25. परमेश्वर के द्वारा मनुष्य को सीधे तौर पर पवित्रात्मा के साधनों के माध्यम से या आत्मा के रूप में बचाया नहीं जाता है, क्योंकि उसके आत्मा को मनुष्य के द्वारा न तो देखा जा सकता है और न ही स्पर्श किया जा सकता है, और मनुष्य के द्वारा उस तक पहुँचा नहीं जा सकता है। यदि उसने आत्मा के तरीके से सीधे तौर पर मनुष्य को बचाने का प्रयास किया होता, तो मनुष्य उसके उद्धार को प्राप्त करने में असमर्थ होता। और यदि परमेश्वर सृजित मनुष्य का बाहरी रूप धारण नहीं करता, तो वे इस उद्धार को पाने में असमर्थ होते। क्योंकि मनुष्य किसी भी तरीके से उस तक नहीं पहुँच सकता है, उसी प्रकार जैसे कोई भी मनुष्य यहोवा के बादल के पास नहीं जा सकता था। केवल सृष्टि का एक मनुष्य बनने के द्वारा ही, अर्थात्, अपने वचन को देह में रखकर ही वह मनुष्य बनेगा, वह व्यक्तिगत रूप से वचन के कार्य को उन सभी मनुष्यों में कर सकता है जो उसका अनुसरण करते हैं। केवल तभी मनुष्य स्वयं उसके वचन को सुन सकता है, उसके वचन को देख सकता है, और उसके वचन को ग्रहण कर सकता है, तब इसके माध्यम से पूरी तरह से बचाया जा सकता है। यदि परमेश्वर देह नहीं बना होता, तो किसी भी शरीरी मनुष्य ऐसे बड़े उद्धार को प्राप्त नहीं किया होता, और न ही कोई एक भी मनुष्य बचाया गया होता। यदि परमेश्वर का आत्मा ने सीधे तौर पर मनुष्य के बीच काम किया होता, तो मनुष्य को मार दिया गया होता या शैतान के द्वारा पूरी तरह से बंदी बनाकर ले जाया गया होता क्योंकि मनुष्य परमेश्वर के साथ सम्बद्ध होने में असमर्थ है।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (4)" से
26. प्रथम देहधारण यीशु की देह के माध्यम से मनुष्य को पाप से छुटकारा देने के लिए था, अर्थात्, उसने मनुष्य को सलीब से बचाया, परन्तु भ्रष्ट शैतानी स्वभाव तब भी मनुष्य के भीतर रह गया था। दूसरा देहधारण अब और पापबलि के रूप में कार्य करने के लिए नहीं है परन्तु उन्हें पूरी तरह से बचाने के लिए है जिन्हें पाप से छुटकारा दिया गया था। इसे इसलिए किया जाता है ताकि जिन्हें क्षमा किया गया उन्हें उनके पापों से छुटकारा दिया जा सके और पूरी तरह से शुद्ध किया जा सके, और वे स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त कर सकें, उसके परिणामस्वरूप वे शैतान के अंधकार के प्रभाव को तोड़कर आज़ाद हो जाएँ और परमेश्वर के सिंहासन के सामने लौट आएँ। केवल इसी तरीके से ही मनुष्य को पूरी तरह से पवित्र किया जा सकता है। जब व्यवस्था के युग का अंत हो गया उसके पश्चात् ही परमेश्वर ने अनुग्रह के युग में उद्धार के कार्य को आरम्भ किया था। परमेश्वर अंत के दिनों तक उद्धार के अपने कार्य का समापन और विश्राम में प्रवेश तब तक नहीं करेगा, जब तक परमेश्वर विद्रोहशीलता के लिए मनुष्य के न्याय और ताड़ना का कार्य करने के द्वारा मानवजाति को पूरी तरह से शुद्ध नहीं कर देता है। इसलिए, कार्य के तीन चरणों में, परमेश्वर स्वयं मनुष्य के बीच अपने कार्य को करने के लिए दो बार देह बना। ऐसा इसलिए है क्योंकि कार्य के तीन चरणों में से केवल एक चरण ही मनुष्यों की उनकी ज़िन्दगियों में अगुवाई करने के लिए है, जबकि अन्य दो चरण उद्धार के कार्य हैं। यदि परमेश्वर देह बनता है केवल तभी वह मनुष्य के साथ-साथ रह सकता है, संसार के दुःख का अनुभव कर सकता है, और एक सामान्य देह में रह सकता है। केवल इसी तरह से वह उस व्यावहारिक वचन से अपनी सृष्टि के मनुष्यों को आपूर्ति कर सकता है जिसकी उन्हें आवश्यकता है। देहधारी परमेश्वर की वजह से मनुष्य परमेश्वर से पूर्ण उद्धार प्राप्त करता है, न कि सीधे तौर पर स्वर्ग को की गई अपनी प्रार्थनाओं से। क्योंकि मनुष्य शरीरी है; मनुष्य परमेश्वर के आत्मा को देखने में असमर्थ है और उस तक पहुँचने में तो बिलकुल भी समर्थ नहीं है। मनुष्य केवल परमेश्वर के देहधारी देह के साथ ही सम्बद्ध हो सकता है; केवल उसके माध्यम से ही मनुष्य सारे वचनों और सारी सच्चाईयों को समझ सकता है, और पूर्ण उद्धार प्राप्त कर सकता है। दूसरा देहधारण मनुष्य को पापों से पीछा छुड़ाने और मनुष्य को पूरी तरह से पवित्र करने के लिए पर्याप्त है। इसलिए, दूसरा देहधारण देह में परमेश्वर के सभी कार्य को समाप्त करेगा और परमेश्वर के देहधारण के महत्व को पूर्ण करेगा। उसके बाद, देह में परमेश्वर का काम पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। दूसरे देहधारण के बाद, वह अपने कार्य के लिए पुन: देह नहीं बनेगा। क्योंकि उसका सम्पूर्ण प्रबंधन समाप्त हो जाएगा। अंत के दिनों में, उसका देहधारण अपने चुने हुए लोगों को पूरी तरह से प्राप्त कर लेगा, और अंत के दिनों में सभी मनुष्यों को उनके प्रकार के अनुसार विभाजित कर दिया जाएगा। वह उद्धार का कार्य अब और नहीं करेगा, और न ही वह किसी कार्य को करने के लिए देह में लौटेगा।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (4)" से
27. अंत के दिनों के कार्य में, वचन चिन्हों एवं अद्भुत कामों के प्रकटीकरण की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिमान है, और वचन का अधिकार चिन्हों एवं अद्भुत कामों से कहीं बढ़कर है। वचन मनुष्य के हृदय के सभी भ्रष्ट स्वभावों को प्रकट करता है। तुम अपने स्वयं के बल पर इन्हें पहचानने में असमर्थ हो। जब उन्हें वचन के माध्यम से तुम पर प्रकट किया जाता है, तब तुम्हें स्वाभाविक रुप से ही एहसास हो जाएगा; तुम उन्हें इनकार करने में समर्थ नहीं होगे, और तुम्हें पूरी तरह से यक़ीन हो जाएगा। क्या यह वचन का अधिकार नहीं है? यह वह परिणाम है जिसे वचन के वर्तमान कार्य के द्वारा प्राप्त किया गया है। इसलिए, बीमारियों की चंगाई और दुष्टात्माओं को निकालने के द्वारा मनुष्य को उसके पापों से पूरी तरह से बचाया नहीं जा सकता है और चिन्हों और अद्भुत कामों के प्रदर्शन के द्वारा उसे पूरी तरह से पूर्ण नहीं किया जा सकता है। चंगाई करने और दुष्टात्माओं को निकालने का अधिकार मनुष्य को केवल अनुग्रह प्रदान करता है, परन्तु मनुष्य का देह तब भी शैतान से सम्बन्धित होता है और भ्रष्ट शैतानी स्वभाव तब भी मनुष्य के भीतर बना रहता है। दूसरे शब्दों में, वह जिसे शुद्ध नहीं किया गया है अभी भी पाप और गन्दगी से सम्बन्धित है। जब वचनों के माध्यम से मनुष्य को स्वच्छ कर दिया जाता है केवल उसके पश्चात् ही उसे परमेश्वर के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है और वह पवित्र बनता है। यदि मनुष्य के भीतर से दुष्टात्माओं को निकालने और उसे छुटकारा देने से बढ़कर और कुछ नहीं किया जाता है, तो यह केवल मनुष्य को शैतान के हाथ से छीनना और उसे वापस परमेश्वर को लौटना है। हालाँकि, उसे परमेश्वर के द्वारा स्वच्छ या परिवर्तित नहीं किया गया है, और वह भ्रष्ट बना रहता है। मनुष्य के भीतर अब भी गन्दगी, विरोध, और विद्रोशीलता बनी हुई है; मनुष्य केवल छुटकारे के माध्यम से ही परमेश्वर के पास लौटा है, परन्तु मनुष्य को उसका कोई ज्ञान नहीं है और अभी भी परमेश्वर का विरोध और उसके साथ विश्वासघात करता है। मनुष्य को छुटकारा दिये जाने से पहले, शैतान के बहुत से ज़हर उसमें पहले से ही गाड़ दिए गए थे। हज़ारों वर्षों की शैतान की भ्रष्टता के बाद, मनुष्य के भीतर पहले ही ऐसा स्वभाव है जो परमेश्वर का विरोध करता है। इसलिए, जब मनुष्य को छुटकारा दिया गया है, तो यह छुटकारे से बढ़कर और कुछ नहीं है, जहाँ मनुष्य को एक ऊँची कीमत पर खरीदा गया है, परन्तु भीतर का विषैला स्वभाव नहीं हटाया गया है। मनुष्य जो इतना अशुद्ध है उसे परमेश्वर की सेवा करने के योग्य होने से पहले एक परिवर्तन से होकर अवश्य गुज़रना चाहिए। न्याय और ताड़ना के इस कार्य के माध्यम से, मनुष्य अपने भीतर के गन्दे और भ्रष्ट सार को पूरी तरह से जान जाएगा, और वह पूरी तरह से बदलने और स्वच्छ होने में समर्थ हो जाएगा। केवल इसी तरीके से मनुष्य परमेश्वर के सिंहासन के सामने वापस लौटने में समर्थ हो सकता है। वह सब कार्य जिसे आज किया गया है वह इसलिए है ताकि मनुष्य को स्वच्छ और परिवर्तित किया जा सके; वचन के द्वारा न्याय और ताड़ना के और साथ ही शुद्धिकरण के माध्यम से, मनुष्य अपनी भ्रष्टता को दूर फेंक सकता है और उसे शुद्ध किया जा सकता है। इस चरण के कार्य को उद्धार का कार्य मानने के बजाए, कहना कहीं अधिक उचित होगा कि यह शुद्ध करने का कार्य है। सच में, यह चरण विजय का और साथ ही उद्धार का दूसरा चरण है। मनुष्य को वचन के द्वारा न्याय और ताड़ना के माध्यम से परमेश्वर के द्वारा प्राप्त किया जाता है; शुद्ध करने, न्याय करने और खुलासा करने के लिए वचन के उपयोग के माध्यम से मनुष्य के हृदय के भीतर की सभी अशुद्धताओं, अवधारणाओं, प्रयोजनों, और व्यक्तिगत आशाओं को पूरी तरह से प्रकट किया जाता है। यद्यपि मनुष्य को छुटकारा दिया गया है और उसके पापों को क्षमा किया गया है, फिर भी इसे केवल इतना ही माना जाता है कि परमेश्वर मनुष्य के अपराधों का स्मरण नहीं करता है और मनुष्य के अपराधों के अनुसार मनुष्य से व्यवहार नहीं करता है। हालाँकि, जब मनुष्य देह में रहता है और उसे पाप से मुक्त नहीं किया गया है, तो वह, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को अंतहीन रूप से प्रकट करते हुए, केवल पाप करता रह सकता है। यही वह जीवन है जो मनुष्य जीता है, पाप और क्षमा का एक अंतहीन चक्र। अधिकांश मनुष्य दिन में सिर्फ इसलिए पाप करते हैं ताकि शाम को स्वीकार कर सकें। वैसे तो, भले ही पापबलि मनुष्य के लिए सदैव प्रभावी है, फिर भी यह मनुष्य को पाप से बचाने में समर्थ नहीं होगी। उद्धार का केवल आधा कार्य ही पूरा किया गया है, क्योंकि मनुष्य में अभी भी भ्रष्ट स्वभाव है। ... यह पाप की अपेक्षा अधिक गहराई तक फैला है, इसे शैतान के द्वारा गाड़ा गया है और यह मनुष्य के भीतर गहराई से जड़ पकड़े हुए है। मनुष्य के लिए अपने पापों के प्रति अवगत होना आसान नहीं है; मनुष्य अपनी स्वयं की गहराई से जड़ जमाई हुई प्रकृति को पहचानने में असमर्थ है। केवल वचन के द्वारा न्याय के माध्यम से ही इन प्रभावों को प्राप्त किया जा सकता है। केवल इस प्रकार से ही मनुष्य को उस स्थिति से आगे धीरे-धीरे बदला जा सकता है।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (4)" से
28. जो कुछ मनुष्यों ने अब प्राप्त किया है—आज के मनुष्यों की कद-काठी, उनका ज्ञान, प्रेम, वफादारी, आज्ञाकारिता, और साथ ही उनका देखना—वे ऐसे परिणाम हैं जिन्हें वचन के द्वारा न्याय के माध्यम से प्राप्त किया गया है। यह कि तुम वफादारी रखने में और आज के दिन तक खड़े रहने में समर्थ हो यह वचन के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। अब मनुष्य देखता है कि देहधारी परमेश्वर का कार्य वास्तव में असाधारण है। बहुत कुछ ऐसा है जिसे मनुष्य के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता है; वे रहस्य और अद्भुत बातें हैं। इसलिए, बहुतों ने समर्पण कर दिया है। कुछ लोगों ने अपने जन्म के समय से ही किसी भी मनुष्य के प्रति समर्पण नहीं किया है, फिर भी जब वे आज के दिन परमेश्वर के वचनों को देखते हैं, तो वे पूरी तरह से समर्पण कर देते हैं इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्होंने ऐसा किया है और वे सूक्ष्म परिक्षण करने या कुछ और कहने का जोखिम नहीं उठाते हैं; मनुष्य वचन के अधीन और वचन के द्वारा न्याय के अधीन गिर गया है। यदि परमेश्वर का आत्मा मनुष्यों से सीधे तौर पर बात करता, तो वे सब उस वचन के प्रति समर्पित हो जाते, प्रकाशन के वचनों के बिना नीचे गिर जाते, बिलकुल वैसे ही जैसे पौलुस ज्योति के मध्य भूमि पर गिर गया था जब उसने दमिश्क की यात्रा की थी। यदि परमेश्वर लगातार इसी तरीके से काम करता, तो मनुष्य वचन के द्वारा न्याय के माध्यम से अपने स्वयं के भ्रष्ट स्वभाव को जानने और उद्धार प्राप्त करने में कभी समर्थ नहीं होता। केवल देह बनने के माध्यम से ही वह व्यक्तिगत रूप से अपने वचनों को सभी के कानों तक पहुँचा सकता है ताकि वे सभी जिनके पास कान हैं उसके वचनों को सुन सकें और वचन के द्वारा न्याय के उसके कार्य को प्राप्त कर सकें। उसके वचन के द्वारा प्राप्त किया गया परिणाम सिर्फ ऐसा ही है, पवित्रात्मा के आविर्भाव के बजाए जो मनुष्य को भयभीत करके समर्पण करवाता है। केवल ऐसे ही व्यावहारिक और असाधारण कार्य के माध्यम से ही मनुष्य के पुराने स्वभाव को, जो अनेक वर्षों से भीतर गहराई में छिपा हुआ है, पूरी तरह से प्रकट किया जा सकता है ताकि मनुष्य उसे पहचाने सके और उसे बदलवा सके। यह देहधारी परमेश्वर का व्यावहारिक कार्य है; वह वचन के द्वारा मनुष्य पर न्याय के परिणामों को प्राप्त करने के लिए व्यावहारिक तरीके से बोलता है और न्याय को निष्पादित करता है। यह देहधारी परमेश्वर का अधिकार है और परमेश्वर के देहधारण का महत्व है। इसे देहधारी परमेश्वर के अधिकार को, वचन के कार्य के द्वारा प्राप्त किए गए परिणामों को, और इस बात को प्रकट करने के लिए किया जाता है कि आत्मा देह में आ चुका है; वह वचन के द्वारा मनुष्य के न्याय के माध्यम से अपने अधिकार को प्रदर्शित करता है। यद्यपि उसकी देह एक साधारण और सामान्य मानवता का बाहरी रूप है, फिर भी ये वे परिणाम हैं जिन्हें उसके वचन प्राप्त करते हैं जो मनुष्य को दिखाते हैं कि परमेश्वर अधिकार से परिपूर्ण है, यह कि वह परमेश्वर स्वयं है और यह कि उसके वचन स्वयं परमेश्वर की अभिव्यक्ति हैं। यह सभी मनुष्यों को दिखाता है कि वह परमेश्वर स्वयं है, परमेश्वर स्वयं जो देह बन गया है, और यह कि किसी के भी द्वारा उसका अपमान नहीं किया जा सकता है। कोई भी उसके वचन के द्वारा किए गए न्याय से बढ़कर नहीं हो सकता है, और अंधकार की कोई भी शक्ति उसके अधिकार पर प्रबल नहीं हो सकती है।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (4)" से
29. वह देहधारी हो गया क्योंकि देह भी अधिकार धारण कर सकता है, और वह एक व्यावहारिक तरीके से मनुष्यों के बीच कार्य करने में सक्षम है, जो मनुष्यों के लिए दृष्टिगोचर और मूर्त है। ऐसा कार्य परमेश्वर के आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर किए गए किसी भी कार्य की अपेक्षा कहीं अधिक वास्तविक है जो सारे अधिकार को धारण करता है, और इसके परिणाम भी स्पष्ट हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसका देहधारी देह व्यावहारिक तरीके से बोल और कार्य कर सकता है; उसकी देह का बाहरी रूप कोई अधिकार धारण नहीं करता है और मनुष्य के द्वारा उस तक पहुँचा जा सकता है। उसका सार अधिकार को वहन करता है, किन्तु उसका अधिकार किसी के लिए भी दृष्टिगोचर नहीं है। जब वह बोलता और कार्य करता है, तो मनुष्य उसके अधिकार के अस्तित्व का पता लगाने में असमर्थ होता है; यह उसके वास्तविक कार्य के लिए और भी अधिक अनुकूल है। और इस प्रकार के सभी कार्य परिणामों को प्राप्त कर सकते हैं। भले ही कोई मनुष्य यह एहसास नहीं करता है कि परमेश्वर अधिकार रखता या यह नहीं देखता है कि परमेश्वर का अपमान नहीं किया जा सकता है या परमेश्वर के कोप को नहीं देखता है, फिर भी परमेश्वर के छिपे हुए अधिकार और कोप और सार्वजनिक भाषण के माध्यम से, परमेश्वर अपने वचनों के अभीष्ट परिणामों को प्राप्त कर लेता है। दूसरे शब्दों में, उसकी आवाज़ के लहजे, भाषण की कठोरता, और उसके वचनों की समस्त बुद्धि के माध्यम से, मनुष्य सर्वथा आश्वस्त हो जाता है। इस तरह से, मनुष्य देहधारी परमेश्वर के वचन के प्रति समर्पण करता है, जिसके पास प्रकट रूप में कोई अधिकार नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य के लिए उद्धार के अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। यह उसके देहधारण का एक और महत्व है: अधिक वास्तविक रूप से बोलना और अपने वचनों को अनुमति देना कि मनुष्य पर प्रभाव डालें ताकि वे परमेश्वर के वचन की सामर्थ्य के गवाह बनें। अतः यह कार्य, यदि देहधारण के माध्यम से नहीं किया जाए, तो थोड़े से भी परिणामों को प्राप्त नहीं करेगा और पापियों का पूरी तरह से उद्धार करने में समर्थ नहीं होगा। यदि परमेश्वर देह नहीं बना होता, तो वह ऐसा पवित्रात्मा बना रहता जो मनुष्यों के लिए अदृश्य और अमूर्त होता। मनुष्य देह वाला प्राणी है, और मनुष्य और परमेश्वर दो अलग-अलग संसारों से सम्बन्धित हैं, और स्वभाव में भिन्न हैं। परमेश्वर का आत्मा देह वाले मनुष्य से बेमेल है, और उनके बीच कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता है; इसके अतिरिक्त, मनुष्य आत्मा नहीं बन सकता है। वैसे तो, परमेश्वर के आत्मा को प्राणियों में से एक अवश्य बनना चाहिए और अपना मूल काम करना चाहिए। परमेश्वर सबसे ऊँचे स्थान पर चढ़ सकता है और सृष्टि का एक मनुष्य बनकर, कार्य करते हुए और मनुष्य के बीच रहते हुए, अपने आपको विनम्र भी कर सकता है, परन्तु मनुष्य सबसे ऊँचे स्थान पर नहीं चढ़ सकता है और पवित्रात्मा नहीं बन सकता है और वह निम्नतम स्थान में तो बिलकुल भी नहीं उतर सकता है। इसलिए, अपने कार्य को करने के लिए परमेश्वर को देह अवश्य बनना चाहिए। बहुत कुछ जैसा कि प्रथम देहधारण के साथ है, केवल देहधारी परमेश्वर का देह ही सलीब पर चढ़ने के माध्यम से मनुष्य को छुटकारा दे सकता था, जबकि परमेश्वर के आत्मा को मनुष्य के लिए पापबलि के रूप में सलीब पर चढ़ाया जाना सम्भव नहीं था। परमेश्वर मनुष्य के लिए एक पापबलि के रूप में कार्य करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से देह बन सकता था, परन्तु मनुष्य उस पापबलि को लेने के लिए प्रत्यक्ष रूप से स्वर्ग में चढ़ नहीं सकता था जिसे परमेश्वर ने उनके लिए तैयार किया था। वैसे तो, मनुष्य को इस उद्धार को लेने के लिए स्वर्ग में चढ़ने देने की बजाए, परमेश्वर को स्वर्ग और पृथ्वी के बीच इधर-उधर अवश्य आना-जाना चाहिए, क्योंकि मनुष्य पतित हो चुका था और स्वर्ग पर चढ़ नहीं सकता था, और पापबलि को तो बिलकुल भी प्राप्त नहीं कर सकता था। इसलिए, यीशु के लिए मनुष्यों के बीच आना और व्यक्तिगत रूप से उस कार्य को करना आवश्यक था जिसे मनुष्य के द्वारा सरलता से पूरा नहीं किया जा सकता था। हर बार जब परमेश्वर देह बनता है, तब ऐसा करना नितान्त आवश्यक था। यदि किसी भी चरण को परमेश्वर के आत्मा के द्वारा सीधे तौर पर सम्पन्न किया जा सकता, तो उसने देहधारी होने के अनादर को सहन नहीं किया होता।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (4)" से
30. कार्य के इस अंतिम चरण में, वचन के द्वारा परिणामों हो प्राप्त किया जाता है। वचन के माध्यम से, मनुष्य बहुत से रहस्यों को और पिछली पीढ़ियों के दौरान किये गए परमेश्वर के कार्य को समझ जाता है; वचन के माध्यम से, मनुष्य को पवित्र आत्मा के द्वारा प्रबुद्ध किया जाता है; वचन के माध्यम से, मनुष्य पिछली पीढ़ियों के द्वारा कभी नहीं सुलझाए गए रहस्यों को, और साथ ही अतीत के समयों के भविष्यद्वक्ताओं और प्रेरितों के कार्य को, और उन सिद्धान्तों को समझ जाता है जिनके द्वारा वे काम करते थे; वचन के माध्यम से, मनुष्य परमेश्वर स्वयं के स्वभाव को, और साथ ही मनुष्य की विद्रोहशीलता और विरोध को भी समझ जाता है, और स्वयं अपने सार को जान जाता है। कार्य के इन चरणों और बोले गए सभी वचनों के माध्यम से, मनुष्य आत्मा के कार्य को, परमेश्वर के देहधारी देह के कार्य को, और इसके अतिरिक्त, उसके सम्पूर्ण स्वभाव को जान जाता है। छ: हज़ार वर्षों से अधिक की परमेश्वर की प्रबंधन योजना का तुम्हारा ज्ञान भी वचन के माध्यम से प्राप्त किया गया था। क्या तुम्हारी पुरानी अवधारणाओं का तुम्हारा ज्ञान और उन्हें एक ओर करने में तुम्हारी सफलता भी वचन के माध्यम से प्राप्त नहीं किए गए थे? पिछले चरण में, यीशु ने चिन्ह और अद्भुत काम किए थे, परन्तु इस चरण में ऐसा नहीं है। वह ऐसा क्यों नहीं करता है क्या इस बारे में तुम्हारी समझ भी वचन के माध्यम से ही प्राप्त नहीं की गई थी? इसलिए, इस चरण में बोले गए वचन पिछली पीढ़ियों के प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा किए गए कार्य से बढ़कर हैं। यहाँ तक कि भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा की गई भविष्यवाणियाँ भी ऐसे परिणामों को प्राप्त नहीं कर सकी थीं। भविष्यद्वक्ताओं ने केवल भविष्यवाणियों के बारे में कहा था, कि भविष्य में क्या होगा, परन्तु उस कार्य के बारे में नहीं कहा था जिसे परमेश्वर उस समय करने वाला था। उन्होंने मनुष्य की ज़िन्दगियों में उनकी अगुवाई करने के लिए, मनुष्य को सच्चाई प्रदान करने के लिए या मनुष्य पर रहस्यों को प्रकट करने के लिए नहीं कहा, और जीवन प्रदान करने के लिए तो उन्होंने बिलकुल भी नहीं कहा। इस चरण में बोले गए वचनों के बारे में, इसमें भविष्यवाणी और सत्य है, परन्तु वे प्रमुख रूप से मनुष्य को जीवन प्रदान करने के काम आते हैं। वर्तमान समय के वचन भविष्यद्वक्ताओं की भविष्यवाणियों से भिन्न हैं। यह कार्य का ऐसा चरण है जो भविष्यवाणियों के लिए नहीं बल्कि मनुष्य के जीवन के लिए है, और मनुष्य के जीवन स्वभाव को परिवर्तित करने के लिए है। प्रथम चरण पृथ्वी पर परमेश्वर की आराधना करने हेतु मनुष्य के लिए एक मार्ग तैयार करने का यहोवा का कार्य था। यह पृथ्वी पर कार्य के स्रोत को खोजने हेतु आरम्भ का कार्य था। उस समय, यहोवा ने इस्राएलियों को सब्त का पालन करना, अपने माता-पिता का आदर करना और दूसरों के साथ शांतिपूर्वक रहना सिखाया। चूँकि उस समय के मनुष्य नहीं समझते थे कि किस चीज ने मनुष्य को बनाया था, न ही वह समझते थे कि पृथ्वी पर किस प्रकार रहना है, इसलिए कार्य के प्रथम चरण में मनुष्य की ज़िन्दगियों में उनकी अगुवाई करना परमेश्वर के लिए आवश्यक था। वह सब कुछ जो यहोवा ने उनसे कहा था उसे इससे पहले मानवजाति को ज्ञात नहीं करवाया गया था या उनके अधिकार में नहीं था। उस समय भविष्यवाणियों को कहने के लिए अनेक भविष्यद्वक्ताओं को खड़ा किया गया था, सभी को यहोवा की अगुवाई के अधीन बनाया गया था। यह कार्य का मात्र एक भाग था। प्रथम चरण में, परमेश्वर देह नहीं बना था, अतः वह भविष्यद्वक्ताओं के माध्यम से सभी कबीलों और जातियों से बात करता था। जब यीशु ने उस समय अपना कार्य किया, तब उसने इतनी बातें नहीं की जितनी आज के दिन हैं। अंत के दिनों में वचन के इस कार्य को युगों और पिछली पीढ़ियों में कभी नहीं किया गया था। यद्यपि यशायाह, दानिय्येल और यूहन्ना ने बहुत सी भविष्यवाणियाँ की थी, फिर भी ऐसी भविष्यवाणियाँ उन वचनों से बिलकुल अलग हैं जिन्हें अब बोला जाता है। उन्होंने जो कुछ कहा था वे केवल भविष्यवाणियाँ थीं, किन्तु आज के वचन नहीं हैं। यदि आज जो कुछ मैंने कहा है मैं उसे भविष्यवाणियों में बदल दूँ, तो क्या तुम लोग समझने में समर्थ होगे? यदि मैं भविष्य के लिए मुद्दों की बात करूँ, ऐसे मुद्दे जो मेरे जाने के बाद होंगे, तो तुम समझ कैसे प्राप्त कर सकते हो? वचन के कार्य को यीशु के समय में या व्यवस्था के युग में कभी नहीं किया गया था। कदाचित् कुछ लोग कह सकते हैं, "क्या यहोवा ने भी अपने कार्य के समय में वचनों को नहीं कहा था? बीमारियों की चंगा करने, दुष्टात्माओं को निकालने और चिन्ह एवं अद्भुत कामों को करने के अतिरिक्त, क्या यीशु ने भी उस समय वचनों को नहीं कहा था?" वचन कैसे बोले जाते हैं इनमें अन्तर हैं। यहोवा के द्वारा कहे गए वचनों का सार क्या था? वह केवल पृथ्वी पर मनुष्य की उनकी ज़िन्दगियों में अगुवाई कर रहा था, जिसे जीवन में आध्यात्मिक मामलों के साथ शामिल नहीं किया गया था। ऐसा क्यों कहा जाता है कि यहोवा के वचनों की घोषणा सभी स्थानों में की गई थी? "घोषणा" शब्द स्पष्ट व्याख्याओं को करने और सीधे निर्देश देने की ओर संकेत करता है। उसने जीवन के साथ मनुष्य की आपूर्ति नहीं की; बल्कि इसके बजाए, उसने बस मनुष्य का हाथ पकड़ा था और मनुष्य को अपना आदर करना सिखाया। वहाँ कोई दृष्टांत नहीं थे। इस्राएल में यहोवा का कार्य मनुष्य से व्यवहार करना या उसे अनुशासित करना या न्याय करना और ताड़ना देना नहीं था; यह अगुवाई करने के लिए था। यहोवा ने मूसा से कहा कि उसके लोगों से कहे कि वे जंगल में मन्ना इकट्ठा करें। प्रतिदिन सूर्योदय से पहले, उन्हें मन्ना इकट्ठा करना था, केवल इतना कि उसे उसी दिन ही खाया जा सके। मन्ना को अगले दिन के लिए नहीं रखा जा सकता था, क्योंकि तब उसमें फफूँद लग जाता। उसने मनुष्य को नहीं सिखाया था या उनके स्वभावों को प्रकट नहीं किया था, और उसने उनकी राय और विचारों को प्रकट नहीं किया था। उसने मनुष्य को बदला नहीं था परन्तु उनकी ज़िन्दगियों में उनकी अगुवाई की थी। उस समय, मनुष्य एक बालक के समान था; मनुष्य कुछ नहीं समझता था और केवल कुछ मूलभूत यांत्रिक गतिविधियाँ ही कर सकता था; इसलिए, यहोवा ने केवल लोगों की अगुवाई करने के लिए व्यवस्थाओं का आदेश दिया। यदि तुम सुसमाचार फैलाना चाहते हो ताकि सभी लोग जो सच्चे हृदय से खोजते हैं वे उस कार्य का ज्ञान प्राप्त कर सकें जिसे आज किया गया है और पूरी तरह से आश्वस्त हो सकें, तब तुम्हें प्रत्येक चरण में किए गए कार्य के भीतर की कहानी, उसके सार और महत्व को अवश्य समझना चाहिए। तुम्हारे वार्तालाप को सुनने के द्वारा, वे यहोवा के कार्य और यीशु के कार्य को और, इसके अतिरिक्त, उस समस्त कार्य को जिसे आज के दिन किया जा रहा है, और साथ ही कार्य के तीन चरणों के बीच के सम्बन्धों एवं भिन्नताओं को समझ सकते हैं, ताकि, उनके सुनने के पश्चात्, वे देख लेंगे कि तीनों चरणों में से कोई भी चरण अन्य चरणों में विघ्न नहीं डालता है। वास्तव में, सब कुछ एकही आत्मा के द्वारा किया गया है। यद्यपि उन्होंने अलग-अलग युगों में अलग-अलग कार्य किए और ऐसे वचन कहे जो असमान थे, फिर भी वे सिद्धान्त जिनके द्वारा उन्होंने कार्य किया वे एक समान थे। ये वे सबसे बड़े दर्शन हैं जिन्हें सब लोगों को समझना चाहिए।
वचन देह में प्रकट होता है में "देहधारण का रहस्य (4)" से
स्रोत:सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया-सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचन
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