है, जिन्हें परमेश्वर ने संसार की सृष्टि के बाद मनुष्य के लिए तैयार किया था, और जिन्हें चुनाव, धारणाओं, कल्पनाओं या मनुष्य की देह के द्वारा कलंकित नहीं किया जाता है। इस मंज़िल को किसी एक व्यक्ति विशेष के लिए तैयार नहीं किया गया है, बल्कि यह सम्पूर्ण मानवजाति के लिए विश्राम का स्थान है। और इस प्रकार, यह मंज़िल मानवजाति के लिए सबसे उपयुक्त मंज़िल है।
यदि परमेश्वर के कार्य ने मनुष्य को एक अन्त, एक बेहतरीन मंज़िल, एवं आधुनिकतम चीज़ प्रदान की होती, और यदि परमेश्वर ने मनुष्य को लुभाने और उससे उसका अनुसरण करवाने के लिए इसका उपयोग किया होता - यदि उसने मनुष्य के साथ कोई सौदा किया होता - तो यह विजय नहीं होती, न ही यह मनुष्य के जीवन में काम करने के लिए होता। अगर मनुष्य को नियन्त्रित करने और उसके हृदय को अर्जित करने के लिए परमेश्वर को उस अन्त का उपयोग करना होता, तो इसमें वह मनुष्य को सिद्ध नहीं कर रहा होता, न ही वह मनुष्य को पाने में सक्षम होता, परन्तु इसके बजाय मनुष्य को नियन्त्रित करने के लिए उस मंज़िल का उपयोग कर रहा होता। मनुष्य भविष्य के उस अन्त, अन्तिम मंज़िल, और आशा करने के लिए कोई अच्छी चीज़ है या नहीं उससे बढ़कर किसी और चीज़ के विषय में चिंता नहीं करता है। यदि विजय के कार्य के दौरान मनुष्य को एक खूबसूरत आशा दी गई होती, और मनुष्य पर पाई गई विजय से पहले, यदि उसे अनुसरण करने के लिए उपयुक्त मंज़िल दी गई होती, तो न केवल मनुष्य पर पाई गई विजय ने अपने प्रभाव को हासिल नहीं किया होता, बल्कि विजय के कार्य का प्रभाव भी प्रभावित हो गया होता। कहने का तात्पर्य है, विजय का कार्य मनुष्य की नियति एवं उसके भविष्य की संभावनाओं को दूर करने और मनुष्य के विद्रोही स्वभाव का न्याय एवं उसकी ताड़ना करने के द्वारा अपना प्रभाव हासिल करता है। इसे मनुष्य के साथ एक सौदा करने के द्वारा, अर्थात्, मनुष्य को आशीषें, एवं अनुग्रह देने के द्वारा हासिल नहीं किया जाता है, परन्तु मनुष्य की स्वतन्त्रता से उसे वंचित करने और उसकी भविष्य की संभावनाओं को जड़ से उखाड़ने के माध्यम से उसकी वफादारी को प्रगट करने के द्वारा किया जाता है। यह विजय के कार्य का मूल-तत्व है। यदि मनुष्य को बिलकुल आरम्भ में ही एक खूबसूरत आशा दे दी गई होती, और ताड़ना एवं न्याय का कार्य बाद में किया जाता, तो मनुष्य उस आधार पर कि उसके पास भविष्य की संभावनाएं हैं इस ताड़ना एवं न्याय को स्वीकार कर लेता, और अन्त में, सृष्टिकर्ता की शर्त रहित आज्ञाकारिता एवं आराधना को सभी प्राणियों के द्वारा हासिल नहीं किया गया होता; वहाँ सिर्फ विवेकहीन, अबोध आज्ञाकारिता ही होती, या फिर मनुष्य परमेश्वर से तर्कहीन मांगें करता, और इस प्रकार मनुष्य के हृदय पर पूरी तरह से विजय प्राप्त करना असम्भव हो जाता। इसके फलस्वरूप, विजय का ऐसा कार्य मनुष्य को अर्जित करने में असमर्थ होता, इसके अतिरिक्त, न ही परमेश्वर की गवाही देता। ऐसे प्राणी अपने कर्तव्य को निभाने में असमर्थ होते, और परमेश्वर के साथ सिर्फ मोल-भाव ही करते; यह विजय नहीं होती, किन्तु दया एवं आशीष होती। मनुष्य के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अपनी नियति एवं अपने भविष्य की संभावनाओं के सिवाए और कुछ नहीं सोचता है, यह कि वह उनसे बहुत प्रेम करता है। मनुष्य अपनी नियति एवं अपने भविष्य की संभावनाओं की खातिर परमेश्वर का अनुसरण करता है; वह परमेश्वर के लिए अपने प्रेम के कारण उसकी आराधना नहीं करता है। और इस प्रकार, मनुष्य पर विजय पाने में, मनुष्य के स्वार्थीपन, लोभ एवं ऐसी चीज़ें को जो परमेश्वर के विषय में उसकी आराधना में सबसे अधिक व्यवधान डालती हैं उन सब को हटा दिया जाना चाहिए। ऐसे करने से, मनुष्य पर विजय पाने के प्रभावों को हासिल कर लिया जाएगा। परिणामस्वरुप, मनुष्य पर पाई गई प्रारम्भिक विजय में यह ज़रूरी था कि सबसे पहले मनुष्य की अनियन्त्रित महत्वाकांक्षाओं और भयंकर कमज़ोरियों को शुद्ध किया जाए, और, इसके माध्यम से, परमेश्वर के विषय में मनुष्य के प्रेम को प्रगट किया जाए, और मानवीय जीवन के विषय में उसके ज्ञान को, परमेश्वर के विषय में उसके दृष्टिकोण को, और मनुष्य के अस्तित्व के विषय में उस अर्थ को बदल दिया जाए। इस रीति से, परमेश्वर के विषय में मनुष्य के प्रेम को शुद्ध किया जाता है, कहने का तात्पर्य है, मनुष्य के हृदय को जीत लिया जाता है। परन्तु सभी प्राणियों के प्रति उसके रवैये में, परमेश्वर सिर्फ जीतने की खातिर विजय प्राप्त नहीं करता है; इसके बजाय, वह मनुष्य को पाने के लिए, अपनी स्वयं की महिमा की खातिर, और मनुष्य की प्राचीनतम, एवं मूल स्वरूप को पुनः ज्यों का त्यों करने के लिए विजय प्राप्त करता है। यदि उसे केवल विजय पाने की खातिर ही विजय पाना होता, तो विजय के कार्य का महत्व खो गया होता। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य पर विजय पाने के बाद, यदि परमेश्वर मनुष्य से पीछा छुड़ा लेता, और उसके जीवन एवं मृत्यु पर कोई ध्यान नहीं देता, तो यह मानवजाति का प्रबंधन नहीं होता, और न ही मनुष्य पर पाई गई विजय उसके उद्धार के निमित्त होती। उस पर विजय पाने और अन्ततः एक बेहतरीन मंज़िल पर उसके आगमन के बाद सिर्फ मनुष्य को प्राप्त करना ही वह चीज़ है जो उद्धार के समस्त कार्य के केन्द्र में होता है, और केवल यह ही मनुष्य के उद्धार के लक्ष्य को हासिल कर सकता है। दूसरे शब्दों में, केवल एक खूबसूरत मंज़िल पर मनुष्य का आगमन और विश्राम में उसका प्रवेश ही भविष्य की वे संभावनाएं हैं जिन्हें सभी प्राणियों के द्वारा धारण किया जाना चाहिए, और वह कार्य है जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा किया जाना चाहिए। अगर मनुष्य को यह कार्य करना पड़ता, तो यह बहुत ही सीमित हो जाता; यह मनुष्य को एक निश्चित बिन्दु तक ले जा सकता था, परन्तु यह मनुष्य को अनंत मंज़िल पर ले जाने में सक्षम नहीं होता। मनुष्य की नियति को निर्धारित करने के लिए मनुष्य समर्थ नहीं है, इसके अतिरिक्त, न ही वह मनुष्य के भविष्य की संभावनाओं एवं भविष्य की मंज़िल को सुनिश्चित करने में सक्षम है। फिर भी, परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य भिन्न होता है। चूँकि उसने मनुष्य को सृजा था, इसलिए वह मनुष्य की अगुवाई करता है; चूँकि वह मनुष्य को बचाता है, इसलिए वह उसे पूरी तरह से बचाएगा, और उसे पूरी तरह प्राप्त करेगा; चूँकि वह मनुष्य की अगुवाई करता है, इसलिए वह उसे उस उपयुक्त मंज़िल पर पहुंचाएगा, और चूँकि उसने मनुष्य को सृजा था और उसका प्रबंध करता है, इसलिए उसे मनुष्य की नियति एवं उसकी भविष्य की संभावनाओं की ज़िम्मेदारी लेनी होगी। यही वह कार्य है जिसे सृष्टिकर्ता के द्वारा किया गया है। हालाँकि विजय के कार्य को भविष्य की संभावनाओं से मनुष्य को शुद्ध करने के द्वारा हासिल किया जाता है, फिर भी अन्ततः मनुष्य को उस उपयुक्त मंज़िल पर पहुंचाया जाना चाहिए जिसे परमेश्वर के द्वारा उसके लिए तैयार किया गया है। यह बिलकुल सही है क्योंकि परमेश्वर मनुष्य में इसलिए कार्य करता है ताकि मनुष्य के पास एक मंज़िल हो और उसकी नियति सुनिश्चित हो। यहाँ, वह उपयुक्त मंज़िल जिसकी ओर संकेत किया गया है वे मनुष्य की आशाएं एवं उसके भविष्य की संभावनाएं नहीं हैं जिन्हें बीते समयों में शुद्ध किया गया था; ये दोनों भिन्न हैं। उस मंज़िल के बजाए जिसे मनुष्य को प्राप्त करना है, वह जिसकी मनुष्य आशा एवं अनुसरण करता है वे देह की फिज़ूल अभिलाषाओं के विषय में उसके अनुसरण की लालसाएं हैं। इसी बीच, जो कुछ परमेश्वर ने मनुष्य के लिए तैयार किया है, वे ऐसी आशीषें एवं प्रतिज्ञाएं हैं जिन्हें मनुष्य को तब प्राप्त करना है जब उसे एक बार शुद्ध कर दिया जाता है, जिन्हें परमेश्वर ने संसार की सृष्टि के बाद मनुष्य के लिए तैयार किया था, और जिन्हें चुनाव, धारणाओं, कल्पनाओं या मनुष्य की देह के द्वारा कलंकित नहीं किया जाता है। इस मंज़िल को किसी एक व्यक्ति विशेष के लिए तैयार नहीं किया गया है, बल्कि यह सम्पूर्ण मानवजाति के लिए विश्राम का स्थान है। और इस प्रकार, यह मंज़िल मानवजाति के लिए सबसे उपयुक्त मंज़िल है।
सृष्टिकर्ता ने सभी प्राणियों के लिए आयोजन करने का इरादा किया है। आपको किसी भी चीज़ को ठुकराना या उसकी अनाज्ञाकारिता नहीं करना होगा, न ही आपको उसके प्रति विद्रोह करना चाहिए। वह कार्य जिसे वह करता है वह अन्ततः उसके लक्ष्यों को हासिल करेगा, और इसमें वह महिमा प्राप्त करेगा। आज, ऐसा क्यों नहीं कहा जाता है कि आप मोआब के वंशज हैं, या उस बड़े लाल अजगर की संतान हैं? चुने हुए लोगों के विषय में कोई बातचीत क्यों नहीं होती है, और केवल प्राणियों के विषय में ही बातचीत होती है? प्राणी - यह मनुष्य का मूल पद नाम था, और यह वह है जो उसकी स्वाभाविक पहचान है। नाम अलग अलग होते हैं क्योंकि कार्य के युग एवं समय अवधियां भिन्न भिन्न होती हैं; वास्तव में, मनुष्य एक साधारण प्राणी है। सभी प्राणी, चाहे वे अत्यंत भ्रष्ट हों अत्यंत पवित्र, उन्हें एक प्राणी के कर्तव्य को निभाना होगा। जब परमेश्वर विजय के कार्य को सम्पन्न करता है, तो वह आपके भविष्य की संभावनाओं, नियति या मंज़िल का इस्तेमाल करके आपको नियन्त्रित नहीं करता है। वास्तव में इस रीति से कार्य करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। विजय के कार्य का लक्ष्य मनुष्य से एक प्राणी के कर्तव्य का पालन करवाना है, उससे सृष्टिकर्ता की आराधना करवाना है, और केवल इसके बाद ही वह उस बेहतरीन मंज़िल में प्रवेश कर सकता है। मनुष्य की नियति को परमेश्वर के हाथों के द्वारा नियन्त्रित किया जाता है। आप स्वयं को नियन्त्रित करने में असमर्थ हैं: इसके बावजूद हमेशा स्वयं के लिए दौड़-भाग करते एवं व्यस्त रहते हैं, मनुष्य स्वयं को नियन्त्रित करने में असमर्थ बना रहता है। यदि आप अपने स्वयं के भविष्य की संभावनाओं को जान सकते, यदि आप अपनी स्वयं की नियति को नियन्त्रित कर सकते, तो क्या आप तब भी एक प्राणी ही होते? संक्षेप में, इसकी परवाह किए बगैर कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है, उसके सभी कार्य सिर्फ मनुष्य की खातिर ही होते हैं। उदाहरण के लिए, स्वर्ग पृथ्वी एवं सभी चीज़ों को ही लीजिए जिन्हें परमेश्वर ने मनुष्य की सेवा करने के लिए सृजा था: चंद्रमा, सूर्य एवं तारागण जिन्हें उसने मनुष्य के लिए बनाया था: जानवर, पेड़-पौधे, बसंत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, शरद ऋतु एवं शीत ऋतु, एवं इत्यादि – ये सब मनुष्य के अस्तित्व की खातिर ही हैं। और इस प्रकार, इसकी परवाह किए बगैर कि परमेश्वर मनुष्य का न्याय कैसे करता है और उसे दण्ड कैसे देता है, यह सब कुछ मनुष्य के उद्धार के लिए ही है। हालाँकि, वह मनुष्य को उसकी शारीरिक आशाओं से वंचित कर देता है, फिर भी यह केवल मनुष्य को शुद्ध करने के लिए ही होता है, और मनुष्य का शुद्धिकरण उसके अस्तित्व के लिए होता है। मनुष्य की मंज़िल सृष्टिकर्ता के हाथ में होती है, अतः मनुष्य स्वयं का नियन्त्रण कैसे कर सकता है?
जब एक बार विजय के कार्य को पूरा कर लिया जाता है, तब मनुष्य को एक सुन्दर संसार में पहुंचाया जाएगा। निश्चित रूप से, यह जीवन तब भी पृथ्वी पर ही होगा, परन्तु यह मनुष्य के आज के जीवन से पूरी तरह से भिन्न होगा। यह वह जीवन है जो मानवजाति के तब पास होगा जब सम्पूर्ण मानवजाति पर विजय प्राप्त कर लिया जाता है, यह पृथ्वी पर मनुष्य के लिए, और मानवजाति के लिए एक नई शुरुआत होगी कि उसके पास ऐसा जीवन हो जो इस बात का सबूत होगा कि मानवजाति ने एक नए एवं सुन्दर आयाम में प्रवेश कर लिया है। यह पृथ्वी पर मनुष्य एवं परमेश्वर के जीवन की शुरुआत होगी। ऐसे सुन्दर जीवन का आधार ऐसा ही होगा, जब मनुष्य को शुद्ध कर लिया जाता है और उस पर विजय पा लिया जाता है उसके पश्चात्, वह परमेश्वर के सम्मुख समर्पित हो जाता है। और इस प्रकार, इससे पहले कि मानवजाति उस बेहतरीन मंज़िल में प्रवेश करे विजय का कार्य परमेश्वर के कार्य का अंतिम चरण है। ऐसा जीवन ही पृथ्वी पर मनुष्य के भविष्य का जीवन है, यह पृथ्वी पर सबसे अधिक सुन्दर जीवन है, उस प्रकार का जीवन है जिसकी लालसा मनुष्य करता है, और उस प्रकार का जीवन है जिसे मनुष्य ने संसार के इतिहास में पहले कभी हासिल नहीं किया गया है। यह 6,000 वर्षों के प्रबधंकीय कार्य का अंतिम परिणाम है, यह वह है जिसकी मानवजाति ने अत्यंत अभिलाषा की है, और साथ ही यह मनुष्य के लिए परमेश्वर की प्रतिज्ञा भी है। परन्तु यह प्रतिज्ञा तुरन्त ही पूरी नहीं हो सकती है: मनुष्य अपने भविष्य की मंज़िल में केवल तभी प्रवेश करेगा जब एक बार अंतिम दिनों के कार्य को पूरा कर लिया जाता है और उस पर पूरी तरह से विजय पा लिया जाता है, अर्थात्, जब एक बार शैतान को पूरी तरह से पराजित कर दिया जाता है। जब मनुष्य को परिष्कृत कर दिया जाता है उसके पश्चात् ही वह पापपूर्ण स्वभाव से रहित होगा, क्योंकि परमेश्वर ने शैतान को पराजित कर दिया होगा, जिसका अर्थ यह है कि विरोधी ताकतों के द्वारा कोई अतिक्रमण नहीं होगा, और कोई विरोधी ताकतें मनुष्य के शरीर पर आक्रमण नहीं कर सकती हैं। और इस प्रकार मनुष्य स्वतन्त्र एवं पवित्र होगा – वह अनन्तकाल में प्रवेश कर चुका होगा। जब अन्धकार की विरोधी ताकतों को बांध दिया जाता है केवल तभी मनुष्य जहाँ कहीं जाता है वहाँ वह स्वतन्त्र होगा, और विद्रोहीपन या विरोध से रहित होगा। मनुष्य की सलामती के लिए शैतान को बस बांधना है; आज, वह सही सलामत नहीं है क्योंकि[क] शैतान पृथ्वी पर अभी भी हर जगह समस्याएं खड़ी करता है, और क्योंकि परमेश्वर के प्रबधंन का समूचा कार्य अभी तक समाप्ति पर नहीं पहुंचा है। जब एक बार शैतान को पराजित कर दिया जाता है, तो मनुष्य पूरी तरह से स्वतन्त्र हो जाएगा; जब मनुष्य परमेश्वर को प्राप्त करता है और शैतान के प्रभुत्व से बाहर निकल आता है, तब वह धार्मिकता के सूर्य को देखेगा। वह जीवन जिसे सामान्य मानव को प्राप्त करना है उसे पुनः प्राप्त कर लिया जाएगा; वह सब कुछ जिसे एक सामान्य मनुष्य के द्वारा धारण किया जाना चाहिए – जैसे भले एवं बुरे को परखने की योग्यता, और एक समझ कि किस प्रकार भोजन करना है और स्वयं को वस्त्र से ढंकना है, और सामान्य जीवन व्यतीत करने की क्षमता - यह सब कुछ पुनः प्राप्त कर लिया जाएगा। भले ही हव्वा को सांप के द्वारा प्रलोभन नहीं दिया गया होता, फिर भी शुरुआत में मनुष्य की सृष्टि के बाद उसके पास ऐसा ही सामान्य जीवन होना चाहिए था। उसे पृथ्वी पर भोजन करना, और कपड़े पहनना, और सामान्य मनुष्य का जीवन जीना चाहिए था। फिर भी जब मनुष्य भ्रष्ट हो गया उसके बाद, यह जीवन कभी साकार न होनेवाला एक स्वप्न बन गया था, और यहाँ तक कि आज भी मनुष्य ऐसी चीज़ों की कल्पना करने का साहस नहीं करता है। वास्तव में, यह सुन्दर जीवन जिसकी मनुष्य अभिलाषा करता है वह एक आवश्यकता हैः यदि मनुष्य ऐसे मंज़िल से रहित होता, तो पृथ्वी पर उसका भ्रष्ट जीवन कभी समाप्त नहीं होता, और यदि ऐसा कोई सुन्दर जीवन न होता, तो शैतान की नियति या उस युग का कोई अन्त नहीं होता जिसके अंतर्गत शैतान पृथ्वी पर अपने प्रभुत्व को कायम रखता है। मनुष्य को ऐसे आयाम में पहुंचना होगा जहाँ अंधकार की शक्तियों के द्वारा पहुंचा नहीं जा सकता है, और जब मनुष्य वहाँ पहुंच जाता है, तो यह प्रमाणित करेगा कि शैतान को पराजित कर दिया गया है। इस रीति से, जब एक बार शैतान के द्वारा कोई व्यवधान नहीं होता है, तो स्वयं परमेश्वर मानवजाति को नियन्त्रित करेगा, और वह मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन के लिए आदेश देगा और उसे नियन्त्रित करेगा; केवल इसे ही शैतान की पराजय के रूप में गिना जाएगा। आज का मनुष्य का जीवन मुख्यतः गंदगी का जीवन है, और अभी भी दुख एवं कष्ट का एक जीवन है। इसे शैतान की पराजय नहीं कहा जा सकता है; मनुष्य को अभी भी कष्ट के सागर से बच कर निकलना है, अभी भी मनुष्य के जीवन की कठिनाइयों से, या शैतान के प्रभाव से बचकर निकलना है, और उसके पास अभी भी परमेश्वर के बारे में बहुत छोटी सी जानकारी है। मनुष्य की सारी परेशानी को शैतान के द्वारा उत्पन्न किया गया था, वह शैतान ही था जो मनुष्य के जीवन में कष्टों को लेकर आया था, और जब शैतान को बांध दिया जाता है केवल उसके पश्चात् ही मनुष्य कष्ट के सागर से पूरी तरह से बचकर निकलने में सक्षम हो पाएगा। फिर भी मनुष्य के हृदय पर विजय पाने एवं उसे प्राप्त करने के द्वारा, और शैतान के साथ युद्ध में मनुष्य को लूट का सामान बनाने के माध्यम से शैतान के बांधे जाने को हासिल किया जाता है। आज, विजयी बनने हेतु मनुष्य का अनुसरण एवं सिद्ध किया जाना ऐसी चीज़ें हैं जिनका अनुसरण किया जाता है इससे पहले कि मनुष्य के पास पृथ्वी पर एक समान्य जीवन हो, और ऐसे उद्देश्य हैं जिन्हें मनुष्य शैतान के दासत्व से पहले खोजता है। मूल-तत्व में, विजयी बनने एवं सिद्ध किये जाने के लिए मनुष्य का अनुसरण, या इसके लिए बड़ा उपयोगी होना, शैतान के प्रभाव से बचने के लिए है: मनुष्य का अनुसरण (निरन्तर खोज) विजयी बनने के लिए है, परन्तु शैतान के प्रभाव से उसका बचकर निकलना ही अंतिम परिणाम होगा। केवल शैतान के प्रभाव से बचकर निकलने से ही मनुष्य पृथ्वी पर एक सामान्य मनुष्य के जीवन, एवं परमेश्वर की आराधना करने के जीवन को जी सकता है। आज, विजयी बनने के लिए मनुष्य का अनुसरण और सिद्ध किया जाना ऐसी चीज़ें हैं जिनका अनुसरण पृथ्वी पर एक सामान्य जीवन पाने से पहले किया जाता है। उनका अनुसरण मुख्य रूप से शुद्ध किये जाने और सत्य को अभ्यास में लाने के लिए, और सृष्टिकर्ता की आराधना को हासिल करने के लिए किया जाता है। यदि मनुष्य पृथ्वी पर एक साधारण इंसान के जीवन, एवं ऐसे जीवन को धारण करता है जो कठिनाई या पीड़ा से रहित है, तो मनुष्य विजयी बनने के अनुसरण में संलग्न नहीं होगा। "विजयी बनना" और "सिद्ध किया जाना" ऐसे उद्देश्य हैं जिन्हें परमेश्वर मनुष्य को अनुसरण करने के लिए देता है, और इन उद्देश्यों के अनुसरण के माध्यम से वह मनुष्य को प्रेरित करता है कि वह सत्य को अभ्यास में लाये और एक महत्व का जीवन व्यतीत करे। उद्देश्य यह है कि मनुष्य को पूर्ण बनाया जाए और उसे हासिल किया जाए, और विजयी बनने और सिद्ध किये जाने का अनुसरण महज एक माध्यम है। भविष्य में यदि मनुष्य एक बेहतरीन मंज़िल में प्रवेश करता है, तो वहाँ विजयी बनने और सिद्ध किये जाने का कोई संकेत नहीं होगा; वहाँ पर सिर्फ हर एक प्राणी होगा जो अपने कर्तव्य को निभाएगा। आज, मनुष्य को सिर्फ इन बातों का अनुसरण करने के लिए बनाया गया है ताकि मनुष्य के लिए एक दायरे को परिभाषित किया जा सके, ताकि मनुष्य का अनुसरण लक्ष्य की ओर और अधिक केन्द्रित एवं व्यावहारिक हो सके। इसके बगैर, अनंत जीवन में प्रवेश के लिए मनुष्य का अनुसरण अस्पष्ट एवं कल्पना मात्र होगा, और यदि यह ऐसा होता, तो क्या मनुष्य और भी अधिक दयनीय नहीं होता? इस रीति से अनुसरण करना, लक्ष्यों या सिद्धान्तों के बिना - क्या यह स्वयं को धोखा देना नहीं है? अन्ततः, यह अनुसरण स्वाभाविक रूप से फलहीन होगा, अन्त में, मनुष्य तब भी शैतान के प्रभुत्व के अधीन जीवन बिताएगा और स्वयं को इससे छुड़ाने में असमर्थ होगा। स्वयं को ऐसे लक्ष्यहीन अनुसरण के अधीन क्यों करना? जब मनुष्य अनंत मंज़िल में प्रवेश करता है, तो मनुष्य सृष्टिकर्ता की आराधना करेगा, और क्योंकि मनुष्य ने उद्धार को प्राप्त किया है और अनंतकाल में प्रवेश किया है, तो मनुष्य किसी उद्देश्य का पीछा नहीं करेगा, इसके अतिरिक्त, न ही उसे इस बात की चिंता होगी कि उसे शैतान के द्वारा घेर लिया गया है। इस समय, मनुष्य अपने स्थान को जानेगा, और अपने कर्तव्य को निभाएगा, और भले ही उन्हें ताड़ना नहीं दी जाती है या उनका न्याय नहीं किया जाता है, फिर भी प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने कर्तव्य को निभाएगा। उस समय, मनुष्य पहचान एवं रुतबे दोनों में महज एक प्राणी ही होगा। आगे से ऊँच एवं नीच में कोई अन्तर नहीं होगा; प्रत्येक व्यक्ति बस अलग अलग कार्य करेगा। फिर भी मनुष्य तब भी मानवजाति के व्यवस्थित एवं उपयुक्त मंज़िल में जीवन बिताएगा, मनुष्य सृष्टिकर्ता की आराधना करने के लिए अपने कर्तव्य को निभाएगा, और इस प्रकार की मानवजाति ही अनंतकाल की मानवजाति होगी। उस समय, मनुष्य ऐसे जीवन को प्राप्त कर चुका होगा जिसे परमेश्वर के द्वारा प्रकाशित किया गया है, ऐसा जीवन जो परमेश्वर की देखरेख एवं संरक्षण के अधीन है, और ऐसा जीवन जो परमेश्वर के साथ है। मानवजाति पृथ्वी पर एक सामान्य जीवन को जीएगी, और सम्पूर्ण मानवजाति सही मार्ग में प्रवेश करेगी। 6000 सालों की प्रबंधकीय योजना ने शैतान को पूरी तरह से पराजित कर दिया होगा, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर ने अपनी सृष्टि के बाद मनुष्य की मूल छवि को पुनः प्राप्त कर लिया होगा, और ऐसे ही, परमेश्वर के मूल इरादे को पूरा कर लिया गया होगा। शुरुआत में, शैतान के द्वारा मानवजाति को भ्रष्ट किये जाने से पहले, मानवजाति पृथ्वी पर एक सामान्य जीवन जीती थी। आगे चलकर, जब मनुष्य को शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया, तो उसने इस सामान्य जीवन को खो दिया, और इस प्रकार वहाँ परमेश्वर के प्रबधंन के कार्य की, और मनुष्य के सामान्य जीवन को पुनः प्राप्त करने के लिए शैतान के साथ युद्ध की शुरुआत हुई। जब परमेश्वर के 6000 साल के प्रबधंन का कार्य समाप्ति पर आता है केवल तभी पृथ्वी पर सारी मानवजाति का जीवन आधिकारिक रूप से प्रारम्भ होगा, केवल तभी मनुष्य के पास एक अद्भुत जीवन होगा, और परमेश्वर मनुष्य की सृष्टि के उस उद्देश्य को जो आदि में था, साथ ही साथ मनुष्य की मूल समानता को भी पुनः प्राप्त करेगा। और इस प्रकार, जब एक बार मनुष्य के पास मानवजाति का सामान्य जीवन होता है, तो मनुष्य विजयी बनने या सिद्ध किये जाने का अनुसरण नहीं करेगा, क्योंकि मनुष्य पवित्र होगा। वह विजय एवं सिद्धता जिसके विषय में मनुष्य के द्वारा बोला गया है वे ऐसे उद्देश्य हैं जिन्हें मनुष्य को दिया गया है ताकि वह परमेश्वर और शैतान के मध्य युद्ध के दौरान अनुसरण करे, और वे सिर्फ इसलिए अस्तित्व में हैं क्योंकि मनुष्य को भ्रष्ट कर दिया गया है। आपको एक उद्देश्य देने के द्वारा ऐसा हुआ है, और आपसे इस उद्देश्य का अनुसरण करवाने के द्वारा ऐसा हुआ है, जिससे शैतान पराजित हो जाएगा। आपसे विजयी बनने या सिद्ध बनने या इस्तेमाल होने की मांग करना यह अपेक्षा करना है कि आप शैतान को लज्जित करने के लिए गवाही दें। अन्त में, मनुष्य पृथ्वी पर एक सामान्य मनुष्य के जीवन को जीएगा, और मनुष्य पवित्र होगा, और जब यह होता है, तो क्या वे तब भी विजयी बनने का प्रयास करेंगे? क्या वे सभी प्राणी नहीं हैं? विजयी बनना और सिद्ध व्यक्ति होना इन दोनों को शैतान की ओर, और मनुष्य की मलिनता की ओर निर्देशित किया गया है। क्या यह "विजेता" शैतान पर और विरोधी ताकतों पर विजय का संकेत नहीं है? जब आप कहते हैं कि आपको सिद्ध किया गया है, तो आपके भीतर क्या सिद्ध किया गया है? क्या ऐसा नहीं है कि आपने स्वयं को भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से अलग कर लिया है, ताकि आप परमेश्वर के सर्वोच्च प्रेम को हासिल कर सकें? ऐसी चीज़ों को उन गन्दी चीज़ों के सम्बन्ध में कहा गया है जो मनुष्य के भीतर हैं, और शैतान के सम्बन्ध में कहा गया है; उन्हें परमेश्वर के सम्बन्ध में नहीं कहा गया है।
पदटिप्पणियां:
क. मूलपाठ कहता है "आज, यह इसलिए है।"
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