15. देहधारी परमेश्वर का कार्य उन व्यक्तियों के समान नहीं है जिन्हें पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किया गया था। जब परमेश्वर पृथ्वी पर अपना काम करता है, तब वह केवल अपनी सेवकाई को पूरा करने की परवाह करता है। जहाँ तक अन्य मुद्दों की बात है जो उसकी सेवकाई से सम्बन्धित नहीं हैं, वह व्यावहारिक रूप से कोई भाग नहीं लेता है, यहाँ तक कि उस हद तक जहाँ वह जान-बूझकर अनदेखा करता है। वह मात्र उस कार्य को करता है जो उसे अवश्य करना चाहिए, और वह उस कार्य के विषय में तो बिलकुल भी परवाह नहीं करता है जो मनुष्य को अवश्य करना चाहिए। जिस कार्य को वह करता है वह केवल उस युग से सम्बन्धित है जिसमें वह है और उस सेवकाई से सम्बन्धित है जिसे उसे अवश्य पूरा करना चाहिए, मानो कि अन्य सभी मुद्दे उसकी ज़िम्मेदारी नहीं हैं। वह एक मनुष्य के रूप में जीवन जीने के बारे में अधिक मूलभूत ज्ञान से अपने आपको सुसज्जित नहीं करता है, तथा वह और अधिक सामाजिक कौशल या अन्य किसी चीज़ को नहीं सीखता है जिसे मनुष्य समझता है। वह उन सभी चीज़ों की ज़रा सी भी परवाह नहीं करता है जिनसे मनुष्य को सुसज्जित किया जाना चाहिए और वह मात्र उस कार्य को करता है जो उसका कर्तव्य है। और इस प्रकार, जैसा कि मनुष्य इसे देखता है, देहधारी परमेश्वर बहुत अधिक अपूर्ण है, यहाँ तक कि इस हद तक कि वह जान-बूझकर बहुत कुछ को अनदेखा कर देता है जो किसी मनुष्य के पास होना चाहिए, और उसे ऐसे मामलों की समझ नहीं है। जीवन का सामान्य ज्ञान, और साथ ही व्यवहार के सिद्धान्त और दूसरों के साथ सम्बद्ध होने जैसे मामले उसके लिए कोई महत्व के प्रतीत नहीं होते है। इसके बावजूद, तुम देहधारी परमेश्वर की ओर से जरा सा भी असामान्य व्यवहार महसूस नहीं कर सकते हो। कहने का अभिप्राय है, कि उसकी मानवता, उसके मस्तिष्क के सामान्य तर्क के साथ, उसे सही एवं ग़लत के बीच प्रभेद करने की योग्यता देते हुए, एक साधारण मनुष्य के रूप में सिर्फ उसके जीवन को बनाए रखती है। हालाँकि, वह किसी और चीज़ से सुसज्जित नहीं है, जिसमें से सब कुछ सिर्फ मनुष्य (सृजित प्राणियों) के लिए है। परमेश्वर केवल अपनी सेवकाई को पूरा करने के लिए देहधारी बनता है। उसका कार्य एक समूचे युग की ओर निर्देशित है और न कि किसी विशेष व्यक्ति या स्थान की ओर। उसका कार्य समूचे विश्व की ओर निर्देशित है। यही उसके कार्य की दिशा और वह सिद्धान्त है जिसके द्वारा वह कार्य करता है। इसे किसी के द्वारा बदला नहीं जा सकता है, और मनुष्य उसमें कोई भाग नहीं ले सकता है।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (3)" से
16. परमेश्वर पृथ्वी पर केवल अपना काम पूरा करने आता है, और इसलिए पृथ्वी पर उसका कार्य थोड़े समय का होता है। वह पृथ्वी पर इस अभिप्राय के साथ नहीं आता है कि परमेश्वर का पवित्र आत्मा उसकी देह को कलीसिया के एक असाधारण अगुवे के रूप में विकसित करे। जब परमेश्वर पृथ्वी पर आता है, तो यह वचन का देह बनना है; हालाँकि, मनुष्य उसके कार्य को नहीं जानता है और ऐसे इरादों का उस पर दबाव डालता है। किन्तु तुम सब लोगों को यह एहसास करना चाहिए कि देह धारण किया हुआ वचन ही परमेश्वर है, न कि अस्थायी रूप से परमेश्वर की भूमिका की जगह लेने के लिए पवित्र आत्मा के द्वारा विकसित किया गया एक देह। परमेश्वर स्वयं को विकसित नहीं किया जाता है, बल्कि वचन देह बनता है, और आज वह तुम सब लोगों के बीच अपने कार्य को आधिकारिक रूप से करता है।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (3)" से
17. केवल युग की अगुवाई करने और एक नए कार्य को गतिमान करने के लिए परमेश्वर देह बनता है। तुम लोगों को इस बिन्दु को समझना होगा। यह मनुष्य के प्रकार्य से बहुत अलग है, और दोनों को लगभग एक साथ नहीं कहा जा सकता है। इससे पहले कि कार्य करने के लिए मनुष्य का उपयोग किया जाए, मनुष्य को विकसित होने एवं पूर्णता की एक लम्बी समयावधि की आवश्यकता है और एक विशेष रूप में बड़ी मानवता की आवश्यकता है। न केवल मनुष्य को अपनी सामान्य मानवीय समझ को बनाए रखने के योग्य अवश्य होना चाहिए, बल्कि मनुष्य को दूसरों के सामने व्यवहार के अनेक सिद्धान्तों और नियमों को अवश्य और भी अधिक समझना चाहिए, और इसके अतिरिक्त उसे अवश्य मनुष्य की बुद्धि और नैतिकता को और अधिक सीखना चाहिए। यह वह है जिससे मनुष्य को सुसज्जित अवश्य होना होगा। हालाँकि, देहधारी हुए परमेश्वर के लिए ऐसा नहीं है, क्योंकि उसका कार्य न तो मनुष्य का प्रतिनिधित्व करता है और न ही मनुष्यों का है; इसके बजाए, यह उसके अस्तित्व की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है और उस कार्य का प्रत्यक्ष कार्यान्वयन है जो उसे अवश्य करना चाहिए। (प्राकृतिक रूप से, उसका कार्य तब किया जाता है जब उसे किया जाना चाहिए, और इच्छानुसार यादृच्छिक रूप से नहीं किया जाता है। बल्कि, उसका कार्य तब शुरू होता है जब उसकी सेवकाई को पूरा करने का समय होता है।) वह मनुष्य के जीवन में या मनुष्य के कार्य में भाग नहीं लेता है, अर्थात्, उसकी मानवता इन में से किसी भी चीज़ से सुसज्जित नहीं है (परन्तु इससे उसका कार्य प्रभावित नहीं होता है)। वह केवल अपनी सेवकाई को पूरा करता है जब उसके लिए ऐसा करने का समय होता है; उसकी हैसियत कुछ भी हो, वह बस उस कार्य के साथ आगे बढ़ता है जो उसे अवश्य करना चाहिए। मनुष्य उसके बारे में जो कुछ भी जानता है या उसके बारे में उसकी जो कुछ भी राय हों, इससे उसके कार्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। यह ठीक ऐसा है जब यीशु ने अपना काम किया था; कोई नहीं जानता था कि वह कौन था, परन्तु वह अपने काम में आगे बढ़ता गया। इसमें से किसी ने भी उस कार्य को करने में उसे प्रभावित नहीं किया जो उसे अवश्य करना चाहिए था। इसलिए, उसने पहले अपनी स्वयं की पहचान को स्वीकार या घोषित नहीं किया, और मात्र लोगों से अपना अनुसरण करवाया। प्राकृतिक रूप से यह केवल परमेश्वर की विनम्रता नहीं थी; यह वह तरीका था जिससे परमेश्वर ने देह में काम किया था। वह केवल इसी तरीके से काम कर सकता था, क्योंकि मनुष्य उसे अपनी नग्न आँखों से नहीं पहचान सकता था। और यदि मनुष्य पहचान भी लेता, तब भी वह उसके काम में सहायता करने में समर्थ नहीं होता। इसके अतिरिक्त, वह इसलिए देहधारी नहीं हुआ कि मनुष्य उसकी देह को जान जाए; यह कार्य को करने और अपनी सेवकाई को पूरा करने के लिए था। इसी कारण से, उसने अपनी पहचान ज्ञात करवाने को कोई महत्व नहीं दिया। जब उसने वह सब कार्य पूरा कर लिया जो उसे अवश्य करना चाहिए था, तब उसकी पूरी पहचान और हैसियत प्राकृतिक रूप से मनुष्य की समझ में आ गई। परमेश्वर देह बनता है बस मौन रहता है और कभी कोई घोषणाएँ नहीं करता है। वह मनुष्य पर या उसका अनुसरण करते हुए मनुष्य किस प्रकार सफल होता है इस बात पर कोई ध्यान नहीं देता है, और अपनी सेवकाई पूरा करने में और उस कार्य को करते हुए आगे बढ़ता जाता है जो उसे अवश्य करना चाहिए। कोई भी उसके कार्य के मार्ग में खड़ा नहीं हो सकता है। जब उसके कार्य के समापन का समय आता है, तब इसका समापन किया जाना और उसका अंत किया जाना अनिवार्य है। कोई भी अन्यथा आदेश नहीं दे सकता है। अपने काम की समाप्ति के बाद जब वह मनुष्य से विदा हो जाता है केवल तभी मनुष्य उसके द्वारा किए गए कार्य को समझेगा, यद्यपि अभी भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं समझेगा। और जब उसने पहली बार अपने कार्य को किया तो उसके इरादों को पूरी तरह से समझने के लिए मनुष्य को बहुत लम्बा समय लगेगा। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर देह बनता है तो उस युग के कार्य को दो भागों में विभाजित किया जाता है। एक भाग स्वयं देहधारी हुए परमेश्वर के कार्य और वचनों के माध्यम से है। एक बार जब उसकी देह की सेवकाई पूरी तरह से सम्पूर्ण हो जाती है, तो कार्य का दूसरा भाग पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किए गए लोगों के द्वारा किया जाना है; फिर यह मनुष्य के लिए अपने प्रकार्य को पूरा करने का समय है, क्योंकि परमेश्वर ने पहले ही मार्ग प्रशस्त कर दिया है, और अब उस पर मनुष्य को स्वयं अवश्य चलना चाहिए। कहने का अभिप्राय है, कि अपने कार्य के एक भाग को करने के लिए परमेश्वर देह बनता है, और इसे पवित्र आत्मा और साथ ही पवित्र आत्मा के द्वारा उपयोग किए गए लोगों के द्वारा अनुक्रम में जारी रखा जाता है। अतः मनुष्य को कार्य के इस चरण में देहधारी हुए परमेश्वर के द्वारा किए जाने वाले प्राथमिक कार्य को जानना चाहिए। परमेश्वर से यह पूछने के बजाय कि मनुष्य से क्या कहा गया है, मनुष्य को देहधारी हुए परमेश्वर के और उस कार्य के महत्व को सटीक रूप से अवश्य समझना चाहिए जो परमेश्वर को अवश्य करना चाहिए। यह मनुष्य की ग़लती है, और साथ ही उसकी अवधारणा है, और इसके अतिरिक्त, उसकी अवज्ञा है।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (3)" से
18. परमेश्वर देह बनता है यह मनुष्य को परमेश्वर की देह को जानने की अनुमति देने के अभिप्राय से नहीं है, या देहधारी परमेश्वर की देह और मनुष्य की देह के बीच भेद करने की अनुमति देने के लिए नहीं है; मनुष्य की विवेक की योग्यता को प्रशिक्षित करने के लिए परमेश्वर देह नहीं बनता है, मनुष्य के लिए इस अभिप्राय के साथ तो बिलकुल भी नहीं कि वह परमेश्वर के देहधारी देह की आराधना करे, जिससे उसे बड़ी महिमा मिलेगी। इसमें से कुछ भी परमेश्वर के देह बनने के लिए मूल इच्छा नहीं है। मनुष्य की निन्दा करने के लिए, जानबूझकर मनुष्य को प्रकट करने के लिए, या चीज़ों को मनुष्य के लिए कठिन बनाने के लिए परमेश्वर देह नहीं बनता है। इनमें से कोई भी परमेश्वर की मूल इच्छा नहीं है। हर बार जब परमेश्वर देह बनता है, तो यह ऐसा कार्य है जो अपरिहार्य है। यह उसके बड़े कार्य और उसके बड़े प्रबंधन के लिए है कि वह ऐसा करता है, और उन कारणों के लिए नहीं है जिनकी मनुष्य कल्पना करता है। परमेश्वर पृथ्वी पर केवल तभी आता है जब उसके कार्य के द्वारा अपेक्षित होता है, और हमेशा जब आवश्यकता होती है। वह पृथ्वी पर घूमने-फिरने के इरादे से नहीं आता है, बल्कि उस कार्य को करने लिए आता है जो उसे अवश्य करना चाहिए। अन्यथा वह इतने भारी उत्तरदायित्व को क्यों ग्रहण करेगा और इस कार्य को करने के लिए इतना बड़ा जोखिम लेगा? केवल तभी परमेश्वर देह बनता है जब उसे ऐसा करना है, और वह हमेशा एक अद्वितीय महत्व के साथ देह बनता है। यदि यह सिर्फ मनुष्य को उस पर एक नज़र डालने और अपनी आँखों को खोलेने की अनुमति देने के लिए होता, तो वह, पूरी निश्चितता के साथ, इतनी तुच्छता से मनुष्य के बीच कभी नहीं आता। वह पृथ्वी पर अपने प्रबंधन और अपने बड़े काम के लिए, और अपने लिए बहुत से लोगों को प्राप्त करने में सक्षम होने के लिए आता है। वह उस युग का प्रतिनिधित्व करने के लिए और शैतान को पराजित करने के लिए आता है, और वह शैतान को पराजित करने के लिए देह में आता है। इसके अतिरिक्त, वह समस्त मानवजाति की उनकी ज़िन्दगियों में अगुवाई करने के लिए आता है। यह सब कुछ उसके प्रबंधन से सम्बन्धित है, और ऐसा कार्य है जो पूरे विश्व से सम्बन्धित है। यदि परमेश्वर मनुष्य को मात्र अपनी देह को जानने की अनुमति देने और मनुष्य की आँखें खोलने के लिए देह बना होता, तो वह हर देश की यात्रा क्यों नहीं करता? क्या यह अत्यधिक आसानी का मामला नहीं है? परन्तु उसने ऐसा नहीं किया, इसके बजाए बसने और उस कार्य को आरंभ करने के लिए एक उपयुक्त स्थान को चुनता है जो उसे अवश्य करना चाहिए। केवल यह अकेला देह ही अत्यधिक महत्व का है। वह संपूर्ण युग का प्रतिनिधित्व करता है, और साथ ही एक संपूर्ण युग के कार्य को भी करता है; वह पुराने युग का समापन और नए युग का सूत्रपात दोनों करता है। यह समस्त महत्वपूर्ण मामला है जो परमेश्वर के प्रबंधन से संबंधित है, और पृथ्वी पर आए परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य के एक चरण का महत्व है।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (3)" से
19. प्रत्येक युग के कार्य की शुरुआत परमेश्वर स्वयं के द्वारा की जाती है, परन्तु तुम्हें जानना चाहिए कि परमेश्वर का काम कुछ भी हो, वह कोई आन्दोलन शुरू करने के लिए, या विशेष सम्मेलन आयोजित करने के लिए या तुम लोगों के लिए किसी प्रकार की संस्था की स्थापना करने के लिए नहीं आता है। वह केवल उस कार्य को करने के लिए आता है जो उसे अवश्य करना चाहिए। उसका कार्य किसी मनुष्य के द्वारा प्रतिबन्धित नहीं किया जाता है। वह अपने कार्य को जैसा चाहता है वैसा करता है; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य क्या सोचता या जानता है, वह केवल अपने कार्य को करने पर ध्यान केन्द्रित करता है। संसार की सृष्टि के समय से ही, पहले से ही कार्य के तीन चरण रहे हैं; यहोवा से यीशु तक, व्यवस्था के युग से अनुग्रह के युग तक, परमेश्वर ने कभी भी मनुष्य के लिए किसी विशेष सम्मलेन का आयोजन नहीं किया है, न ही उसने कभी अपने कार्य को फैलाने हेतु कोई विशेष वैश्विक कार्यशील सम्मलेन आयोजित करने के लिए समस्त मानवजाति को इकट्ठा किया है। जब समय और स्थान सही होता है तब वह मात्र एक संपूर्ण युग के प्राथमिक कार्य को करता है, और इसके माध्यम से मानवजाति की उनकी ज़िन्दगियों में अगुवाई करने के लिए युग का सूत्रपात करता है। विशेष सम्मेलन मनुष्य की मण्डलियाँ हैं; छुट्टियों का उत्सव मनाने के लिए लोगों को एकत्रित करना मनुष्य का काम है। परमेश्वर छुट्टियाँ नहीं मनाता है और, इसके अतिरिक्त, उनसे घृणा करता है; वह विशेष सम्मेलनों का आयोजन नहीं करता है और इसके अतिरिक्त उनसे घृणा करता है। अब तुम्हें ठीक-ठीक समझ जाना चाहिए कि देहधारी हुए परमेश्वर का क्या कार्य है!
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (3)" से
20. परमेश्वर के सम्पूर्ण स्वभाव को छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना के दौरान प्रकट किया गया है। इसे सिर्फ अनुग्रह के युग में, सिर्फ व्यवस्था के युग में प्रकट नहीं किया जाता है, या सिर्फ अंत के दिनों की इस समयावधि में तो बिलकुल भी प्रकट नहीं किया जाता है। अंत के दिनों में किया गया कार्य न्याय, कोप और ताड़ना का प्रतिनिधित्व करता है। अंत के दिनों में किया गया कार्य व्यवस्था के युग या अनुग्रह के युग के कार्य का स्थान नहीं ले सकता है। हालाँकि, तीनों चरण आपस में एक दूसरे से जुड़कर एक सत्त्व बन जाते हैं और सभी एक ही परमेश्वर के द्वारा किये गए कार्य हैं। स्वाभाविक रूप में, इस कार्य का क्रियान्वयन तीन अलग-अलग युगों में विभाजित है। अंत के दिनों में किया गया कार्य हर चीज़ को समाप्ति की ओर ले जाता है; जो कुछ व्यवस्था के युग में किया गया वह आरम्भ का कार्य है; और जो अनुग्रह के युग में किया गया वह छुटकारे का कार्य है। जहाँ तक इस सम्पूर्ण छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना में कार्य के दर्शनों की बात है, तो किसी को भी अंर्तदृष्टि या समझ प्राप्त नहीं हो सकती है। ऐसे दर्शन हमेशा से ही रहस्य रहे हैं। अंत के दिनों में, राज्य के युग का सूत्रपात करने के लिए केवल वचन का कार्य किया जाता है, परन्तु यह सभी युगों का प्रतिनिधि नहीं है। अंत के दिन अंत के दिनों से बढ़कर नहीं हैं और राज्य के युग से बढ़कर नहीं हैं, जो अनुग्रह के युग या व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। अंत के दिन मात्र वह समय है जिसमें छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना के समस्त कार्य को तुम लोगों पर प्रकट किया जाता है। यह रहस्य से पर्दा उठाना है। ऐसे रहस्य को किसी भी मनुष्य के द्वारा अनावृत नहीं किया जा सकता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मनुष्य के पास बाइबल की कितनी अधिक समझ है, यह वचनों से बढ़कर और कुछ नहीं है, क्योंकि मनुष्य बाइबिल के सार को नहीं समझता है। जब मनुष्य बाइबल को पढ़ता है, तो वह कुछ सच्चाईयों को प्राप्त कर सकता है, कुछ वचनों की व्याख्या कर सकता है या कुछ प्रसिद्ध अंशों या उद्धरणों का सूक्ष्म परीक्षण कर सकता है, परन्तु वह उन वचनों के भीतर निहित अर्थ को निकालने में कभी भी समर्थ नहीं होगा, क्योंकि मनुष्य जो कुछ देखता है वे मृत वचन हैं, यहोवा और यीशु के कार्य के दृश्य नहीं हैं, और मनुष्य ऐसे कार्य के रहस्य को सुलझाने में असमर्थ है। इसलिए, छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना का रहस्य सबसे बड़ा रहस्य है, एक ऐसा रहस्य जो मनुष्य से बिलकुल छिपा हुआ और उसके लिए सर्वथा अचिन्त्य है। कोई भी सीधे तौर पर परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझ सकता है, जब तक कि वह मनुष्य को स्वयं न समझाए और खुल कर न कहे, अन्यथा, वे सर्वदा मनुष्य के लिए पहेली बने रहेंगे और सर्वदा मुहरबंद रहस्य बने रहेंगे। जो धार्मिक जगत में हैं वे उन पर कभी ध्यान नहीं देते हैं; यदि तुम लोगों को आज नहीं बताया जाए, तो तुम लोग भी समझने में समर्थ नहीं होगे।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (4)" से
21. अंत के दिनों का कार्य तीनों चरणों में से अंतिम चरण है। यह एक अन्य नए युग का कार्य है और संपूर्ण प्रबंधन कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना कार्य के तीन चरणों में विभाजित है। कोई भी अकेला चरण तीनों युगों के कार्य का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है बल्कि सम्पूर्ण के केवल एक भाग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। यहोवा नाम परमेश्वर के सम्पूर्ण स्वभाव का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। इस तथ्य से कि उसने व्यवस्था के युग में कार्य किया है यह साबित नहीं होता है कि परमेश्वर केवल व्यवस्था के अधीन ही परमेश्वर हो सकता है। यहोवा ने, मनुष्य से मंदिर और वेदियाँ बनाने के लिए कहते हुए, मनुष्य के लिए व्यवस्थाएँ निर्धारित की और आज्ञाओं की घोषणा की; उसने जो कार्य किया उसने केवल व्यवस्था के युग का प्रतिनिधित्व किया। उसने जो कार्य वह यह साबित नहीं करता है कि परमेश्वर वही परमेश्वर है जो मनुष्य से व्यवस्था, मंदिर में परमेश्वर, या वेदी के सामने के परमेश्वर को बनाए रखने के लिए कहता है। ऐसा नहीं कहा जा सकता है। व्यवस्था के अधीन कार्य केवल एक युग का ही प्रतिनिधित्व कर सकता है। इसलिए, यदि परमेश्वर ने केवल व्यवस्था के युग में ही काम किया होता, तो मनुष्य ने परमेश्वर को परिभाषित कर दिया होता और कहता, "परमेश्वर मंदिर का परमेश्वर है। परमेश्वर की सेवा करने के लिए, हमें अवश्य याजकीय वस्त्र पहनने चाहिए और मंदिर में प्रवेश करना चाहिए।" यदि अनुग्रह के युग में उस कार्य को कभी नहीं किया जाता और व्यवस्था का युग वर्तमान तक जारी रहता, तो मनुष्य यह नहीं जान पाता कि परमेश्वर दयावान और प्रेममय भी है। यदि व्यवस्था के युग में कार्य नहीं किया जाता, और केवल यह अनुग्रह के युग में ही किया जाता, तो मनुष्य बस इतना ही जान पाता कि परमेश्वर मनुष्य को छुटकारा दे सकता है और मनुष्य के पापों को क्षमा कर सकता है। वे केवल इतना ही जान पाते कि वह पवित्र और निर्दोष है, कि वह मनुष्य के लिए स्वयं का बलिदान कर सकता है और सलीब पर चढ़ाया जा सकता है। मनुष्य केवल इतना ही जान पाता और अन्य सभी बातों के बारे में उसके पास कोई समझ नहीं होती। अतः, प्रत्येक युग परमेश्वर के स्वभाव के एक भाग का प्रतिनिधित्व करता है। व्यवस्था का युग कुछ पहलुओं का प्रतिनिधित्व करता है, अनुग्रह का युग कुछ पहलुओं का प्रतिनिधित्व करता है, और फिर यह युग कुछ पहलुओं का प्रतिनिधित्व करता है। परमेश्वर के स्वभाव को सिर्फ तीनों युगों को मिलाने के माध्यम से ही पूरी तरह से प्रकट किया जा सकता है। जब मनुष्य इन तीनों चरणों को पहचान जाता है केवल तभी मनुष्य इसे पूरी तरह से प्राप्त कर सकता है। तीनों में से एक भी चरण को छोड़ा नहीं जा सकता है। जब एक बार तुम कार्य के इन तीनों चरणों को जान लेते हो तो केवल तभी तुम परमेश्वर के स्वभाव को उसकी सम्पूर्णता में देखोगे। व्यवस्था के युग में परमेश्वर द्वारा अपने कार्य की पूर्णता यह साबित नहीं करती है कि वह व्यवस्था के अधीन परमेश्वर है, और छुटकारे के उसके कार्य की पूर्णता यह नहीं दर्शाती है कि परमेश्वर सदैव के लिए मानवजाति को छुटकारा देगा। ये सभी मनुष्य के द्वारा निकाले गए निष्कर्ष हैं। अनुग्रह का युग समाप्ति पर आ गया है, परन्तु तुम यह नहीं कह सकते हो कि परमेश्वर केवल सलीब से ही सम्बन्धित है और यह कि क्रूस परमेश्वर द्वारा उद्धार का प्रतिनिधित्व करता है। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम परमेश्वर को परिभाषित कर रहे हो। इस चरण में, परमेश्वर मुख्य रूप से वचन का कार्य कर रहा है, परन्तु तुम यह नहीं कह सकते हो कि परमेश्वर मनुष्य के प्रति कभी दयालु नहीं रहा है और यह कि वह जो कुछ लेकर आया है वह ताड़ना और न्याय है। अंत के दिनों का कार्य यहोवा और यीशु के कार्य को और उन सभी रहस्यों को प्रकट कर देता है जिन्हें मनुष्य के द्वारा समझा नहीं गया है। इसे मानवजाति की नियति और अंत को प्रकट करने के लिए और मानवजाति के बीच उद्धार के सब कार्य का समापन करने के लिए किया जाता है। अंत के दिनों में कार्य का यह चरण सभी चीज़ों को समाप्ति की ओर ले आता है। मनुष्य के द्वारा समझे नहीं गए सभी रहस्यों को, मनुष्य को ऐसे रहस्यों में अंर्तदृष्टि पाने की अनुमति देने और उनके हृदयों में एक स्पष्ट समझ पाने के लिए, अवश्य सुलझाया जाना चाहिए। केवल तभी मनुष्य को उनके प्रकारों के अनुसार विभाजित किया जा सकता है। जब छ:-हज़ार-वर्षों की प्रबंधन योजना पूर्ण हो जाती है केवल उसके पश्चात् ही परमेश्वर का स्वभाव अपनी सम्पूर्णता में मनुष्य की समझ में आएगा, क्योंकि तब उसकी प्रबंधन योजना समाप्त हो जाएगी।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (4)" से
22. छ:-हजार-वर्षों की प्रबंधन योजना के दौरान किया गया समस्त कार्य अब समाप्ति पर आ गया है। जब यह सब कार्य मनुष्यों पर प्रकट कर दिया जाता है और मनुष्यों के बीच कर दिया जाता है केवल उसके पश्चात् ही वे परमेश्वर के सम्पूर्ण स्वभाव और उसकी सम्पत्ति और अस्तित्व को जानेंगे। जब इस चरण का कार्य पूरी तरह से सम्पन्न कर लिया जाएगा, तो मनुष्य के द्वारा नहीं समझे गए सभी रहस्यों को प्रकट कर दिया जाएगा, पहले नहीं समझी गई सभी सच्चाइयों को स्पष्ट कर दिया जाएगा, और मानवजाति को उसके भविष्य के मार्ग और नियति के बारे में बता दिया जाएगा। यही वह सब कार्य है जो इस चरण में किया जाना है।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (4)" से
23. आज मनुष्य से जो माँग की जाती है वह अतीत की माँग के असदृश है और व्यवस्था के युग में मनुष्य से की गई माँग के तो और भी अधिक असदृश है। और जब इस्राएल में कार्य किया गया था तब व्यवस्था के अंतर्गत मनुष्य से क्या माँग की गई थी? उससे सब्त और यहोवा की व्यवस्थाओं का पालन करने से बढ़कर और कुछ की माँग नहीं की गई थी। किसी को भी सब्त के दिन काम नहीं करना था या यहोवा की व्यवस्था का उल्लंघन नहीं करना था। परन्तु अब ऐसा नहीं है। सब्त पर, मनुष्य काम करते हैं, हमेशा की तरह इकट्ठे होते हैं और प्रार्थना करते हैं, और कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाए जाते हैं? वे जो अनुग्रह के युग में थे उन्हें बपतिस्मा लेना पड़ता था; सिर्फ इतना ही नहीं, उन्हें उपवास करने, रोटी तोड़ने, दाखमधु पीने, अपने सिरों को ढकने और अपने पाँव धोने के लिए कहा जाता था। अब, इन नियमों का उन्मूलन कर दिया गया है और मनुष्यों से और भी बड़ी माँगें की जाती हैं, क्योंकि परमेश्वर का कार्य लगातार अधिक गहरा होता जाता है और मनुष्य का प्रवेश-द्वार पहले से कहीं अधिक ऊँचा हो गया है। अतीत में, यीशु मनुष्य पर हाथ रखता था और प्रार्थना करता था, परन्तु अब जबकि सब कुछ कहा जा चुका है, तो हाथ रखने का क्या उपयोग है? अकेले वचन ही परिणामों को प्राप्त कर सकते हैं। जब अतीत में वह अपना हाथ मनुष्य के ऊपर रखता था, तो यह मनुष्य को आशीष देने और चंगा करने के लिए था। उस समय पवित्र आत्मा इसी प्रकार से काम करता था, परन्तु अब ऐसा नहीं है। अब, पवित्र आत्मा परिणामों को हासिल करने के लिए अपने कार्य में वचनों का उपयोग करता है। उसने अपने वचनों को तुम लोगों के लिए स्पष्ट कर दिया है, और तुम लोगों को बस उन्हें अभ्यास में लाना चाहिए। उसके वचन उसकी इच्छा हैं और उस कार्य को दर्शाते हैं जिसे वह करेगा। उसके वचनों के माध्यम से, तुम उसकी इच्छा को और उस चीज को समझ सकते हो जिसे प्राप्त करने के लिए वह तुम्हें कहता है। तुम बस हाथ रखने की आवश्यकता के बिना सीधे तौर पर उसके वचनों को अभ्यास में लाओ। कुछ लोग कह सकते हैं, "मुझ पर अपना हाथ रख! मुझ पर अपना हाथ रख ताकि मैं तेरे आशीष प्राप्त कर सकूँ और तेरा भागी बन सकूँ।" ये सभी पहले के अप्रचलित अभ्यास हैं जो अब निषिद्ध हैं, क्योंकि युग बदल चुका है। पवित्र आत्मा युग के अनुरूप कार्य करता है, न कि इच्छानुसार या तय नियमों के अनुसार। युग बदल चुका है, और एक नए युग को अपने साथ अवश्य नया काम लेकर आना चाहिए। यह कार्य के प्रत्येक चरण के बारे में सत्य है, और इसलिए उसका कार्य कभी दोहराया नहीं जाता है। अनुग्रह के युग में, यीशु ने इस तरह का बहुत सा कार्य किया, जैसे कि बीमारियों को चंगा करना, दुष्टात्माओं को निकालना, मनुष्य के लिए प्रार्थना करने के लिए मनुष्य पर हाथ रखना, और मनुष्य को आशीष देना। हालाँकि, ऐसा करते रहने से वर्तमान में कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा। उस समय पवित्र आत्मा उस तरह से काम करता था, क्योंकि वह अनुग्रह का युग था, और आनन्द के लिए मनुष्य पर बहुत अनुग्रह दर्शाया गया था। मनुष्य को कोई कीमत चुकानी नहीं पड़ती थी और जब तक उसके पास विश्वास था वह अनुग्रह प्राप्त कर सकता था। सब के साथ अत्यधिक अनुग्रह के साथ व्यवहार किया जाता था। अब, युग बदल चुका है, और परमेश्वर का काम और आगे प्रगति कर चुका है, उसकी ताड़ना और न्याय के माध्यम से, मनुष्य की विद्रोहशीलता को और मनुष्य के भीतर की अशुद्धता को दूर किया जाएगा। चूँकि यह छुटकारे का चरण था, इसलिए, मनुष्य के आनन्द के लिए मनुष्य पर पर्याप्त अनुग्रह प्रदर्शित करते हुए, परमेश्वर को ऐसा काम करना पड़ा, ताकि वह मनुष्य को पापों से छुटकारा दिला सके, और अनुग्रह के माध्यम से उसके पापों को क्षमा किया जा सके। इस चरण को ताड़ना, न्याय, वचनों के प्रहार, और साथ ही अनुशासन तथा वचनों के प्रकाशन के माध्यम से मनुष्य के भीतर के अधर्मों को प्रकट करने के लिए पूरा किया जाता है, ताकि बाद में उसे बचाया जा सके। यह कार्य छुटकारे के कार्य से कहीं अधिक गहरा है। अनुग्रह के युग में, मनुष्य ने पर्याप्त अनुग्रह का आनन्द उठाया और उसने पहले से ही इस अनुग्रह का अनुभव कर लिया है, और इस लिए मनुष्य के द्वारा इसका अब और आनन्द नहीं उठाया जाना है। ऐसा कार्य अब चलन से बाहर हो गया है तथा अब और नहीं किया जाना है। अब, मनुष्य को वचन के द्वारा न्याय के माध्यम से बचाया जाता है। मनुष्य का न्याय, उसकी ताड़ना और उसे परिष्कृत करने के पश्चात्, उसके परिणामस्वरूप उसका स्वभाव बदल जाता है। क्या यह उन वचनों की वजह से नहीं है जिन्हें मैंने कहा है? कार्य के प्रत्येक चरण को समूची मानवजाति की प्रगति और उस युग के अनुसार किया जाता है। समस्त कार्य का अपना महत्व है; इसे अंतिम उद्धार के लिए, मानवजाति की भविष्य में एक अच्छी नियति के लिए, और अंत में मनुष्य को उसके प्रकार के अनुसार विभाजित करने के लिए, किया जाता है।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (4)" से
24. अंत के दिनों का कार्य वचनों को बोलना है। वचनों के माध्यम से मनुष्य में बड़े परिवर्तन किए जा सकते हैं। इन वचनों को स्वीकार करने पर इन लोगों में हुए परिवर्तन उन परिवर्तनों की अपेक्षा बहुत अधिक बड़े हैं जो चिन्हों और अद्भुत कामों को स्वीकार करने पर अनुग्रह के युग में लोगों पर हुए थे। क्योंकि, अनुग्रह के युग में, हाथ रखने और प्रार्थना करने के साथ ही दुष्टात्माएँ मनुष्य से निकल जाती थी, परन्तु मनुष्य के भीतर का भ्रष्ट स्वभाव तब भी बना रहता था। मनुष्य को उसकी बीमारी से चंगा किया गया था और उसके पापों को क्षमा किया गया था, परन्तु बस वह कार्य, कि किस प्रकार मनुष्य के भीतर से उन शैतानी स्वभावों को निकला जा सकता है, उसमें नहीं किया गया था। मनुष्य को केवल उसके विश्वास के कारण ही बचाया गया था और उसके पापों को क्षमा किया गया था, परन्तु उसका पापी स्वभाव उसमें से निकाला नहीं गया था और वह तब भी उसके अंदर बना रहा था। मनुष्य के पापों को देहधारी परमेश्वर के द्वारा क्षमा किया गया था, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य के भीतर कोई पाप नहीं है। पाप बलि के माध्यम से मनुष्य के पापों को क्षमा किया जा सकता है, परन्तु मनुष्य इस मसले को हल करने में असमर्थ रहा है कि वह कैसे आगे और पाप नहीं कर सकता है और कैसे उसके पापी स्वभाव को पूरी तरह से दूर किया जा सकता है और उसे रूपान्तरित किया जा सकता है। परमेश्वर के सलीब पर चढ़ने के कार्य की वजह से मनुष्य के पापों को क्षमा किया गया था, परन्तु मनुष्य पुराने, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव में जीवन बिताता रहा। वैसे तो, मनुष्य को भ्रष्ट शैतानी स्वभाव से अवश्य पूरी तरह से बचाया जाना चाहिए ताकि मनुष्य का पापी स्वभाव पूरी तरह से दूर किया जाए और फिर कभी विकसित न हो, इस प्रकार मनुष्य के स्वभाव को बदले जाने की अनुमति दी जाए। इसके लिए मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह जीवन में उन्नति के पथ को, जीवन के मार्ग को, और अपने स्वभाव को परिवर्तित करने के मार्ग को समझे। साथ ही इसके लिए मनुष्य को इस मार्ग के अनुरूप कार्य करने की आवश्यकता है ताकि मनुष्य के स्वभाव को धीरे-धीरे बदला जा सके और वह प्रकाश की चमक में जीवन जी सके, और यह कि वह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार सभी चीज़ों को कर सके, और भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दूर कर सके, और शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो सके, उसके परिणामस्वरूप पाप से पूरी तरह से ऊपर उठ सके। केवल तभी मनुष्य पूर्ण उद्धार प्राप्त करेगा। जब यीशु अपना काम कर रहा था, तो उसके बारे में मनुष्य का ज्ञान तब भी अज्ञात और अस्पष्ट था। मनुष्य ने हमेशा यह विश्वास किया कि वह दाऊद का पुत्र है और उसके एक महान भविष्यद्वक्ता और उदार प्रभु होने की घोषणा की जिसने मनुष्य को पापों से छुटकारा दिया था। विश्वास के आधार पर मात्र उसके वस्त्र के छोर को छू कर ही कुछ लोग चंगे हो गए थे; अंधे देख सकते थे और यहाँ तक कि मृतक को जिलाया भी जा सकता था। हालाँकि, मनुष्य अपने भीतर गहराई से जड़ जमाए हुए शैतानी भ्रष्ट स्वभाव को नहीं समझ सका और न ही मनुष्य यह जानता था कि उसे कैसे दूर किया जाए। मनुष्य ने बहुतायत से अनुग्रह प्राप्त किया, जैसे देह की शांति और खुशी, एक व्यक्ति के विश्वास करने पर पूरे परिवार की आशीष, और बीमारियों से चंगाई के इत्यादि। शेष मनुष्य के भले कर्म और उनका ईश्वरीय प्रकटन था; यदि मनुष्य इस तरह के आधार पर जीवन जी सकता था, तो उसे एक अच्छा विश्वासी माना जाता था। केवल ऐसे विश्वासी ही मृत्यु के बाद स्वर्ग में प्रवेश कर सकते थे, जिसका अर्थ है कि उन्हें बचा लिया गया था। परन्तु, अपने जीवन काल में, उन्होंने जीवन के मार्ग को बिलकुल भी नहीं समझा था। उन्होंने बस पाप किए थे, फिर परिवर्तित स्वभाव की ओर बिना किसी मार्ग वाले निरंतर चक्र में पाप-स्वीकारोक्ति की थी; अनुग्रह के युग में मनुष्य की दशा ऐसी ही थी। क्या मनुष्य ने पूर्ण उद्धार पा लिया था? नहीं! इसलिए, उस चरण के पूरा हो जाने के पश्चात्, अभी भी न्याय और ताड़ना का काम है। यह चरण वचन के माध्यम से मनुष्य को शुद्ध बनाता है ताकि मनुष्य को अनुसरण करने का एक मार्ग प्रदान किया जाए। यह चरण फलप्रद या अर्थपूर्ण नहीं होगा यदि यह दुष्टात्माओं को निकालना जारी रखता है, क्योंकि मनुष्य के पापी स्वभाव को दूर नहीं किया जायेगा और मनुष्य केवल पापों की क्षमा पर आकर रुक जाएगा। पापबलि के माध्यम से, मनुष्य के पापों को क्षमा किया गया है, क्योंकि सलीब पर चढ़ने का कार्य पहले से ही पूरा हो चुका है और परमेश्वर ने शैतान को जीत लिया है। परन्तु मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव अभी भी उनके भीतर बना हुआ है और मनुष्य अभी भी पाप कर सकता है और परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है; परमेश्वर ने मानवजाति को प्राप्त नहीं किया है। इसीलिए कार्य के इस चरण में परमेश्वर मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव को प्रकट करने के लिए वचन का उपयोग करता है और मनुष्य से सही मार्ग के अनुसार अभ्यास करने के लिए कहता है। यह चरण पिछले चरण की अपेक्षा अधिक अर्थपूर्ण और साथ ही अधिक लाभदायक भी है, क्योंकि अब वचन ही है जो सीधे तौर पर मनुष्य के जीवन की आपूर्ति करता है और मनुष्य के स्वभाव को पूरी तरह से नया बनाए जाने में सक्षम बनाता है; यह कार्य का ऐसा चरण है जो अधिक विस्तृत है। इसलिए, अंत के दिनों में देहधारण ने परमेश्वर के देहधारण के महत्व को पूरा किया है और मनुष्य के उद्धार के लिए परमेश्वर की प्रबंधन योजना का पूर्णतः समापन किया है।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (4)" से
स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
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