1. यूहन्ना ने, यीशु के बपतिस्मा के सात वर्ष पहले से स्वर्गराज्य के सुसमाचार को फैलाना शुरू कर दिया था। लोगों को उसका किया गया काम यीशु के अनुवर्ती काम से ऊँचा लगता था, फिर भी, वह था तो केवल एक नबी ही। वे मंदिर के भीतर बात या काम नहीं करते था, बल्कि इसके बाहर के कस्बों और गांवों में ऐसा करते था। उसने, निश्चय ही यह यहूदी राष्ट्र के बीच किया, विशेष रूप से उन के बीच जो गरीब थे। यूहन्ना, समाज की ऊपरी श्रेणी के लोगों के संपर्क में कम ही आया, वो केवल यहूदिया के आम लोगों के बीच सुसमाचार फैलाता रहा ताकि प्रभु यीशु के लिए उचित लोगों को तैयार कर सके, और उसके लिए काम करने की उपयुक्त जगह तैयार कर सके। मार्ग प्रशस्त करने के लिए, यूहन्ना जैसे एक नबी के होने के कारण, प्रभु यीशु आने के साथ ही सीधे अपने क्रूस के रास्ते पर चलने में सक्षम हुआ।जब परमेश्वर ने अपना काम करने के लिए शरीर धारण किया, तो उसे लोगों को चुनने का काम करने की ज़रूरत नहीं थी, और व्यक्तिगत रूप से लोगों को या काम करने की जगह तलाशने की आवश्यकता नहीं थी। जब वह आया तो उसने ऐसा काम नहीं किया; उसके आने के पहले ही उचित व्यक्ति ने तैयारी कर दी थी। … यूहन्ना ने सात सालों के लिए काम किया, अर्थात उसने सात साल तक सुसमाचार फैलाया। अपने काम के दौरान, यूहन्ना ने बहुत से चमत्कार नहीं किये, क्योंकि उसका काम मार्ग प्रशस्त करना था, यह तैयारी का काम था। अन्य सभी कामों का, यीशु जो काम करने वाला था, उनसे उसका कोई संबंध नहीं था; उसने केवल मनुष्य को अपने पापों को स्वीकारने और पश्चाताप करने के लिए कहा, और लोगों को बपतिस्मा दिया ताकि वे बचाए जा सकें। यद्यपि उसने नया काम किया, और ऐसा मार्ग खोला जिस पर मनुष्य पहले कभी नहीं चला था, फिर भी उसने केवल यीशु के लिए मार्ग प्रशस्त किया। वह केवल एक नबी था जिन्होंने तैयारी का काम किया, और वे यीशु का काम करने में असमर्थ था। यद्यपि यीशु स्वर्गराज्य के सुसमाचार का प्रचार करने वाला पहला व्यक्ति नहीं था, और यद्यपि वह उस रास्ते पर चलता रहा जो कि यूहन्ना ने शुरू किया था, फिर भी ऐसा कोई और नहीं था जो उसका काम कर सके, और यह यूहन्ना के काम से ऊँचा था। यीशु अपना खुद का रास्ता तैयार नहीं कर सकता था; उसका काम सीधे परमेश्वर की ओर से किया गया था। और इसलिए, इससे फर्क नहीं पड़ता कि यूहन्ना ने कितने साल काम किया, वो फिर भी एक नबी था, और फिर भी वह व्यक्ति था जिसने मार्ग प्रशस्त किया। यीशु द्वारा किया गया तीन साल का काम, यूहन्ना के सात साल के काम को मात देता था, क्योंकि उनके काम का सत्व समान नहीं था।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के काम का दर्शन (1)" से
2. उस समय, यीशु के काम का कुछ हिस्सा पुराने विधान के अनुसार था और साथ ही मूसा के नियमों और व्यवस्था के युग में यहोवा के शब्दों के अनुसार भी था। यीशु ने अपने काम के कुछ हिस्से को करने में इन सबका प्रयोग किया। उसने लोगों को उपदेश दिया और उन्हें यहूदियों के मंदिरों में पढ़ाया, और उसने पुराने विधान में नबियों की भविष्यवाणियों को काम में लाया ताकि वह उन फरीसियों को, जो उससे बैर करते थे, फटकार सके, और उनकी अवज्ञा को प्रकट करने के लिए शास्त्रों के शब्दों का इस्तेमाल किया और इस तरह उनकी निंदा की। क्योंकि यीशु ने जो किया वे उसे तुच्छ मानते थे; विशेष रूप से, यीशु के बहुत से काम शास्त्रों के कानून के अनुसार नहीं थे, और इसके अलावा, जो उसने सिखाया वह उनके अपने शब्दों से अधिक ऊँचा था, और शास्त्रों में नबियों ने भविष्यवाणी में जो बताया था उससे भी कहीं अधिक ऊँचा था। यीशु का काम केवल मनुष्य के उद्धार और क्रूसित होने के लिए था। इस प्रकार, किसी भी व्यक्ति को जीतने के लिए उसे अधिक शब्द कहने की कोई जरूरत नहीं थी। उसने जो कुछ भी सिखाया उसमें से काफी कुछ शास्त्रों के शब्दों से लिया गया था, और भले ही उसका काम शास्त्रों से आगे नहीं बढ़ा, फिर भी वह क्रूसित होने के काम को पूरा कर पाया। उसका काम शब्द का नहीं था, न ही मानव जाति पर विजय पाने के लिए था, बल्कि मानव जाति का उद्धार करने के लिए था। उसने मानव जाति के लिए बस पापबलि का काम किया, और मानव जाति के लिए शब्द के स्रोत के समान कार्य नहीं किया। उसने गैर यहूदियों का काम नहीं किया, जो कि मनुष्य को जीतने का काम था, बल्कि क्रूसित होने का काम किया, वह काम जो उन लोगों के बीच किया गया था जो एक परमेश्वर के होने में विश्वास करते थे। यद्यपि उसका काम शास्त्रों की बुनियाद पर किया गया था, और उसने पुराने नबियों की भविष्यवाणी का इस्तेमाल फरीसियों की निंदा करने के लिए किया, यह क्रूसित होने के काम को पूरा करने के लिए पर्याप्त था। यदि अब भी आज का काम, शास्त्रों में पुराने नबियों की भविष्यवाणियों की बुनियाद पर किया जाता, तो तुम लोगों को जीतना नामुमकिन होता, क्योंकि पुराने विधान में तुम चीनियों की अवज्ञा और पापों का कोई भी लेखा नहीं है, वहां तुम लोगों के पापों का कोई इतिहास नहीं है। और इसलिए, अगर यह काम बाइबल में अब भी होता, तो तुम कभी भी प्रतिफल न देते। बाइबल में इस्राएलियों का एक सीमित इतिहास दर्ज है, जो कि यह स्थापित करने में असमर्थ है कि तुम लोग बुरे हो या अच्छे हैं, या तुम लोगों का न्याय करने में असमर्थ है। कल्पना करो कि मुझे तुम लोगों का न्याय इस्राएलियों के इतिहास के अनुसार करना होता-क्या तुम लोग मेरा वैसे ही अनुसरण करते जैसा कि आज करते हो? क्या तुम लोग जानते हो कि तुम लोग कितने जिद्दी हो? अगर इस चरण के दौरान कोई शब्द न बोले जायें, तो विजय का काम पूरा करना असंभव होगा। क्योंकि मैं क्रूस पर ठोंके जाने के लिए नहीं आया हूँ, मुझे उन शब्दों को बोलना ही होगा जो बाइबल से अलग हैं, ताकि तुम लोगों पर विजय प्राप्त हो सके।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के काम का दर्शन (1)" से
3. आज जो कुछ किया जाता है वह वर्तमान पर आधारित है, फिर भी यह अब भी व्यवस्था के युग में यहोवा के कार्य की नींव पर निर्भर है, और इस गुंजाइश का उल्लंघन नहीं करता है। उदाहरण के लिए, अपनी ज़बान सम्भालना, व्यभिचार न करना, क्या ये पुराने विधान के कानून नहीं हैं? आज, तुम लोगों से जो अपेक्षित है वह केवल दस वचनों तक ही सीमित नहीं है, लेकिन ऐसी आज्ञायें और कानून हैं जो पहले के मुकाबले और अधिक ऊँची हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि जो कुछ पहले आया था, उसे खत्म कर दिया गया है, क्योंकि परमेश्वर के काम का प्रत्येक चरण, पूर्व के चरण के नींव पर किया जाता है। … यदि, आज केवल तुम लोगों को आज्ञाओं का पालन करना होता और इस्राएलियों की तरह, पुराने विधान के नियमों का पालन करना होता, और यदि, तुम लोगों को यहोवा द्वारा निर्धारित कानूनों को याद तक रखना होता तो भी तुम लोगों के बदल सकने की कोई संभावना नहीं होती। यदि तुम लोगों को केवल उन कुछ सीमित आज्ञाओं का पालन करना होता या असंख्य नियमों को याद करना होता, तो तुम्हारी पुरानी प्रकृति गहराई में गड़ी रहती, और इसे उखाड़ने का कोई रास्ता नहीं होता। इस प्रकार तुम लोग और अधिक भ्रष्ट हो जाते, और तुम लोगों में से कोई एक भी आज्ञाकारी नहीं बनता। कहने का अर्थ यह है कि कुछ सरल आज्ञाएं या अनगिनत कानून तुम्हें यहोवा के कामों को जानने में मदद करने में असमर्थ हैं। तुम लोग इस्राएलियों के समान नहीं हो: कानून का पालन करते हुए और आज्ञाओं को याद करते हुए वे यहोवा के कार्यों को देख पाए, और सिर्फ उसकी ही भक्ति कर सके, लेकिन तुम लोग इसे प्राप्त करने में असमर्थ हो, और पुराने विधान के युग की कुछ आज्ञाएं न केवल तुम्हें अपना दिल देने में मदद करने में या तुम्हारी रक्षा करने में असमर्थ हैं, बल्कि ये तुम लोगों को शिथिल बना देंगीं, और तुम्हें अधोलोक पहुंचा देंगी। क्योंकि मेरा काम विजय का काम है, और तुम लोगों की पुरानी प्रकृति और अवज्ञा की ओर केंद्रित है। आज, यहोवा और यीशु के दया भरे शब्द, न्याय के कड़े शब्दों के सामने काफी नहीं पड़ते हैं। ऐसे कड़े शब्दों के बिना, तुम "विशेषज्ञों" पर विजय प्राप्त करना असंभव हो जायेगा, जो हजारों सालों से अवज्ञाकारी रहे हैं। पुराने विधान के नियमों ने बहुत पहले तुम लोगों पर अपनी शक्ति खो दी थी, और आज का न्याय पुराने नियमों की तुलना में कहीं ज्यादा भयंकर है। तुम लोगों के लिए न्याय सबसे उपयुक्त है, कानून के तुच्छ प्रतिबंध नहीं, क्योंकि तुम लोग बिल्कुल प्रारम्भ वाली मानवजाति नहीं हो, बल्कि वो मानवजाति हो जो हजारों वर्षों से भ्रष्ट रही है। आज मनुष्य को जो हासिल करना है, वो मनुष्य की आज की वास्तविक दशा के अनुसार है, वर्तमान-दिन के मनुष्य की क्षमता और वास्तविक कद के अनुसार है, और इसकी आवश्यकता नहीं है कि तुम सिद्धांतों का पालन रो। ऐसा इसलिए है कि तुम्हारी पुरानी प्रकृति में परिवर्तन हो सके, और ताकि तुम अपनी अवधारणाओं को त्याग को।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के काम का दर्शन (1)" से
4. उस समय यीशु का कार्य समस्त मानव जाति का छुटकारा था। उन सभी के पापों को क्षमा कर दिया गया था जो उसमें विश्वास करते थे; जितने समय तक तुम उस पर विश्वास करते थे, उतने समय तक वह तुम्हें छुटकारा देगा; यदि तुम उस पर विश्वास करते थे, तो तुम अब और पापी नहीं थे, तुम अपने पापों से मुक्त हो गए थे। यही है बचाए जाने, और विश्वास द्वारा उचित ठहराए जाने का अर्थ। फिर भी जो विश्वास करते थे उन लोगों के बीच, वह रह गया था जो विद्रोही था और परमेश्वर का विरोधी था, और जिसे अभी भी धीरे-धीरे हटाया जाना था। उद्धार का अर्थ यह नहीं था कि मनुष्य पूरी तरह से यीशु द्वारा प्राप्त कर लिया गया था, लेकिन यह कि मनुष्य अब और पापी नहीं था, कि उसे उसके पापों से क्षमा कर दिया गया था: बशर्ते कि तुम विश्वास करते थे, तुम कभी भी अब और पापी नहीं बनोगे। … यीशु मनुष्य को पूर्ण करने और प्राप्त करने के लिए नहीं, बल्कि कार्य का एक चरण करने के लिए आया था: स्वर्ग के राज्य के सुसमाचार को आगे बढ़ाना और क्रूसीकरण के कार्य को पूरा करना-और इसलिए एक बार जब यीशु को सलीब पर चढ़ा दिया गया, तो उसके कार्य का पूरी तरह से अंत हो गया। किन्तु वर्तमान चरण-विजय के कार्य-में अधिक वचन अवश्य बोले जाने चाहिए, अधिक कार्य अवश्य किया जाना चाहिए, कई प्रक्रियाएँ अवशय होनी चाहिए। इसलिए भी यीशु और यहोवा के कार्यों के रहस्य अवश्य प्रकट किये जाने चाहिए, ताकि सभी लोगों को अपने विश्वास में समझ और स्पष्टता मिल जाए, क्योंकि यह अंत के दिनों का कार्य है, और अंत के दिन परमेश्वर के कार्य की समाप्ति है, इस कार्य के समापन का समय है। कार्य का यह चरण तुम्हारे लिए यहोवा की व्यवस्था और यीशु द्वारा छुटकारे को स्पष्ट करेगा, और मुख्य रूप से इसलिए है ताकि तुम परमेश्वर की छह-हजार वर्षीय प्रबंधन योजना के पूरे कार्य को समझ सको, और इस छः-हज़ार वर्ष की प्रबंधन योजना के महत्व और सार की सराहना कर सको, और यीशु द्वारा किए गए सभी कार्यों और उसके द्वारा बोले गए वचनों के प्रयोजन, और यहाँ तक कि बाइबल में तुम्हारे अंध विश्वास और श्रद्धा को समझ सको। यह तुम्हें इन सबको समझने की अनुमति देगा। यीशु द्वारा किया गया कार्य और परमेश्वर का आज का कार्य दोनों तुम्हारी समझ में आ जाएँगे; तुम समस्त सत्य, जीवन और मार्ग को समझ जाओगे और देख लोगे। यीशु द्वारा किए गए कार्य के चरण में, यीशु परमेश्वर के कार्य का समापन किए बिना क्यों चला गया? क्योंकि यीशु के कार्य का चरण समापन का कार्य नहीं था। जब उसे सलीब पर ठोका गया था, तब उसने जो वचन बोले थे उनका भी अंत हो गया था; उसके सलीब पर चढ़ने के बाद, उसका कार्य पूरी तरह समाप्त हो गया। वर्तमान चरण भिन्न है: केवल वचनों के अंत तक बोले जाने और परमेश्वर के समस्त कार्य का उपसंहार हो जाने के बाद ही उसका कार्य समाप्त हुआ होगा। यीशु के कार्य के चरण के दौरान, बहुत से वचन थे जो अनकहे रह गए थे, या जो पूरी तरह स्पष्ट नहीं थे। फिर भी यीशु ने जो कहा या जो नहीं कहा उसकी परवाह नहीं की, क्योंकि उसकी सेवकाई वचन की सेवकाई नहीं थी, और इसलिए उसे सलीब पर ठोके जाने के बाद, वह चला गया। कार्य का वह चरण मुख्यतः सलीब पर चढ़ने के वास्ते था, और आज के चरण से भिन्न है। कार्य का यह चरण मुख्य रूप से पूर्णता, स्वच्छ करने, और समस्त कार्य का समापन करने के लिए है। यदि वचनों को उनके बिल्कुल अंत तक नहीं कहा जाता है, तो इस कार्य का समापन करने का कोई तरीका नहीं होगा, क्योंकि कार्य के इस चरण में समस्त कार्य को अंत तक लाया जाता है और वचनों का उपयोग करके सम्पन्न किया जाता है। उस समय, यीशु ने बहुतायत से कार्य किया जो मनुष्य के लिए समझ से बाहर था। वह चुपचाप चला गया, और आज भी ऐसे कई लोग हैं जो उसके वचनों को नहीं समझते हैं, जिनकी समझ त्रुटिपूर्ण है मगर फिर भी उनके द्वारा सही मानी जाती है, जो नहीं जानते हैं कि वे गलत हैं। अंत में, यह वर्तमान चरण परमेश्वर के कार्य का पूर्णतः अंत करेगा, और इसका उपसंहार प्रदान करेगा। परमेश्वर की प्रबंधन योजना सभी की समझ और सभी के ज्ञान में आ जाएगी। मनुष्य के भीतर धारणाएँ, उसके इरादे, उसकी त्रुटिपूर्ण समझ, यहोवा और यीशु के कार्यों के प्रति उसकी धारणाएँ, अन्य जतियों के बारे में उसके विचार और उसके सभी विचलन और उसकी सभी त्रुटियाँ ठीक कर दी जाएँगी। और जीवन के सभी सही मार्ग, और परमेश्वर द्वारा किया गय समस्त कार्य और संपूर्ण सत्य मनुष्य की समझ में आ जाएँगे। जब ऐसा होगा, तो कार्य का यह चरण समाप्त हो जाएगा।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (2)" से
5. यहोवा का कार्य दुनिया का सृजन था, यह आरंभ था; कार्य का यह चरण कार्य का अंत है, और यह समापन है। आरंभ में, परमेश्वर का कार्य इस्राएल के चुने हुए लोगों के बीच किया गया था, और यह सभी जगहों में से सबसे पवित्र में एक नए युग का उद्भव था। कार्य का अंतिम चरण, दुनिया का न्याय करने और युग को समाप्त करने के लिए, सभी देशों में से सबसे अशुद्ध में किया जाता है। पहले चरण में, परमेश्वर का कार्य सबसे प्रकाशमान स्थान में किया गया था, और अंतिम चरण सबसे अंधकारमय स्थान में किया जाता है, और इस अंधकार को बाहर निकाल दिया जाएगा,प्रकाश को प्रकट किया जाएगा, और सभी लोगों पर विजय प्राप्त की जाएगी। जब सभी जगहों में इस सबसे अशुद्ध और सबसे अंधकारमय स्थान के लोगों पर विजय प्राप्त कर ली जाएगी, और समस्त आबादी स्वीकार कर लेगी कि एक परमेश्वर है, जो सच्चा परमेश्वर है, और हर व्यक्ति सर्वथा आश्वस्त हो जाएगा, तब समस्त जगत में विजय का कार्य करने के लिए इस तथ्य का उपयोग किया जाएगा। कार्य का यह चरण प्रतीकात्मक है: एक बार इस युग का कार्य समाप्त हो गया, तो प्रबंधन का 6000 वर्षों कार्य पूरा हो जाएगा। एक बार सबसे अंधकारमय स्थान के लोगों को जीत लिया, तो कहने की आवश्यकता नहीं कि हर अन्य जगह पर भी ऐसा ही होगा। वैसे तो, केवल चीन में विजय का कार्य सार्थक प्रतीकात्मकता रखता है। चीन अंधकार की सभी शक्तियों का मूर्तरूप है, और चीन के लोग उन सभी लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो देह के हैं, शैतान के हैं, मांस और रक्त के हैं। ये चीनी लोग हैं जो बड़े लाल अजगर द्वारा सबसे ज़्यादा भ्रष्ट किए गए हैं, जिनका परमेश्वर के प्रति सबसे मज़बूत विरोध है, जिनकी मानवता सर्वाधिक अधम और अशुद्ध है, और इसलिए वे समस्त भ्रष्ट मानवता के मूलरूप आदर्श हैं। … मैंने हमेशा क्यों कहा है कि तुम लोग मेरी प्रबंधन योजना के सहायक हो ? यह चीन के लोगों में है कि भ्रष्टाचार, अशुद्धता, अधार्मिकता, विरोध और विद्रोहशीलता सर्वाधिक पूर्णता से व्यक्त होते हैं और अपने सभी विविध रूपों में प्रकट होते हैं। एक ओर, वे खराब क्षमता के हैं, और दूसरी ओर, उनके जीवन और उनकी मानसिकता पिछड़े हुए हैं, और उनकी आदतें, सामाजिक वातावरण, जन्म का परिवार-सभी गरीब और सबसे पिछड़े हुए हैं। उनकी हैसियत भी कम है। इस स्थान में कार्य प्रतीकात्मक है, और इस परीक्षा के कार्य के इसकी संपूर्णता में पूरा कर दिए जाने के बाद, उसका बाद का कार्य बहुत बेहतर तरीके से होगा। यदि कार्य के इस चरण को पूरा किया जा सकता है, तो इसके बाद का कार्य ज़ाहिर तौर पर होगा ही। एक बार कार्य का यह चरण सम्पन्न हो जाता है, तो बड़ी सफलता पूर्णतः प्राप्त कर ली गई होगी, और समस्त विश्व में विजय का कार्य पूर्णतः पूरा हो गया होगा। वास्तव में, एक बार तुम लोगों के बीच कार्य सफल हो जाता है, तो यह समस्त विश्व में सफलता के बराबर होगा। यही इस बात का महत्व है कि क्यों मैं तुम लोगों से एक प्रतिदर्श और नमूने के रूप में कार्यकलाप करवाता हूँ। विद्रोहशीलता, विरोध, अशुद्धता, अधार्मिकता..., इन लोगों में सभी पाए जाते हैं, और इनमें मानव जाति की सभी विद्रोहशीलता का प्रतिनिधित्व होता है-वे वास्तव में कुछ हैं। इस प्रकार, उन्हें विजय के प्रतीक के रूप में प्रदर्शित किया जाता है, और एक बार जब वे जीत लिए जाते हैं तो वे स्वाभाविक रूप से दूसरों के लिए एक प्रतिदर्श और आदर्श बन जाएँगे।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (2)" से
6. इस्राएल में किए जा रहे पहले चरण की तुलना में कुछ भी अधिक प्रतीकात्मक नहीं था: इस्राएली सभी लोगों में से सबसे पवित्र और सबसे कम भ्रष्ट थे, और इसलिए इस देश में नए युग का उद्भव सर्वाधिक महत्व रखता था। ऐसा कहा जा सकता है कि मानव जाति के पूर्वज इस्राएल से आये, और यह कि इस्राएल परमेश्वर के कार्य का जन्मस्थान था। आरंभ में, ये लोग सर्वाधिक पवित्र थे, और वे सभी यहोवा की उपासना करते थे, और उन में परमेश्वर का कार्य सबसे बड़े परिणाम प्राप्त करने में सक्षम था। …वे समस्त मानवजाति में सबसे कम भ्रष्ट थे, और आरंभ में, वे परमेश्वर की खोज करने और उसका आदर करने का मन रखने वाले लोग थे। वे यहोवा के वचनों का पालन करते थे, और हमेशा मंदिर में सेवा करते थे, और याजकीय लबादे या मुकुट पहनते थे। वे परमेश्वर की पूजा करने वाले सबसे आरंभिक लोग थे, और उसके कार्य के सबसे आरंभिक विषयवस्तुथे। ये लोग संपूर्ण मानवजाति के लिए एक प्रतिदर्श और नमूना थे। वे पवित्रता और धार्मिकता के प्रतिदर्श और नमूने थे। अय्यूब,इब्राहीम,लूत या पतरस और तीमुथियुस जैसे लोग—सभी इस्राएली, और सर्वाधिक पवित्र प्रतिदर्श और नमूने थे। इस्राएल मानव जाति के बीच परमेश्वर की पूजा करने वाला सबसे आरंभिक देश था, और कहीं अन्यत्र की तुलना में अधिक धर्मी लोग यहाँ से आते थे। परमेश्वर ने उनमें कार्य किया ताकि भविष्य में वह पूरे देश में मानव जाति को बेहतर ढंग से प्रबंधित कर सके। उनकी उपलब्धियाँ और यहोवा की उनकी आराधना की धार्मिकता दर्ज की गई थी, ताकि वे अनुग्रह के युग के दौरान इस्राएल से परे लोगों के लिए प्रतिदर्शों और नमूनों के रूप में काम कर सकें; और उनकी क्रियाओं ने, आज के दिन तक, कई हजार वर्षों के कार्य को कायम रखा है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (2)" से
7. यीशु के नाम ने अनुग्रह के युग की शुरुआत को प्रख्यात किया। जब यीशु ने अपनी सेवकाई आरंभ की, तो पवित्र आत्मा ने यीशु के नाम की गवाही देनी आरंभ कर दी, और यहोवा का नाम अब और नहीं बोला जा रहा था, और इसके बजाय पवित्र आत्मा ने मुख्य रूप से यीशु के नाम से नया कार्य आरंभ किया था। जो यीशु में विश्वास करते थे उन लोगों की गवाही, यीशु मसीह के लिए थी, और उन्होंने जो कार्य किया वह भी यीशु मसीह के लिए था। पुराने विधान के व्यवस्था के युग का निष्कर्ष यह था कि मुख्य रूप से यहोवा के नाम पर आयोजित किया गया कार्य समापन पर पहुँच गया था। इसके बाद, परमेश्वर का नाम यहोवा अब और नहीं था अब परमेश्वर का नाम यहोवा नहीं रह गया था; इसके बजाय उसे यीशु कहा जाता था, और यहाँ से पवित्र आत्मा ने मुख्य रूप से यीशु के नाम के अधीन कार्य करना आरंभ किया।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
8. जब यीशु पुनः आएगा, तब तक युग पहले से ही बदल चुका होगा, तो क्या उसे तब भी यीशु कहा जाएगा? क्या परमेश्वर केवल यीशु के नाम से ही जाना जाता है? क्या उसे एक नए युग में एक नए नाम से नहीं बुलाया जा सकता है? क्या एक व्यक्ति की छवि और एक विशेष नाम परमेश्वर का उसकी संपूर्णता से प्रतिनिधित्व कर सकते हैं? प्रत्येक युग में, परमेश्वर नया कार्य करता है और उसे एक नए नाम से बुलाया जाता है; वह भिन्न-भिन्न युगों में एक ही कार्य कैसे कर सकता है? वह पुराने सेकैसे चिपका रह सकता है? यीशु का नाम छुटकारे के कार्यहेतु लिया गया था, तो क्या जब वह अंत के दिनों में लौटेगा तो तब भी उसे उसी नाम से बुलाया जाएगा? क्या वह अभी भी छुटकारे का कार्य करेगा? ऐसा क्यों है कि यहोवा और यीशु एक ही हैं, फिर भी उन्हें भिन्न-भिन्न युगों में भिन्न-भिन्न नामों से बुलाया जाता है? क्या यह इसलिए नहीं कि उनके कार्य के युग भिन्न-भिन्न हैं? क्या केवल एक ही नाम परमेश्वर का उसकी संपूर्णता में प्रतिनिधित्व कर सकता है? इस तरह, भिन्न युग में परमेश्वर को भिन्न नाम के द्वारा अवश्य बुलाया जाना चाहिए, उसे युग को परिवर्तित करने और युग का प्रतिनिधित्व करने के लिए नाम का उपयोग अवश्य करना चाहिए, क्योंकि कोई भी एक नाम पूरी तरह से परमेश्वर स्वयं का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है और प्रत्येक नाम केवल एक निश्चित युग के दौरान परमेश्वर के स्वभाव के अस्थायी पहलू का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है; और प्रत्येक नाम को केवल उसके कार्य का प्रतिनिधित्व ही करना है। इसलिए, समस्त युग का प्रतिनिधित्व करने के लिए परमेश्वर अपने स्वभाव के लिए हितकारी किसी भी नाम को चुन सकता है। इस बात की परवाह किए बिना कि क्या यह यहोवा का युग है, या यीशु का युग है, प्रत्येक युग का एक नाम के द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाता है। अनुग्रह के युग के बाद, अंतिम युग आ गया है और यीशु पहले ही आ चुका है। उसे अब भी यीशु कैसे कहा जा सकता है? वह अब भी मनुष्यों के बीच यीशु के रूप को कैसे अपना सकता है? क्या तुम भूल गए हो कि यीशु केवल एक नाज़री की छवि था? क्या तुम भूल गए कि यीशु केवल मानवजाति को ही छुटकारा दिलाने वाला था? वह अंत के दिनों में मनुष्य को जीतने और पूर्ण करने का कार्य हाथ में कैसे ले सकता था?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
9. हर बार जब परमेश्वर पृथ्वी पर आएगा, तो वह अपना नाम, अपना लिंग, अपनी छवि, और अपना कार्य बदल देगा; वह अपने कार्य को दोहराता नहीं है, और वह हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता है। जब वह पहले आया, उसे यीशु कहा गया था; जब वह इस बार फिर से आता है तो क्या उसे अभी भी यीशु कहा जा सकता है? जब वह पहले आया, तो वह पुरुष था; क्या इस बार फिर से पुरुष हो सकता है? जब वह अनुग्रह के युग के दौरान आया तो उसका कार्य, सलीब पर ठोंका जाना था; जब वह फिर से आएगा तो क्या तब भी वह मानव जाति को पाप से छुटकारा दिलाएगा? क्या उसे तब भी सलीब पर ठोंका जाएगा? क्या वह उसके कार्य की पुनरावृत्ति नहीं होगी? क्या तुम्हें नहीं पता था कि परमेश्वर हमेशा नया रहता है और कभी भी पुराना नहीं पड़ता है?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
10. ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि परमेश्वर अपरिवर्तशील है। यह सही है, किन्तु यह परमेश्वर के स्वभाव और सार की अपरिवर्तनशीलता का संकेत करता है। उसके नाम और कार्य में परिवर्तन से यह साबित नहीं होता है कि उसका सार बदल गया है; दूसरे शब्दों में, परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा, और यह कभी नहीं बदलेगा। यदि तुम कहते हो कि परमेश्वर का कार्य हमेशा वैसा ही बना रहता है, तो क्या वह अपनी छः-हजार वर्षीय प्रबंधन योजना को पूरा करने में सक्षम होगा? तुम केवल यह जानते हो कि परमेश्वर हमेशा ही अपरिवर्तनीय है, किन्तु क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता है? यदि परमेश्वर का कार्य कभी नहीं बदला था, तो क्या वह मानवजाति को आज के दिन तक ला सकता था? यदि परमेश्वर अपरिवर्तशील है, तो ऐसा क्यों है कि उसने पहले ही दो युगों का कार्य कर लिया है? उसका कार्य हमेशा आगे की ओर प्रगति कर रहा है, और इसलिए उसका स्वभाव धीरे-धीरे मनुष्य के लिए प्रकट होता है, और जो प्रकट होता है वह उसका अंतर्निहित स्वभाव है। आरंभ में, परमेश्वर का स्वभाव मनुष्यों से छिपा हुआ था, उसने कभी भी खुल कर मनुष्य को अपना स्वभाव प्रकट नहीं किया था, और मनुष्य को उसका कोई ज्ञान नहीं था, इसलिए उसने धीरे-धीरे मनुष्य के लिए अपना स्वभाव प्रकट करने हेतु अपने कार्य का उपयोग किया, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि प्रत्येक युग में उसका स्वभाव बदल जाता है। ऐसा मामला नहीं है कि परमेश्वर का स्वभाव लगातार बदल रहा है क्योंकि उसकी इच्छा हमेशा बदल रही है। बल्कि, क्योंकि उसके कार्य के युग भिन्न-भिन्न हैं, उसका अंतर्निहित स्वभाव धीरे-धीरे अपनी समग्रता से मनुष्य के लिए प्रकट होता है, ताकि मनुष्य उसे जानने में सक्षम हो जाए। किन्तु यह किसी भी भाँति इस बात का साक्ष्य नहीं है कि परमेश्वर का मूलतः कोई विशेष स्वभाव नहीं है और युगों के गुजरने के साथ उसका स्वभाव धीरे-धीरे बदल गया है—इस प्रकार की समझ गलत है। युगों के गुजरने के अनुसार परमेश्वर मनुष्य को अपना अंतर्निहित, विशेष स्वभाव—वह जो है—प्रकट करता है। एक ही युग का कार्य परमेश्वर के समग्र स्वभाव को व्यक्त नहीं कर सकता है। और इसलिए, "परमेश्वर हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता है" वचन उसके कार्य के संदर्भ में हैं, और "परमेश्वर अपरिवर्तशील है" वचन उस संदर्भ में हैं जो परमेश्वर का अंतर्निहित स्वरूप है। इसके बावज़ूद, तुम एक बिंदु में छह-हज़ार-वर्ष के कार्य को परिभाषित नहीं कर सकते हो, या इसे केवल अपरिवर्ती वचनों से चित्रित नहीं कर सकते हो। मनुष्य की मूर्खता ऐसी ही है। परमेश्वर इतना सरल नहीं है जितना मनुष्य कल्पना करता है, और उसका कार्य एक युग में नहीं रुक सकता है। उदाहरण के लिए, यहोवा हमेशा परमेश्वर के नाम का नहीं हो सकता है; परमेश्वर यीशु के नाम के तहत भी अपना कार्य कर सकता है, जो कि इस बात का प्रतीक है कि कैसे परमेश्वर का कार्य हमेशा आगे की ओर आगे बढ़ रहा है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
11. परमेश्वर हमेशा परमेश्वर रहेगा, और कभी भी शैतान नहीं बनेगा; शैतान हमेशा शैतान रहेगा, और कभी भी परमेश्वर नहीं बनेगा। परमेश्वर की बुद्धि, परमेश्वर की चमत्कारिकता, परमेश्वर की धार्मिकता, और परमेश्वर का प्रताप कभी नहीं बदलेंगे। उसका सार और उसका स्वरूप कभी नहीं बदलेगा। उसका कार्य, हालाँकि, हमेशा आगे प्रगति कर रहा है और हमेशा गहरा होता जा रहा है, क्योंकि वह हमेशा नया रहता है और कभी पुराना नहीं पड़ता है। हर युग में परमेश्वर एक नया नाम अपनाता है, हर युग में वह नया कार्य करता है, और हर युग में वह अपने प्राणियों को अपनी नई इच्छा और नए स्वभाव को देखने की अनुमति देता है। यदि लोग नए युग में परमेश्वर के नए स्वभाव की अभिव्यक्ति को नहीं देखते हो, तो क्या वे उसे हमेशा के लिए सलीब पर नहीं ठोंक देंगे? और ऐसा करके, क्या वे परमेश्वर को परिभाषित नहीं करेंगे?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
12. वह प्रत्येक युग में अपने कार्य को दोहराता नहीं है। चूँकि अंत के दिनों का आगमन हो गया है, इसलिए वह अंत के दिनों का कार्य करेगा, और अंत के दिनों में अपने संपूर्ण स्वभाव को प्रकट करेगा। अंत के दिन एक अलग युग है, एक ऐसा युग जिसमें यीशु ने कहा था कि तुम लोगों को अवश्य आपदा का सामना करना चाहिए, और भूकंप, अकाल, और दैवी कोप का सामना अवश्य करना चाहिए, जो यह दर्शाएँगे कि यह एक नया युग है, और अनुग्रह का युग अब और नहीं है। यदि, जैसा कि लोग कहते हैं, कि परमेश्वर हमेशा अपरिवर्तशील है, उसका स्वभाव हमेशा करुणामय और प्रेममय है, वह मनुष्य से ऐसे प्यार करता है जैसे वह स्वयं से करता है, और वह हर मनुष्य का उद्धार करता है और कभी भी मनुष्य से नफरत नहीं करता है, तो क्या वह कभी अपना कार्य पूरा करने में सक्षम होगा? जब यीशु आया, तो उसे सलीब पर ठोंक दिया गया, और उसने अपने आप को सभी पापियों के लिए वेदी पर स्वयं को चढ़ाने के द्वारा बलिदान कर दिया। उसने पहले ही छुटकारे का कार्य पूरा कर लिया था और अनुग्रह के युग को पहले से ही समाप्त कर दिया था, तो उस युग के कार्य को अंतिम दिनों में दोहराए जाने का क्या मतलब होता? क्या वही कार्य करना यीशु के कार्य को इनकार करना नहीं होगा? यदि परमेश्वर जब इस चरण में आता है तब वह सलीब पर चढ़ने का कार्य नहीं करेगा, बल्कि वह प्रेममय और करुणामय रहेगा, तो क्या वह युग का अंत करने में सक्षम होगा? क्या एक प्रेममय और करुणामय परमेश्वर युग का समापन कर सकता है? युग का समापन करने के अपने अंतिम कार्य में, परमेश्वर का ताड़ना और न्याय का एक स्वभाव है, जो वह सब कुछ प्रकट करता है जो अधर्मी है, सार्वजनिक रूप से सभी लोगों का न्याय करता है, और उन लोगों को पूर्ण करता है, जो वास्तव में उससे प्यार करते हैं। केवल इस तरह का एक स्वभाव ही युग का समापन कर सकता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
13. अंत के दिन पहले ही आ चुके हैं। सभी चीजों को उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा, और उनकी प्रकृति के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया जाएगा। यही वह समय है जब परमेश्वर लोगों के परिणाम और उनकी मंज़िल को प्रकट करता है। यदि लोग ताड़ना और न्याय से नहीं गुज़रते हैं, तो उनकी अवज्ञा और अधार्मिकता को प्रकट करने का कोई तरीका नहीं होगा। केवल ताड़ना और न्याय के माध्यम से ही सभी चीजों का अंत प्रकट हो सकता है। मनुष्य केवल तभी अपने वास्तविक रंगों को दिखाता है जब उसे ताड़ना दी जाती है और उसका न्याय किया जाता है। बुरा बुरे के साथ रखा जाएगा, अच्छा अच्छे के साथ रखा जाएगा, और लोगों को उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाएगा। ताड़ना और न्याय के माध्यम से, सभी चीजों का अंत प्रकट होगा, ताकि बुराई को दंडित किया जाएग और अच्छे को पुरस्कृत किया जाएगा, और सभी लोग परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन नागरिक बन जाएँगे। सभी कार्य धर्मी ताड़ना और न्याय के माध्यम से अवश्य प्राप्त किया जाना चाहिए। क्योंकि मनुष्य की भ्रष्टता अपने चरम पर पहुँच गई है और उसकी अवज्ञा अत्यंत गंभीर रही है, केवल परमेश्वर का धर्मी स्वभाव ही, जो मुख्यत: ताड़ना और न्याय का है और जो अंत के दिनों दिनों में प्रकट होता है, मनुष्य को रूपान्तरित और पूरा कर सकता है। केवल यह स्वभाव ही बुराई को उजागर कर सकता है और इस तरह सभी अधर्मियों को गंभीर रूप से दण्डित कर सकता है। इसलिए, इस तरह का एक स्वभाव अस्थायी महत्व से सम्पन्न होता है, और उसके स्वभाव का प्रकटन और प्रदर्शन प्रत्येक नए युग के कार्य के वास्ते है। परमेश्वर अपने स्वभाव को मनमाने ढंग से और महत्व के बिना प्रकट नहीं करता है। यदि, जब अंत के दिनों के दौरान मनुष्य का अंत प्रकट किया जाता है, परमेश्वर तब भी मनुष्य पर अक्षय करुणा और प्रेम अर्पित करता है, यदि वह अभी भी मनुष्य के प्रति प्रेममय है, और वह मनुष्य को धर्मी न्याय के अधीन नहीं करता है, किन्तु उसके प्रति सहिष्णुता, धैर्य और माफ़ी दर्शाता है, यदि मनुष्य चाहे कितना ही गंभीर पाप करे वह, किसी धर्मी न्याय के बिना, उसे तब भी माफ़ कर देता है, तब क्या परमेश्वर के समस्त प्रबंधन का कभी अंत होगा? इस तरह का कोई स्वभाव कब सही मंज़िल में मानव जाति का नेतृत्व करने में सक्षम होगा? उदाहरण के लिए, ऐसे न्यायाधीश को लें जो हमेशा प्रेममय, उदारहृदय और सौम्य हो। वह लोगों को उनके द्वारा किए गए अपराधों के बावजूद प्यार करता हो, और चाहे कोई भी हो वह लोगों के लिए प्रेममय और सहिष्णु रहता है। तब वह कब न्यायोचित निर्णय तक पहुँचने में सक्षम हो पाएगा? अंत के दिनों के दौरान, केवल धर्मी न्याय ही मनुष्य का वर्गीकरण कर सकता है और मनुष्य को एक नए राज्य में ला सकता है। इस तरह, परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के धर्मी स्वभाव के माध्यम से समस्त युग का अंत किया जाता है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "परमेश्वर के कार्य का दर्शन (3)" से
स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें