1. अनुग्रह के युग में, यूहन्ना ने यीशु का मार्ग प्रशस्त किया। वह स्वयं परमेश्वर का कार्य नहीं कर सकता था और उसने मात्र मनुष्य का कर्तव्य पूरा किया था। यद्यपि यूहन्ना प्रभु का अग्रदूत था, फिर भी वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था; वह आत्मा के द्वारा उपयोग किया गया मात्र एक मनुष्य था। यीशु के बपतिस्मा के बाद "पवित्र आत्मा कबूतर के समान उस पर उतरा।" तब उसने अपना काम आरम्भ किया, अर्थात्, उसने मसीह की सेवकाई करना प्रारम्भ किया। इसीलिए उसने परमेश्वर की पहचान को अपनाया, क्योंकि वह परमेश्वर से आया था। इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि इससे पहले उसका विश्वास कैसा था—कदाचित् कभी-कभी यह दुर्बल था, या कभी-कभी यह मज़बूत था—अपनी सेवकाई को करने से पहले यह सब उसका सामान्य मानव जीवन था। उसका बपतिस्मा (अभिषेक) होने के पश्चात्, उसके पास तुरन्त ही परमेश्वर की सामर्थ्य और महिमा थी, और इस प्रकार उसने अपनी सेवकाई आरंभ की। वह चिन्ह और अद्भुत काम कर सकता था, चमत्कार कर सकता था, उसके पास सामर्थ्य और अधिकार था, क्योंकि वह सीधे स्वयं परमेश्वर की ओर से काम करता था; उसने पवित्र आत्मा के बदले में उसका काम किया और पवित्रात्मा की आवाज़ को व्यक्त किया; इसलिए वह स्वयं परमेश्वर था। यह निर्विवादित है। पवित्र आत्मा के द्वारा यूहन्ना का उपयोग किया गया था। वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था, और परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करना उसके लिए सम्भव नहीं था। यदि उसने ऐसा करने की इच्छा की होती, तो पवित्र आत्मा ने इसकी अनुमति नहीं दी होती, क्योंकि वह उस काम को नहीं कर सकता था जिसे परमेश्वर ने स्वयं सम्पन्न करने का इरादा किया था। कदाचित् उसमें बहुत कुछ ऐसा था जो मनुष्यों की इच्छा का था, या उसमें कुछ विसामान्य था; वह किसी भी परिस्थिति में प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता था। उसकी अशुद्धि और ग़लतियाँ केवल उसका ही प्रतिनिधित्व करती थीं, किन्तु उसका काम पवित्र आत्मा का प्रतिनिधि था। फिर भी, तुम नहीं कह सकते हो कि उसका सर्वस्व परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता था। क्या उसकी विसामान्यता और ग़लती परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकती है? मनुष्य का प्रतिनिधित्व करने में त्रुटि होना सामान्य है, परन्तु यदि परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने में उसमें विसामान्यता होती है, तो क्या वह परमेश्वर के प्रति अनादर नहीं होगा? क्या वह पवित्र आत्मा के विरुद्ध ईशनिंदा नहीं होगी? पवित्र आत्मा मनुष्य को इच्छानुसार परमेश्वर के स्थान पर खड़े होने की अनुमति नहीं देता है, भले ही दूसरों के द्वारा उसे बड़ा ठहराया गया हो। यदि वह परमेश्वर नहीं है, तो वह अंत में खड़े रहने में असमर्थ होगा। पवित्र आत्मा मनुष्य को जैसा मनुष्य चाहे वैसे परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने की अनुमति नहीं देता है! उदाहरण के लिए, पवित्र आत्मा ने यूहन्ना की गवाही दी और उसे यीशु के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाला व्यक्ति भी प्रकट किया, परन्तु पवित्र आत्मा के द्वारा उसमें किए गए कार्य को अच्छी तरह से मापा गया था। यूहन्ना से कुल इतना कहा गया था कि वह यीशु के लिए मार्ग तैयार करने वाला बने, उसके लिए मार्ग तैयार करे। कहने का अभिप्राय है, कि पवित्र आत्मा ने केवल मार्ग बनाने में उसके कार्य का समर्थन किया था और केवल इसी प्रकार के कार्य को करने की उसे अनुमति दी, अन्य कोई कार्य नहीं। यूहन्ना ने एलिय्याह का प्रतिनिधित्व किया था, वह भविष्यद्वक्ता जिसने मार्ग प्रशस्त किया था। पवित्र आत्मा के द्वारा इसका समर्थन किया गया था; जब तक उसका कार्य मार्ग प्रशस्त करने का था, तब तक पवित्र आत्मा ने इसका समर्थन किया। हालाँक, यदि उसने दावा किया होता कि वह स्वयं परमेश्वर है और छुटकारे के कार्य को पूरा करने के लिए आया है, तो पवित्र आत्मा अवश्य उसे अनुशासित करता। यूहन्ना का काम चाहे जितना भी बड़ा था, और चाहे पवित्र आत्मा ने उसे समर्थन दिया था, फिर भी उसका काम सीमाओं के अंतर्गत रहा था। यह वास्तव में सत्य है कि पवित्र आत्मा के द्वारा उसके कार्य का समर्थन किया गया था, परन्तु उस समय उसे जो सामर्थ्य दी गई थी वह केवल उसके मार्ग तैयार करने तक ही सीमित थी। वह अन्य कोई काम बिल्कुल नहीं कर सकता था, क्योंकि वह सिर्फ यूहन्ना था जिसने मार्ग प्रशस्त किया था, और वह यीशु नहीं था। इसलिए, पवित्र आत्मा की गवाही मुख्य है, किन्तु वह कार्य जिसको करने के लिए पवित्र आत्मा के द्वारा मनुष्य को अनुमति दी गई है वह और भी अधिक महत्वपूर्ण है।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (1)" से
2. कुछ ऐसे लोग हैं जो दुष्टात्माओं के द्वारा ग्रसित हैं और लगातार चिल्लाते रहते हैं, "मैं ईश्वर हूँ!" फिर भी अंत में, वे खड़े नहीं रह सकते हैं, क्योंकि वे गलत प्राणी की ओर से काम करते हैं। वे शैतान का प्रतिनिधित्व करते हैं और पवित्र आत्मा उन पर कोई ध्यान नहीं देता है। तुम अपने आपको कितना भी बड़ा ठहराओ या तुम कितनी भी ताकत से चिल्लाओ, तुम अभी भी एक सृजित प्राणी ही हो और एक ऐसे प्राणी हो जो शैतान से सम्बन्धित है। मैं कभी नहीं चिल्लाता हूँ, कि मैं ईश्वर हूँ, मैं परमेश्वर का प्रिय पुत्र हूँ! परन्तु जो कार्य मैं करता हूँ वह परमेश्वर का कार्य है। क्या मुझे चिल्लाने की आवश्यकता है? बड़ा ठहराने की कोई आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर अपना काम स्वयं करता है और उसे मनुष्य से कोई आवश्यकता नहीं है कि वह उसे हैसियत या सम्मानसूचक पदवी प्रदान करें, और उसकी पहचान और हैसियत को दर्शाने के लिए उसका काम ही पर्याप्त है। उसके बपतिस्मा से पहले, क्या यीशु स्वयं परमेश्वर नहीं था? क्या वह परमेश्वर का देहधारी देह नहीं था? निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि केवल उसके लिए गवाही दिए जाने के पश्चात् ही वह परमेश्वर का इकलौता पुत्र बना गया? क्या उसके द्वारा काम आरम्भ करने से बहुत पहले ही यीशु नाम का कोई व्यक्ति नहीं था? तुम नए मार्ग नहीं ला सकते हो या पवित्रात्मा का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हो। तुम पवित्र आत्मा के कार्य को या उन वचनों को व्यक्त नहीं कर सकते हो जिन्हें वह कहता है। तुम परमेश्वर स्वयं के या पवित्रात्मा के कार्य को नहीं कर सकते हो। तुम परमेश्वर की बुद्धि, अद्भुत काम, और अगाधता को, या उस सम्पूर्ण स्वभाव को व्यक्त नहीं कर सकते हो जिसके द्वारा परमेश्वर मनुष्य को ताड़ना देता है। अतः परमेश्वर होने के तुम्हारे बार-बार के दावों से कोई फर्क नहीं पड़ता है; तुम्हारे पास सिर्फ़ नाम है और सार में से कुछ भी नहीं है। परमेश्वर स्वयं आ गया है, किन्तु कोई भी उसे नहीं पहचाता है, फिर भी वह अपना काम जारी रखता है और पवित्र आत्मा के प्रतिनिधित्व में ऐसा ही करता है। चाहे तुम उसे मनुष्य कहो या परमेश्वर, प्रभु कहो या मसीह, या उसे बहन कहो, सब सही है। परन्तु जिस कार्य को वह करता है वह पवित्रात्मा का है और स्वयं परमेश्वर के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है। वह उस नाम के बारे में परवाह नहीं करता है जिसके द्वारा मनुष्य उसे पुकारते है। क्या वह नाम उसके काम का निर्धारण कर सकता है? इस बात की परवाह किए बिना कि तुम उसे क्या कहते हो, परमेश्वर के दृष्टिकोण से, वह परमेश्वर के आत्मा का देहधारी देह है; वह पवित्रात्मा का प्रतिनिधित्व करता है और उसके द्वारा अनुमोदित है। तुम एक नए युग के लिए मार्ग नहीं बना सकते हो, और तुम पुराने युग का समापन नहीं कर सकते हो और एक नए युग का सूत्रपात या नया कार्य नहीं कर सकते हो। इसलिए, तुम्हें परमेश्वर नहीं कहा जा सकता है!
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (1)" से
3. यहाँ तक कि कोई मनुष्य जिसे पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया जाता है वह भी परमेश्वर स्वयं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। और न केवल यह व्यक्ति परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है, बल्कि उसका काम भी सीधे तौर पर परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। करने का अर्थ है, कि मनुष्य के अनुभव को सीधे तौर पर परमेश्वर के प्रबंधन के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता है, और यह परमेश्वर के प्रबंधन का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। वह समस्त कार्य जिसे परमेश्वर स्वयं करता है वह ऐसा कार्य है जिसे वह अपनी स्वयं की प्रबंधन योजना में करने का इरादा करता है और बड़े प्रबंधन से संबंधित है। मनुष्य (पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया गया मनुष्य) के द्वारा किया गया कार्य उसके व्यक्तिगत अनुभव की आपूर्ति करता है। वह उस मार्ग से अनुभव का एक नया मार्ग पाता है जिस पर उससे पहले के लोग चले थे और पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के अधीन अपने भाईयों और बहनों की अगुवाई करता है। जो कुछ ये लोग प्रदान करते हैं वह उनका व्यक्तिगत अनुभव या आध्यात्मिक मनुष्यों की आध्यात्मिक रचनाएँ हैं। यद्यपि पवित्र आत्मा के द्वारा उनका उपयोग किया जाता है, फिर भी ऐसे मनुष्यों का कार्य छ:-हज़ार-वर्षों की योजना के बड़े प्रबंधन कार्य से असम्बद्ध है। उन्हें सिर्फ तब तक पवित्र आत्मा की मुख्यधारा में लोगों की अगुवाई करने के लिए विभिन्न अवधियों में पवित्र आत्मा के द्वारा उभारा गया है जब तक कि वे अपने कार्य को पूरा न कर लें या उनकी ज़िन्दगियों का अंत न हो जाए। जिस कार्य को वे करते हैं वह केवल परमेश्वर स्वयं के लिए एक उचित मार्ग तैयार करने के लिए है या पृथ्वी पर परमेश्वर स्वयं की प्रबंधन योजना में एक अंश को निरन्तर जारी रखने के लिए है। ऐसे मनुष्य उसके प्रबंधन में बड़े-बड़े कार्य करने में असमर्थ होते हैं, और वे नए मार्गों की शुरुआत नहीं कर सकते हैं, और वे पूर्व युग के परमेश्वर के सभी कार्यों का समापन तो बिलकुल भी नहीं कर सकते हैं। इसलिए, जिस कार्य को वे करते हैं वह केवल एक सृजित प्राणी का प्रतिनिधित्व करता है जो अपने कार्यों को क्रियान्वित कर रहा है और स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है जो अपनी सेवकाई को कार्यान्वित कर रहा हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिस कार्य को वे करते हैं वह परमेश्वर स्वयं के द्वारा किए जाने वाले कार्य के असदृश है। एक नए युग के सूत्रपात का कार्य परमेश्वर के स्थान पर मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता है। इसे परमेश्वर स्वयं के अलावा किसी अन्य के द्वारा नहीं किया जा सकता है। मनुष्य के द्वारा किया गया समस्त कार्य सृजित प्राणी के रूप में उसके कर्तव्य का निर्वहन है और तब किया जाता है जब पवित्र आत्मा के द्वारा प्रेरित या प्रबुद्ध किया जाता है। ऐसे मनुष्य द्वारा प्रदान किया जाने वाला मार्गदर्शन यह होता है कि मनुष्य के दैनिक जीवन में किस प्रकार अभ्यास किया जाए और मनुष्य को किस प्रकार परमेश्वर की इच्छा के साथ समरसता में कार्य करना चाहिए। मनुष्य का कार्य न तो परमेश्वर की प्रबंधन योजना को सम्मिलित करता है और न ही पवित्रात्मा के कार्य का प्रतिनिधित्व करता है....। इसलिए, चूँकि पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों का कार्य परमेश्वर स्वयं के द्वारा किए गए कार्य के असदृश है, इसलिए उनकी पहचान और वे जिनकी ओर से कार्य करते हैं वे भी उसी तरह से भिन्न हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि पवित्र आत्मा जिस कार्य को करने का इरादा करता है वह भिन्न है, फलस्वरूप कार्य करने वाले सभी को अलग-अलग पहचानें और हैसियतें प्रदान की जाती है। पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए लोग भी कुछ कार्य कर सकते हैं जो नया हो और वे पूर्व युग में किये गए कुछ कार्य को हटा भी सकते हैं, किन्तु उनका कार्य नए युग में परमेश्वर के स्वभाव और इच्छा को व्यक्त नहीं कर सकता है। वे केवल पूर्व युग के कार्य को हटाने के लिए कार्य करते हैं, और सीधे तौर पर परमेश्वर स्वयं के स्वभाव का प्रतिनिधित्व करने के लिए कोई नया कार्य नहीं करते हैं। इस प्रकार, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे पुरानी पड़ चुके कितने अभ्यासों का उन्मूलन करते हैं या वे नए अभ्यासों को आरंभ करते हैं, वे तब भी मनुष्य और सृजित प्राणियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। फिर भी, जब परमेश्वर स्वयं कार्य को करता है, तो भी, वह प्राचीन युग के अभ्यासों के उन्मूलन की खुलकर घोषणा नहीं करता है या सीधे तौर पर नए युग की शुरुआत की घोषणा नहीं करता है। वह अपने कार्य में प्रत्यक्ष और स्पष्ट है। वह उस कार्य को करने में निष्कपट है जिसका उसने इरादा किया है; अर्थात्, वह उस कार्य को सीधे तौर पर व्यक्त करता है जिसे उसने घटित किया है, वह सीधे तौर पर अपना कार्य करता है जैसा उसने मूलतः इरादा किया था, और अपने अस्तित्व एवं स्वभाव को व्यक्त करता है। जैसा मनुष्य इसे देखता है, उसका स्वभाव और उसी प्रकार उसका कार्य भी बीते युगों के लोगों के असदृश है। हालाँकि, परमेश्वर स्वयं के दृष्टिकोण से, यह मात्र उसके कार्य की निरन्तरता और आगे का विकास है। जब परमेश्वर स्वयं कार्य करता है, तो वह अपने वचन को व्यक्त करता है और सीधे तौर पर नया कार्य लाता है। इसके विपरीत, जब मनुष्य काम करता है, तो यह विचार-विमर्श एवं अध्ययन के माध्यम से होता है, या यह दूसरों के कार्य की बुनियाद पर निर्मित ज्ञान का विकास और अभ्यास का व्यवस्थापन है। कहने का अर्थ है, कि मनुष्य के द्वारा किए गए कार्य का सार प्रथा को बनाए रखना और "नए जूतों में पुराने मार्ग पर चलना" है। इसका अर्थ है कि यहाँ तक कि पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों द्वारा चला गया मार्ग भी उस पर बनाया गया है जिसे स्वयं परमेश्वर के द्वारा खोला गया था। अतः मनुष्य आख़िरकर मनुष्य है, और परमेश्वर परमेश्वर है।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (1)" से
4. यूहन्ना प्रतिज्ञा के द्वारा जन्मा था, और उसका नाम स्वर्गदूत के द्वारा दिया गया था। उस समय, कुछ लोग उसके पिता जकरयाह के नाम पर उसका नाम रखना चाहते थे, परन्तु उसकी माँ ने साहस के साथ कहा, "इस बालक को उस नाम से नहीं पुकारा जा सकता है। उसे यूहन्ना के नाम से पुकारा जाना चाहिए।" यह सब पवित्र आत्मा के द्वारा निर्देशित किया गया था। तो यूहन्ना को परमेश्वर क्यों नहीं कहा गया? यीशु का नाम भी पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन से था, और उसका जन्म पवित्र आत्मा से, और पवित्र आत्मा की प्रतिज्ञा से हुआ था। यीशु परमेश्वर, मसीह, और मनुष्य का पुत्र था। यूहन्ना का कार्य भी महान था, किन्तु उसे परमेश्वर क्यों नहीं कहा गया? यीशु के द्वारा किए गए कार्य और यूहन्ना के द्वारा किए गए कार्य के बीच ठीक-ठीक क्या अंतर था? क्या यही एकमात्र कारण था कि यूहन्ना वह व्यक्ति था जिसने यीशु के लिए मार्ग प्रशस्त किया था? या इसलिए क्योंकि इसे परमेश्वर के द्वारा पहले से ही नियत कर दिया गया था? यद्यपि यूहन्ना ने भी कहा था, "मन फिराओ, क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट है," और स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार का भी उपदेश दिया, उसका कार्य गहरा नहीं था और उसने मात्र एक आरम्भ का गठन किया था। इसके विपरीत, यीशु ने एक नए युग का सूत्रपात किया, और पुराने युग का अंत किया, किन्तु उसने पुराने विधान की व्यवस्था को भी पूरा किया। जो कार्य उसने किया था वह यूहन्ना की अपेक्षा अधिक महान था, और वह समस्त मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए आया—उसने कार्य की इस अवस्था को किया। यूहन्ना ने बस मार्ग तैयार किया। यद्यपि उसका कार्य महान था, उसके वचन बहुत थे, और वे चेले जो उसका अनुसरण करते थे वे अनगिनत थे, फिर भी उसके कार्य ने लोगों तक एक नई शुरुआत तक पहुँचाने से बढ़कर और कुछ नहीं किया। न ही कभी लोगों ने उससे जीवन, मार्ग, या गहरी सच्चाईयों को प्राप्त किया, और न ही उन्होंने उसके जरिए परमेश्वर की इच्छा की समझ को प्राप्त किया। यूहन्ना एक बहुत बड़ा भविष्यद्वक्ता (एलिय्याह) था जिसने यीशु के कार्य के लिए नई भूमि की खोज करने में पथ प्रदर्शन किया और चुने हुओं को तैयार किया; वह अनुग्रह के युग का अग्रदूत था। ऐसे मुद्दों को साधारण तौर पर उनके सामान्य मानवीय प्रकटन को देखकर नहीं जाना जा सकता है। विशेष रूप से, यूहन्ना ने भी बहुत बड़ा काम किया; इसके अतिरिक्त, वह पवित्र आत्मा की प्रतिज्ञा के द्वारा जन्मा था, और उसके कार्य को पवित्र आत्मा के द्वारा समर्थन दिया गया था। वैसे तो, केवल उनके कार्य के माध्यम से उनकी अपनी-अपनी अपनी पहचान के बीच अन्तर किया जा सकता है, क्योंकि किसी मनुष्य का बाहरी प्रकटन उसके सार के बारे में नहीं बताता है, और मनुष्य पवित्र आत्मा की सच्ची गवाही को सुनिश्चित करने में असमर्थ है। यूहन्ना के द्वारा किया गया कार्य और यीशु के द्वारा किया गया कार्य एक समान नहीं थे और अलग-अलग प्रकृतियों के थे। इसी से यह निर्धारित करना चाहिए कि वह परमेश्वर है या नहीं। यीशु का कार्य शुरूआत करना, जारी रखना, समापन करना और सम्पन्न करना था। इनमें से प्रत्येक कदम यीशु के द्वारा सम्पन्न किया गया था, जबकि यूहन्ना का कार्य शुरुआत से अधिक और कुछ नहीं था। आरम्भ में, यीशु ने सुसमाचार को फैलाया और पश्चाताप के मार्ग का उपदेश दिया, फिर वह मनुष्य को बपतिस्मा देने लगा, बीमारियों को चंगा करने लगा, और दुष्टात्माओं को निकालने लगा। अंत में, उसने मानवजाति को पाप से छुटकारा दिया और सम्पूर्ण युग के अपने कार्य को पूरा किया। उसने सभी स्थानों में मनुष्य को स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार का उपदेश दिया और उसे फैलाया। यूहन्ना के साथ भी ऐसा ही था, इस अन्तर के साथ कि यीशु ने एक नए युग का सूत्रपात किया और मनुष्य के लिए अनुग्रह का युग लाया। उसके मुँह से वह वचन निकला जिसका मनुष्य को अभ्यास करना चाहिए और वह मार्ग निकला जिसका मनुष्य को अनुग्रह के युग में अनुसरण करना चाहिए, और अंत में, उसने छुटकारे के कार्य को पूरा किया। ऐसा कार्य यूहन्ना के द्वारा कभी सम्पन्न नहीं किया जा सका। और इसलिए, यह यीशु ही था जिसने परमेश्वर स्वयं के कार्य को किया, और यह वही है जो परमेश्वर स्वयं है और जो प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करता है।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (1)" से
5. यदि तुम यह नहीं पहचानने हो कि आज के दिन के कार्य का चरण स्वयं परमेश्वर का है, तो यह इसलिए है क्योंकि तुम्हारे पास दर्शन का अभाव है। तब भी, तुम कार्य के इस चरण का इनकार नहीं कर सकते हो; इसे पहचानने में तुम्हारी असफलता यह साबित नहीं करती है कि पवित्र आत्मा कार्य नहीं कर रहा है या यह कि उसका कार्य ग़लत है। यहाँ तक कि कुछ लोग वर्तमान समय के काम को बाइबल के अंतर्गत यीशु के काम के विरुद्ध जाँचते हैं, और कार्य के इस चरण का इनकार करने के लिए किन्हीं भी विसंगतियों का उपयोग करते हैं। क्या यह किसी अंधे व्यक्ति का काम नहीं है? वह सब जो बाइबिल में लिखा है वह सीमित है और परमेश्वर के सम्पूर्ण कार्य का प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ है। सुसमाचार की चारों पुस्तकों में कुल मिलाकर एक सौ से भी कम अध्याय हैं जिनमें एक सीमित संख्या में घटनाएँ लिखी हैं, जैसे यीशु का अंजीर के वृक्ष को शाप देना, पतरस का तीन बार प्रभु का इनकार करना, यीशु का सलीब पर चढ़ने और पुनरुत्थान के बाद चेलों को दर्शन देना, उपवास के बारे में शिक्षा देना, प्रार्थना के बारे में शिक्षा देना, तलाक के बारे में शिक्षा देना, यीशु का जन्म और वंशावली, यीशु द्वारा चेलों की नियुक्ति, इत्यादि। ये बस कुछ रचनाएँ ही हैं, फिर भी मनुष्य इन्हें ख़ज़ाने के रूप में महत्व देता है, यहाँ तक कि उनके विरुद्ध आज के काम को भी सत्यापित करता है। वे यहाँ तक कि यह भी विश्वास करते हैं कि यीशु ने अपने जन्म के बाद के समय में सिर्फ इतना ही किया। यह ऐसा है मानो कि वे विश्वास करते हैं कि परमेश्वर केवल इतना ही कर सकता है, यह कि और अधिक कार्य नहीं हो सकता है। क्या यह हास्यास्पद नहीं है?
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (1)" से
6. लोग विश्वास करते हैं कि परमेश्वर जो देह में आता है निश्चित रूप से मनुष्य की तरह नहीं जीता है; वे मानते हैं कि वह अपने दाँतों को साफ किए बिना या अपने चेहरे को धोए बिना ही स्वच्छ रहता है, क्योंकि वह एक पवित्र व्यक्ति है। क्या ये सब पूर्ण रूप से मनुष्य की धारणाएँ नहीं हैं? बाइबल एक मनुष्य के रूप में यीशु के जीवन को लिखित रूप में दर्ज नहीं करती है, केवल उसके कार्य को दर्ज करती है, किन्तु इससे यह साबित नहीं होता कि उसके पास एक सामान्य मानवता नहीं थी या यह कि उसने 30 वर्ष की आयु से पहले सामान्य मानव जीवन नहीं जीया था। उसने आधिकारिक रूप से 29 वर्ष की आयु में अपने कार्य को आरम्भ किया, किन्तु उस आयु से पहले तुम मनुष्य के रूप में उसके सम्पूर्ण जीवन का इनकार नहीं कर सकते हो। बाइबल ने मात्र उस चरण को अपने लिखित दस्तावेज़ों से हटा दिया; क्योंकि यह एक साधारण मनुष्य के रूप में उसका जीवन था और उसके दिव्य कार्य का चरण नहीं था, इसलिए इसको लिखे जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि यीशु के बपतिस्मा से पहले, पवित्र आत्मा ने सीधे अपना कार्य नहीं किया, परन्तु उसने मात्र एक साधारण मनुष्य के रूप में अपने जीवन को उस दिन तक बनाए रखा था जब यीशु के लिए अपनी सेवकाई करना निश्चित था। यद्यपि वह देहधारी परमेश्वर था, फिर वह परिपक्व होने की प्रक्रिया से वैसे ही गुज़रा था जैसे एक आम मानव गुज़रता है। इस प्रक्रिया को बाइबल से हटा दिया गया था। क्योंकि यह मनुष्य के जीवन की उन्नति में कोई बड़ी सहायता प्रदान नहीं कर सकता था, इसलिए इसे हटा दिया गया था। उसके बपतिस्मा से पहले एक चरण था जिसमें वह अप्रकट बना रहा, और न ही उसने चिन्ह और अद्भुत काम किए। केवल यीशु के बपतिस्मा के बाद ही उसने मानवजाति के छुटकारे के समस्त कार्य को करना आरम्भ किया, ऐसा कार्य जो अनुग्रह, सत्य, और प्रेम, और करुणा से प्रचुर मात्रा में भरपूर था। इस कार्य का आरम्भ अनुग्रह के युग का आरम्भ भी था; इसी कारण से, इसे लिखा गया और वर्तमान तक पहुँचाया गया।... यीशु के अपनी सेवकाई करने से पहले, या जैसा कि बाइबल में कहा गया है, उसके ऊपर पवित्र आत्मा के उतरने से पहले, यीशु सिर्फ एक साधारण मनुष्य था और थोड़ी सी भी अलौकिकता धारण नहीं करता था। पवित्र आत्मा के उतरने पर, अर्थात्, जब उसने अपनी सेवकाई को करना आरम्भ किया, तब वह अलौकिकता से व्याप्त हो गया। वैसे तो, लोग यह धारणा रखते हैं कि परमेश्वर का देहधारी देह कोई साधारण मनुष्य नहीं था और ग़लती से यह मानते हैं कि देहधारी परमेश्वर में मानवता नहीं थी। निश्चित रूप से, वह कार्य और वह सब कुछ जिसे मनुष्य परमेश्वर के बारे में पृथ्वी पर देखता है वह अलौकिक है। जो कुछ तुम अपनी आँखों से देखते हो और जो कुछ तुम अपने कानों से सुनते हो वे सब अलौकिक हैं, क्योंकि उसका कार्य और उसके वचन मनुष्य के लिए अबोधगम्य और अप्राप्य है। यदि स्वर्ग की किसी चीज़ को पृथ्वी पर लाया जाता है, तो वह अलौकिक होने के सिवाए कोई अन्य चीज़ कैसे हो सकती है? स्वर्ग के राज्य के रहस्यों को पृथ्वी पर लाया गया था, ऐसे रहस्य जो मनुष्य के लिए अबोधगम्य और अगाध थे, जो बहुत चमत्कारिक और बुद्धिमत्तापूर्ण हैं—क्या वे सब अलौकिक नहीं थे? हालाँकि, तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वे कितने अलौकिक हैं, उन्हें उसकी सामान्य मानवता में किया गया था। परमेश्वर के देहधारी देह में मानवता है, अन्यथा, वह परमेश्वर का देहधारी देह नहीं होता।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (1)" से
स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
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