मनुष्य के काम में कितना कार्य पवित्र आत्मा का कार्य है और कितना मनुष्य का अनुभव है? यहाँ तक कि अब भी, ऐसा कहा जा सकता है कि लोग अब तक इन प्रश्नों को नहीं समझते हैं, यह सब इसलिए है क्योंकि लोग पवित्र आत्मा के कार्य करने के सिद्धान्तों को नहीं समझते हैं। मनुष्य का काम जिसके बारे में मैं बात कर रहा हूँ वह वास्तव उन लोगों के कार्य की ओर संकेत कर रहा है जिनके पास पवित्र आत्मा का कार्य है या ऐसे लोग जिन्हें पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया जाता है। मैं उस कार्य की ओर संकेत नहीं कर रहा हूँ जो मनुष्य की इच्छा से उत्पन्न होता है किन्तु पवित्र आत्मा के कार्य के दायरे के भीतर प्रेरितों, कार्यकर्ताओं या सामान्य भाईयों एवं बहनों के कामों की ओर संकेत कर रहा हूँ।यहाँ, मनुष्य का का काम देहधारी परमेश्वर के कार्य की ओर संकेत नहीं करता हैं किन्तु लोगों के ऊपर पवित्र आत्मा के कार्य के दायरे एवं सिद्धान्तों की ओर संकेत करता है। जबकि ये सिद्धान्त पवित्र आत्मा के कार्य के सिद्धान्त एवं दायरे हैं, वे देहधारी परमेश्वर के कार्य के सिद्धान्तों एवं दायरे के समान नहीं है। मनुष्य के काम में मनुष्य का मूल-तत्व एवं सिद्धान्त होते हैं, और परमेश्वर के कार्य में परमेश्वर का मूल-तत्व एवं सिद्धान्त होते हैं।
ऐसा कार्य जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में है वह पवित्र आत्मा का कार्य है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि यह परमेश्वर का स्वयं का कार्य है या उपयोग किए गए मनुष्यों का काम है। स्वयं परमेश्वर का मूल-तत्व आत्मा है, जिसे पवित्र आत्मा या सात गुना तीव्र आत्मा भी कहा जा सकता है। हर हालत में, वे परमेश्वर की आत्माएं हैं। यह सिर्फ इतना है कि विभिन्न युगों के दौरान परमेश्वर के आत्मा को अलग अलग नामों से पुकारा गया है। परन्तु उनका मूल-तत्व अभी भी एक है। इसलिए, स्वयं परमेश्वर का कार्य ही पवित्र आत्मा का कार्य है; देहधारी परमेश्वर का कार्य पवित्र आत्मा के कार्य से कम नहीं है। उन मनुष्यों का काम भी पवित्र आत्मा का कार्य है जिन्हें उपयोग किया जाता है। यह सिर्फ इतना है कि परमेश्वर का कार्य पवित्र आत्मा की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति है, और इनमें कोई फ़र्क नहीं है, जबकि उपयोग किए गए मनुष्यों का काम बहुत सी मानवीय चीज़ों के साथ घुल मिल गया है, और यह पवित्र आत्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति नहीं है, सम्पूर्ण प्रकाशन की तो बात ही छोड़ दीजिए। पवित्र आत्मा का कार्य भिन्न होता है और यह किसी परिस्थिति के द्वारा सीमित नहीं होता है। अलग अलग लोगों में यह कार्य भिन्न होता है, और कार्य करने के विभिन्न मूल-तत्वों को सूचित करता है। अलग अलग युगों में भी कार्य भिन्न होता है, जैसे अलग अलग देशों में कार्य भिन्न होता है। हाँ वास्तव में, यद्यपि पवित्र आत्मा अनेक विभिन्न तरीकों से और अनेक सिद्धान्तों के अनुसार कार्य करता है, फिर भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कार्य किस प्रकार किया गया है या किस प्रकार के लोगों पर किया गया है, क्योंकि मूल-तत्व हमेशा भिन्न होता है, और वह कार्य जिसे वह अलग अलग लोगों पर करता है उन सबके के सिद्धान्त होते हैं और वे सभी उस कार्य के उद्देश्य के मूल-तत्व को प्रदर्शित कर सकते हैं। यह इसलिए है क्योंकि पवित्र आत्मा का कार्य दायरे में काफी विशिष्ट एवं काफी नपा-तुला होता है। वह कार्य जिसे देहधारी शरीर में किया गया है वह उस कार्य के समान नहीं है जिसे लोगों पर किया गया है, और लोगों की विभिन्न क्षमता के आधार पर वह कार्य भी अलग अलग होता है। देहधारी शरीर में किए गए कार्य को लोगों पर नहीं किया गया है, और वह देहधारी शरीर में उसी कार्य को नहीं करता है जिसे लोगों पर किया गया है। एक शब्द में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह किस प्रकार कार्य करता है, क्योंकि विभिन्न व्यक्तियों पर किया गया कार्य कभी एक समान नहीं होता है, और ऐसे सिद्धान्त जिनके द्वारा वह कार्य करता है वे अलग अलग लोगों की दशा एवं स्वभाव के अनुसार भिन्न होते हैं। उनके अंतर्निहित मूल-तत्व के आधार पर पवित्र आत्मा अलग अलग लोगों पर कार्य करता है और उनके अंतर्निहित मूल-तत्व से बाहर उनसे मांग नहीं करता है, न ही वह उनकी वास्तविक क्षमता से बाहर उन पर कार्य करता है। अतः, मनुष्य पर किया गया पवित्र आत्मा का कार्य लोगों को कार्य के उद्देश्य के मूल-तत्व को देखने की अनुमति देता है। मनुष्य का अंतर्निहित मूल-तत्व परिवर्तित नहीं होता है; मनुष्य की वास्तविक सामर्थ सीमित है। चाहे पवित्र आत्मा लोगों को इस्तेमाल करे या लोगों पर कार्य करे, वह कार्य हमेशा मनुष्यों की क्षमता की सीमाओं के अनुसार होता है ताकि वे इससे लाभान्वित हो सकें। जब पवित्र आत्मा इस्तेमाल किए जा रहे मनुष्यों पर कार्य करता है, तो उनके वरदान एवं वास्तविक क्षमता का प्रदर्शन होता है और उन्हें बचाकर नहीं रखा जाता है। उनकी वास्तविक क्षमता कार्य को अंजाम देने के लिए इस्तेमाल होती है। ऐसा कहा जा सकता है कि वह उस कार्यकारी परिणाम को हासिल करने के लिए मनुष्यों के उपलब्ध गुणों का उपयोग करने के द्वारा कार्य करता है। इसके विपरीत, देहधारी शरीर में किया गया कार्य सीधे तौर पर आत्मा के कार्य को व्यक्त करने के लिए है और यह मानवीय मस्तिष्क एवं विचारों के साथ मिश्रित नहीं होता है, और मनुष्यों के वरदानों, मनुष्य के अनुभव या मनुष्य की स्वाभाविक दशा के द्वारा इस तक पहुंचा नहीं जा सकता है। पवित्र आत्मा के असंख्य कार्य को कुलमिलाकर मनुष्यों के लाभ एवं बढ़ोत्तरी के उद्देश्य से किया जाता हैं। परन्तु कुछ लोगों को सिद्ध किया जा सकता है जबकि अन्य लोग सिद्धता के लिए ऐसी स्थितियां नहीं रखते हैं, कहने का तात्पर्य है, उन्हें सिद्ध नहीं किया जा सकता है और उन्हें बमुश्किल ही बचाया जा सकता है, और यद्यपि उनके पास पवित्र आत्मा का कार्य हो सकता है, फिर भी अंततः उन्हें निष्कासित कर दिया जाता है। कहने का अर्थ है कि हालाँकि पवित्र आत्मा का कार्य लोगों की बढ़ोत्तरी के लिए है, फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि वे सभी लोग जिनके पास पवित्र आत्मा का कार्य है उन्हें पूरी तरह से सिद्ध किया जाना है, क्योंकि ऐसा मार्ग जिसका अनुसरण बहुत से लोगों के द्वारा किया जाता है वह सिद्ध होने का मार्ग नहीं है। उनके पास पवित्र आत्मा का केवल एक पक्षीय कार्य है, और उनके पास आत्मनिष्ठ मानवीय सहयोग या सही मानवीय अनुसरण नहीं है। इस रीति से, इन लोगों पर पवित्र आत्मा कार्य उन लोगों का सेवा कार्य बन जाता है जिन्हें सिद्ध किया गया है। पवित्र आत्मा के कार्य को सीधे तौर पर लोगों के द्वारा देखा या स्वयं सीधे तौर पर लोगों के द्वारा छुआ नहीं जा सकता है। इसे केवल मनुष्यों के कार्य करने के वरदान के साथ मदद के जरिए अभिव्यक्त किया जा सकता है, इसका अर्थ है कि पवित्र आत्मा के कार्य को अभिव्यक्ति के जरिए मनुष्यों के द्वारा अनुयायियों को प्रदान किया जाता है।
कई प्रकार के लोगों और अनेक विभिन्न परिस्थितियों के माध्यम से पवित्र आत्मा के कार्य को सम्पन्न एवं पूरा किया जाता है। हालाँकि देहधारी परमेश्वर का कार्य एक समूचे युग के कार्य का प्रतिनिधित्व कर सकता है, और एक समूचे युग में लोगों के प्रवेश का प्रतिनिधित्व कर सकता है, फिर भी मनुष्यों के विस्तृत प्रवेश के कार्य को अभी भी पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किए गए मनुष्यों के द्वारा किए जाने की आवश्यकता है और इसे देहधारी परमेश्वर के द्वारा किए जाने की आवश्यकता नहीं है। अतः, परमेश्वर का कार्य, या परमेश्वर के स्वयं की सेवकाई, परमेश्वर के देहधारी शरीर का कार्य है और इसे उसके स्थान पर मनुष्य के द्वारा नहीं किया जा सकता है। पवित्र आत्मा के कार्य को विभिन्न प्रकार के मनुष्यों के द्वारा पूरा किया गया है और इसे केवल एक ही व्यक्ति विशेष के द्वारा पूर्ण नहीं किया जा सकता है या एक ही व्यक्ति विशेष के द्वारा पूरी तरह से स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। ऐसे लोग जो कलीसियाओं की अगुवाई करते हैं वे भी पूरी तरह से पवित्र आत्मा के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं; वे सिर्फ अगुवाई का कुछ कार्य ही कर सकते हैं। इस रीति से, पवित्र आत्मा के कार्य को तीन भागों में बांटा जा सकता हैः परमेश्वर का स्वयं का कार्य, उपयोग में लाए गए मनुष्यों का कार्य, और उन सभी लोगों पर किया गया कार्य जो पवित्र आत्मा की मुख्य धारा में हैं। इन तीनों में, परमेश्वर का स्वयं का कार्य सम्पूर्ण युग की अगुवाई करने के लिए है; जिन्हें उपयोग किया जाता है उन मनुष्यों का काम परमेश्वर के स्वयं के कार्य के पश्चात् भेजे जाने या महान आदेशों को प्राप्त करने के द्वारा सभी अनुयायियों की अगुवाई करने के लिए है, और ये मनुष्य ऐसे लोग हैं जो परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करते हैं; वह कार्य जिसे पवित्र आत्मा के द्वारा उन लोगों पर किया जाता है जो इस मुख्य धारा में हैं वह उसके स्वयं के कार्य को बनाए रखने के लिए है, अर्थात्, सम्पूर्ण प्रबंधन को बनाए रखने के लिए है और अपनी गवाही को बनाए रखने के लिए है, जबकि ठीक उसी समय उन लोगों को सिद्ध किया जाता है जिन्हें सिद्ध किया जा सकता है। ये तीनों भाग पवित्र आत्मा के सम्पूर्ण कार्य हैं, किन्तु स्वयं परमेश्वर के कार्य के बिना, सम्पूर्ण प्रबंधकीय कार्य रूक जाएगा। स्वयं परमेश्वर के कार्य में सम्पूर्ण मानवजाति का कार्य सम्मिलित है, और यह सम्पूर्ण युग के कार्य का भी प्रतिनिधित्व करता है। कहने का तात्पर्य है, परमेश्वर का स्वयं का कार्य पवित्र आत्मा के सभी कार्य की गति एवं प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि प्रेरितों का कार्य परमेश्वर के स्वयं के कार्य का अनुसरण करता है और युग की अगुवाई नहीं करता है, न ही यह सम्पूर्ण युग में पवित्र आत्मा के कार्य करने की प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करता है। वे केवल वही कार्य करते हैं जिसे मनुष्य को अवश्य करना चाहिए, जो प्रबंधकीय कार्य को बिलकुल भी शामिल नहीं करता है। परमेश्वर का स्वयं का कार्य प्रबंधकीय कार्य के भीतर एक परियोजना है। मनुष्य का कार्य केवल उन मनुष्यों का कर्तव्य है जिन्हें उपयोग किया जाता है और इसका प्रबंधकीय कार्य से कोई सम्बन्ध नहीं है। कार्य के विभिन्न पहचान एवं विभिन्न प्रतिनिधित्व के कारण, तथा इस तथ्य के बावजूद कि वे दोनों ही पवित्र आत्मा के कार्य हैं, परमेश्वर के कार्य और मनुष्य के काम के मध्य स्पष्ट एवं ठोस अन्तर हैं। इसके अतिरिक्त, विभिन्न पहचानों के साथ पवित्र आत्मा के द्वारा कार्य के विषयों पर किए गए कार्य का विस्तार भिन्न होता है। ये पवित्र आत्मा के कार्य के सिद्धान्त एवं दायरे हैं।
मनुष्य का कार्य उसके अनुभव एवं उसकी मानवता का प्रतिनिधित्व करता है। जो कुछ मनुष्य प्रदान करता है और वह कार्य जिसे मनुष्य करता है वह उसका प्रतिनिधित्व करता है। मनुष्य का देखना, मनुष्य का तर्क, मनुष्य की वैचारिक शक्ति और उसकी समृद्ध कल्पना सभी उसके कार्य में सम्मिलित होते हैं। विशेष रूप में, मनुष्य का अनुभव उसके कार्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए और भी अधिक योग्य है, और जो कुछ किसी व्यक्ति ने अनुभव किया है वे उसके कार्य के घटक होंगे। मनुष्य के काम उसके अनुभव को अभिव्यक्त कर सकते हैं। जब कुछ लोग निष्क्रिय अवस्था में अनुभव करते हैं, तो उनकी अधिकांश सहभागिता में नकारात्मक तत्व शामिल होते हैं। यदि उनका अनुभव सकारात्मक है और उनके पास विशेष रूप से ऐसा मार्ग है जो सकारात्मक पक्ष की ओर है, तो जिसकी वे संगति करते हैं वह अत्यंत प्रोत्साहन देनेवाला है, और लोग उनसे सकारात्मकता आपूर्ति को प्राप्त करने के योग्य होंगे। यदि इस समय कोई कार्यकर्ता निष्क्रिय हो जाता है, तो उसकी संगति हमेशा नकारात्मक तत्वों वहन करेगी। इस प्रकार की संगति निराशाजनक होती है, और अन्य लोग उसकी संगति का अनुसरण करके अवचेतन रूप से निराश हो जाएंगे। उस अगुवे के आधार पर अनुयायियों की दशा बदल जाती है। एक कार्यकर्ता भीतर से वैसा होता है जैसा वह अभिव्यक्त करता है, और पवित्र आत्मा का कार्य अकसर मनुष्य की दशा के साथ बदल जाता है। वह मनुष्य के अनुभव के आधार पर कार्य करता है और उसे मजबूर नहीं करता परन्तु उसके अनुभव के सामान्य जीवनक्रम के अनुसार मनुष्य से मांग करता है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य की सहभागिता परमेश्वर के वचन से भिन्न होती है। जो कुछ मनुष्य सहभागिता में विचार विमर्श करता है वह उनके व्यक्तिगत अवलोकन एवं अनुभव को सूचित करता है, और परमेश्वर के कार्य के आधार पर जो कुछ उन्होंने देखा एवं अनुभव किया है उन्हें अभिव्यक्त करता है। परमेश्वर के कार्य करने या बोलने के पश्चात् उनकी ज़िम्मेदारी यह पता लगाना है कि उन्हें किसका अभ्यास करना चाहिए, या किसमें प्रवेश करना चाहिए, और तब इसे अनुयायियों को प्रदान करें। इसलिए, मनुष्य का काम उसके प्रवेश एवं अभ्यास का प्रतिनिधित्व करते हैं। हाँ वास्तव में, ऐसा कार्य मानवीय शिक्षाओं एवं अनुभव या कुछ मानवीय विचारों के साथ मिश्रित होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि पवित्र आत्मा किस प्रकार कार्य करता है, चाहे वह मनुष्यों में कार्य करे या देहधारी परमेश्वर में, यह हमेशा कार्यकर्ता ही होते हैं जो अभिव्यक्त करते हैं कि वे क्या हैं। हालाँकि यह पवित्र आत्मा ही है जो कार्य करता है, फिर भी मनुष्य स्वभाविक तौर पर जैसा है कार्य उस पर आधारित होता है, क्योंकि पवित्र आत्मा बिना आधार के कार्य नहीं करता है। दूसरे शब्दों में, कार्य को शून्य से नहीं किया जाता है, परन्तु यह हमेशा वास्तविक परिस्थितियों एवं वास्तविक स्थितियों के अनुसार ही होता है। यह केवल इसी रीति से होता है कि मनुष्य के स्वभाव को रूपान्तरित किया जा सकता है, यह कि उसकी पुरानी धारणाओं एवं पुराने विचारों को बदला जा सकता है। जो कुछ मनुष्य देखता, अनुभव करता, और कल्पना कर सकता है उसे वह अभिव्यक्त करता है। भले ही ये सिद्धान्त या धारणाएं हों, इन सभी तक मनुष्य की सोच पहुंच सकती है। मनुष्य के कार्य के आकार की परवाह किए बगैर, यह मनुष्य के अनुभव के दायरे, जो मनुष्य देखता है, या जिसकी मनुष्य कल्पना या जिसका विचार कर सकता है उनसे बढ़कर नहीं हो सकता है। जो कुछ परमेश्वर प्रगट करता है परमेश्वर स्वयं वही है, और यह मनुष्य की पहुंच से परे है, और यह मनुष्य की सोच से परे है। वह सम्पूर्ण मानवजाति की अगुवाई करने के अपने कार्य को अभिव्यक्त करता है, और यह मानवजाति के अनुभव के विवरणों के विषय से सम्बद्ध नहीं है, परन्तु इसके बजाए यह उसके अपने प्रबंधन से सम्बन्धित है। मनुष्य अपने अनुभव को अभिव्यक्त करता है, जबकि परमेश्वर अपने अस्तित्व को अभिव्यक्त करता है - यह अस्तित्व उसका अंतर्निहित स्वभाव है और यह मनुष्य की पहुंच से परे है। मनुष्य का अनुभव उसका अवलोकन एवं उसका ज्ञान है जिसे परमेश्वर के अस्तित्व की उसकी अभिव्यक्ति के आधार पर हासिल किया जाता है। ऐसे अवलोकन एवं ज्ञान को मनुष्य का अस्तित्व कहा जाता है। इन्हें मनुष्य का अंतर्निहित स्वभाव एवं उसकी वास्तविक क्षमता के आधार पर अभिव्यक्त किया जाता है; इस प्रकार उन्हें मनुष्य का अस्तित्व भी कहा जाता है। जो कुछ मनुष्य देखता एवं अनुभव करता है वह उसकी सहभागिता करने में सक्षम है। जो उसने अनुभव नहीं किया है या जिसे नहीं देखा है या जिस तक उसका मस्तिष्क पहुंच नहीं सकता है, अर्थात्, ऐसी चीज़ें जो उसके भीतर नहीं हैं, वह उसकी संगति करने के असमर्थ है। जो कुछ मनुष्य अभिव्यक्त करता है यदि वह उसका अनुभव नहीं है, तो यह उसकी कल्पना या सिद्धान्त है। एक कथन में, उसके शब्दों में कोई वास्तविकता नहीं है। यदि आप समाज के कार्यों के सम्पर्क में कभी नहीं आए हैं, तो आप समाज के जटिल सम्बन्धों से स्पष्टता से सहभागिता करने के योग्य नहीं होंगे। यदि आपके पास कोई परिवार नहीं है परन्तु अन्य लोग परिवार के मुद्दों के विषय में बात कर रहे हैं, तो जो कुछ वे कह रहे हैं आप उनकी अधिकांश बातों को समझ नहीं पाएंगे। अतः, जो कुछ मनुष्य सहभागिता में विचार विमर्श करता है और वह कार्य जिसे वह करता है वह उसके भीतरी अस्तित्व का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। यदि कोई ताड़ना एवं न्याय के विषय में अपनी समझ के बारे में सहभागिता में विचार विमर्श करता है, परन्तु आपके पास उसका कोई अनुभव नहीं है, तो आप उसके ज्ञान का इन्कार करने की हिम्मत नहीं करते हैं, और यह हिम्मत तो बिलकुल भी नहीं करते हैं कि आप उसके विषय में सौ प्रतिशत निश्चित हैं। यह इसलिए है क्योंकि जिसके विषय में वह सहभागिता में विचार विमर्श करता है वह ऐसी चीज़ है जिसका आपने कभी अनुभव नहीं किया है, ऐसी चीज़ जिसको आपने कभी नहीं जाना है, और आपका मस्तिष्क इसकी कल्पना नहीं कर सकता है। आप केवल उसके अनुभव से भविष्य का एक मार्ग ले सकते हैं जो ताड़ना एवं न्याय से सम्बन्धित है। परन्तु यह मार्ग केवल समझ के रूप में ही कार्य कर सकता है जो सिद्धान्त पर आधारित होता है और आपकी स्वयं की समझ का स्थान नहीं ले सकता है, और आपके अनुभव का स्थान तो बिलकुल भी नहीं ले सकता है। कदाचित् आप सोचें कि जो कुछ वह कहता है वह सही है, परन्तु जब आप अनुभव करते हैं, तो आप पाते हैं कि यह अनेक बातों में अव्यावहारिक है। कदाचित् आप महसूस करें कोई ज्ञान जिसे आप सुनते हैं वह पूरी तरह से अव्यावहारिक है; आप इस समय इसके विषय में धारणाओं को आश्रय देते हैं, और हालाँकि आप इसे स्वीकार करते हैं, फिर भी आप केवल अनिच्छा से ही ऐसा करते हैं। परन्तु जब आप अनुभव करते हैं, तो वह ज्ञान जो आपको धारणाएं देता है वह आपके अभ्यास का मार्ग बन जाता है। और जितना अधिक आप अभ्यास करते हैं, उतना ही अधिक आप उसके शब्दों के सही मूल्य एवं अर्थ को समझते हैं। अनुभव प्राप्त करने के पश्चात्, तब आप उस ज्ञान के विषय में बातचीत कर सकते हैं जो आपके पास उन चीज़ों के विषय में होनी चाहिए जिनका आपने अनुभव किया है। इसके साथ ही, आप ऐसे लोगों के बीच अन्तर कर सकते हैं जिनका ज्ञान वास्तविक एवं व्यावहारिक है और ऐसे लोग जिनका ज्ञान सिद्धान्त पर आधारित होता है और यह बेकार है। अतः, चाहे वह ज्ञान जिसकी आप चर्चा कर रहे हैं वह सत्य के साथ मेल खाता है या नहीं यह वृहद रूप से इस बात पर आधरित होता है कि आपके पास व्यावहारिक अनुभव है या नहीं। जहाँ आपके अनुभवों में सच्चाई है, वहाँ आपका ज्ञान व्यावहारिक एवं मूल्यवान होगा। आपके अनुभव के माध्यम से, आप परख एवं अंतर्दृष्टि भी प्राप्त कर सकते हैं, अपने ज्ञान को और गहरा कर सकते हैं, और अपने आपको को व्यवस्थित करने में आप अपनी बुद्धि एवं सूझ-बूझ को बढ़ा सकते हैं। ऐसा ज्ञान जिसे लोगों के द्वारा बोला जाता है जो सत्य को धारण नहीं करता है वह सिद्धान्त है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह कितना ऊँचा है। जब देह के विषयों की बात आती है तो हो सकता है कि इस प्रकार का व्यक्ति बहुत ही ज्ञानवान हो परन्तु जब आत्मिक विषयों की बात आती है तो वह स्पष्ट अन्तर नहीं कर सकता है। यह इसलिए है क्योंकि ऐसे लोगों के पास आत्मिक मामलों में बिलकुल भी अनुभव नहीं होता है। ये ऐसे लोग हैं जिन्हें आत्मिक मामलों में प्रकाशित नहीं किया गया है और वे आत्मा को नहीं समझते हैं। इसकी परवाह किया बगैर कि आप ज्ञान के किस पहलु के विषय में बातचीत करते हैं, जब तक यह आपका अस्तित्व है, तो यह आपका व्यक्तिगत अनुभव है, और आपका वास्तविक ज्ञान है। ऐसे लोगों के विषय में क्या कहें जो केवल सिद्धान्त की ही बात करते हैं, अर्थात्, ऐसे लोग जो सत्य या वास्तविकता को धारण नहीं करते हैं, ऐसे लोग जो इसके विषय में बात करते हैं उन्हें यह भी कहा जा सकता है कि वे अपने अस्तित्व में ही रहें, क्योंकि उनका सिद्धान्त गहरे चिंतन से सिर्फ बाहर आया है और यह उनके मन का परिणाम है जो गहराई से मनन करता है, परन्तु यह केवल सिद्धान्त ही है, यह कल्पना से अधिक और कुछ भी नहीं है! विभिन्न प्रकार के लोगों के अनुभव उन चीज़ों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो उनके भीतर हैं। वे सभी जिनके पास आत्मिक अनुभव नहीं है वे सत्य के ज्ञान, या विभिन्न प्रकार की आत्मिक चीज़ों के बारे में सही ज्ञान के विषय में बात नहीं कर सकते हैं। जो कुछ मनुष्य अभिव्यक्त करता है वह भीतर से ऐसा ही होता है - यह निश्चित है। यदि कोई आत्मिक चीज़ों एवं सत्य का ज्ञान पाने की इच्छा करता है, तो उसके पास वास्तविक अनुभव होना चाहिए। यदि आप मानवीय जीवन के सम्बन्ध में सहज बुद्धि के विषय में साफ साफ बात नहीं कर सकते हैं, तो आप आत्मिक चीज़ों के विषय में बातचीत करने के योग्य तो बिलकुल भी नहीं होंगे? ऐसे लोग जो कलीसिया की अगुवाई कर सकते हैं, वे लोगों को जीवन प्रदान कर सकते हैं, और लोगों के लिए एक प्रेरित हो सकते हैं, उनके पास वास्तविक अनुभव होने चाहिए, उनके पास आत्मिक चीज़ों की सही समझ होनी चाहिए, और सत्य की सही समझ एवं अनुभव होना चाहिए। केवल ऐसे मनुष्य ही कार्यकर्ता या प्रेरित होने के योग्य हैं जो कलीसिया की अगुवाई करते हैं। अन्यथा, वे न्यूनतम रूप में केवल अनुसरण ही कर सकते हैं और अगुवाई नहीं कर सकते हैं, और वे प्रेरित तो बिलकुल भी नहीं हो सकते हैं कि लोगों को जीवन प्रदान करें। यह इसलिए है क्योंकि प्रेरित का कार्य दौड़ना या लड़ना नही है; यह जीवन की सेवा करना है और मानवीय स्वभाव में परिवर्तनों की अगुवाई करना है। यह ऐसा कार्य है जिसे उनके द्वारा किया जाता है जिन्हें भारी ज़िम्मेदारियों को कंधों पर उठाने के लिए नियुक्त किया गया है और यह ऐसा कार्य नहीं है जिसे प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है। इस प्रकार के कार्य को केवल ऐसे लोगों के द्वारा आरम्भ किया जा सकता है जिनके पास जीवन का अस्तित्व है, अर्थात्, ऐसे लोग जिनके पास सत्य का अनुभव है। हर कोई जो दे सकता है, भाग सकता है या जो खर्च करने की इच्छा रखता है उसके द्वारा इसका आरम्भ नहीं किया जा सकता है; लोग जिनके पास सत्य का कोई अनुभव नहीं है, जिनकी कांट-छांट या जिनका न्याय नहीं किया गया है, वे इस प्रकार के कार्य को करने में असमर्थ हैं। ऐसे लोग जिनके पास कोई अनुभव नहीं है, अर्थात्, ऐसे लोग जिनके पास कोई वास्तविकता नहीं है, वे साफ साफ नहीं देख सकते हैं क्योंकि इस पहलु में वे स्वयं अस्तित्व को धारण नहीं करते हैं। अतः, इस प्रकार का व्यक्ति न केवल अगुवाई का कार्य करने में असमर्थ है, बल्कि वह निष्कासन का एक वस्तु हो सकता है यदि उनके पास लम्बी अवधि के लिए कोई सत्य नहीं है। जो आप देखते हैं उसके विषय में आप बोलते है यह उन कठिनाईयों को प्रमाणित करता है जिन्हें आपने जीवन में अनुभव किया है, जिन विषयों में आपको ताड़ना दी गई है और और जिन मामलों में आपका न्याय किया गया है। यह परीक्षाओं में भी सही हैः ऐसी चीज़ें जिसके अंतर्गत किसी मनुष्य को परिष्कृत किया जाता है, ऐसी चीज़ें जिसके अंतर्गत कोई मनुष्य कमज़ोर होता है, ये ऐसी चीज़ें हैं जिसके अंतर्गत किसी मनुष्य के पास अनुभव होते हैं, ऐसी चीज़ें जिसके अंतर्गत किसी मनुष्य के पास मार्ग होते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई विवाह में कुंठाओं से ग्रसित होता है, तो वह अधिकांश समय संगति करेगा, "धन्यवाद परमेश्वर, परमेश्वर की स्तुति हो, मुझे परमेश्वर के हृदय की इच्छा को संतुष्ट करना होगा और अपना सारा जीवन अर्पित करना होगा, मेरे विवाह को पूरी तरह से परमेश्वर के हाथों में सौंप दो। मैं अपने सम्पूर्ण जीवन को परमेश्वर को देने का वादा करता हूँ।" संगति के माध्यम से, मनुष्य के भीतर की हर एक चीज़, एवं जो वह है, उसे दर्शाया जा सकता है। किसी व्यक्ति की बोली की गति, चाहे वह जोर से बोलता है या धीमे से, ऐसे मामले जो अनुभव के मामले नहीं हैं वे उन बातों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं जो उसके पास है एवं जो वह है। वे केवल बता सकते हैं कि उसका चरित्र अच्छा है या बुरा, या उसका स्वभाव अच्छा है या बुरा, परन्तु इस बात के साथ उसकी बराबरी नहीं की जा सकती कि उसके पास अनुभव हैं या नहीं। बोलते समय स्वयं को अभिव्यक्त करने की योग्यता, या बोली की कुशलता एवं गति, वे सिर्फ अभ्यास की बात है और उसके अनुभव का स्थान नहीं ले सकते हैं। जब आप अपने व्यक्तिगत अनुभव के बारे में बात करते हैं, तब आप जिसे आप महत्व देते हैं और वे सभी चीज़ें जो आपके भीतर हैं उनसे संगति करते हैं। मेरी बोली मेरे अस्तित्व को दर्शाती है, परन्तु जो मैं कहता हूँ वह मनुष्य की पहुंच से परे है। जो कुछ मैं कहता हूँ यह वह नहीं है जिसका मनुष्य अनुभव करता है, और यह ऐसी चीज़ नहीं है कि मनुष्य इसे देख सके, और साथ ही यह ऐसी चीज़ भी नहीं है जिसे मनुष्य स्पर्श कर सकता है, परन्तु यह वह है जो मैं हूँ। कुछ लोग केवल यही मानते हैं कि जिसकी मैं संगति करता हूँ यह वह है जिसका मैं ने अनुभव किया है, परन्तु वे इस बात को नहीं पहचानते हैं कि यह आत्मा का सीधी अभिव्यक्ति है। हाँ वास्तव में, जो मैं कहता हूँ यह वही है जिसका मैं ने अनुभव किया है। यह मैं ही हूँ जिसने छः हजार सालों से भी ज़्यादा से प्रबंधकीय कार्य किया है। मैं ने मानवजाति की उत्पत्ति से लेकर आज तक हर एक चीज़ का अनुभव किया है; मैं इसके बारे में बातचीत करने के योग्य कैसे न होऊंगा? जब मनुष्य के स्वभाव की बात आती है, तो मैं ने इसे साफ साफ देखा है, और मैं ने लम्बे समय से इसका अवलोकन किया है; मैं इसके विषय में साफ साफ बात करने के योग्य कैसे न होऊंगा? जबकि मैने मनुष्य के सार-तत्व को स्पष्टता से देखा है, मैं मनुष्य को ताड़ना देने एवं उसका न्याय करने के लिए योग्य हूँ, क्योंकि सभी मनुष्य मुझ से ही निकले हैं परन्तु उन्हें शैतान के द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है। हाँ वास्तव में, मैं उस कार्य का आंकलन करने के लिए भी योग्य हूँ जिसे मैं ने किया है। हालाँकि इस कार्य को मेरे शरीर के द्वारा नहीं किया गया है, फिर भी यह आत्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है, और यह वह है जो मेरे पास है और जो मैं हूँ। इसलिए, मैं इसे व्यक्त करने और उस कार्य को करने के लिए योग्य हूँ जिसे मुझे अवश्य करना चाहिए। जो कुछ मनुष्य कहता है यह वही है जिसे उन्होंने अनुभव किया है। यह वही है जिसे उन्होंने देखा है, जिस तक उनका दिमाग पहुंच सकता है और जो उनकी इंद्रियां महसूस कर सकती हैं। यह वही है जिसकी वे संगति कर सकते हैं। देहधारी परमेश्वर के द्वारा कहे गए वचन आत्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है और वे उस कार्य को अभिव्यक्त करते हैं जिन्हें आत्मा के द्वारा किया गया है। देह ने इसे अनुभव नहीं किया है या देखा नहीं हैं, परन्तु अभी भी उसके अस्तित्व को अभिव्यक्त करता है क्योंकि शरीर का मूल-तत्व आत्मा है, और वह आत्मा के कार्य को अभिव्यक्त करता है। हालाँकि देह इस तक पहुंचने में असमर्थ है, फिर भी यह ऐसा कार्य है जिसे आत्मा के द्वारा पहले से ही किया गया है। देहधारण के पश्चात्, देह की अभिव्यक्ति के माध्यम से, वह परमेश्वर के अस्तित्व को जानने के लिए लोगों को योग्य बनाता है और लोगों को परमेश्वर के स्वभाव और उस कार्य को देखने की अनुमति देता है जिसे उसने किया है। मनुष्य का कार्य लोगों को इस योग्य बनाता है कि वे इस बात के विषय में और अधिक स्पष्ट हो जाएं कि उन्हें किसमें प्रवेश करना चाहिए और उन्हें क्या समझना चाहिए; इसमें शामिल है सत्य को समझने एवं अनुभव करने के प्रति लोगों की अगुवाई करना। मनुष्य का काम लोगों को बनाए रखना है; परमेश्वर का कार्य मानवता के लिए नए मार्गों को खोलना और नए युगों खोलना है, और लोगों को वह प्रगट करना है जिसे नश्वर मनुष्यों के द्वारा जाना नहीं जाता है, और उन्हें इस योग्य बनाना है कि वे उसके स्वभाव को जानें। परमेश्वर का कार्य सम्पूर्ण मानवता की अगुवाई करना है।
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