14. अपने सभी प्रबंधन में परमेश्वर का कार्य पूर्णतः स्पष्ट है: अनुग्रह का युग अनुग्रह का युग है, और अंत के दिन अंत के दिन हैं। प्रत्येक युग के बीच सुस्पष्ट अंतर हैं,क्योंकि हर युग में परमेश्वर कार्य करता है जो उस युग का प्रतिनिधित्व करता है। अंत के दिनों का कार्य किए जाने के लिए, युग का अंत लाने के लिए ज्वलन, न्याय, ताड़ना, कोप, और विनाश अवश्य होने चाहिए। अंत के दिन अंतिम युग को संदर्भित करते हैं। अंतिम युग के दौरान, क्या परमेश्वर युगका अंत नहीं लाएगा? युग को समाप्त करने के लिए, परमेश्वर को अपने साथ ताड़ना और न्याय अवश्य लाना चाहिए। केवल इसी तरह से वह युग को समाप्त कर सकता है। यीशु का प्रयोजन ऐसा था ताकि मनुष्य अस्तित्व में रहना जारी रख सके, जीवित रह सके, और एक बेहतर तरीके से विद्यमान रह सके।उसने मनुष्य को पाप से बचाया ताकि व्यक्ति निरंतर चरित्रहीनता को बंद कर देगा और अब अधोलोक और नरक में नहीं रहेगा, और उसने मनुष्य को अधोलोक और नरक से बचा कर मनुष्य को जीवित रहने दिया। अब, अंत के दिन आ गए हैं। वह मनुष्य का सर्वनाश कर देगा, मनुष्य को पूरी तरह से नष्ट कर देगा, जिसका अर्थ है कि वह मनुष्य की अवज्ञा को उलट देगा। वैसे तो, अतीत के परमेश्वर का करुणामय और प्रेममय स्वभाव युग को समाप्त करने में असमर्थ होगा, और परमेश्वर की छः-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना को पूरा करने में असमर्थ होगा। हर युग में परमेश्वर के स्वभाव का प्रतिनिधित्व विशिष्ट होता है, और हर युगमें वह कार्य समाविष्ट होता है जिसे परमेश्वर द्वारा किया जाना चाहिए। इसलिए, प्रत्येक युग में परमेश्वर स्वयं द्वारा किया गया कार्य उसके सच्चे स्वभाव की अभिव्यक्ति से युक्त होता है, और उसका नाम और वह जो कार्य करता है युग के साथ बदल जाते हैं;वे सभी नए होते हैं।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
15. व्यवस्था के युग के दौरान, मानव जाति के मार्गदर्शन का कार्य यहोवा के नाम के अधीन किया गया था, और कार्य का पहला चरण पृथ्वी पर किया गया था। इस चरण का कार्य मंदिर और वेदी का निर्माण करना, और इस्राएल के लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए व्यवस्था का उपयोग करना और उनके बीच कार्य करना था। इस्राएल के लोगों का मार्गदर्शन करके, उसने पृथ्वी पर अपने कार्य के लिए एक आधार स्थापित किया। इस आधार से, उसने अपने कार्य का विस्तार इस्राइल से बाहर किया, जिसका अर्थ है, कि इस्राएल से शुरू करके, उसने अपने कार्य का बाहर की ओर विस्तार किया, जिसकी वजह से बाद की पीढ़ियों को धीरे-धीरे पता चला कि यहोवा परमेश्वर था, और यह कि यहोवा ने ही स्वर्ग और पृथ्वी का और सभी चीजों का निर्माण किया था, सभी प्राणियों को बनाया था। उसने इस्राएल के लोगों के माध्यम से अपने कार्यको फैलाया। इस्राएल की भूमि पृथ्वी पर यहोवा के कार्य का पहला पवित्र स्थान था, और पृथ्वी पर परमेश्वर का सबसे पहले का कार्य पूरे इस्राएल देश में किया गया था। वह व्यवस्था के युग का कार्य था। अनुग्रह के युग के कार्य में, यीशु परमेश्वर था जिसने मनुष्य को बचाया। उसका स्वरूप अनुग्रह, प्रेम, करुणा, सहनशीलता, धैर्य, विनम्रता, देखभाल और सहिष्णुता, और उसने जो इतना अधिक कार्य किया वह मनुष्य का छुटकारा था। और जहाँ तक उसका स्वभाव है, वह करुणा और प्रेम का था, और क्योंकि वह करुणामय और प्रेममय था, इसलिए उसे मनुष्य के लिए सलीब पर ठोंक दिया जाना था, ताकि यह दिखाया जाए कि परमेश्वर मनुष्य से उसी प्रकार प्रेम करता था जैसे वह स्वयं से करता था, इस हद तक कि उसने स्वयं को अपनी सम्पूर्णता में बलिदान कर दिया। … अनुग्रह के युग के दौरान, परमेश्वर का नाम यीशु था, जिसका अर्थ है कि परमेश्वर ऐसा परमेश्वर था जिसने मनुष्य को बचाया, और यह कि वह एक करुणामय और प्रेममय परमेश्वर था। परमेश्वर मनुष्य के साथ था। उसका प्यार, उसकी करुणा, और उसका उद्धार हर एक व्यक्ति के साथ था। मनुष्य केवल तभी शांति और आनन्द प्राप्त कर सकता था, उसका आशीष प्राप्त कर सकता था, उसका विशाल और विपुल अनुग्रह प्राप्त कर सकता था, और उसके द्वारा उद्धार प्राप्त कर लेता, यदि मनुष्य यीशु के नाम को स्वीकार कर लेता और उसकी उपस्थिति को स्वीकार कर लेता। यीशु को सलीब पर चढ़ाने के माध्यम से, उसका अनुसरण करने वाले सभी लोगों को उद्धार प्राप्त हुआ और उनके पापों को क्षमा कर दिया गया। अनुग्रह के युग दौरान, परमेश्वर का नाम यीशु था। दूसरे शब्दों में, अनुग्रह के युग का कार्य मुख्यतः यीशु के नाम से किया गया था। अनुग्रह के युग के दौरान, परमेश्वर को यीशु कहा गया था। उसने पुराने विधान से परे नया कार्य किया, और उसका कार्य सलीब पर चढ़ाए जाने के साथ ही समाप्त हो गया, और यह उसके कार्य की संपूर्णता थी। इसलिए, व्यवस्था के युग के दौरान परमेश्वर का नाम यहोवा था, और अनुग्रह के युग में यीशु के नाम ने परमेश्वर का प्रतिनिधित्व किया। अंत के दिनों के दौरान, उसका नाम सर्वशक्तिमान परमेश्वर—सर्वशक्तिमान है, और वह मनुष्य का मार्गदर्शन करने, मनुष्य पर विजय प्राप्त करने, और मनुष्य को प्राप्त करने, और अंत में,युग का समापन करने के लिए अपनी शक्ति का उपयोग करता है। हर युग में, अपने कार्य के हर चरण में, परमेश्वर का स्वभाव स्पष्ट है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
16. यदि प्रत्येक युग में परमेश्वर का कार्य हमेशा एक ही होता है, और उसे हमेशा उसी नाम से बुलाया जाता है, तो मनुष्य उसे कैसे जान पाता? परमेश्वर को यहोवा अवश्य कहा जाना चाहिए, और यहोवा कहे जाने वाले किसी परमेश्वर के अलावा किसी अन्य नाम से कहा जाने वाला कोई भी व्यक्ति परमेश्वर नहीं है। वरना परमेश्वर को केवल यीशु कहा जा सकता है, और परमेश्वर को यीशु के सिवाय किसी भी अन्य नाम से नहीं बुलाया जा सकता है; यीशु के अलावा, यहोवा परमेश्वर नहीं है, और सर्वशक्तिमान परमेश्वर भी परमेश्वर नहीं है। मनुष्य का मानना है कि यह सत्य है कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है, किन्तु परमेश्वर मनुष्य के साथ एक परमेश्वर है; उसे यीशु अवश्य कहा जाना चाहिए, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के साथ है। ऐसा करना सिद्धांत का पालन करना है, और एक दायरे में परमेश्वर को बाधित करना है। इसलिए, जो कार्य परमेश्वर हर युग में करता है, वह नाम जिससे उसे बुलाया जाता है, और वह छवि जिसे वह अपनाता है, और आज तक उसके कार्य का प्रत्येक चरण, एक भी विनियम का पालन नहीं करते हैं, और किसी भी बाध्यता के अधीन नहीं हैं। वह यहोवा है, किन्तु वह यीशु भी है, और साथ ही मसीहा, और सर्वशक्तिमान परमेश्वर भी है। उसका कार्य धीरे-धीरे बदल सकता है, और उसके नाम में भी अनुरूपी परिवर्तन होते हैं। कोई भी अकेला नाम पूरी तरह से उसका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है, किन्तु वे सभी नाम जिनसे उसे बुलाया जाता है, उसका प्रतिनिधित्व करने में सक्षम होते हैं, और प्रत्येक युग में उसके द्वारा किया गया कार्य उसके स्वभाव का प्रतिनिधित्व करता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
17. कहें, कि जब अंत के दिन आते हैं, तो जिस परमेश्वर को तुम देखते हो वह अभी भी यीशु है, और वह एक सफेद बादल पर सवारी कर रहा है, और अभी भीउसका रूप-रंग यीशु का है, और जिन वचनों को वह बोलता है वे अभी भी यीशु के वचन हैं: "तुम लोगों को अपने पड़ोसी से उसी तरह प्यार करना चाहिए जिस तरह तुमलोग स्वयं के जीवन से करते हो, तुम लोगों को उपवास करना और प्रार्थना करनी चाहिए, अपने दुश्मनों से उसी तरह से प्यार करो जैसे तुम लोग अपनी स्वयं की जिंदगी से करते हो, दूसरों के साथ धैर्य रखो, और धैर्यवान और नम्र बनो। तुम्हें यह सब अवश्य करना चाहिए। केवल तभी तुम लोग मेरे शिष्य बन सकते हो। "यदि तुम लोग यह सब करते हो, तो तुम लोग मेरे राज्य में प्रवेश कर सकते हो। क्या यह अनुग्रह के युग का कार्य नहीं है? क्या यह वह मार्ग नहीं है जिसकी अनुग्रह के युग के दौरान बात की गई थी? जब तुम लोग इन वचनों को सुनते हो तो तुम लोगों को कैसा महसूस होता है? क्या आप लोगों को नहीं महसूस होता है कि यह अभी भी यीशु का कार्य है? क्या यह उसके कार्य का दोहराव नहीं है? क्या यह मनुष्य को संतुष्ट कर सकता है? तुम लोग महसूस कर सकते हो कि परमेश्वर का कार्य केवल वैसा ही रह सकता है जैसा यह अब है, और आगे प्रगति नहीं कर सकता है। उसके पास केवल बहुत महान सामर्थ्य है, करने के लिए कोई नया कार्य नहीं है, और वह अपनी सीमाओं तक पहुँच गया है। दो हज़ार वर्ष पहले अनुग्रह का युग था, और दो हजार वर्ष बाद वह अभी भी अनुग्रह के युग का उपदेश देता है, और फिर भी लोगों से पश्चाताप करवाता है। लोग कहेंगे, "परमेश्वर, केवल तेरे पास इतनी महान सामर्थ्य है। मैं मानता था कि तू बहुत बुद्धिमान है,और फिर भी तू केवल सहनशीलता जानता है और धैर्य से ही सम्बद्ध है, तू केवल यह जानता है कि अपने दुश्मन से कैसे प्यार करें और इससे अधिक कुछ नहीं।" मनुष्य के मन में, परमेश्वर हमेशा वैसा ही होगा जैसा कि वह अनुग्रह के युग में था, और मनुष्य हमेशा विश्वास करेगा कि परमेश्वर प्रेममय और करुणामय है। क्या तुम लोगों को लगता है कि परमेश्वर का कार्य हमेशा उसी पुरानी ज़मीन पर चलता रहेगा? और इसलिए, उसके कार्य के इस चरण में उसे सलीब पर नहीं चढ़ाया जाएगा, और जो कुछ भी तुम लोग देखते और छूते हो, वह उस किसी भी चीज के असदृश होगी जो तुमने सोची और सुनी है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
18. क्या यीशु का नाम, "परमेश्वर हमारे साथ," परमेश्वर के स्वभाव को उसकी समग्रता से व्यक्त कर सकता है? क्या यह पूरी तरह से परमेश्वर को स्पष्ट कर सकता है? यदि मनुष्य कहता है कि परमेश्वर को केवल यीशु कहा जा सकता है, और उसका कोई अन्य नाम नहीं हो सकता है क्योंकि परमेश्वर अपना स्वभाव नहीं बदल सकता है, तो ऐसे वचन ईशनिन्दा हैं! क्या तुम मानते हो कि यीशु नाम, परमेश्वर हमारे साथ, परमेश्वर का समग्रता से प्रतिनिधित्व कर सकता है? परमेश्वर को कई नामों से बुलाया जा सकता है, किन्तु इन कई नामों के बीच, एक भी ऐसा नहीं है जो परमेश्वर के स्वरूप को सारगर्भित रूप से व्यक्त कर सकता हो, एक भी ऐसा नहीं जो परमेश्वर का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व कर सकता हो। और इसलिए परमेश्वर के कई नाम हैं, किन्तु ये बहुत से नाम परमेश्वर के स्वभाव को पूरी तरह से स्पष्ट नहीं कर सकते हैं, क्योंकि परमेश्वर का स्वभाव अत्यधिक समृद्ध है, और मनुष्य के ज्ञान से परे विस्तारित है। … एक विशेष शब्द या नाम परमेश्वर का उसकी समग्रता में प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ है। तो क्या परमेश्वर एक निश्चित नाम धारण कर सकताहै? परमेश्वर इतना महान और पवित्र है, तो तुम उसे प्रत्येक नए युग में अपना नाम बदलने की अनुमति क्यों नहीं देते हो? वैसे तो, प्रत्येक युग में जिसमें परमेश्वर स्वयं अपना कार्य करता है, वह एक नाम का उपयोग करता है, जो उसके द्वारा किए गए कार्य की समस्त विशेषताओं को सारगर्भित रूप से व्यक्त करने के लिए युग के अनुकूल होता है। वह उस युग के अपने स्वभाव का प्रतिनिधित्व करने के लिए इस विशेष नाम, एक नाम जो अस्थायी महत्व से सम्पन्न है, का उपयोग करता है। परमेश्वर अपने स्वयं के स्वभाव को व्यक्त करने के लिए मनुष्य की भाषा का उपयोग करता है। …वह दिन आ जाएगा जब परमेश्वर को यहोवा, यीशु या मसीहा नहीं कहा जाएगा—वह केवल सृष्टिकर्ता कहलाएगा। उस समय, वे सभी नाम जो उसने पृथ्वी पर धारण किए थे समाप्त हो जाएँगे, क्योंकि पृथ्वी पर उसका कार्य समाप्त हो गया होगा, जिसके बाद उसका कोई नाम नहीं होगा। जब सभी चीजें सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन आ जाती हैं, तो उसे अत्यधिक उपयुक्त फिर भी अपूर्ण नाम से क्यों बुलाएँ? क्या तुम अभी भी परमेश्वर के नाम की तलाश करते हो? क्या तुम अभी भी कहने का साहस करते हो कि परमेश्वर को केवल यहोवा ही कहा जाता है? क्या तुम अभी भी कहने का साहस करते हो कि परमेश्वर को केवल यीशु कहा जा सकता है? क्या तुम परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिन्दा का पाप सहन कर सकते हो? तुम्हें पता होना चाहिए कि मूल रूप से परमेश्वर का का कोई नाम नहीं था। उसने केवल एक, या दो या कई नाम धारण किए क्योंकि उसके पास करने के लिए काम था और उसे मानव जाति का प्रबंधन करना था। चाहे उसे किसी भी नाम से बुलाया जाए, क्या यह उसी के द्वारा स्वतंत्र रूप से चुना नहीं जाता है? क्या इसे तय करने के लिए उसे तुम्हारी, एक प्राणी की, आवश्यकता है? जिस नाम से परमेश्वर को बुलाया जाता है वह उसके अनुसार है जिसे मनुष्य समझ सकता है और मनुष्य की भाषा के अनुसार है, किन्तु इस नाम को मनुष्य द्वारा समस्त विशेषताओं के साथ सारगर्भित रूप से व्यक्त नहीं किया जा सकता है। तुम केवल इतना ही कह सकते हो कि स्वर्ग में एक परमेश्वर है, कि वह परमेश्वर कहलाता है, कि वह महान सामर्थ्य वाला, अत्यधिक बुद्धिमान, अत्यधिक उच्च, अत्यधिक चमत्कारिक, अत्यधिक रहस्यमय, अत्यधिक सर्वशक्तिमान परमेश्वर स्वयं है, और तुम इससे अधिक नहीं कह सकते हो; तुम्हें बस इतना ही पता है। इस तरह, क्या यीशु का अकेला नाम परमेश्वर स्वयं का प्रतिनिधित्व कर सकता है? जब अंत के दिन आते हैं, हालाँकि यह अभी भी परमेश्वर ही है जो अपना कार्य करता है, तो भी उसके नाम को बदलना ही होगा, क्योंकि यह एक अलग युग है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
19. जब यीशु अपना कार्य करने के लिए आया, तो यह पवित्र आत्मा के निर्देशन में था; उसने वही किया जो पवित्र आत्मा चाहता था, और यह पुराने विधान के व्यवस्था के युग के अनुसार या यहोवा के कार्य के अनुसार नहीं था। यद्यपि जिस कार्य को करने के लिए यीशु आया, वह यहोवा की व्यवस्थाओं या यहोवा की आज्ञाओं का पालन करना नहीं था। उनके स्रोत एकही थे।जोकार्य यीशु ने किया उसने यीशु के नाम का प्रतिनिधित्व किया, और अनुग्रह के युग का प्रतिनिधित्व किया; यहोवा द्वारा किए गए कार्यने यहोवा का प्रतिनिधित्व किया, और व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व किया। उनका कार्य दो भिन्न-भिन्न युगों में एक ही पवित्रात्मा का कार्य था। यीशु ने जो कार्य किया वह केवल अनुग्रह के युग का प्रतिनिधित्व कर सकता था, और यहोवा ने जो कार्य किया वह केवल पुराने विधान के व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व कर सकता था। यहोवा ने केवल इस्राएल और मिस्र के लोगों, और इस्राएल से परे सभी राष्ट्रोंका मार्गदर्शन किया। नए विधानके अनुग्रह के युग में यीशु का कार्य यीशु के नाम के अधीन परमेश्वर का कार्य था जब उसने युग का मार्गदर्शन किया था। यदि तुम कहते हो कि यीशु का कार्य यहोवा के कार्य के आधार पर था, और उसने कोई नया कार्य नहीं किया, और उसने जो कुछ भी किया वह यहोवा के वचनों के अनुसार, यहोवा के कार्य और यशायाह की भविष्यवाणियों के अनुसार था, तो यीशु देहधारी बना परमेश्वर नहीं था। यदि उसने अपना कार्य इस तरह से आयोजित किया, तो वह व्यवस्था के युग का एक प्रेरित या कार्यकर्ता था।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
20. यदि यह ऐसा ही है जैसा कि तुम कहते हो, तो यीशु एक युगका प्रारंभ नहीं कर सकता था, और दूसरा कार्य नहीं कर सकता था। उसी तरह से, पवित्र आत्मा को मुख्य रूप से अपना कार्य यहोवा के माध्यम से अवश्य करना चाहिए, और यहोवा के माध्यम के अलावा, पवित्र आत्मा कोई नया कार्य नहीं कर सकता था। मनुष्य के लिए यीशु के कार्य को इस तरह से देखना गलत है। यदि मनुष्य का मानना है कि यीशु द्वारा किया गया कार्य यहोवा के वचनों और यशायाह की भविष्यवाणियों के अनुसार था, तो क्या यीशु देहधारी परमेश्वर था, या वह कोई नबी था? इस दृष्टिकोण के अनुसार, अनुग्रह का कोई युग नहीं था, और यीशु देहधारी परमेश्वर नहीं था, क्योंकि उसने जो कार्य किया वह अनुग्रह के युग का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था और केवल पुराने विधान के व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व कर सकता था।एक नया युग केवल तभी हो सका था जब यीशु नया कार्य करने के लिए आया, उसने नए युग की शुरुआत की,और उस कार्य को तोड़ कर बाहर आ गया जो इस्राएल में पहले किया गया था, और इस्राएल में यहोवा द्वारा किए गएकार्य के अनुसार अपना कार्य नहीं किया, उसके पुराने नियमों का पालन नहीं किया, और किसी भी विनियम का पालन नहीं किया, और वह नया कार्य किया जो उसे करना चाहिए था।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
21. युग का आरंभ करने के लिए परमेश्वर स्वयं आता है, और युग का अंत करने के लिए परमेश्वर स्वयं आता है। युग का आरंभ और युग का समापन करने का कार्य करने में मनुष्य असमर्थ है। यदि यीशु यहोवा का कार्य समाप्त नहीं करता, तो इससे यह साबित होता कि वह केवल एक आदमी था, और उसने परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं किया था। निश्चित रूप से क्योंकि यीशु आया और यहोवा के कार्य का समापन किया, अपना स्वयं का कार्य, नया कार्य, शुरू करके यहोवा के कार्य को आगे बढ़ाया, इससे यह साबित होता है कि यह एक नया युग था, और यह कि यीशु परमेश्वर स्वयं था। उसने कार्य के स्पष्ट रूप से भिन्न दो चरणों को किया। एक चरण मंदिर में किया गया था, और दूसरा मंदिर के बाहर आयोजित किया गया था। एक में व्यवस्था के अनुसार मनुष्यके जीवन का नेतृत्व करना था, और दूसरा पापबली चढ़ाना था। कार्य के ये दो चरण सुस्पष्टता से भिन्न थे; यह नए और पुराने युगों का विभाजन है, और यह कहने में कोई दोष नहीं है कि ये दो युग हैं! उनके कार्य का स्थान भिन्न था, और उनके कार्य की विषय-वस्तु भिन्न थी, और उनके कार्य का उद्देश्य भिन्न था। वैसे तो, उन्हें दो युगों: नए और पुराने विधानों में, अर्थात्, नए और पुराने युगों में विभाजित किया जा सकता है। … यद्यपि उन्हें दो भिन्न-भिन्न नामों से बुलाया गया था, किन्तु कार्य के दोनों चरण एक ही पवित्रात्मा द्वारा किए गए थे, और दूसरा कार्य पहले के क्रम में था। चूँकि नाम भिन्न था, और कार्य की विषय-वस्तु भिन्न थी, इसलिए युग अलग था। जब यहोवा आया, तो वह यहोवा का युग था, और जब यीशु आया, तो वह यीशु का युग था। और इसलिए, हर बार जब परमेश्वर आता है, तो उसे एक नाम से बुलाया जाता है, वह एक युग का प्रतिनिधित्व करता है, और वह एक नया मार्ग खोलता है; और प्रत्येक नए मार्ग पर, वह एक नया नाम अपनाता है, जो दर्शाता है कि परमेश्वर हमेशा नया है और कभी पुराना नहीं पड़ता है, और यह कि उसका कार्य हमेशा आगे बढ़ रहा है। इतिहास हमेशा आगे बढ़ रहा है, और परमेश्वर का कार्य हमेशा आगे बढ़ रहा है। उसकी छः-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना के अंत तक पहुँचने के लिए, इसे अवश्य आगे प्रगति करते रहना चाहिए। प्रत्येक दिन उसे नया कार्य अवश्य करना चाहिए, प्रत्येक वर्ष उसे नया कार्य अवश्य करना चाहिए; उसे नए मार्गों को अवश्य खोलना चाहिए, अवश्य नए युगों को आरंभ करना चाहिए, नया और अधिक बड़ा कार्य आरंभ करना चाहिए और नए नाम और नया कार्य लाना चाहिए।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
22. यदि, जैसा कि मनुष्य कल्पना करता है, यीशु आएगा, अंत के दिनों में अभी भी यीशु कहलाएगा, और अभी भी एक सफेद बादल पर, यीशु की छवि में मनुष्यों के बीच अवरोहण करेगा, तो क्या यह उसके कार्य की पुनरावृत्ति नहीं होगी? क्या पवित्र आत्मा पुराने से चिपका रहेगा? मनुष्य जो कुछ भी मानता है वे धारणाएँ हैं, और जो कुछ भी मनुष्य स्वीकार करता है, वह शाब्दिक अर्थ के अनुसार है, और उसकी कल्पना के अनुसार है; यह पवित्र आत्मा के कार्य के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, और परमेश्वर के अभिप्रायों के अनुरूप नहीं है। परमेश्वर ऐसा नहीं करेगा; परमेश्वर इतना नासमझ और मूर्ख नहीं है, और उसका कार्य इतना आसान नहीं है जितना कि तुम कल्पना करते हो। मनुष्य के द्वारा जो कुछ भी किया जाता और कल्पना की जाती है उसके अनुसार, यीशु का आगमन एक बादल पर होगा और वह तुम लोगों के बीच अवरोहण करेगा। तुम लोग उसे देखोगे, और एक बादल पर सवारी करते हुए, वह तुम लोगों को बताएगा कि वह यीशु है। तुम लोग उसके हाथों में कीलों के निशान भी देखोगे, और तुम लोगों को उसके यीशु होने का पता चल जाएगा। और वह तुम लोगों को फिर से बचा लेगा, और तुम लोगों का शक्तिशाली परमेश्वर होगा। वह तुम लोगों को बचाएगा, तुम लोगों को एक नया नाम प्रदान करेगा, और तुम लोगों में से प्रत्येक को एक सफ़ेद पत्थर देगा, जिसके बाद तुम लोगों को स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने और स्वर्ग में स्वीकार किए जाने की अनुमति दी जाएगी। क्या इस तरह के विश्वास मनुष्य की धारणाएँ नहीं हैं? क्या परमेश्वर मनुष्य की धारणाओं के अनुसार कार्य करता है, या क्या वह मनुष्य की धारणाओं के विपरीत कार्य करता है? क्या मनुष्य की सभी धारणाएँ शैतान से नहीं आती हैं? क्या मनुष्य का सब कुछ शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किए गया है? यदि परमेश्वर मनुष्य की धारणाओं के अनुसार अपना कार्य करता, तो क्या परमेश्वर शैतान नहीं बन गया होता? क्या वह प्राणियों के समान नहीं होता? चूँकि प्राणियों को शैतान द्वारा अब इतना भ्रष्ट किया जा चुका है कि मनुष्य शैतान का मूर्त-रूप बन गया है, इसलिए यदि परमेश्वर ने शैतान की बातों के अनुसार कार्य किया, तो क्या वह शैतान के साथ मिला हुआ नहीं होगा? मनुष्य कैसे परमेश्वर के कार्य की थाह पा सकता है? और इसलिए, परमेश्वर मनुष्य की धारणाओं के अनुसार कार्य नहीं करता है, और तुम्हारी कल्पना के अनुसार कार्य नहीं करता है। ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि परमेश्वर स्वयं ने कहा था कि उसका आगमन एक बादल पर होगा। यह सत्य है कि परमेश्वर ने स्वयं ऐसा कहा था, किन्तु क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर के रहस्य मनुष्यों के लिए अज्ञेय हो? क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर के वचनों को मनुष्य द्वारा समझाया नहीं जा सकता है? क्या तुम इतने निश्चित हो कि तुम्हें पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध और रोशन किया गया था? क्या पवित्र आत्मा ने तुम्हें इतने प्रत्यक्ष तरीके से दिखाया था? क्या ये पवित्र आत्मा के निर्देशन हैं, या क्या ये तुम्हारी धारणाएँ हैं? उसने कहा, "यह परमेश्वर स्वयं द्वारा कहा गया था।" किन्तु परमेश्वर के वचनों को मापने के लिए हम अपनी धारणाओं और मन का उपयोग नहीं कर सकते हैं। जहाँ तक यशायाह के वचनों की बात है, क्या तुम पूर्ण विश्वास के साथ उसके वचनों को समझा सकते हो? क्या तुम उसके वचनों को समझाने का साहस करते हो? जब तुम यशायाह के वचनों को समझाने का साहस नहीं करते हो, तो तुम यीशु के वचनों को समझाने का साहस कैसे करते हो? कौन अधिक उत्कृष्ट है, यीशु अथवा यशायाह? चूँकि उत्तर यीशु है, तो तुम यीशु द्वारा बोले गए वचनों को क्यों समझाते हो? क्या परमेश्वर अपने कार्य के बारे में तुम्हें अग्रिम में बताएगा? कोई प्राणी नहीं जान सकता है, यहाँ तक कि स्वर्ग के दूत भी नहीं, और न ही मनुष्य का पुत्र जान सकता है, अतः तुम कैसे जान सकते हो? मनुष्य में अत्यधिक कमी है। तुम लोगों के लिए अब जो महत्वपूर्ण है वह है कार्य के तीन चरणों को जानना।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
23. यहोवा के कार्य से ले कर यीशु के कार्य तक, और यीशु के कार्य से लेकर इस वर्तमान चरण तक, ये तीन चरण परमेश्वर के प्रबंधन की पूर्ण परिसीमा को आवृत करते हैं, और यह समस्त एक ही पवित्रात्मा का कार्य है। जब से उसने दुनिया बनाई, तब से परमेश्वर हमेशा मानव जाति का प्रबंधन करता आ रहा है। वही आरंभ और अंत है, वही प्रथम और अंतिम है, और वही एक है जो युग का आरंभ करता है और वही युग का अंत करता है। कार्य के तीन चरण, विभिन्न युगों और विभिन्न स्थानों में, निश्चित रूप से एक ही पवित्रात्मा द्वारा किए जाते हैं। वे सभी जो इन तीन चरणों को पृथक करते हैं, परमेश्वर का विरोध करते हैं। अब, तुम्हें अवश्य समझ जाना चाहिए कि प्रथम चरण से ले कर आज तक का समस्त कार्य एक परमेश्वर का कार्य, एक पवित्रात्मा का कार्य है, जिसके बारे में कोई संदेह नहीं है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
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