36. सृष्टि से लेकर अब तक, परमेश्वर ने इतनी पीड़ा सहन की है, और इतने सारे हमलों का सामना किया है। पर आज भी, मनुष्य परमेश्वर से अपनी माँगे कम नहीं करता है, वह आज भी परमेश्वर की जाँच करता है, आज भी उसमें उसके प्रति कोई सहिष्णुता नहीं है, और उसे सलाह देने, आलोचना करने और अनुशासित करने के अलावा मनुष्य और कुछ भी नहीं करता है, जैसे कि उसे गहरा भय हो कि परमेश्वर भटक जाएगा, कि पृथ्वी पर परमेश्वर पाशविक और अनुचित है, या दंगा कर रहा है, या वह कुछ भी काम का न रह जाएगा। मनुष्य का परमेश्वर के प्रति हमेशा इस तरह का रवैया रहा है। यह कैसे परमेश्वर को दुखी नहीं करता? देह धारण करने में, परमेश्वर ने जबरदस्त वेदना और अपमान को सहन किया है; मनुष्य की शिक्षाओं को स्वीकार करने के लिये परमेश्वर की और कितनी दुर्गति होगी? मनुष्य के बीच उसके आगमन ने उसकी सारी स्वतंत्रता छीन ली है, जैसे कि उसे अधोलोक में बंदी बना लिया गया हो, और उसने मनुष्य के विश्लेषण को थोड़े-से भी प्रतिरोध के बिना स्वीकार कर लिया है।क्या यह शर्मनाक नहीं है? एक सामान्य व्यक्ति के परिवार के बीच आने में, यीशु ने सबसे बड़ा अन्याय सहन किया है। इससे भी अधिक अपमानजनक यह है कि वह इस धूल भरी दुनिया में आ गया है और उसने खुद को बहुत ही नीचे तक झुका लिया है, और अधिकतम सामान्यता का देह ग्रहण किया है। एक मामूली व्यक्ति बनने में, क्या सर्वोच्च परमेश्वर को मुश्किल नहीं भुगतनी पड़ती है? और क्या यह सब मानव जाति के लिए नहीं है? क्या किसी भी समय ऐसा हुआ जब वह खुद के लिए सोच रहा था? यहूदियों द्वारा खारिज कर दिये जाने और मार दिए जाने, और लोगों द्वारा उसका उपहास और तिरस्कार किये जाने के बाद उसने न तो कभी स्वर्ग में शिकायत की, न ही धरती पर विरोध किया। आज, यह सहस्राब्दियों पुरानी त्रासदी इन यहूदी जैसे लोगों के बीच फिर से प्रकट हुई है। क्या वे उसी पाप को नहीं दुहरा रहे? परमेश्वर के वादों को पाने के लिए मनुष्य को क्या योग्य बनाता है? क्या वह परमेश्वर का विरोध कर बाद में उसका आशीर्वाद स्वीकार नहीं करता है? क्यों मनुष्य कभी न्याय का सामना नहीं करता, या सच्चाई की तलाश नहीं करता है? क्यों उसे परमेश्वर के कार्य में कोई रुचि नहीं है? उसकी धार्मिकता कहाँ है? उसकी निष्पक्षता कहाँ है? क्या वह परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करने का दम रखता है? न्याय की उसकी समझ कहाँ है? मनुष्य को जो प्रिय है उसमें से कितना परमेश्वर को प्रिय है? मनुष्य खड़िया और पनीर का भेद नहीं बता सकता[7] है, वह हमेशा काले और सफ़ेद रंगों के बारे में भ्रमित रहता है, वह न्याय और सच्चाई का दमन करता है, और अन्याय और अधर्म को हमेशा ऊपर ऊँचा उठाता है। वह प्रकाश को दूर भगाता है, और अंधेरों में कूदता-फाँदता है। जो लोग सच्चाई और न्याय की तलाश करते हैं, वे इसके बजाय प्रकाश को दूर भगाते हैं, जो परमेश्वर की तलाश करते हैं, वे उसे अपने पैरों के नीचे रौंदते हैं, और खुद को आकाश में ऊँचा फहराते हैं। मनुष्य एक डाकू[8] से भिन्न नहीं है। उसका विवेक कहाँ है? कौन सही-गलत का भेद कह सकता है? कौन न्याय कर सकता है? कौन सच्चाई के लिए दुःख सहना चाहता है? लोग शातिर और शैतान हैं! परमेश्वर को सूली पर चढ़ाने के बाद वे ताली बजाते और खुश होते हैं, उनकी असभ्य चीखें अंतहीन होती हैं। वे मुर्गियों और कुत्तों की तरह हैं, वे सह-षड्यंत्रकारी और धूर्त हैं, उन्होंने अपना राज्य स्थापित किया है, उनकी दखल ने कोई जगह नहीं छोड़ी है, वे अपनी आँखें बंद कर लेते हैं और पागलपन से गुर्राते फिरते हैं, सभी एक साथ घुसे हुए हैं, और एक दिखावे का माहौल फैला हुआ है, काफी हलचल और चटक है, और जो खुद को आँखें मूँद कर दूसरों से जोड़ते हैं, वे उभरते रहते हैं, सभी अपने पूर्वजों के "शानदार" नामों को पकड़े रहते हैं। इन कुत्तों और मुर्गियों ने बहुत पहले परमेश्वर को अपने मस्तिष्क के पीछे डाल दिया है, और परमेश्वर के दिल की स्थिति पर कभी भी ध्यान नहीं दिया। परमेश्वर का यह कहना कोई आश्चर्य नहीं है कि मनुष्य एक कुत्ते या मुर्गी की तरह है, एक भौंकने वाला कुत्ता जो सौ दूसरों के चीखने का कारण बनता है; इस तरह, बहुत शोरगुल के साथ मनुष्य परमेश्वर के कार्य को आज के दिन तक ले आया है, इस बात से बिलकुल अनभिज्ञ कि परमेश्वर का कार्य क्या है, कि क्या इसमें न्याय है, कि क्या परमेश्वर के पास कोई एक ऐसी जगह है जहाँ उसे कदम रखना है, कि कल का दिन कैसा है, या फिर वह अपनी नीचता और अपनी गंदगी के बारे में अनभिज्ञ है। मनुष्य ने चीज़ों के बारे में ख़ास कुछ कभी नहीं सोचा है, उसने कल के बारे में खुद कभी चिंता नहीं की है, और जो कुछ फायदेमंद और अनमोल है उसे अपनी बाँहों में इकट्ठा कर लिया है, और रद्दी तथा बचे-खुचे[9] के सिवाय परमेश्वर के लिए कुछ नहीं छोड़ा है। मानवजाति कितनी क्रूर है! मानव के पास परमेश्वर के लिए कोई भावना नहीं बची है, और परमेश्वर का सब कुछ गुप्त रूप से निगल जाने के बाद, उसके अस्तित्व की तरफ अब और ध्यान न देते हुए, उसने उसे अपने बहुत पीछे उछाल फेंका है। वह परमेश्वर का आनंद तो लेता है, परन्तु परमेश्वर का विरोध करता है, और उसे पैरों तले कुचलता है, जबकि उसके मुंह में वह परमेश्वर का धन्यवाद और उसकी प्रशंसा करता है; वह परमेश्वर से प्रार्थना करता है, और परमेश्वर पर निर्भर रहता है, साथ ही परमेश्वर को धोखा भी देता है; वह परमेश्वर के नाम का "गुणगान" करता है और परमेश्वर के मुख की ओर नज़रें उठाता है, फिर भी वह बेरहमी से और बेशर्मी से परमेश्वर के सिंहासन पर बैठ जाता है और परमेश्वर की "अधर्मिता" का न्याय करता है; उसके मुंह से तो ऐसे शब्द आते हैं कि वह ईश्वर का ऋणी है, और वह परमेश्वर के शब्दों को देखता है, परन्तु फिर भी अपने दिल में वह परमेश्वर पर प्रहार करता है; वह ईश्वर के प्रति "सहिष्णु" है, फिर भी वह परमेश्वर पर अत्याचार करता है और उसका मुंह कहता है कि यह परमेश्वर की खातिर है; अपने हाथों में वह परमेश्वर की चीजों को रखता है, और अपने मुंह में वह उस भोजन को चबाता है जो परमेश्वर ने उसे दिया है, फिर भी उसकी आँखें परमेश्वर पर एक ठंडी और भावनारहित नज़र रखती हैं, मानो कि वह उसे पूरी तरह से गप कर जाने की इच्छा रखता हो; वह सच्चाई को देखता है लेकिन कहता है कि यह शैतान की चाल है; वह न्याय पर निगाह डालता है, लेकिन इसे आत्म-त्याग बन जाने के लिए मजबूर करता है; वह मनुष्यों के कामों को देखता है, पर इस बात पर जोर देता है कि वे ही परमेश्वर हैं; वह मनुष्यों की प्राकृतिक प्रतिभाओं को देखता है लेकिन आग्रह करता है कि वे ही सत्य हैं; वह परमेश्वर के कार्यों पर नज़र डालता है लेकिन इस पर जोर देता है कि वे अहंकार और अभिमान, शेखी और दंभ हैं; जब मनुष्य परमेश्वर की ओर देखता है, तो वह उसे मानव के रूप में अंकित करने पर ज़ोर देता है, और उसे एक ऐसे सृष्ट जीव की जगह पर बिठाने की कोशिश करता है जो शैतान के साथ मिलीभगत में हो; वह पूरी तरह से जानता है कि वे परमेश्वर की उक्तियाँ हैं, फिर भी उन्हें किसी व्यक्ति के लेखन के अलावा और कुछ नहीं कहेगा; वह पूरी तरह से जानता है कि आत्मा देह में सिद्ध होती है, कि परमेश्वर देह बन जाता है, लेकिन केवल यही कहता है कि यह देह शैतान का वंशज[10] है; वह पूरी तरह से जानता है कि परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, फिर भी कहता है कि शैतान लज्जित हुआ है, और परमेश्वर जीत गया है। ये कैसे निकम्मे लोग हैं! मनुष्य तो रक्षक कुत्तों के रूप में सेवा करने के योग्य भी नहीं है! वह काले और सफ़ेद के बीच तो भेद नहीं करता है, यहाँ तक कि वह जानबूझकर काले रंग को तोड़-मरोड़ कर सफेद बनाता है। क्या मनुष्य की ताकतें और मनुष्य के घेरे परमेश्वर की मुक्ति के दिन को बर्दाश्त कर सकेंगे? जानबूझकर परमेश्वर का विरोध करने के बाद मनुष्य बेपरवाह है, या वह उसे मार डालने की हद तक भी चला जाता है, परमेश्वर खुद को दिखा सके इसका मौका ही न छोड़ते हुए। कहाँ है धार्मिकता? प्रेम कहाँ है? वह परमेश्वर के पास बैठता है, और परमेश्वर को धकेलता है कि वह घुटनों पर गिर कर माफ़ी माँगे, उसकी सारी व्यवस्थाओं का पालन करे, उसकी सभी चालाकियों को स्वीकार करे, और परमेश्वर जो कुछ भी करे उसमें उसकी सलाह लेने को कहता है, वर्ना वह फिर भड़क जाता है[11] और आग बबूला हो उठता है। अंधेरे के इस तरह के प्रभाव के तहत जो काले को सफ़ेद में बदल देता है, परमेश्वर कैसे दु:ख से ग्रस्त न होता? वह कैसे चिंता नहीं करता? ऐसा क्यों कहा जाता है कि जब परमेश्वर ने अपना नवीनतम कार्य शुरू किया, तो यह एक नए युग की सुबह की तरह था? मनुष्य के कर्म इतने "समृद्ध" हैं, "जीवित जल के सदैव बहते हुए कूप-स्रोत" मनुष्य के दिल के क्षेत्र को निरंतर "फिर से भरते हैं", जबकि मनुष्य का "जीवित जल का कूप-स्रोत" परमेश्वर के साथ बेझिझक[12] प्रतिस्पर्धा करता है; ये दोनों परस्पर विरोधी हैं, और यह बिना किसी रोक के परमेश्वर की जगह पर लोगों को प्रावधान देता है, जबकि मनुष्य इसमें शामिल खतरों के विषय में सोचे बिना इसके साथ सहयोग करता है। और इसका क्या प्रभाव है? वह उपेक्षापूर्वक ईश्वर को एक तरफ हटा देता है, और उसे बहुत दूर कर देता है, जहाँ लोग उसकी ओर ध्यान नहीं दें, इस बात से भयभीत कि परमेश्वर उनका ध्यान आकर्षित कर लेगा, और वह बेहद डरा हुआ है कि परमेश्वर के जीवित जल के कूप-स्रोत मनुष्य को लुभा लेंगे और मनुष्य को प्राप्त कर लेंगे। इस प्रकार, कई वर्षों की सांसारिक चिंताओं का सामना करने के बाद, वह परमेश्वर के खिलाफ कपट और षड्यंत्र करता है, और यहां तक कि परमेश्वर को अपनी फटकार का लक्ष्य भी बना देता है। ऐसा लगता है कि परमेश्वर उसकी आँखों में एक कुंदा-सा बन गया है, और वह परमेश्वर को पकड़ने और उसे अग्नि में निर्मल तथा शुद्ध करने के लिए बेताब है। परमेश्वर की असुविधा को देख कर, मनुष्य अपनी छाती पीटता और हँसता है, वह खुशी के मारे नाचता है, और कहता है कि परमेश्वर को भी शुद्धिकरण में डुबो दिया गया है, और कहता है कि वह परमेश्वर की मलीन अशुद्धताओं को भस्म कर देगा, जैसे कि केवल यही तर्कसंगत और विवेकपूर्ण हो, जैसे कि केवल ये ही स्वर्ग के निष्पक्ष और उचित तरीके हों। मनुष्य का यह हिंसक व्यवहार संकल्पित और बेसुध दोनों ही लगता है। मनुष्य अपने बदसूरत चेहरे और अपना घृणित, गंदा आत्मा दोनों को ही प्रकट करता है, साथ ही साथ एक भिखारी की दयनीय शकल को भी; दूर-दूर तक उपद्रव करने के बाद, वह एक दयनीय सूरत बना लेता है और स्वर्ग से क्षमा के लिए भीख माँगता है, और एक अत्यंत दयनीय पिल्ले की तरह दिखता है। मनुष्य हमेशा अप्रत्याशित तरीकों से काम करता है, वह हमेशा "दूसरों को डराने के लिए शेर की पीठ पर सवारी करता है" [अ], जहाँ भी हो सके वह हँसी-मजाक में शामिल हो जाता है, परमेश्वर के दिल के बारे में वह जरा भी विचार नहीं करता, न ही वह अपनी स्थिति से कोई तुलना करता है। वह तो चुपचाप केवल परमेश्वर का विरोध करता है, जैसे कि परमेश्वर ने उसके साथ कोई अन्याय कर रखा हो और उसे इस तरह से व्यवहार नहीं करना चाहिए था, और जैसे कि स्वर्ग की आँखें न हों और जानबूझकर वह चीजों को उसके लिए कठिन बनाता हो। इस प्रकार मनुष्य हमेशा चुपके-चुपके साज़िशें रचता है और वह परमेश्वर से अपनी मांगें थोड़ी-सी भी कम नहीं करता, हिंसक आँखों से देखता है, परमेश्वर के हर कदम को उग्रता से घूरता है, कभी यह नहीं सोचता कि वह परमेश्वर का दुश्मन है, और यह उम्मीद करता है कि वह दिन आएगा जब परमेश्वर कुहासे को काट देगा, और चीज़ों को स्पष्ट करेगा, और उसे "बाघ के मुंह" से बचाएगा और उसकी ओर से प्रतिशोध ले लेगा। आज भी, लोग यह नहीं सोचते हैं कि वे परमेश्वर का विरोध करने की भूमिका निभा रहे हैं, ऐसी भूमिका जो युगों से बहुतों ने निभाई है; वे कैसे जान सकते हैं कि जो कुछ भी वे करते हैं, उसमें वे लंबे समय से भटक गए हैं, कि वे जो कुछ भी समझते थे वह सब समुद्रों ने कब का निगल लिया है।
किसने कब सच्चाई को स्वीकार किया है? किसने कब खुली बाँहों से परमेश्वर का स्वागत किया है? किसने कब परमेश्वर के अवतरण के लिए खुशी से कामना की है? मनुष्य के व्यवहार का लंबे समय से क्षय हो गया है, और उसकी मलिनता ने लंबे समय से परमेश्वर के मंदिर को ऐसे छोड़ दिया है कि उसे पहचाना ही न जा सके। इस बीच मनुष्य, परमेश्वर को अपने से तुच्छ समझते हुए, अभी भी अपने काम को जारी रखता है। ऐसा लगता है जैसे कि परमेश्वर के खिलाफ उसका विरोध पत्थर की लकीर बन गया है, और अपरिवर्तनीय है, और नतीजतन, वह अपने शब्दों और कार्यों के और अधिक दुर्व्यवहार से पीड़ित होने की बजाय, शापित होगा। इस तरह के लोग, परमेश्वर को कैसे जान सकते हैं? वे कैसे परमेश्वर के साथ आराम पा सकते हैं? और कैसे वे परमेश्वर के सामने आने के योग्य हो सकते हैं?
"वचन देह में प्रकट होता है" से "कार्य और प्रवेश (9)" से
37. मैंने मनुष्य के साथ कई दिन-रात बिताए हैं, मैं दुनिया में मनुष्य के साथ रह चुका हूँ, और मैंने कभी भी मनुष्य से कोई और अपेक्षाएँ नहीं की हैं; मैं केवल मनुष्य का निरंतर आगे की ओर मार्गदर्शन करता हूँ, मैं मनुष्य का मार्गदर्शन करने के अलावा और कुछ भी नहीं करता हूँ, और मानव जाति की नियति की खातिर, मैं निरंतर प्रबंधन का कार्य करता हूँ। स्वर्ग के पिता की इच्छा को कभी किसने समझा है? किसने स्वर्ग और पृथ्वी के बीच यात्रा की है? मैं मनुष्य के साथ उसके "बुढ़ापे" को अब और बिताना नहीं चाहता, क्योंकि मनुष्य बहुत पुराने ढंग का है, वह कुछ भी नहीं समझता है, एक ही चीज़ जो वह जानता है, अन्य सभी से अलग, वह है उस दावत को छक कर खाना जो मैंने सजा रखी है—किसी भी अन्य मामले पर ध्यान न देते हुए। मानव जाति बहुत कृपण है, मनुष्यों के बीच कोलाहल, उदासी और जोखिम बहुत अधिक है, और इस प्रकार मैं आखिरी दिनों के दौरान हासिल की गई जीत के बहुमूल्य फलों को साझा करना नहीं चाहता हूँ। मनुष्य को उन प्रचुर आशीर्वादों का आनंद उठाने दो जो उसने खुद ने निर्मित किये हैं, क्योंकि मनुष्य मेरा स्वागत नहीं करता है—मैं मनुष्य को मुस्कुराहट का स्वांग करने के लिए क्यों मजबूर करूँ? दुनिया का हर कोना गर्मजोशी से रहित है, पूरे विश्व के परिदृश्य में वसंत का कोई नामो-निशान नहीं है, क्योंकि जल में निवास करते एक जीव की तरह, उसमें थोड़ी-सी भी गर्माहट नहीं है, वह एक लाश की तरह है, और यहाँ तक कि वह रक्त भी जो उसकी नसों में दौड़ता है, एक जमी हुए बर्फ की तरह है जो दिल को ठिठुराता है। गर्माहट कहाँ है? बिना किसी कारण के मनुष्य ने परमेश्वर को सूली पर जड़ दिया, और बाद में उसने थोड़ी-सी भी आशंका महसूस नहीं की। किसी को भी कभी अफसोस नहीं हुआ है, और ये क्रूर आततायी अभी भी मनुष्य के पुत्र को एक बार फिर "जीवित पकड़ना"[4] चाहते हैं और एक गोली चलाने वाले दस्ते के सामने उसे ले आने की योजना बना रहे हैं, ताकि वे अपने दिल की नफरत को खत्म कर सकें। इस खतरनाक भूमि में और रहने का मुझे क्या लाभ है? यदि मैं रह जाता हूँ, तो केवल एक ही चीज जो मैं मनुष्य के लिए लाऊंगा, वह संघर्ष और हिंसा है, और संकट का कोई अंत न होगा, क्योंकि मैं कभी मनुष्य के लिए शांति नहीं, केवल युद्ध, लाया हूँ। मानव जाति के आखिरी दिन युद्ध से भर जाने चाहिए, और हिंसा और संघर्ष के बीच मनुष्य के गंतव्य को ध्वस्त हो जाना चाहिए। मैं युद्ध की "प्रसन्नता" में "हिस्सा" लेने के लिए तैयार नहीं हूँ, मैं मनुष्य के रक्तपात और बलिदान का साथ नहीं दूँगा, क्योंकि मनुष्य की अस्वीकृति मुझे "निराशा" की ओर ले गई है और मुझे मनुष्य के युद्धों को देखने का दिल नहीं है—मनुष्य को जी भर लड़ने दो, मैं आराम करना चाहता हूँ, मैं सोना चाहता हूँ, मानव जाति के अंतिम दिनों के दौरान राक्षसों को उनके साथी बनने दो! मेरी इच्छा को कौन जानता है? चूँकि मनुष्य ने मेरा स्वागत नहीं किया गया है, और उसने कभी मेरी प्रतीक्षा नहीं की है, मैं केवल उसे विदाई दे सकता हूँ, और मैं मानवता के गंतव्य को उसे सौंपता हूँ, अपना सारा धन मनुष्य के लिए छोड़ता हूँ, अपने जीवन को मनुष्यों के बीच बोता हूँ, अपने जीवन के बीज को मनुष्य के ह्रदय के खेत में बोता हूँ, उसके लिए अक्षय स्मृतियाँ छोड़ता हूँ, मानव जाति के लिए मेरा सारा प्रेम देता हूँ, और जो कुछ भी मुझमें मनुष्य को प्रिय है वह सब उसे देता हूँ, उस प्रेम के उपहार के रूप में जिसके साथ हम एक दूसरे को चाहते हैं। मेरी हसरत है कि हम हमेशा के लिए एक दूसरे से प्यार करते रहें, कि हमारा बीता हुआ कल हमारी एक अच्छी वस्तु हो जो हम एक दूसरे को दें, क्योंकि मैंने मानवता को पहले से ही अपनी पूर्णता दे दी है—मनुष्य को क्या शिकायतें हो सकती हैं? मैंने पूरी तरह से मेरे जीवन की पूर्णता को मनुष्यों के लिए छोड़ दिया है, और बिना एक शब्द के, मानव जाति के लिए प्रेम की सुंदर भूमि पर हल जोतने की कड़ी मेहनत की है; मैंने कभी मनुष्यों से न्यायसंगत मांगे भी नहीं की हैं, और सिर्फ मानव की व्यवस्था के प्रति समर्पण करने और मानवता के लिए एक अधिक सुंदर आने वाला कल बनाने के अलावा और कुछ भी नहीं किया है।
"वचन देह में प्रकट होता है" से "कार्य और प्रवेश (10)" से
38. परमेश्वर के देह-धारण ने सभी मतों और संप्रदायों को चकित कर दिया है, इसने उनकी मूल व्यवस्था को "उलट-पुलट कर दिया" है, और इसने उन सभी लोगों के दिलों को हिला दिया है जो परमेश्वर की उपस्थिति के लिए तरसते हैं। कौन है जो प्रेममय नहीं? कौन परमेश्वर को देखने का अभिलाषी नहीं है? परमेश्वर कई सालों से मनुष्यों के बीच व्यक्तिगत रूप से रहा है, फिर भी मनुष्य ने कभी इसका अनुभव नहीं किया है। आज, परमेश्वर खुद प्रकट हुआ है, और जनता के सामने अपनी पहचान प्रकट की है—यह कैसे मनुष्य के दिल को प्रसन्न नहीं कर सकता था? एक बार परमेश्वर ने मनुष्य के साथ सुख और दुःख साझा किए, और आज वह मानव जाति के साथ फिर से जुड़ गया है, और वह उसके साथ बिताये समय के किस्से साझा करता है। उसके यहूदिया से बाहर चले जाने के बाद, लोगों को उसका कोई भी पता नहीं लग पाया। वे एक बार फिर परमेश्वर के साथ मिलना चाहते हैं, यह न जानते हुए कि वे लोग आज फिर से उसके साथ मिल चुके हैं, और उसके साथ फिर से एक हो गए हैं। यह बात बीते कल के ख्यालों को कैसे नहीं जगाएगी? दो हजार साल पहले इस दिन, यहूदियों के वंशज सिमोन बार-योना ने उद्धारकर्ता यीशु को देखा, उसके साथ एक ही मेज पर भोजन किया, और कई वर्षों से उसका अनुसरण करने के बाद उसके लिए एक गहरा लगाव महसूस किया: उसने तहेदिल से उससे प्रेम किया, उसने प्रभु यीशु से गहराई से प्यार किया। यहूदी लोगों को कुछ भी अंदाज़ नहीं था कि यह सुनहरे बालों वाला बच्चा, जो एक सर्द नांद में पैदा हुआ था, वह परमेश्वर के देह्धारण की पहली छवि थी। वे सभी सोचते थे कि वह उनके जैसा ही था, किसी ने भी उसे अपने से अलग नहीं समझा था—लोग इस सामान्य और साधारण यीशु को कैसे पहचान सकते थे? यहूदी लोगों ने उसे उस समय के एक यहूदी पुत्र के रूप में ही जाना। किसी ने भी उसे एक सुंदर परमेश्वर के रूप में नहीं देखा, और आँखें बंद कर उससे ये मांगें करते हुए कि वह उन्हें प्रचुर और भरपूर आशीषें, शांति और आनन्द दे, लोगों ने और कुछ भी नहीं किया। उन्हें पता था कि एक करोड़पति की तरह, उसके पास सब कुछ था जिसकी कोई कभी भी इच्छा कर सकता था। फिर भी लोग कभी भी उसके साथ ऐसे पेश नहीं आये कि वह उनको प्रिय था; उस समय के लोगों ने उससे प्रेम नहीं किया, और केवल उसके खिलाफ विरोध किया, और उससे अनुचित मांगें की, पर उसने कभी प्रतिकार नहीं किया, वह लगातार मनुष्य को आशीषें देते रहा, भले ही मनुष्य उसे जान नहीं पाए थे। मनुष्यों को चुपके से ऊष्मा, प्रेम और दया प्रदान करने, और उससे भी ज्यादा, मनुष्यों को व्यवहार के ऐसे नए तरीके देने के अलावा जिससे वे नियमों के बंधन से बाहर निकाल सकें, उसने और कुछ भी नहीं किया। मनुष्य ने उसे प्यार नहीं किया, केवल उससे ईर्ष्या की और उसकी असाधारण प्रतिभा को मान्यता दी। अंधी मानवजाति कैसे जान सकती थी कि जब प्रिय उद्धारक यीशु उनके बीच आया, तो उसे कितना बड़ा अपमान सहन करना पड़ा था? किसी ने भी उसके संकट को नहीं समझा, किसी ने भी पिता परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम के बारे में नहीं जाना, और न ही किसी ने उसके अकेलेपन के बारे में जाना; भले ही मेरी उसकी जन्मदात्री थी, फिर भी वह दयालु प्रभु यीशु के दिल में रहे विचारों को कैसे जान सकती थी? मानव के पुत्र के द्वारा सही गई अकथनीय पीड़ा को किसने जाना? उससे अनुरोध करने के बाद, उस समय के लोगों ने रुखाई से उसे अपने दिमाग के पीछे डाल दिया, और उसे बाहर निकाल दिया। तो वह सड़कों पर घूमता रहा, दिन-ब-दिन, साल-दर-साल, कई सालों तक यूँ ही घूमता रहा, तैंतीस कठोर सालों तक जीवित रहकर, वे साल जो लंबे और संक्षिप्त दोनों ही थे। जब लोगों को उसकी जरूरत होती थी, तो वे उसे अपने घरों में मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ आमंत्रित करते थे, उससे माँगने की कोशिश करते हुए—और जैसे ही उसने अपना योगदान उन्हें दिया, उन्होंने तुरंत उसे दरवाजे से बाहर कर दिया। जो कुछ उसने अपने मुंह से मुहैया किया था, लोगों ने उसे खाया, उन्होंने उसका रक्त पीया, उन्होंने उन आशीर्वादों का आनंद लिया जो उसने दिए, फिर भी उन्होंने उसका विरोध भी किया, क्योंकि उन्हें कभी पता नहीं था कि उनके जीवन उन्हें किसने दिये थे। आखिरकार, उन्होंने उसे क्रूस पर जड़ दिया, फिर भी उसने कोई आवाज़ नहीं की। आज भी, वह चुप रहता है। लोग उसके शरीर को खाते हैं, वे वह खाना खाते हैं जो वह उनके लिए बनाता है, वे उस रास्ते पर चलते हैं जो उसने उनके लिए खोला है, और वे उसका खून पीते हैं, फिर भी वे उसे अस्वीकार करने का इरादा रखते हैं, वास्तव में जिस परमेश्वर ने उन्हें जीवन दिया है उसके साथ वे शत्रु जैसा व्यवहार करते हैं, और इसके बदले उन दासों को जो उनके जैसे हैं, स्वर्ग के पिता की तरह मानते हैं। इसमें, क्या वे जानबूझकर विरोध नहीं कर रहे? क्रूस पर यीशु को कैसे मरना पड़ा? क्या तुम जानते हो? क्या यहूदा ने जो उसके सबसे निकट था और जिसने उसे खाया था, उसे पीया था और उसका आनंद लिया था, उसके साथ विश्वासघात नहीं किया? क्या यहूदा के विश्वासघात का कारण यह नहीं था, कि यीशु उसके लिए एक सामान्य छोटे शिक्षक से ज्यादा कुछ नहीं था? यदि लोगों ने वास्तव में देखा होता कि यीशु असाधारण था, और एक ऐसा जो स्वर्ग का था, तो उसे कैसे वे चौबीस घंटे तक क्रूस पर जीवित जड़ सकते थे, जब तक कि उसके शरीर में कोई सांस न बचे? कौन परमेश्वर को जान सकता है? लोग अतृप्य लालच के साथ परमेश्वर के आनंद को लेने के अलावा कुछ नहीं करते हैं, परन्तु उन्होंने उसे कभी भी नहीं समझा है। उन्हें एक इंच दिया गया था और उन्होंने एक मील ले लिया है, और वे अपनी आज्ञाओं के प्रति, अपने आदेशों के प्रति, यीशु को पूरी तरह से आज्ञाकारी बनाते हैं। किसने कभी मनुष्य के इस पुत्र की ओर दया की तरह कुछ भी दिखाया है, जिसके पास सिर धरने की भी जगह नहीं है? किसने कभी परमेश्वर के पिता के आदेश को पूरा करने के लिए उसके साथ दल में शामिल होने का विचार किया है? किसने कभी उसके लिए एक विचार किया है? कौन कभी उसकी कठिनाइयों के प्रति विचारशील हुआ है? थोड़े-से भी प्यार के बिना, मनुष्य उसे आगे पीछे मरोड़ता है; मनुष्य को पता नहीं है कि उसका प्रकाश और जीवन कहाँ से आया था, और दो हजार साल पहले के यीशु को, जिसने मनुष्य के बीच दर्द का अनुभव किया है, एक बार फिर क्रूस पर चढ़ाने की चुपके से एक योजना बनाने के अलावा वह और कुछ नहीं करता है। क्या यीशु वास्तव में ऐसी नफ़रत को जगाता है? क्या वह सब कुछ जो उसने किया, लम्बे समय से भुला दिया गया है? वह नफ़रत जो हजारों सालों से इकट्ठी हो रही थी, अंततः बाहर की ओर तेजी से फूट पड़ेगी। तुम लोग, यहूदियों की किस्म! कब यीशु ने तुम लोगों से शत्रुता की है, जो तुम सब उससे इतनी घृणा करो? उसने बहुत कुछ किया है, और बहुत कुछ कहा है—क्या यह तुम सभी के हित में नहीं है? उसने तुम सब को अपना जीवन दिया है बदले में कुछ भी माँगे बिना, उसने तुम्हें अपना सर्वस्व दे दिया है—क्या तुम लोग वास्तव में अभी भी उसे जिंदा खा जाना चाहते हो? उसने कुछ भी बचाकर रखे बिना अपना सब तुम लोगों को दे दिया है, बिना कभी सांसारिक महिमा का आनंद उठाए, बिना मनुष्यों के बीच रही गर्मजोशी, और मनुष्यों के बीच रहे प्रेम, या मनुष्यों के बीच मिलते वरदान का सुख उठाए। लोग उसके प्रति बहुत ही घटिया हैं, उसने धरती पर कभी दौलत का सुख नहीं लिया, वह अपने नेक, भावुक दिल की संपूर्णता मनुष्य को समर्पित करता है, उसने अपना समग्र मानव जाति को समर्पित किया है—और किसने कभी उसे सौहार्द दिया है? किसने कभी उसे आराम दिया है? मनुष्य ने उस पर सारा दबाव लाद रखा है, सारा दुर्भाग्य उसे सौंप दिया है, मनुष्य के सबसे दुर्भाग्यपूर्ण अनुभव उस पर थोप रखे हैं, वह सभी अन्यायों के लिए उसे ही दोषी ठहराता है, और उसने इसे चुपचाप स्वीकार कर लिया है। क्या उसने कभी किसी से विरोध किया है? क्या उसने कभी किसी से थोडा भी हर्जाना माँगा है? किसी ने कभी उसके प्रति कोई सहानुभूति दिखायी है? सामान्य लोगों के रूप में, तुम लोगों में से किसका एक रूमानी बचपन न था? किसका यौवन रंगीन नहीं रहा? प्रियजनों का सौहार्द किसे नहीं मिला है? कौन रिश्तेदारों और दोस्तों के प्यार से रहित है? दूसरों के सम्मान के बिना कौन है? एक स्नेही परिवार के बिना कौन है? विश्वासपात्रों के आराम के बिना कौन है? और क्या उसने कभी इनमें से किसी का भी सुख पाया है? किसने कभी उसे थोड़ी गर्मजोशी दी है? किसने कभी उसे लेशमात्र भी आराम दिया है? किसी ने कभी उसे थोड़ी-सी मानवीय नैतिकता दिखायी है? कौन कभी उसके प्रति सहिष्णु रहा है? मुश्किल समय के दौरान कौन उसके साथ रहा है? किसने कभी उसके साथ एक कठिन जीवन बिताया है? मनुष्य ने अपनी अपेक्षाओं को कभी भी कम नहीं किया; वह बिना किसी हिचकिचाहट के केवल उससे माँगें करता है, मानो कि मनुष्य की दुनिया में आकर, उसे उनका बैल या घोड़ा, उसका कैदी बनना पड़ेगा, और उसे अपना सर्वस्व मनुष्यों को दे देना होगा; नहीं तो मनुष्य कभी उसे माफ नहीं करेगा, कभी उसके साथ सुगम नहीं होगा, उसे कभी परमेश्वर नहीं कहेगा, और कभी भी उसे उच्च सम्मान में नहीं रखेगा। मनुष्य परमेश्वर के प्रति अपने व्यवहार में बहुत सख्त है, जैसे कि वह परमेश्वर को मृत्यु पर्यंत सताने पर उतारू हो, जिसके बाद ही वह परमेश्वर से अपनी अपेक्षाओं को कम करेगा; यदि नहीं, तो मनुष्य कभी भी परमेश्वर से अपनी अपेक्षाओं के मानकों को कम नहीं करेगा। कैसे इस तरह का मनुष्य परमेश्वर द्वारा घृणित नहीं होगा? क्या यह आज की त्रासदी नहीं है? कहीं इंसान का जमीर दिखाई नहीं देता। वह कहता रहता है कि वह परमेश्वर के प्रेम का ऋण चुकाएगा, परन्तु वह परमेश्वर का विश्लेषण करता है और मृत्यु तक उसे यातना देता है। क्या यह परमेश्वर में उसके विश्वास करने का "गुप्त नुस्खा" नहीं, जो उसे पूर्वजों से विरासत में प्राप्त हुआ है? ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ "यहूदी" लोग न हों, और आज भी वे वही करते हैं, वे अभी भी परमेश्वर के विरोध का ही काम करते हैं, और फिर भी विश्वास करते हैं कि वे परमेश्वर को उच्च स्थान पर रखते हैं। कैसे मनुष्य की अपनी आँखें परमेश्वर को जान सकती हैं? कैसे मनुष्य में जो देह में जीता है, परम आत्मा से उतरे हुए देहधारी परमेश्वर को परमेश्वर के रूप में मान सकता है? मनुष्य के बीच कौन उसे जान सकता है? मनुष्यों के बीच में सच्चाई कहाँ है? सच्ची धार्मिकता कहाँ है? कौन परमेश्वर के स्वभाव को जानने में सक्षम है? कौन स्वर्ग के परमेश्वर के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकता है? इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि, जब वह मनुष्य के बीच आ गया है, तो कोई भी परमेश्वर को नहीं जानता है, और उसे अस्वीकार कर दिया गया है। मनुष्य कैसे परमेश्वर के अस्तित्व को सहन कर सकता है? कैसे वह प्रकाश को संसार के अंधेरे को बाहर निकालने की अनुमति दे सकता है? क्या यही सब मनुष्यों की सम्माननीय भक्ति नहीं है? क्या यही मनुष्य का ईमानदार प्रवेश नहीं है? और क्या परमेश्वर का कार्य मनुष्यों के प्रवेश के आसपास केंद्रित नहीं है? मेरी इच्छा है कि तुम लोग इंसान के प्रवेश के साथ परमेश्वर के कार्य को मिलाओ, और मनुष्य और परमेश्वर के बीच एक अच्छा संबंध स्थापित करो, और अपनी क्षमता की चरम सीमा तक उस कर्तव्य का पालन करो जो मनुष्य द्वारा किया जाना चाहिए। इस तरह, परमेश्वर का कार्य इसके पश्चात् उसके गुणगान के साथ समाप्त हो जाएगा!
"वचन देह में प्रकट होता है" से "कार्य और प्रवेश (10)" से
स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
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