परमेश्वर में जीवधारियों के प्रति कोई द्वेष नहीं है और वह केवल शैतान को पराजित करना चाहता है। उसके सम्पूर्ण कार्य-चाहे वह ताड़ना हो या न्याय – को शैतान की ओर निर्देशित किया गया है; इसे मानवजाति के उद्धार के लिए सम्पन्न किया जाता है, यह सब शैतान को पराजित करने के लिए है, और इसका एक उद्देश्य है: बिलकुल अन्त तक शैतान के साथ युद्ध करना! और परमेश्वर जब तक शैतान पर विजय प्राप्त ना कर ले वह कभी विश्राम नहीं करेगा! वह विश्राम तभी करेगा जब वह एक बार शैतान को हरा दे। क्योंकि परमेश्वर के द्वारा किए गए समस्त कार्य को शैतान की ओर निर्देशित किया गया है, और क्योंकि ऐसे लोग जिन्हें शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है वे सभी शैतान के प्रभुत्व के नियन्त्रण में हैं और सभी शैतान के प्रभुत्व में जीवन बिताते हैं, यदि परमेश्वर ने शैतान के विरुद्ध युद्ध नहीं किया होता या उन्हें उससे छुड़ाकर अलग नहीं किया होता, तो शैतान ने इन लोगों पर से अपने शिकंजे को ढीला नहीं किया होता, और उन्हें अर्जित नहीं किया जा सकता था।यदि उन्हें अर्जित नहीं किया जाता, तो यह साबित करेगा कि शैतान को पराजित नहीं किया गया है, यह कि उसे परास्त नहीं किया गया है। और इस प्रकार, परमेश्वर की 6,000 साल की प्रबंधकीय योजना में, प्रथम चरण के दौरान उसने व्यवस्था का कार्य किया था, दूसरे चरण के दौरान उसने अनुग्रह के युग का कार्य किया था, अर्थात्, क्रूसारोहण का कार्य, और तीसरे चरण के दौरान उसने मनुष्य पर विजय प्राप्त करने का कार्य किया था। इस समस्त कार्य को उस मात्रा की ओर निर्देशित किया गया है जिसके तहत शैतान ने मानवजाति को भ्रष्ट किया है, यह सब शैतान को पराजित करने के लिए है, और केवल एक ही चरण शैतान को पराजित करने के लिए नहीं है। परमेश्वर के प्रबंधन के 6,000 साल के कार्य का मूल-तत्व उस बड़े लाल अजगर के विरुद्ध युद्ध है, और मानवजाति का प्रबधं करने का कार्य भी शैतान को हराने का कार्य है, और शैतान के साथ युद्ध करने का कार्य है। परमेश्वर ने 6000 सालों से युद्ध किया है, और इस प्रकार से उसने अन्ततः मनुष्य को उस नए आयाम में पहुंचाने के लिए 6000 सालों से कार्य किया है। जब शैतान पराजित हो जाता है, तो मनुष्य पूरी तरह से स्वतन्त्र हो जाएगा। क्या यह आज परमेश्वर के कार्य का निर्देशन नहीं है? यह बिलकुल आज के कार्य का निर्देशन है: सम्पूर्ण छुटकारा और मनुष्य को स्वतन्त्र करना, ताकि वह किसी प्रकार नियमों के अधीन न हो, न ही किसी प्रकार के बन्धनों या प्रतिबंधों के द्वारा सीमित हो। इस समस्त कार्य को आप लोगों के डीलडौल (आकृति) के अनुसार और आप लोगों की आवश्यकताओं के अनुसार किया गया है, जिसका अर्थ है कि जो कुछ आप सब पूरा कर सकते हैं उसे आप लोगों को प्रदान किया गया है। यह "किसी बत्तख को शाखा में ज़बरदस्ती बैठाने" का मामला नहीं है, या आप लोगों को ऐसी चीज़ें करने के लिए मजबूर करना नहीं है जो आप सब की योग्यता से बाहर है; इसके बजाए, इस समस्त कार्य को आप लोगों की वास्तविक ज़रूरतों के अनुसार सम्पन्न किया गया है। कार्य का प्रत्येक चरण मनुष्य की वास्तविक ज़रूरतों एवं अपेक्षाओं के अनुसार है, और यह शैतान को हराने के लिए है। वास्तव में, प्रारम्भ में सृष्टिकर्ता एवं उसके प्राणियों के बीच में किसी प्रकार की बाधाएं नहीं थीं। उन सब को शैतान के द्वारा खड़ा किया गया है। मनुष्य शैतान की गड़बड़ी और उसकी भ्रष्टता के कारण किसी भी चीज़ को देखने या स्पर्श करने में असमर्थ हो गया है। मनुष्य ही वह पीड़ित व्यक्ति है, ऐसा व्यक्ति है जिसे धोखा दिया गया है। जब एक बार शैतान को हरा दिया जाता है, तो जीवधारी सृष्टिकर्ता को देखेंगे, और सृष्टिकर्ता जीवधारियों के ऊपर निगाह डालेगा और व्यक्तिगत तौर पर उनकी अगुवाई करने में सक्षम होगा। केवल यह ही वह जीवन है जो पृथ्वी पर मनुष्य के पास होना चाहिए। और इस प्रकार, परमेश्वर का कार्य मुख्य रूप से शैतान को हराने के लिए है, और जब एक बार शैतान को हरा दिया जाता है, तो हर एक चीज़ का समाधान हो जाएगा। आज, आपने देखा कि परमेश्वर का मनुष्य के मध्य आना वास्तव में कुछ मायने रखता है। वह इसलिए नहीं आया कि हर एक दिन को आप लोगों में गलती खोजते हुए बिताए, ऐसा कहे और वैसा कहे, या मात्र आप सब को यह अनुमति दे कि आप देखें कि वह कैसा दिखता है, और वह किस प्रकार बोलता है और जीवन बिताता है। परमेश्वर ने इसलिए देहधारण नहीं किया है कि महज आप लोगों अनुमति दे कि उस पर निगाह डालें, या आप सब की आँखें खोले, या आप लोगों को अनुमति दे कि उन रहस्यों को सुनें जिसके विषय में उसने कहा है और उन सात मुहरों के विषय में सुनें जिसे उसने खोला है। इसके बजाए, उसने शैतान को हराने के लिए देहधारण किया है। वह मनुष्य का उद्धार करने के लिए, और शैतान के साथ युद्ध करने के लिए व्यक्तिगत तौर पर देह में मनुष्य के बीच में आया है, और यह उसके देहधारण का महत्व है। यदि यह शैतान को पराजित करने के लिए नहीं होता, तो वह व्यक्तिगत तौर पर इस कार्य को नहीं करता। परमेश्वर मनुष्य के मध्य इस कार्य को करने के लिए, मनुष्य पर स्वयं को व्यक्तिगत तौर पर प्रकट करने के लिए, और उसे देखने हेतु मनुष्य को अनुमति देने के लिए इस पृथ्वी पर आया है; क्या यह एक साधारण सा विषय है? यह वास्तव में कुछ है! यह वैसा नहीं है जैसा मनुष्य कल्पना करता है कि परमेश्वर आ गया है ताकि मनुष्य उसकी ओर देख सके, ताकि मनुष्य समझ सके कि परमेश्वर वास्तविक है और अस्पष्ट या खोखला नहीं है, और यह कि परमेश्वर ऊँचा तो है परन्तु साथ ही दीन भी है। क्या यह इतना सरल हो सकता है? यह बिलकुल इसलिए है क्योंकि शैतान ने मनुष्य के शरीर को भ्रष्ट कर दिया है, और मनुष्य ही वह प्राणी है जिसे परमेश्वर बचाने का इरादा करता है, यह कि परमेश्वर को शैतान के साथ युद्ध करने के लिए और व्यक्तिगत तौर पर मनुष्य की चरवाही करने के लिए देह का रूप लेना ही होगा। केवल यह ही उसके कार्य के लिए फायदेमंद है। शैतान को हराने के लिए परमेश्वर के दो देहधारण अस्तित्व में आए हैं, और साथ ही मनुष्य को बेहतर ढंग से बचाने के लिए अस्तित्व आए हैं। यह इसलिए है क्योंकि वह जो शैतान के साथ युद्ध कर रहा है वह केवल परमेश्वर ही हो सकता है, चाहे वह परमेश्वर का आत्मा हो या परमेश्वर का देहधारी शरीर। संक्षेप में, वह जो शैतान के साथ युद्ध कर रहा है वे स्वर्गदूत नहीं हो सकते हैं, मनुष्य तो बिलकुल भी नहीं हो सकता है, जिसे शैतान के द्वारा भ्रष्ट किया जा चुका है। इसे अंजाम देने में स्वर्गदूत निर्बल हैं, और मनुष्य तो और भी अधिक असक्षम है। उसी रूप में, यदि परमेश्वर मनुष्य के जीवन के लिए कार्य करना चाहता है, यदि वह व्यक्तिगत रूप में पृथ्वी पर आकर मनुष्य के लिए काम करना चाहता है, तो उसे व्यक्तिगत तौर पर देह धारण करना होगा, अर्थात्, उसे व्यक्तिगत तौर पर उस देह को पहनना होगा, और अपनी अंतर्निहित पहचान एवं उस कार्य के साथ जिसे उसे करना होगा, मनुष्य के बीच आना होगा और व्यक्तिगत तौर पर मनुष्य का उद्धार करना होगा। यदि नहीं, यदि यह परमेश्वर का आत्मा या मनुष्य होता जिसने इस कार्य को किया था, तो यह युद्ध अपने प्रभावों को हासिल करने में हमेशा के लिए असफल हो जाता, और कभी समाप्त नहीं होता। जब परमेश्वर मनुष्य के बीच व्यक्तिगत तौर पर शैतान के साथ युद्ध करने के लिए देह धारण करता है केवल तभी मनुष्य के पास उद्धार का एक अवसर होता है। इसके अतिरिक्त, केवल तभी शैतान लज्जित होता है, और अंजाम देने के लिए उसके पास कोई अवसर या कोई योजना नहीं होती है। देहधारी परमेश्वर के द्वारा किए गए कार्य को परमेश्वर के आत्मा के द्वारा हासिल नहीं किया जा सकता है, और किसी शारीरिक मनुष्य के द्वारा परमेश्वर के स्थान पर इसे करना तो और भी अधिक कठिन है, क्योंकि वह कार्य जिसे वह करता है वह मनुष्य के जीवन की खातिर है, और मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को बदलने के लिए है। यदि मनुष्य इस युद्ध में भाग लेता, तो वह खस्ताहाल अवस्था में भाग जाता, और मात्र मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को बदलने में असमर्थ होता। वह उस क्रूस से मनुष्य को बचाने में, या सारी विद्रोही मानवजाति पर विजय प्राप्त करने में असमर्थ होता, परन्तु सिद्धान्त के अनुसार थोड़ा सा पुराना कार्य करने में सक्षम होता, या कोई और कार्य करने में सक्षम होता जो शैतान की पराजय से असम्बद्ध है। तो क्यों परेशान होना? उस कार्य का क्या महत्व जो मानवजाति को हासिल न कर सके, और शैतान को तो बिलकुल भी पराजित न कर सके? और इस प्रकार, शैतान के साथ युद्ध को केवल स्वयं परमेश्वर के द्वारा ही सम्पन्न किया जा सकता है, पर इसे मात्र मनुष्य के द्वारा किया जाना असंभव है। मनुष्य का कर्तव्य है कि आज्ञा का पालन करे और अनुसरण करे, क्योंकि मनुष्य नए युग की शुरुआत करने (खोलने) के कार्य को करने में असमर्थ है, इसके अतिरिक्त, न ही वह शैतान के साथ युद्ध करने के कार्य को सम्पन्न कर सकता है। मनुष्य केवल स्वयं परमेश्वर के नेतृत्व के अधीन ही सृष्टिकर्ता को संतुष्ट कर सकता है, जिसके माध्यम से शैतान पराजित होता है; केवल यही वह एकमात्र कार्य है जो मनुष्य कर सकता है। और इस प्रकार, हर समय एक नया युद्ध प्रारम्भ होता है, कहने का तात्पर्य है, हर समय नए युग का कार्य शुरू होता है, इस कार्य को स्वयं परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर किया जाता है, जिसके माध्यम से वह सम्पूर्ण युग की अगुवाई करता है, और सम्पूर्ण मानवजाति के लिए एक नए पथ को खोलता है। प्रत्येक नए युग की सुबह शैतान के साथ युद्ध में एक नाई शुरुआत है, जिसके माध्यम से मनुष्य एक बिलकुल नए, एवं अधिक सुन्दर आयाम और एक नए युग में प्रवेश करता है जिसकी अगुवाई परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर की जाती है। मनुष्य सभी चीज़ों का स्वामी है, परन्तु ऐसे लोग जिन्हें हासिल किया जाता है वे शैतान के साथ सारी लड़ाइयों के फल परिणाम बन जाएंगे। शैतान सभी चीज़ों को भ्रष्ट करनेवाला है, सारी लड़ाइयों के अन्त में वह हारा हुआ शख्स है, और साथ ही वह ऐसा है जिसे इन लड़ाइयों के बाद दण्ड दिया जाएगा। परमेश्वर, मनुष्य एवं शैतान के बीच में, केवल शैतान ही वह है जिससे घृणा की जाएगी और जिसे ठुकरा दिया जाएगा। ऐसे लोग जिन्हें शैतान के द्वारा प्राप्त किया गया था किन्तु उन्हें परमेश्वर के द्वारा वापस नहीं लिया गया है, इसी बीच, वे ऐसे लोग बन जाते हैं जो शैतान के स्थान पर सज़ा प्राप्त करेंगे। इन तीनों में से, सभी प्राणियों के द्वारा केवल परमेश्वर की ही आराधना की जानी चाहिए। ऐसे लोग जिन्हें शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया था परन्तु जिन्हें परमेश्वर के द्वारा वापस ले लिया गया है और जो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हैं, इसी बीच, वे ऐसे लोग बन जाते हैं जो परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं को प्राप्त करेंगे और परमेश्वर के लिए दुष्ट लोगों का न्याय करेंगे। परमेश्वर निश्चित रूप से विजयी होगा और शैतान निश्चित रूप से पराजित होगा, परन्तु मनुष्य के मध्य ऐसे लोग हैं जो जीतेंगे और ऐसे लोग हैं जो हारेंगे। ऐसे लोग जो विजय प्राप्त करेंगे वे विजेता के हैं; और ऐसे लोग जो हारेंगे वे हारे हुए शख्स के हैं; यह किस्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का वर्गीकरण है, यह परमेश्वर के सम्पूर्ण कार्य का अंतिम परिणाम है, साथ ही यह परमेश्वर के सम्पूर्ण कार्य का लक्ष्य भी है, और यह कभी नहीं बदलेगा। परमेश्वर की प्रबधंकीय योजना के मुख्य कार्य के केन्द्रीय भाग को मानवजाति के उद्धार पर केन्द्रित किया गया है, और परमेश्वर मुख्यतः अपने केन्द्रीय भाग के लिए, इस कार्य के लिए, और शैतान को पराजित करने के लिए देहधारण करता है। पहली बार जब परमेश्वर ने देहधारण किया था तो वह भी शैतान को पराजित करने के लिए था: उसने व्यक्तिगत तौर पर देहधारण किया था, और उसे व्यक्तिगत रूप से क्रूस पर कीलों से जड़ दिया गया था, जिससे प्रथम युद्ध के कार्य को पूरा किया जा सके, जो मानवजाति के छुटकारे का कार्य था। उसी प्रकार, कार्य के इस चरण को भी परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर किया गया है, जिसने मनुष्य के बीच में अपना कार्य करने के लिए, और व्यक्तिगत तौर पर अपने वचनों को बोलने और मनुष्य को उसे देखने की अनुमति देने के लिए देहधारण किया है। निश्चित रूप से, यह अपरिहार्य है कि वह मार्ग में साथ ही साथ कुछ अन्य कार्य भी करता है, परन्तु वह मुख्य कारण यह है कि वह शैतान को हराने के लिए, सम्पूर्ण मानवजाति पर विजय पाने के लिए, और इन लोगों को हासिल करने के लिए अपने कार्य को व्यक्तिगत तौर पर करता है। और इस प्रकार, देहधारी परमेश्वर का कार्य वास्तव में कुछ तो है! यदि उसका उद्देश्य मनुष्य को केवल यह दिखाना होता कि परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, और यह कि परमेश्वर वास्तविक है, यदि यह मात्र इस कार्य को करने की खातिर होता, तो देह धारण करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती। भले ही परमेश्वर ने देहधारण नहीं किया होता, फिर भी वह अपनी विनम्रता एवं रहस्यमयता, अपनी महानता एवं पवित्रता को सीधे मनुष्य पर प्रगट कर सकता था, परन्तु ऐसी चीज़ों का मानवजाति के प्रबधंन के कार्य से कोई लेना देना नहीं है। वे मनुष्य का उद्धार करने या उसे पूर्ण करने में असमर्थ हैं, और वे शैतान को तो बिलकुल भी पराजित नहीं कर सकते हैं। यदि शैतान की पराजय में केवल आत्मा ही शामिल होता है जो किसी आत्मा से युद्ध करता, तो ऐसे कार्य का और भी कम व्यावहारिक मूल्य होता; यह मनुष्य को हासिल करने में असमर्थ होता और मनुष्य की नियति एवं उसके भविष्य की संभावनाओं को बर्बाद कर देता। उसी रूप में, आज परमेश्वर के कार्य का अत्यधिक महत्व है। यह सिर्फ इसलिए नहीं है ताकि मनुष्य उसे देख सके, या ताकि मनुष्य की आँखों को खोला जा सके, या जिससे उसे थोड़ी सी गतिशीलता एवं प्रोत्साहन प्रदान किया जाए; ऐसे कार्य का कोई महत्व नहीं है। यदि आप केवल इस किस्म के ज्ञान के विषय में ही बोलेंगे, तो यह साबित करता है कि आप देहधारी परमेश्वर के सच्चे महत्व को नहीं जानते हैं।
परमेश्वर की सम्पूर्ण प्रबंधकीय योजना के कार्य को व्यक्तिगत तौर पर स्वयं परमेश्वर के द्वारा किया गया है। प्रथम चरण - संसार की सृष्टि – को परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर किया गया था, और यदि इसे नहीं किया गया होता, तो कोई भी मानवजाति की सृष्टि करने में सक्षम नहीं होता; दूसरा चरण सम्पूर्ण मानवजाति का छुटकारा था, और इसे भी स्वयं परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर किया गया था; तीसरा चरण स्पष्ट है: परमेश्वर के सम्पूर्ण कार्य के अन्त को स्वयं परमेश्वर के द्वारा किये जाने की तो और भी अधिक आवश्यकता है। सम्पूर्ण मानवजाति के छुटकारे, उस पर विजय पाने, उसे हासिल करने, एवं सिद्ध बनाने के समस्त कार्य को स्वयं परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर सम्पन्न किया जाता है। वह यदि व्यक्तिगत तौर पर इस कार्य को नहीं करता, तो उसकी पहचान को मनुष्य के द्वारा दर्शाया नहीं जा सकता था, या उसके कार्य को मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता था। शैतान को हराने के लिए, मानवजाति को प्राप्त करने के लिए, और मानव को पृथ्वी पर एक सामान्य जीवन प्रदान करने के लिए, वह व्यक्तिगत तौर पर मनुष्य की अगुवाई करता है और मनुष्य के मध्य कार्य करता है; अपनी सम्पूर्ण प्रबधंकीय योजना की खातिर, और अपने सम्पूर्ण कार्य के लिए, उसे व्यक्तिगत तौर इस कार्य को करना ही होगा। यदि मनुष्य केवल यह विश्वास करता है कि परमेश्वर उसके द्वारा देखे जाने और उसे खुश करने के लिए आया था, तो ऐसे विश्वास का कोई मूल्य नहीं है, और उनका कोई महत्व नहीं है। मनुष्य का ज्ञान बहुत ही सतही है! केवल इसे स्वयं सम्पन्न करने के द्वारा ही परमेश्वर इस कार्य को अच्छी तरह से और पूरी तरह से कर सकता है। मनुष्य इसे परमेश्वर के स्थान पर करने में असमर्थ है। चूँकि उसके पास परमेश्वर की पहचान या उसका मूल-तत्व नहीं है, वह उसके कार्य को करने में असमर्थ है, और भले ही मनुष्य इसे करता, फिर भी इसका कोई प्रभाव नहीं होता। पहली बार जब परमेश्वर ने देहधारण किया था तो वह छुटकारे की खातिर था, सारी मानवजाति को पाप से मुक्ति देने के लिए था, और मनुष्य को शुद्ध किये जाने एवं उसे उसके पापों से क्षमा किये जाने के योग्य बनाने के लिए था। विजय के कार्य को भी परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर मनुष्य के मध्य किया गया है। इस चरण के दौरान, यदि परमेश्वर को केवल भविष्यवाणी ही करना होता, तो किसी भविष्यवक्ता या किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति को उसका स्थान लेने के लिए ढूंढा जा सकता था; यदि केवल भविष्यवाणी को ही कहा जाता, तो मनुष्य परमेश्वर के एवज़ में खड़ा हो सकता था। फिर भी यदि मनुष्य को स्वयं परमेश्वर के कार्य को व्यक्तिगत तौर पर करना होता और मनुष्य के जीवन के लिए कार्य करना होता, तो उसके लिए इस कार्य को करना असंभव होता। इसे व्यक्तिगत तौर पर स्वयं परमेश्वर के द्वारा किया जाना चाहिए: इस कार्य को करने के लिए परमेश्वर को व्यक्तिगत तौर पर देहधारण करना होगा। वचन के युग में, यदि केवल भविष्यवाणी को ही बोला जाता, तो इस कार्य को करने के लिए यशायाह या एलिय्याह भविष्यवक्ता को ढूंढा जा सकता था, और इसे व्यक्तिगत तौर पर करने के लिए स्वयं परमेश्वर की कोई आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि इस चरण में किया गया कार्य मात्र भविष्यवाणियों को कहना नहीं है, और क्योंकि इसका अत्यधिक महत्व है इसलिए मनुष्य पर विजय पाने और शैतान को पराजित करने के लिए वचन के कार्य का उपयोग किया गया है, इस कार्य को मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता है, और इसे स्वयं परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर किया जाना चाहिए। व्यवस्था के युग में यहोवा ने परमेश्वर के कार्य के एक भाग को किया था, जिसके पश्चात् उसने कुछ वचनों को कहा और भविष्यवक्ताओं के जरिए कुछ कार्य किया। यह इसलिए है क्योंकि मनुष्य यहोवा के कार्य के एवज़ में खड़ा हो सकता था, और दर्शी लोग उसके स्थान पर आने वाली बातों को बता सकते थे और कुछ स्वप्नों का अनुवाद कर सकते थे। आरम्भ में किया गया कार्य सीधे तौर पर मनुष्य के स्वभाव को परिवर्तित करने का कार्य नहीं था, और मनुष्य के पाप से सम्बन्धित नहीं था, और मनुष्य से सिर्फ व्यवस्था में बने रहने की अपेक्षा की गई थी। अतः यहोवा ने देहधारण नहीं किया और स्वयं को मनुष्य पर प्रगट नहीं किया; इसके बजाय उसने मूसा एवं अन्य लोगों से सीधे बातचीत की, तथा उनसे बुलवाया और अपने स्थान पर कार्य करवाया, और उनसे मानवजाति के मध्य सीधे तौर पर कार्य करवाया। परमेश्वर के कार्य का पहला चरण मनुष्य के नेतृत्व का था। यह शैतान के साथ युद्ध का आरम्भ था, परन्तु यह युद्ध अभी तक आधिकारिक रूप से शुरू नहीं हुआ था। परमेश्वर के पहले देहधारण के साथ ही शैतान के साथ आधिकारिक युद्ध का आरम्भ हो गया था, और यह आज के दिन तक निरन्तर जारी है। इस युद्ध का पहला उदाहरण तब सामने आया जब देहधारी परमेश्वर को क्रूस पर कीलों से जड़ दिया गया था। देहधारी परमेश्वर के क्रूसारोहण ने शैतान को पराजित कर दिया था, और यह युद्ध में प्रथम सफल चरण था। जब देहधारी परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन में सीधे तौर पर कार्य करना आरम्भ किया, तो यह मनुष्य को पुनः प्राप्त करने के कार्य की आधिकारिक शुरुआत थी, और क्योंकि यह मनुष्य के पुराने स्वभाव को परिवर्तित करने का कार्य है, इसलिए यह शैतान के साथ युद्ध करने का कार्य है। कार्य का यह चरण जिसे आरम्भ में यहोवा के द्वारा किया गया था वह महज पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन का नेतृत्व था। यह परमेश्वर के कार्य का आरम्भ था, और हालाँकि इसमें अब तक किसी युद्ध, या किसी मुख्य कार्य को शामिल नहीं गया था, फिर भी इसने उस आने वाले युद्ध के कार्य की नींव डाली थी। बाद में, अनुग्रह के युग के दौरान दूसरे चरण के कार्य में मनुष्य के पुराने स्वभाव को परिवर्तित करना शामिल था। जिसका अर्थ है कि स्वयं परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन में कार्य किया था। इसे परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर किया जाना था: यह अपेक्षा करता था कि परमेश्वर व्यक्तिगत तौर पर देहधारण करे, और यदि वह देहधारण नहीं करता, तो कार्य के इस चरण में कोई अन्य प्राणी उसका स्थान नहीं ले सकता था, क्योंकि यह शैतान के साथ सीधी लड़ाई के कार्य को दर्शाता था। यदि मनुष्य ने परमेश्वर के स्थान पर यह काम किया होता, तो जब मनुष्य शैतान के सामने खड़ा होता, शैतान ने समर्पण नहीं किया होता और उसे हराना असंभव हो गया होता। यह तो देहधारी परमेश्वर ही था जो उसे हराने के लिए आया था, क्योंकि देहधारी परमेश्वर का मूल-तत्व अब भी परमेश्वर है, वह अभी भी मनुष्य का जीवन है, और वह अभी भी सृष्टिकर्ता है; चाहे जो भी हो, उसकी पहचान एवं मूल-तत्व कभी नहीं बदलेगा। और इस प्रकार, उसने शैतान के सम्पूर्ण समर्पण को अंजाम देने के लिए देह को पहना लिया और कार्य किया। अंतिम दिनों के कार्य के चरण के दौरान, यदि मनुष्य को यह कार्य करना होता और सीधे तौर पर वचनों को बोलना होता, तो वह उन्हें बोलने में असमर्थ होता, और यदि भविष्यवाणी के वचन को कहा जाता, तो यह मनुष्य पर विजय पाने में असमर्थ होता। देह का रूप लेने के द्वारा, परमेश्वर शैतान को हराने और उसके सम्पूर्ण समर्पण को अंजाम देने के लिए आया है। वह पूरी तरह से शैतान को पराजित करता है, पूरी तरह से मनुष्य पर विजय पाता है, और पूरी तरह से से मनुष्य को प्राप्त करता है, जिसके बाद कार्य का यह चरण पूरा हो जाता है, और सफलता को हासिल किया जाता है। परमेश्वर के प्रबधंन में, मनुष्य परमेश्वर के एवज़ में खड़ा नहीं हो सकता है। विशेष तौर पर, युग की अगुवाई करने और नए कार्य को प्रारम्भ करने के कार्य को स्वयं परमेश्वर के द्वारा व्यक्तिगत तौर किये जाने की तो और भी अधिक आवश्यकता है। मनुष्य को प्रकाशन देने और उसे भविष्यवाणी प्रदान करने के कार्य को मनुष्य के द्वारा किया जा सकता है, परन्तु यदि यह ऐसा कार्य है जिसे व्यक्तिगत तौर पर परमेश्वर के द्वारा ही किया जाना चाहिए, अर्थात् स्वयं परमेश्वर और शैतान के बीच युद्ध का कार्य, तो मनुष्य के द्वारा इस कार्य को नहीं किया जा सकता है। कार्य के पहले चरण के दौरान, जब शैतान के साथ कोई युद्ध नहीं था, तब यहोवा ने भविष्यवक्ताओं के द्वारा बोली गई भविष्यवाणियों का उपयोग करते हुए व्यक्तिगत तौर पर इस्राएल के लोगों की अगुवाई की थी। इसके बाद, कार्य का दूसरे चरण शैतान के साथ युद्ध था, और स्वयं परमेश्वर ने व्यक्तिगत तौर पर देहधारण किया था, और इस कार्य को करने के लिए देह में आया था। कोई भी कार्य जो शैतान के साथ युद्ध को शामिल करता है वह परमेश्वर के देहधारण को भी शामिल करता है, जिसका अर्थ है कि इस युद्ध को मनुष्य के द्वारा नहीं लड़ा जा सकता है। यदि मनुष्य को युद्ध करना पड़ता, तो वह शैतान को पराजित करने में असमर्थ होता। उसके पास उसके विरुद्ध लड़ने की ताकत कैसे हो सकती है जबकि वह अभी भी उसके प्रभुत्व के अधीन है? मनुष्य बीच में है: यदि आप शैतान की ओर झुकते हैं तो आप शैतान के हैं, परन्तु यदि आप परमेश्वर को संतुष्ट करते हैं तो आप परमेश्वर के हैं। यदि इस युद्ध के कार्य में मनुष्य को परमेश्वर के एवज़ में खड़ा होना पड़ता, तो क्या वह युद्ध कर पाता? यदि वह युद्ध करता, तो क्या वह बहुत पहले ही नष्ट नहीं हो जाता? क्या वह बहुत पहले ही अधोलोक में नहीं समा गया होता? और इस प्रकार, परमेश्वर के कार्य में मनुष्य उसका स्थान लेने में असमर्थ है, कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य के पास परमेश्वर का मूल-तत्व नहीं है, और यदि आप शैतान के साथ युद्ध करते तो आप उसे पराजित करने में असमर्थ होते। मनुष्य केवल कुछ कार्य ही कर सकता है; वह कुछ लोगों को जीत सकता है, परन्तु वह स्वयं परमेश्वर के कार्य में परमेश्वर के एवज़ में खड़ा नहीं हो सकता है। मनुष्य शैतान के साथ युद्ध कैसे कर सकता है? इससे पहले कि आप शुरुआत करते शैतान आपको बन्दी बना लेता। केवल स्वयं परमेश्वर ही शैतान के साथ युद्ध कर सकता है, और इस आधार पर मनुष्य परमेश्वर का अनुसरण एवं उसकी आज्ञाओं का पालन कर सकता है। केवल इसी रीति से मनुष्य को परमेश्वर के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और वह शैतान के बन्धनों से बचकर निकल सकता है। जो कुछ मनुष्य अपनी स्वयं की बुद्धि, अधिकार एवं योग्यताओं से हासिल कर सकता है वह बहुत ही सीमित होता है; वह मनुष्य को पूर्ण बनाने, उसकी अगुवाई करने, और इसके अतिरिक्त, शैतान को हराने में असमर्थ है। मनुष्य की मानसिक क्षमता एवं बुद्धि शैतान की युक्तियों को बाधित करने में असमर्थ है, अतः मनुष्य किस प्रकार से उस के साथ युद्ध कर सकता है?
वे सभी लोग जो सिद्ध किये जाने की इच्छा रखते हैं उनके पास सिद्ध बनने का एक अवसर है, अतः हर किसी को शांत हो जाना चाहिए: भविष्य में आप उस मंज़िल में प्रवेश करेंगे। परन्तु यदि आप सिद्ध बनाए जाने की इच्छा नहीं रखते हैं, और उस बेहतरीन आयाम में प्रवेश करने की इच्छा नहीं रखते हैं, तो यह आपकी स्वयं की समस्या है। वे सभी जो सिद्ध बनाए जाने की इच्छा रखते हैं और जो परमेश्वर के प्रति वफादार हैं, वे सभी जो आज्ञाओं को मानते हैं, और वे सभी जो वफादारी से अपने कार्य को क्रियान्वित करते हैं – ऐसे सभी लोगों को सिद्ध बनाया जा सकता है। आज, वे सभी लोग जो वफादारी से अपने अपने कर्तव्य को नहीं निभाते हैं, वे सभी जो परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं हैं, वे सभी जो परमेश्वर के अधीन नहीं होते हैं, विशेष रूप से वे जिन्होंने पवित्र आत्मा का अद्भुत प्रकाशन एवं अद्भुत ज्योति प्राप्त की है किन्तु उसे अभ्यास में नहीं लाते हैं – ऐसे सभी लोगों को सिद्ध नहीं बनाया जा सकता है। वे सभी लोग जो वफादार होने और परमेश्वर की आज्ञा मानने की इच्छा रखते हैं, भले ही वे थोड़े से अज्ञानी हैं; वे सभी जो अनुसरण करने की इच्छा रखते हैं उन्हें सिद्ध बनाया जा सकता है। इसके विषय में चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब तक आप इस दिशा में अनुसरण करने के इच्छुक हैं, आपको सिद्ध बनाया जा सकता है। मैं आप लोगों में से किसी को भी छोड़ने या निष्कासित करने के लिए इच्छुक नहीं हूँ, परन्तु यदि मनुष्य अच्छा करने के लिए परिश्रम न करे, तो आप सिर्फ अपने आपको बर्बाद कर रहे हैं; वह मैं नहीं हूँ जो आपको निष्कासित करता है, परन्तु आप स्वयं हो। यदि आप स्वयं अच्छा करने के लिए परिश्रम न करें – यदि आप आलसी हैं, या अपने कर्तव्य नहीं निभाते हैं, या वफादार नहीं हैं, या सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं, और हमेशा जैसा चाहते हैं वैसा ही करते हैं, धन खर्च करते हैं और लैंगिक सम्बन्ध बनाते हैं, तो आप स्वयं को दोषी ठहराते हैं, और किसी की दया के अयोग्य हैं। मेरा उद्देश्य आप सभी लोगों के लिए है कि आप सब सिद्ध बनें, और इस बात की बहुत कम इच्छा करता हूँ कि आप पर विजय पाया जाए, ताकि कार्य के इस चरण को सफलतापूर्वक पूरा किया जा सके। प्रत्येक व्यक्ति के लिए परमेश्वर की इच्छा है कि उसे सिद्ध बनाया जाए, अन्ततः उसके द्वारा उसे प्राप्त किया जाए, और उसके द्वारा पूरी तरह से शुद्ध किया जाए, और वह ऐसा इंसान बने जिससे वह प्रेम करता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मैं ने आप लोगों को पिछड़ा हुआ कहा या निम्न क्षमता वाला – यह सब प्रमाणित सत्य है। मेरा ऐसा कहना यह सिद्ध नहीं करता है कि मैं ने आपको छोड़ने का इरादा किया है, कि मैंने आप लोगों में आशा खो दी है, और मैं आप लोगों को बचाने की इच्छा बिलकुल भी नहीं करता हूँ। आज मैं आप सब के उद्धार के कार्य को करने के लिए आया हूँ, कहने का तात्पर्य है कि वह कार्य जिसे मैं करता हूँ वह उद्धार के कार्य की निरन्तरता है। प्रत्येक व्यक्ति के पास सिद्ध किये जाने का एक मौका है: बशर्ते आप तैयार हों, बशर्ते आप अनुसरण करते हों, तो अन्त में आप प्रभावों को हासिल करने में सक्षम होंगे, और आप में से किसी को भी त्यागा नहीं जाएगा। यदि आप निम्न क्षमता के इंसान हैं, तो आप से मेरी अपेक्षाएं आपकी निम्न क्षमता के अनुसार होंगी, यदि आप उच्च क्षमता के इंसान हैं, तो आप से मेरी अपेक्षाएं आपकी उच्च क्षमता के अनुसार होंगी; यदि आप अज्ञानी एवं निरक्षर (अनपढ़) हैं, तो आप से मेरी अपेक्षाएं आपकी निरक्षरता के स्तर के अनुसार होंगी; यदि आप साक्षर हैं, तो आप से मेरी अपेक्षाएं आपकी साक्षरता के स्तर के अनुसार होंगी; यदि आप वृद्ध हैं, तो आप से मेरी अपेक्षाएं आपकी उम्र के अनुसार होंगी; यदि आप अतिथि सत्कार करने में समर्थ हैं, तो आप से मेरी अपेक्षाएं इसके अनुसार होंगी; यदि आप कहते हैं कि आप अतिथि सत्कार नहीं कर सकते हैं, और केवल कुछ निश्चित कार्य ही कर सकते हैं, चाहे यह सुसमाचार फैलाने का कार्य हो, या कलीसिया की देखरेख करने का कार्य हो, या अन्य सामान्य मामलों में शामिल होने का कार्य हो, मेरे द्वारा आपकी सिद्धता भी उस कार्य के अनुसार होगी जिसे आप करते हैं। वफादार होना, अन्त तक आज्ञा मानना, और परमेश्वर के सर्वोच्च प्रेम का अनुसरण करना - यही वह कार्य है जिसे आपको पूरा करना होगा, और इन तीन चीज़ों की अपेक्षा अभ्यास करने के लिए और कोई बेहतर चीज़ नहीं है। अन्ततः, मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह इन तीन चीज़ों को हासिल करे, और यदि वह इन तीन चीज़ों को हासिल कर सकता है तो उसे सिद्ध बनाया जाएगा। परन्तु, इन सबसे ऊपर, आपको सचमुच में अनुसरण करना होगा, आपको सक्रियता से ऊपर और नीचे बढ़ते जाना होगा, उसके प्रति निष्क्रिय नहीं होना होगा, मैं कह चुका हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति के पास सिद्ध बनाए जाने का एक अवसर है, और प्रत्येक व्यक्ति सिद्ध बनाए जाने के योग्य है, और यह मायने रखता है, परन्तु यदि आप अपने अनुसरण में बेहतर बनने की कोशिश नहीं करते हैं, यदि आप इन तीनों मापदंडों को हासिल नहीं करते हैं, तो अन्त में आप ज़रूर निष्कासित होंगे। मैं चाहता हूँ कि हर कोई उस स्तर तक पहुंचे, मैं चाहता हूँ कि प्रत्येक के पास पवित्र आत्मा का कार्य एवं अद्भुत प्रकाशन हो, और वह अन्त तक आज्ञा मानने में सक्षम हो, क्योंकि यह वह कर्तव्य है जिसे आप लोगों में से प्रत्येक को निभाना है। जब आप सभी लोग अपने कर्तव्य को निभा लेते हैं, तो आप सभी लोगों को सिद्ध बनाया जा चुका होगा, आप लोगों के पास भी गूंजायमान गवाही होगी। वे सभी लोग जिनके पास गवाही है वे ऐसे लोग हैं जो शैतान के ऊपर विजयी हुए हैं और जिन्होंने परमेश्वर की प्रतिज्ञा को प्राप्त किया है, और वे ऐसे लोग हैं जो उस बेहतरीन मंज़िल में जीवन बिताने के लिए बने रहेंगे।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें